जमीन समतल करने का आह्वान करनेवाले अटल बिहारी वाजपेयी को भारतीय राजनीति के उदार चेहरे के रूप में स्थापित करने की आकुलता के दौर में जहां धर्मनिरपेक्ष देश को हिन्दू राष्ट्र में तब्दील करने की जबरन कोशिश की जा रही है, वैसे में सामाजिक फ़ासीवाद से जूझने का जीवट रखने वाले मक़बूल जननेता लालू प्रसाद कभी अप्रासंगिक नहीं हो सकते। उनके लिबरेटिव रोल पर ख़बरनवीसों ने बहुत कम कलम चलाई है। पर एक दिन इतिहास उनका सही मूल्यांकन करेगा। ताज़ा फ़ैसले इस बात की ताकीद करते हैं कि जब तक जुडिसरी में आरक्षण नहीं होगा, आंख मूंदकर भरोसा नहीं किया जा सकता। क़ानून का सेलेक्टिव इस्तेमाल हो रहा है। पहली बार जॉनाथन स्विफ़्ट ने न्याय की अन्यापूर्ण व्यवस्था पर ठीक ही चोट किया था –
“Laws are like cobwebs which may catch small flies, but let wasps and hornets break through.”
थोड़ा पीछे चलते हैं। लालू प्रसाद, उनकी मीडिया-निर्मित छवि और उनके दल के बारे में सारी जानकारी के साथनीतीश ने गठबंधन किया था। उन्हें कहीं से अंधेरे में नहीं रखा गया था। ये भी सच है कि इन तमाम कार्रवाइयों का सारा मसाला उन्होंने गुपचुप तरीक़े से मुहैया करवाया। बात-बात पर नैतिकता का राग अलाप कर असल मुद्दे से ध्यान भटकाने वाले नीतीश कुमार को दूर बैठकर बंद कमरे में मज़े लेने की पुरानी लत है। यह अकारण नहीं कि तेजप्रताप को छोड़कर तेजस्वी निशाने पर हैं, क्योंकि वे भलीभांति जानते हैं कि भविष्य में उनके लिए कोई चुनौती पेश करेगा तो वह शख़्स तेजस्वी है, तेजप्रताप नहीं। नीतीश जी अपनी छवि ज़ेब में रखे रहते हैं, भले सिद्धांत बंगाल की खाड़ी में विसर्जित हो जाए। तमाम संभावनाओं के बावजूद अपनी चिरकुटई के चलते वे बस मुख्यमंत्री बनके ही रह गए। वहीं जिनके पैर शूद्रों और दलितों को ठोकर मारते थे, उनके दर्प को तोड़ने का काम लालू प्रसाद ने किया। पलटने में माहिर नीतीश कुमार तक ने इसी साल कहा, “लालूजी का जीवन संघर्ष से भरा है। वे जिस तरह के बैकग्राउंड से निकलकर आए हैं और जिस ऊंचाई को हासिल किया है, वह बहुत बड़ी बात है”।
यह सर्वविदित है कि लालू-विरोध ही नीतीश कुमार की यूएसपी रही है। मगर भूलना नहीं चाहिए सुशासन बाबू को कि बिहार उड़ती चिड़िया को हल्दी लगाता है। इस बार बढ़िया से चिन्हा गए हैं वे जनता की नज़र में। अब लोग रामविलास पासवान की उतनी तीखी आलोचना नहीं करते जितनी नीतीश की धोखाधड़ी की। मीडिया में तमाम लानतमलानत के बावजूद लालू का वोटर टस से मस नहीं हुआ है। इसलिए नहीं कि नके तमाम समर्थक येन-केन-प्रकारेण धनार्जन के पक्षधर हैं, बल्कि इसलिए कि उन्हें मालूम है कि यह बदल की राजनैतिक कार्रवाई है। गिनचुन कर निशाना बनाया जा रहा है, ये वो समझते हैं, और शायद इसीलिए वे और मज़बूती से लालू के पक्ष में गोलबंद होंगे। बेनामी संपत्ति पर हमला बोलना है, तो हो जाए प्रधानमंत्री, मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों, सांसदों, विधायकों, विधानपार्षदों, पार्टी अध्यक्षों की यत्र-तत्र-सर्वत्र बिखरी जायदादों की क़ायदे से जाँच। हफ़्ता नहीं लगेगा कि कितने सूबों की सरकारें चली जाएंगी, महीने भर के अंदर लोकसभा गिर जाएगी।
