लोकतंत्र

भारतीय राजनीति की प्रकृति

 

भारतीय राजनीति की प्रकृति को समझने के लिए 75 वर्ष कम नहीं होते। किसी भी राज्य के लिए यह अन्तराल बहुत मायने रखता है। भारतीय राजनीति के पहले पड़ाव को सामूहिकता की नैतिकता (1947-1967) कहा जा सकता है। इस दौर में साम्राज्यवाद के खिलाफ सामूहिकता का जन्म हुआ। इसी दौर में एक तरह के नागरिक समाज की कल्पना भी की जा रही थी जिसमें अधिकारों (खास तौर पर मौलिक अधिकारों) को लेकर बहुत ही सारगर्भित चर्चा हुई और राजनीतिक वर्ग की इस मुद्दे पर जिम्मेदारी भी तय हुई। भारत में कल्याणकारी राज्य की अवधारणा भी इस विमर्श से निकला था। वर्ग के सवाल पर इस दौर में लगभग सन्नाटा छाया रहा और वर्गीय अंतर्विरोध जैसे मुद्दे को ठन्डे बस्ते में ही डाल दिया गया।

राजनीति ने वर्ग के मुद्दे को रेटोरिक से ज्यादा महत्त्व नहीं दिया। कुछ हद तक श्रमिक कानूनों का सृजन हुआ और कल्याणकारी कदम भी उठाये गये लेकिन सम्पत्ति अधिकार और लैंड रिफार्म वाले सबसे महत्त्वपूर्ण मुद्दे कभी भी भारतीय राज्य की प्राथमिकता नहीं बन पाये। अस्मिता के मुद्दे पर एक विचित्र स्थिति पैदा हुई। सार्वजनिक जीवन में जाति, धर्म , लिंग और भाषा के आधार को संसाधनों के वितरण में महत्त्वपूर्ण नहीं माना गया। संविधान के द्वारा कानूनी तौर पर अस्मिता के आधार पर किसी भी तरह के शोषण और भेदभाव को नाकारा गया और प्रतिबंधित किया गया। लेकिन इसका मतलब सिर्फ ‘सार्वजनिक’ जीवन में अस्मिता की अनुपस्थिति से लिया गया।

संवैधानिक तौर पर रोक को ही अस्मिता आधारित भेदभाव को ख़त्म मान लिया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि  निजी जीवन के सारे सामाजिक सम्बन्ध इस क़ानूनी प्रावधान से बच गये। अस्मिता में सबसे महत्त्वपूर्ण कड़ी इसके द्वारा जनित और संचालित सामाजिक बंधन और नियम ही हैं। अस्मिता को सार्वजनिक जीवन से दूर रखने को ही सबसे बड़ी कामयाबी माना गया। दूसरे शब्दों में , जाति और लिंग आधारित शोषणों से लड़ने को लेकर बहुत कामयाबी नहीं मिल पाई। यह दौर साम्प्रदायिकता को लेकर काफी सजग था। यहाँ पर धर्म आधारित कानूनों कि जगह मौलिक अधिकारों और नागरिक समाज कि कल्पना को ज्यादा महत्वा दिया गया।

भारतीय राजनीति के दुसरे पड़ाव को केंद्रीय और विकेन्द्रीयकरण (1967-1985) का दौर कहा जा सकता है। यही वही दौर हैं जिसमे सामूहिकता की नैतिकता टूटती हुई प्रतीत होती हैं। केंद्र में केन्द्रीकरण की राजनीति कि शुरुआत हो चुकी हैं। केंद्र जिनता केन्द्रिकीत होगा, भारत की राजनीति का उतनी ही तेजी से केन्द्रीकरण होगा। लेकिंग इसी दौर में राज्यों के तरफ से भी वैकल्पिक आवाज उठनी शुरू हो चुकी थी। इसी दौर में, वर्ग के प्रश्न कि अनपेक्षित वापसी होती है। बैंकों और शिप कारपोरेशन के निजीकरण के साथ -साथ जमींदारों के विशेष अधिकार ख़त्म कर दिए गये।

