भारत को ‘विश्वगुरु’ नहीं बल्कि हर देश के बराबर बनाना चाहते थे नेहरू
वर्तमान समय मे जिस प्रकार से सोशल मीडिया के माध्यम से भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के चरित्र-हनन का विषाक्त अभियान चलाया जा रहा है। उन्हें ‘अभारतीय’ साबित किया जा रहा है। औपचारिक और अनौपचारिक मीडिया को इसके लिए औजार की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। लेकिन नेहरू ऐसी शख्सियत थे जिन्हें न केवल भारतीय सभ्यता, संस्कृति की अद्भुत समझ थी बल्कि उन्होंने इसे ही आधुनिक भारत की बुनियाद बनाया और भारत का वैश्विक आचार-विचार कैसा हो, यह भी उन्हीं भारतीय मूल्यों के अनुसार तय किया। भारत के निर्माण में नेहरू के योगदान की अगर हम बात करे तो वह किसी से छुपी नहीं है। इसके लिए हमे नेहरू की अपनी लिखी किताबों से ही शुरू करना चाहिए।
हिन्दू संस्कृति सहित भारतीय संस्कृति और इतिहास के बारे में बताने वाली नेहरू की ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ से बेहतर कोई किताब नहीं। इससे नेहरू की सोच का न्दजा लगाया जा सकता है। यह किताब उन्होंने तब लिखी जब वह अहमदनगर फोर्ट जेल में थे। नेहरू मेमोरियल म्यूजियम एंड लाइब्रेरी में इसकी पांडुलिपि रखी है, इसे जाकर देखना चाहिए। उनकी आत्मकथा पढ़िए जिसमें वह गांधीजी से लगातार बहस करते दिखते हैं। इससे पता चलता है कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के केंद्र में रहे लोग किस तरह असहमतियों पर बहस, बात-विचार करते हुए सहमति बनाते थे। इसके साथ ही ‘ग्लिम्प्सेज ऑफ वर्ल्ड हिस्ट्री’ पढ़ें, ये तीनों ही क्लासिक किताबें हैं।
जवाहरलाल नेहरू को सबसे पहले तो एक स्वतंत्रता सेनानी के रूप में हम सभी को देखना चाहिए। भारत को आजादी दिलाने मे उनका भी एक महत्वपूर्ण योगदान रहा है, साथ ही यह भी नहीं भूलना चाहिए कि प्रधानमंत्री बनने से पहले वह तीस साल तक लोगों को एकजुट करने में लगे रहे। उन तीस सालों में से उनके नौ साल जेल में बीते। वह गांधी जी के बाद सरदार पटेल, मौलाना आजाद, राजेंद्र प्रसाद, आचार्य कृपलानी जैसे बड़े स्वतंत्रता सेनानियों में शुमार थे। अगर हम इतिहास में थोड़ा पीछे जाएं तो दादाभाई नौरोजी, गोपाल कृष्ण गोखले जैसे इतने स्वतंत्रता सेनानियों के नाम आएंगे जिनका जिक्र करना भी मुश्किल होगा।
लेकिन यह बात याद रखनी होगी कि इन नामों में नेहरू भी एक थे। दूसरे, हमें उन्हें स्वतंत्र भारतीय गणराज्य के संस्थापक और आधुनिक भारत के रचनाकार के तौर पर याद रखना चाहिए। आजादी के चंद माह बाद ही गांधीजी नहीं रहे और फिर कुछ बरसों के भीतर सरदार पटेल का भी निधन हो गया और तब नए भारत के निर्माण में नेहरू की भूमिका और उनकी जिम्मेदारी कहीं अधिक हो गई। निश्चित रूप से उनका साथ एक योग्य मंत्रिमंडल ने दिया जिसमें हर क्षेत्र के प्रतिभाशाली लोग थे। इनमें से कुछ स्वतंत्रता सेनानी थे, तो सीडी देशमुख और जॉन मथाई जैसे अपने फन के माहिर बुद्धिजीवी भी।
नेहरू भारत को किसी से बेहतर या दुनिया का ‘गुरु’ बनाना नहीं बल्कि हर देश के बराबर बनाना चाहते थे। नेहरू का विश्वास दूसरों से बेहतर या बड़ा बनने में नहीं था। हर देश की अपनी विशेष सभ्यता और संस्कृति थी, कुछ तो भारत जितनी ही प्राचीन थी।