संवादपालिका की चयनित प्रश्नाकुलता और न्यायपालिका की टिप्पणी एक स्वस्थ लोकतंत्र की परंपरा को तो कम-से-कम आगे नहीं बढ़ा रहा है। अगर ठंड से बचने का उपाय तबला बजाना है तो उस लोकस की तहकीकात करनी पड़ेगी जहाँ से न्यायपालिका की गरिमा को गिराने वाली टिप्पणी आ रही है। अगर किसी की सामाजिक पृष्ठभूमि के चलते यह कहा जाए कि इन्हें खुली जेल में रखा जाए क्योंकि इन्हें गाय-भैंस चराने का अनुभव है, तो यह मानव मर्यादा के सर्वथा प्रतिकूल है। फिर तो किसी ब्राह्मण के लिए ऐसी जेल का निर्माण कराना होगा जहाँ शादीब्याह, पंडिताई, पुरोहिताई, मुंडन, हवन वगैरह करने का इंतजाम हो। मने, कोई नाई जाति का है तो वो जेल के अंदर सैलून में जाके हजामत का काम करे। लोहार है, तो लोहा पीटे। कोयरी है तो, वहाँ सब्ज़ी उगाए, कुम्हार है तो, चाक चलाए। फिर तो आशाराम की प्रकृति, शौक़ व निपुणता का भी ख़याल करना होगा। वैसे आपको जानकर हैरानी नहीं होनी चाहिए कि एक पूर्व मुख्य न्यायधीश व राज्यपाल कोर्ट के अंदर आसाराम के चरणों में मुक्तिमंगल की इच्छा लिए लोटतोपोटते नज़र आए। यह सब मनुवादी न्यायव्यवस्था की पुनर्स्थापना की कवायद है।
बकौल अनिल जैन, “लालू प्रसाद को सज़ा सुनाते हुए न्यायाशन से की गई यह टिप्पणी न सिर्फ अवांछनीय है बल्कि स्पष्ट रूप से न्यायालयी और मानवीय गरिमा के विरुद्ध भी है। इस टिप्पणी से नस्लवाद और फर्जी जातीय श्रेष्ठता के दंभ की बू आती है। इस टिप्पणी से दो दिन पहले जेल में सर्दी ज्यादा लगने की लालू यादव की शिकायत पर ‘मी लार्ड’ ने फरमाया था कि सर्दी ज्यादा लगती है तो तबला बजाइए। यह टिप्पणी भी निहायत गैर जिम्मेदाराना और अमानवीय थी। अदालत का काम न्याय करना होता है लेकिन उपर्युक्त टिप्पणियां बताती हैं कि लालू प्रसाद के मामले में अदालत ने महज ‘फैसला’ सुनाया है”।
आजकल जो लोग क्रूर अट्टाहास कर वाचिक हिंसा कर रहे हैं और अलग-अलग स्वरूप में निरंतर भद्दा मज़ाक करते आए हैं, उन ‘पंचों’ से भोलेभाले लोग उम्मीद पाले बैठे हैं। न्यायपालिका अब जिसकी लाठी उसकी भैंस हो गई है।ख़बरपालिका के प्रति सारी धारणा बदल गई कि जो अख़बार में लिखा होगा, सही ही होगा।
वैसे ही, जो जजमेंट में लिखा होगा, सही ही होगा; का भ्रम भी लोगों का दरक रहा।और, ये दोनों ही स्थिति जम्हूरियत के लिए बेहदख़तरनाक है। पहली बार इस मुल्क में ऐसा हो रहा है कि देश के उच्चतम न्यायालय के न्यायधीश को प्रेस कॉन्फ्रेंस करने की नौबत आ रही है। इससे अंदाज़ लगाया जा सकता है कि वो किस आंतरिक दबाव में काम कर रहे हैं औऱ मामला कितना संगीन है। मुख्य न्यायधीश ख़ुद पर लगे आरोपों की जांच या सुनवाई ख़ुद कैसे कर सकते हैं, क़ानून के जानकार इस पर भी चिंतित हैं।
लालू ने कहा था कि 14 का चुनाव निर्णायक चुनाव है कि देश रहेगा कि टूटेगा! इ तs शुरूआत हईं,आगे–आगे देखS होखSता का… राजद ने लालू प्रसाद की स्लो प्वॉजन देकर हत्या की साज़िश का गंभीर आरोप मौजूदा सरकार पर लगाया है। अगर ऐसा कुछ भी होता है, तो किसी को अंदाज़ा नहीं है कि फिर क्या होगा?संभाल नहीं पाएंगे तिकड़मी लोग! ग़लत जगह हाथ डाल रहे हैं रायबहादुर!