यह कदम महत्त्वपूर्ण तो थे लेकिंग ढांचागत परिवर्तन लाने के वजाए, सिफ लोकलुभानवाद ही साबित हुए जिसमें गरीबी हटाओ का नारा बहुत ही पुरुजोर तरीके से उठाया गया। इस दौर में भी ‘ सरप्लस’ और गरीबी में कोई कमी नहीं आई। ‘लाइसेंस-परमिट राज’ का उदय बड़े पूंजीपतियों का खुद को मध्य क्रम के उद्योगों की प्रतिद्वंदिता से बचाने का ही नतीजा था।  अस्मिता के आधार पर भेदभाव को संवैधानिक तौर पर मनाही तो थी लेकिन जमीनी स्तर पर जाति पर आधारित हिंसा और महिलायों के प्रति भेदभाव में कोई कमी नहीं आई थी। यह वही दौर हैं जिसमें हम हिंदुत्व के उभार के तौर पर राजनीति में धर्म कि वापसी को देखते हैं। सेकुलरवाद कि राजनीति की पकड़ यहाँ से से कमजोर होन शरू होती हैं जिसको अंतिम धक्का भारतीय पूंजीपतियों का सेकुलरवाद से अलग कर लेने से भी था।

तीसरा पड़ाव को राजनीति और गवर्नेंस (1985-1998) के तौर पैर देखा जा सकता हैं। गवर्नेंस से आशय यहाँ पर उदारीकरण की नीति अपनाने से हैं। राजनीतिक तौर पर सरकार अभी भी राज्य कि सबसे महत्त्वपूर्ण संस्था रहने वाली हैं। लेकिन सरकार अब ‘प्रक्रिया’ को दुरुस्त और कानून- व्यवस्था को ठीक रखने वाली संस्था के रूप में खुद को तैयार करती है। वैश्विक तौर पर उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण ने सरकारों को आप जन से खास तौर पर कल्याणकारी कार्यो से बहुत ही दूर कर दिया है। वैश्विक तौर पर इसको थैचरिज्म – रिगनिज्म के तौर पर जाना जाता हैं। गवर्नेंस के मॉडल में राजनीति को दरकिनार करते हुए ‘तकनीकीकरण’ पर बहुत ही जोर दिया जाता है। दूरसंचार, पानी, साक्षरता , प्रतिरक्षण , दुग्ध और तिलहन के क्षेत्रो में तकनीकि के माध्यम से इनमें आमूल चुल परिवर्तन लाने कि नीति अपनाई गयी। इकॉनोमिक एडमिनिस्ट्रेटिव रिफॉर्म्स कमीशन (1983) की 37 रिपोर्ट्स सरकार कि गतिबिधियों में भारी कमी लाने का सुझाव देती हैं। यही से हम गवर्नमेंट से गवर्नेंस बनने की प्रक्रिया देख सकते हैं।

विश्व बैंक और अन्तराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने वैश्विक तौर पर गवर्नेंस को लेकर नीतियाँ बनायीं जो पूंजीवादी मॉडल के द्वारा समर्थित रहा हैं। विश्व बैंक द्वारा प्रकाशित महत्त्वपूर्ण रिपोर्ट्स में सब- सहारन अफ्रीका , फ्रॉम क्राइसेस टू सस्टेनेबल ग्रोथ रूट लॉन्ग टर्म पर्सपेक्टिव स्टडी, गवर्नेंस एंड डेवलपमेंट (1992) , और गवर्नेंस -द-वर्ल्ड बैंक एक्सपीरियंस (1994) मुख्य रही हैं। भारत में इसको डी-लाइसेंसिंग के तौर पर अपनाते हुए चालाकी से इसको रिफार्म कहते हुए सरकार के रिट्रीट से जोड़ दिया गया। इसी दौर से वर्ग पर आधारित असमानता को स्वाभाविक मानते हुए सरकारी नीतियाँ बनायीं जाने लगी।

