बिहारराजनीतिसबलोग पत्रिका

राजग की वापसी में आधी आबादी की रही पूरी भागीदारी

बिहार की राजनीति में महिलाओं का उभार किसी आकस्मिक घटना का परिणाम नहीं है, बल्कि यह उस दीर्घकालिक सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन की अभिव्यक्ति है, जिसने पिछले डेढ़ दशक में राज्य को एक नये विकास-पथ पर खड़ा किया। आज यह निर्विवाद सत्य है कि बिहार विधान सभा चुनावों में निर्णायक शक्ति यदि किसी की है, तो वह ग्रामीण, कस्बाई और शहरी—हर स्तर की महिला मतदाता है।

ये वही महिलाएँ हैं जिनके भरोसे नीतीश सरकार ने अपनी राजनीतिक प्रासंगिकता भी बचायी और विकास मॉडल की वैधता भी सिद्ध की।  राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) की जीत को सीधे-सीधे ‘दस हजारी प्रत्यक्ष नकद सहायता योजना’ से जोड़ देना इस परिवर्तन की गहराई को समझने से इंकार करना है। यह सच है कि इस योजना ने महिलाओं के जीवन में तत्काल राहत और आर्थिक स्वायत्तता का अनुभव कराया, परन्तु यह केवल अन्तिम कड़ी है—उस लम्बे सिलसिले की, जिसने महिला सशक्तीकरण को बिहार में सामाजिक क्रान्ति में बदल दिया।

जब इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन की 2023 की रिपोर्ट बताती है कि 74% महिलाएँ खुद को आर्थिक निर्णयों में अधिक सक्षम महसूस करती हैं, तो यह केवल किसी योजना का परिणाम नहीं बल्कि एक बदली हुई सोच की तस्वीर है। इसी बदले हुए सामाजिक परिदृश्य में 3.5 करोड़ महिला मतदाता अब केवल मतदाता नहीं—बल्कि जनादेश का चरित्र तय करने वाली शक्ति हैं। 2025 में महिलाओं ने पुरुषों से 8.8% अधिक मतदान किया; 2020 के 167 विधानसभा क्षेत्रों में उनके मत प्रतिशत ने परिणामों की दिशा मोड़ दी थी। यह प्रवृत्ति दिखाती है कि महिलाएँ किसी भावनात्मक या तात्कालिक प्रलोभन से नहीं बल्कि अपने स्वानुभव और सामाजिक लाभों के आधार पर नेतृत्व का मूल्यांकन कर रही हैं।

यह बदलाव अचानक नहीं आया है। इसके पीछे दो दशकों से चल रहा सशक्तीकरण का सतत क्रम, सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तन और सुरक्षा-स्थिरता की स्थितियों के प्रति महिलाओं का भरोसा है, जिसकी बुनियाद नीतीश कुमार की नेतृत्वकारी नीतियों में निहित है।

2005 में सत्ता में आते ही नीतीश कुमार ने नारी सशक्तीकरण को केवल नारा नहीं रहने दिया, उसे ठोस योजनाओं और कड़ाई से लागू प्रशासनिक ढाँचे में रूपान्तरित किया। साइकिल योजना, पोशाक योजना, छात्रवृत्ति योजना और लड़कियों को उच्च शिक्षा की ओर प्रेरित करने वाली विभिन्न पहलों ने बिहार के स्कूल-कॉलेजों का पूरा दृश्य ही बदल दिया। एक शिक्षक के रूप में मैंने स्वयं इस परिवर्तन को प्रत्यक्ष देखा है। सरकार आने से पहले विद्यालयों और महाविद्यालयों में लड़कियों की उपस्थिति केवल 5-10 प्रतिशत हुआ करती थी। सड़कों पर अकेले आने-जाने में लड़कियों को जो भय और असुरक्षा महसूस होती थी, वह अभिभावकों को उन्हें घर की चारदीवारी में ही कैद रखने को मजबूर करता था। लेकिन कानून-व्यवस्था के कड़े नियमन और महिला सुरक्षा के प्रति प्रशासनिक सक्रियता ने स्थिति को बिल्कुल उलट दिया।