बिहार के गाँव-जवार-दियारा के लोग कह रहे हैं –
ए भाई, लालू प्रसाद से बाक़ी कुछ भी करवा लो,
पर लालू से तबला मत बजवाओ,
क्योंकि
जब तबला बजेगा धिन-धिन
तs एगो पर बैठेगा तीन-तीन
जिस तरह से एक ही मुर्गा को बार-बार हलाल किया जा रहा है, उससे लगता है कि शुक्र है कि संविधान है, नहीं तो लालू को बीच चौराहे पर फांसी दे दी जाती और इतिहास लिखा जाता कि बड़ा ही अत्याचारी, दुराचारी, आततायी, व्यभिचारी, जुल्मी शासक था। और, आने वाली नस्लें वही पढ़तीं जो छपा होता। उसी को सच मानके वह पीढ़ी बैठ भी जाती कि सच में घिनौना आदमी होगा, ज़्यादती करता होगा तभी तो फांसी दी गई। न कोई सोशल मीडिया व अन्य प्लैटफॉर्म होता, न सच लिखा जाता। इसलिए, सदाक़त सामने आए, ख़ूब उभरकर आए। बोलने से ज़्यादा ज़रूरी है कि लिखो, ख़ूब लिखो, अनकही-अनसुनी-अनछुई बातों को भरपूर लिखो कि तुम्हारे न जाने कितने पहलू दबकर कोने में सिसकते रहेंगे। तुम्हारे बारे में कोई नहीं लिखेगा, और लिखेगा तो तुम्हें दुनिया का सबसे बड़ा आतंकी और दुश्चरित्र साबित करके छोड़ेगा।
जागो, जगाओ, सुषुप्त समाज में चेतना और रोशनी फैलाओ। याद है न, लालू ने क्या कहा था:
ओ गाय चराने वालो, भैंस चराने वालो,
बकरी चरानेवालो, भेड़ चराने वालो,
घोंघा बीछने वालो,
मूस (चूहे) के बिल से दाना निकालने वालो,
पढ़ना-लिखना सीखो, पढ़ना-लिखना सीखो।
आय से अधिक संपत्ति का मामला लालू 2010 में सुप्रीम कोर्ट से जीत चुके हैं। अब उन पर आरोप है कि वक़्त रहते उन्होंने इसका संज्ञान क्यूं नहीं लिया। जबकि वर्षों से चले आ रहे घोटाले में लालू ने ही जाँच के आदेश दिए। जो रवैया दिख रहा है, उससे लगता नहीं कि उन पर चल रहे केस निकट भविष्य में ख़त्म होने वाले हैं। इसलिए, ब्राह्मणवाद का सामाजिक विमर्श और उसकी न्याय व्यवस्था किस प्रकार सामाजिक न्याय के योद्धा लालू प्रसाद को ललुआ बना देती है और ठीक उसी तरह के आरोपी जगन्नाथ मिश्रा को जगन्नाथ बाबू बनाती है। ब्राह्मणवाद की न्याय प्रणाली के अन्यायों को रेखांकित किये जाने की ज़रूरत है। चारा घोटाले मामले में जांच के आदेश लालू प्रसाद ने दिए, राफेल डील में ऐसा ही आदेश देके मोदी जी दिखा दें, फालतू का 56 इंची मैसक्युलिनिटी वाली अश्लीलता व भोंडापन फैलाना ओछी राजनीति का द्योतक है। भागलपुर वि.वि. के अंग्रेज़ी के सेवानिवृत्त प्राध्यापक डॉ. मसऊद अहमद बिल्कुल सही कहते हैं:
चीरकर दिल क्या दिखाते उसको जिसके हाथ में
झूलती मीजान (तराजू) थी आँखों में बीनाई न थी।
लालू प्रसाद की तबीयत नासाज़ रहती है, हार्ट की सर्जरी हुई है, मधुमेह की बीमारी से जूझ रहे हैं। इसलिए जब उनके वकील ने सज़ा में रियायत की दलील दी तो जजमेंट के कुछ बिंदु दिलचस्प भी हैं औऱ हैरान करने वाले भी। उसमें कहा गया है कि लालू 24 घंटे एक्टिव रहते हैं, उन्होंने विपक्षी दलों की पटना में रैली की जिसमें संदेश गया कि उनकी पार्टी नेता है। इसे केंद्र और राज्य सरकार को अस्थिर करने की मुहिम के रूप में अदालत देख रही है।अब इस पर कोई हसे या अपना माथा पीटे! सुदर्शन फ़ाकिर ठीक ही कहते हैं:
मेरा क़ातिल ही मेरा मुंसिफ़ है
क्या मिरे हक़ में फ़ैसला देगा
जनता की याददाश्त कमज़ोर है, वह छलावे और बहकावे में आ जाती है। जिसके लिए उसका नेता करता है, वह भी सबकुछ भुलाकर पूछती है कि आख़िर किया ही क्या है?
जयंत जिज्ञासू
लेखक पत्रकार हैं.
jigyasu.jayant@gmail.com