अस्मिता के माध्यम से हो रहे शोषण को करीब करीब ख़ारिज करते हुए धर्म के नाम पर राजनीति प्रमुख हो गयी।  इसी दौर में अस्मिता को अस्मिता से काटने (शाहबानो प्रकरण और बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाना ) का विकल्प बनाये जाने लगा। धर्म के आधार को लेकर हुई लामबंदी के स्वरुप ही भारतीय राजनीति नया मोड लिया जिसमें अस्मिता को धार्मिक अस्मिता में परिवर्तित होते हुये देखा गया। अस्मिता अब धार्मिक अस्तित्व है । उदारीकरण की शुरुआत और सेकुलरवाद का हासियें पर चले जाना मात्र संयोंग नहीं हैं।

चौथे पड़ाव को गवर्नेंस और अस्मिता (1998 के तदुपरांत) के दौर को तौर पर देख सकते हैं।  उदारीकरण, निजीकरण और भुमंडलीकरण के दौर ने हिंदुत्व की राजनीति को असाधारण रूप से मजबूत ही किया है। कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो यह दौर ‘पॉलिटिकल राईट’ के मजबूती का दौर हैं । इस दौर में गवर्नेंस मॉडल और अस्मिता मॉडल (जिसको सिर्फ एथनिक मनाने की कान्सैप्टुयल गलती नहीं करना चाहिए) एक साथ न एक दुसरे को समर्थन करते हैं बल्कि करीब करीब जुड़ जाते हैं। ‘ मिनिमम गवर्नमेंट और मैक्सिमम गवर्नेंस’ का स्लोगन सेंट्रिस्ट पॉलिटिकल से निकल कर पॉलिटिकल राईट का प्रिय स्लोगन बन जाता हैं जिसको बहुत ही बड़े माध्यम वर्ग की सहमती प्राप्त होती हैं। यह सहमती अस्मितावादी राजनीति के लिए भी होती हैं। राज्य की उपस्थिति पूंजी के लिए ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो जाती हैं जिसमें सामान्य जन को राज्य के कल्याणकारी परिकल्पना के बाहर सोचना होता है। अस्मितावादी राजनीति को ‘राष्ट्रीय पहचान’ का हिस्सा बना दिया जाता हैं और इसको विरोध को हर स्तर पर सार्वजनिक और राजनीतिक तौर पर अस्वीकार्य कर दिया जाता हैं। इस दौर में वर्ग , अस्मिता और सेकुलरवाद के मुद्दे को करीब-करीब परिभाषित की जाती हैं। वर्ग आधारित शोषण को मेरिट से जोड़ दिया जाता हैं। अस्मिता आधारित शोषण को अस्मिता आधारित राजनीति और धर्म से जोड़ दिया जाता है। इस मॉडल में पूंजी और धर्म चुनावी राजनीति में बहुत ही महत्त्वपूर्ण बन जाते है । सामान्यीकरण कि नीति अपनाते हुए जाति और लिंग आधारित शोषण को अपवाद करार दिया जाता है।  