2005 से 2010 के बीच गाँवों की गलियों में स्कूल यूनिफॉर्म पहने साइकिलों पर उड़ान भरती बालिकाएँ जैसे किसी नये युग के आरम्भ का संकेत थीं। पहले वे समूह में निकलती थीं, फिर आत्मविश्वास बढ़ने पर अकेले भी रोज स्कूल- कॉलेज जाने लगीं। उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाली इन कन्याओं को सरकार ने इंटर और ग्रेजुएशन के बाद पच्चीस से पचास हजार तक की आर्थिक प्रोत्साहन राशि देकर न केवल पढ़ाई जारी रखने का साहस दिया, बल्कि उन्हें परिवार में बोझ नहीं, साझेदार मानने की सामाजिक चेतना भी विकसित की।

आज बिहार के अधिकांश सह-शिक्षा वाले कॉलेजों में लड़कियों की संख्या 70–80 प्रतिशत और कई स्थानों पर 90 प्रतिशत तक पहुँच चुकी है। प्रतियोगी परीक्षाओं में भी बिहार की बेटियाँ बार-बार अपनी प्रतिभा का परिचय दे रही हैं। यह वही पीढ़ी है जो साइकिल योजना से शुरू हुई यात्रा के बाद अब शिक्षित, आर्थिक रूप से सक्षम और सामाजिक रूप से आत्मनिर्भर हो चुकी है। यह वर्ग अब न केवल अपने मताधिकार के महत्व को समझता है बल्कि घर-परिवार के राजनीतिक निर्णयों को भी प्रभावित करने की क्षमता रखता है।

नारी सशक्तीकरण के इस क्रम को आगे बढ़ाने में पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं को 50 प्रतिशत आरक्षण देना एक ऐतिहासिक कदम साबित हुआ। शुरू में ‘मुखिया पति’ और ‘सरपंच पति’ जैसे तमाम तानों और उपहासों के बीच भी इन महिलाओं ने अपनी पहचान बनायी और पंचायतों में अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज करायी। धीरे-धीरे यह भूमिका औपचारिकता न रहकर वास्तविक नेतृत्व में बदल गयी। विकास योजनाओं के क्रियान्वयन में महिलाओं की भागीदारी ने यह साबित कर दिया कि शासन-प्रशासन के स्तर पर उन्हें शामिल करना केवल प्रतीकात्मक निर्णय नहीं बल्कि जमीन पर बदलाव लाने की एक कारगर रणनीति थी।

इसी कड़ी में शराबबन्दी का निर्णय विशेष उल्लेखनीय है। वर्षों तक पति या परिवार के पुरुष सदस्यों के शराब पीने से पीड़ित रही स्त्रियों के लिए यह फैसला किसी वरदान से कम नहीं था। यह अलग बात है कि प्रशासनिक भ्रष्टाचार ने शराबबन्दी को शत-प्रतिशत लागू नहीं होने दिया और ‘होम डिलीवरी मॉडल’ ने कानून की धज्जियाँ उड़ायीं, परन्तु इसके बावजूद घरेलू हिंसा, झगड़े, सड़क दुर्घटनाएँ और घर-परिवार का माहौल बिगाड़ने वाली तमाम घटनाओं में भारी कमी आयी। स्त्रियों के लिए यह राहत का बड़ा कारण था और उन्होंने इसे अपनी सुरक्षा और सम्मान से जोड़कर देखा। इसलिए आज भी शराबबन्दी पर सबसे ज़्यादा समर्थन गरीब और ग्रामीण महिलाओं का ही मिलता है।

केन्द्र और राज्य में राजग की सरकार होने का लाभ भी महिलाओं को लगातार मिलता रहा। उज्ज्वला गैस योजना से धुएँ भरे चूल्हे से मुक्ति, हर घर शौचालय से गरिमा की रक्षा, हर घर नल का जल योजना से घरेलू श्रम की राहत, मुफ्त राशन और पोषण से भोजन सम्बन्धी सुरक्षा—इन सबने गरीब महिलाओं की जिन्दगी में वास्तविक परिवर्तन लाया। कई महिलाएँ पहली बार सरकार को ‘अपने जीवन में प्रत्यक्ष हस्तक्षेप करती हुई ताकत’ के रूप में महसूस कर सकीं। यही कारण है कि वर्षों तक उपेक्षित और वोट बैंक की तरह इस्तेमाल की जाने वाली इस आबादी ने पहली बार अपने अनुभव पर आधारित राजनीतिक मत बनाया और उसे स्थायी समर्थन के रूप में राजग के साथ जोड़ा।