भारत का व्यवहार नैतिक सिद्धांत आधारित होता था, जिसे नेहरू ने गांधी से लिया था। दूसरा, शांति और अहिंसा में विश्वास। जब भारत ने आजादी पाई, दुनिया दूसरे विश्व युद्ध से उबर रहा था। अकेले सोवियत संघ में 2 करोड़ लोग मारे जा चुके थे। यूरोप तहस-नहस हो चुका था। दुनिया दो ध्रुवों में बंट चुकी थी। नेहरू का मानना था कि भारत को इनमें से किसी का हिस्सा नहीं बनना चाहिए बल्कि संघर्ष को खत्म करने की कोशिश करनी चाहिए और हाल में औपनिवेशिक राज से आजाद हुए देशों की अगुवाई करनी चाहिए। इसी के तहत गुटनिरपेक्ष आंदोलन की नींव पड़ी। संक्षेप में कहें तो भारत को तब ऐसे देश के तौर पर देखा जाता था जो वैश्विक मामलों पर नैतिक आधार पर फैसले लेता था। लेकिन वह स्थिति अब नहीं रही।
कश्मीर हो या चीन, बेशक उस पर कोई फैसला लेना कितना भी मुश्किल रहा हो, उनके लिए आलोचना करना एक बात है, लेकिन सोशल मीडिया पर फैलाए जा रहे सरासर झूठ के बारे में आप क्या कहेंगे? यह सिद्ध करने के लिए कि वह व्यभिचारी थे, उन लोगों ने इतिहास के अलग-अलग समय की नेहरू की उनकी भतीजी, बहन के साथ तस्वीरों को इस्तेमाल किया, यह भयावह है। नेहरू को एक पश्चिमी, व्यभिचारी, ‘भारतीयता’ इत्यादि से बेपरवाह व्यक्ति के तौर पर पेश करने के शातिराना एजेंडे के तहत इस तरह का झूठ फैलाया गया। लेकिन वैदिक काल, वेद और उपनिषद समेत भारतीय संस्कृति और इतिहास के बारे में उनका ज्ञान कितना गहरा था, यह जानने के लिए उनकी ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ को पढ़ लेना ही काफी होगा। इतिहासकारों ने भी दावे के साथ कहा है कि आधुनिक कालखंड में कोई और नेता उनके ज्ञान की बराबरी नहीं कर सकता।
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नेहरू का मानना था कि आर्थिक आजादी पाने के लिए सरकार को भारी उद्योग में निवेश करना होगा ताकि मशीनरी के लिए हमें बड़े देशों पर निर्भर नहीं रहना पड़े। उनका यह भी मानना था कि महत्वपूर्ण क्षेत्र सरकार के पास ही रहें क्योंकि निजी क्षेत्र के पास उतना खर्च करने का पैसा नहीं था। परमाणु ऊर्जा, अंतरिक्ष से लेकर मेडिकल रिसर्च पर ही उन्होंने जोर नहीं दिया बल्कि फिल्म, कला, संस्कृति जैसे क्षेत्रों को भी अहमियत दी जिसकी वजह से साहित्य अकादमी, एनएसडी, एफटीआईआई, आईआईटी, आईआईएम जैसे संस्थान खुले। इन सबने एक ऐसे भारत की आधारशिला रखी जो न केवल एक औद्योगिक देश था बल्कि एक सॉफ्ट पावर भी था।
यह महत्वपूर्ण नहीं है कि उन्होंने भारत की बुनियाद रखी बल्कि यह है कि उन्होंने यह काम कैसे किया। वह लोकतांत्रिक तरीके के प्रति प्रतिबद्ध थे और वह इस बात के पक्षधर थे कि बेशक रफ्तार कम हो लेकिन कोई भी पीछे नहीं छूट जाए। वह अपनी पार्टी और मंत्रियों ही नहीं बल्कि विपक्षी नेताओं के साथ भी आम सहमति बनाते थे। आज की तरह नहीं कि जो मन चाहा किया क्योंकि आपके पास 300 से ज्यादा सांसद हैं। इस साल 2021 में भारत अपना 75वाँ स्वतंत्रता दिवस मनाएगा तब आजाद भारत के आजाद नागरिक होने के नाते आपको क्या लगता है, देश को उन्हे कैसे याद करना चाहिए?