आन्दोलनों का महत्त्व

सामान्य तौर पर सामाजिक आंदोलनों को राजनीतिक आंदोलनों से पृथक ही रखा गया है। लेकिन भारतीय लोकतंत्र में सामाजिक आंदोलनों का बहुत ही महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। आन्दोलन न केवल सरकार की नीति से लोगो को जोड़ते है बल्कि सामाजिक परिवर्तन के लिए बहुत ही जरूरी भूमिका प्रदान करते हैं। भारतीय राजनीति के 75 साल में सामाजिक आंदोलनो ने कम से कम पांच तरह से मुख्य भूमिका निभाए हैं। पहला, शोषण सार्वजनिक विमर्श का हिस्सा हैं। शोषण को सार्वजनिक विमर्श का हिस्सा बनाने से शोषण के खिलाफ आम सहमती बनती दिखाई देती है। दूसरा, शोषणों को लेकर जनांदोलन चलाना। सामाजिक आंदोलनों ने जनांदोलनों को बहुत ही ऊँचाई पर पहुचाया हैं। तीसरा, शोषणों के खिलाफ एपिस्टेमिक कम्युनिटी का भी निर्माण किया जाता हैं जो यह देख सके कि शोषण भी एक स्वरूप में नहीं रहता है और उसका रूप बदलता रहता हैं। चौथा, सामाजिक आन्दोलन एक्टिव – एजेंसी का सृजन करता हैं जो deliberative डेमोक्रेसी के लिए बहुत ही उपयोगी होता हैं। एक्टिव एजेंसी का अर्थ नागरिको को खुद के अधिकार और शोषण के खिलाफ संघर्ष में लगातार स्वयं की संघर्षों में भागीदारी से हैं। पांचवां, सामाजिक आन्दोलन भविष्य का भी सृजन करते हैं। सामाजिक आंदोलन , राजनीतिक वर्ग को भविष्य किस तरह का हो उसके लिए आवश्यक ‘ यूटोपिया’ प्रदान करते हैं, नहीं तो इसकी कल्पना करना मुश्किल हो जाता हैं।

लोकतंत्र के पूंजी और अस्मिताविद पड़ाव ने भी सामाजिक आंदोलनों को खास तौर पर दो तरह से प्रभावित किया हैं। पहला, सामाजिक आन्दोलन जिसमें परिवर्तन को लेकर एक खास स्वप्न होता हैं उसकी जगह कुछ ‘ छणिक कर्योक्रमों ‘ ने ली हैं। इसको हम मूवमेंट्स से मोमेंट का ट्रांसफॉर्मेशन कह सकते हैं।  अब ढाचागत परिवर्तन की जगह महज कुछ एडजस्टमेंट या लोकलुभावन मुद्दों ने ले ली है। दूसरे शब्दों में, भारतीय लोकतन्त्र में सामाजिक आन्दोलन की जगह ‘ पोपुलिज्म’ ने अपना अच्छा खास स्थान बना लिया है। पोपुलिज्म से परिवर्तन होना मुमकिन नहीं है क्योंकि इसमें क्षणिक सामाजिक या राजनीति उत्तेजना के आलावा कुछ भी नहीं होता है। दूसरा, सामाजिक आन्दोलनों की जगह राजनीतिक आंदोलनों ने ले ली है। दूसरे शब्दों में , जहा ‘ सामाजिक’ को राजनीति निर्धारित करनी चाहिए था वह पर राजनीति ही ‘ सामाजिक’ को निर्धारित कर रही हैं। इसका सबसे बड़ा नुकसान आन्दोलनो के ऑटोनोमी के खात्में के साथ – साथ परिवर्तन के यूटोपिया को भी स्थगित करने के जैसा हैं।

अंत में

भारतीय राजनीति को गवर्नेंस और अस्मिता के मॉडल के आगे जाने के लिए राजनीति में सामाजिक आंदोलनों को बहुत ही महत्त्वपूर्ण बनाना होगा जहा पर उनकी अग्रिम भूमिका सामाजिक परिवर्तन को सार्वजनिक विमर्श बनाने में बहुत ही महत्त्वपूर्ण रहती है। आधुनिक मानव के लिए सामाजिक परिवर्तन का सामूहिक विमर्श ही उसके अस्तित्व का सार हैं। 

सन्दर्भ

धनंजय राय (2016)। स्वातन्त्रोयोत्तर भारतीय राजनीति। नयी दिल्ली: अनन्य प्रकाशन

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धनंजय राय

लेखक केन्द्रीय विश्वविद्यालय, गुजरात में प्राध्यापक हैं। सम्पर्क +919811443193, dhannjayrai@gmail.com
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