यह भी ध्यान देने की बात है कि जहाँ विपक्ष जातीय समीकरणों के पारम्परिक ढाँचे में उलझा रहा, वहीं राजग ने जाति से ऊपर उठकर महिलाओं, युवाओं, गरीबों और लाभार्थियों को एक बड़े सामाजिक समूह में लगातार संगठित किया। यह ‘लाभार्थी वर्ग’ अब एक स्थिर राजनीतिक समूह बन चुका है, जिसके केन्द्र में महिलाएँ हैं।

इस चुनाव में महिलाओं के बड़े पैमाने पर मतदान करने के पीछे कुछ तात्कालिक कारण भी थे। प्रशांत किशोर के चुनावी अभियान  से बेरोजगारी, पलायन और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे चर्चा में आये, परन्तु मतदान नजदीक आते ही ‘सुशासन बनाम जंगलराज’ की बहस ने सारे मुद्दों को ढक लिया। राजद के कुछ नेताओं के उग्र भाषणों, समर्थकों के अनियन्त्रित आचरण और पुराने दौर की याद दिलाने वाली घटनाओं ने महिलाओं में भय पैदा किया कि सत्ता परिवर्तन के साथ ही सुरक्षा का ढाँचा लड़खड़ा सकता है। यह भय ‘गब्बर इफेक्ट’ की तरह काम कर गया और महिलाएँ अपने और अपने परिवार की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए बड़े पैमाने पर मतदान केन्द्रों पर उमड़ पड़ीं।

इस चुनाव में महिलाओं  को दी गयी 10,000 की प्रारम्भिक राशि और आगे मिलने वाली 1.90 लाख की सहायता ने महिलाओं की आकांक्षाओं को सरकार की निरन्तरता से जोड़ दिया। उन्होंने न केवल स्वयं मतदान किया, बल्कि पूरे परिवार के वोट को भी प्रभावित किया और अपने समूहों के माध्यम से अन्य महिलाओं को बूथ तक लेकर आयीं। यह पहली बार था जब महिलाओं ने 5 से 12 प्रतिशत अधिक मतदान करके पुरुषों को पीछे छोड़ दिया और चुनाव की दिशा तय कर दी।

इस प्रकार यह चुनाव केवल सरकार बदलने या बनाए रखने का प्रश्न नहीं था, यह इस बात का भी संकेत था कि बिहार की महिलाएँ अब राजनीति की मूक दर्शक नहीं, बल्कि परिवर्तन की सक्रिय निर्माता बन चुकी हैं। उन्होंने अपनी पसन्द की सरकार, अपनी सुरक्षा, अपने अधिकार और अपने भविष्य को बचाने का अभियान चलाया—और वह अभियान पूरी तरह सफल रहा।

बिहार की यह राजनीतिक चेतना अब पूरे देश में एक नयी दिशा तय करने जा रही है। आधी आबादी जब संगठित होकर अपनी प्राथमिकताओं को वोट की शक्ति से व्यक्त करती है, तो लोकतन्त्र का चरित्र बदल जाता है। बिहार की महिलाओं ने यह बदलाव कर दिखाया है और आने वाले वर्षों में यह प्रवृत्ति राष्ट्रीय राजनीति में और गहरी होगी। इस चुनाव ने सिद्ध कर दिया कि नीतीश कुमार की वापसी उतनी राजनीतिक रणनीति का परिणाम नहीं, जितनी महिला मतदाताओं के विश्वास, अनुभव और सत्ता से मिले प्रत्यक्ष लाभों का प्रतिफल है। बिहार की स्त्रियों ने न केवल अपने हित सुरक्षित किए, बल्कि देशभर की आधी आबादी के लिए राजनीतिक सहभागिता का नया रास्ता खोल दिया है।

 

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पवन कुमार सिंह

मध्यमवर्गीय किसान परिवार में जन्मे लेखक जयप्रकाश आन्दोलन के प्रमुख कार्यकर्ता और हिन्दी के प्राध्यापक हैं। सम्पर्क +919431250382, khdrpawanks@gmail.com
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