डॉ. आम्बेडकर की लोकतान्त्रिक दृष्टि
- कँवल भारती
डॉ. आम्बेडकर की विचारधारा के दो महत्त्वपूर्ण आयाम हैं—एक लोकतान्त्रिक, और दूसरा वर्गीय। पहले उनके लोकतान्त्रिक दृष्टिकोण को लेते हैं। जिस दौर में हिन्दू महासभा के नेता, आज़ादी के बाद के भारत के लिए, हिन्दू राज की वकालत कर रहे थे, हिन्दुओं को काल्पनिक राष्ट्रवाद का पाठ पढ़ा रहे थे, और मुसलमानों को पृथक राष्ट्र बताकर उनके विरुद्ध पूरे देश में नफरत फैला रहे थे, राजनीति के उस निर्णायक दौर में डा. आम्बेडकर ने घोषणा की थी कि—“अगर हिन्दू राज की स्थापना सच में हो जाती है, तो निस्सन्देह यह इस देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य होगा। चाहे हिन्दू कुछ भी कहें, हिन्दू धर्म स्वतन्त्रता, समानता और भ्रातृत्व के लिए एक खतरा है। यह लोकतन्त्र के लिए असंगत है। किसी भी कीमत पर हिन्दू राज को स्थापित होने से रोका जाना चाहिए।”
इसी के साथ, अँग्रेजों से सत्ता का हस्तान्तरण किए जाने के अवसर पर उन्होंने घोषणा की थी—“भारत में सच्चा लोकतन्त्र केवल गैर-ब्राह्मणों के हाथों में सुरक्षित रह सकता है।
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डॉ. आम्बेडकर के लोकतान्त्रिक दृष्टिकोण को समझने के लिए इन दोनों घोषणाओं को समझना आवश्यक है। बेहतर होगा, कि इसे आज़ादी के बाद जो लोकतन्त्र स्थापित हुआ, उसके व्यवहार से समझा जाए। लोकतान्त्रिक भारत का प्रथम राष्ट्रपति ब्राह्मणों के पैर धोकर अपनी गद्दी पर बैठा, और स्वतन्त्र भारत के सभी राज्यों के प्रथम मुख्य मन्त्री ब्राह्मण नियुक्त किए गये। जम्मू-कश्मीर को छोड़कर, जहाँ मेहरचन्द महाजन (वैश्य) प्रधानमन्त्री थे, अपवाद के लिए भी किसी राज्य में कोई गैर-ब्राह्मण मुख्यमन्त्री नहीं था। मन्त्रीमण्डलों में भी नब्बे फीसदी ब्राह्मण थे। कहने को भारत में लोकतन्त्र कायम हुआ था, पर वास्तव में लोकतन्त्र की आड़ में बाकायदा हिन्दू राज कायम किया जा चुका था, जिसके खतरे की चेतावनी डॉ. आम्बेडकर दे चुके थे।
याद रहे, ब्राह्मण राज ही हिन्दू राष्ट्र की बुनियाद है। आरएसएस जिस हिन्दू राज को स्थापित करने के लिए आठ-नौ दशकों से मेहनत कर रहा था, उसका पथ-प्रशस्त असल में कॉंग्रेस ने ही किया था। कॉंग्रेस के के नेताओं में पैर से लेकर सिर की चुटिया तक वर्णव्यवस्था समाई हुई थी। कॉंग्रेस की ब्राह्मण सरकारों ने वर्णव्यवस्था को बनाए रखने में सारी ताकत लगायी। उन्होंने कोई धर्मनिरपेक्ष राज्य कायम नहीं किया, वरन अप्रत्यक्ष रूप से हिन्दू राज ही कायम किया था। नगर-नगर में रामलीला कमेटियों का गठन कॉंग्रेस ने ही कराया था। लगभग सभी कमेटियों के अध्यक्ष कॉंग्रेसी थे। आज वे कमेटियाँ आरएसएस के हाथों में हैं।
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यही नहीं, कॉंग्रेस ने ही तुलसी और पुराणों के राम को घर-घर में पहुँचाया। उसने ही रामचरितमानस की चतुश्शती धूमधाम से मनायी। कॉंग्रेस के कार्यकाल में ही कबीर और रैदास को ठिकाने लगाने का काम ब्राह्मणों ने किया। बहुजन आलोचक चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु ने 1966 में इस विषय पर “लोकशाही बनाम ब्राह्मणशाही” नाम से एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक लिखी थी, जिसमें उन्होंने लिखा था, ‘आजकल ब्राह्मणशाही को बल पूंजीपतियों से मिलता है, नेताओं से मिलता है, प्रशासकों से मिलता है और पूरी कोशिश यह हो रही है कि ब्राह्मणी संस्कृति को भारत का राष्ट्र-धर्म और राष्ट्रीय संस्कृति बना दिया जाए।’ यह आज भी सच है।
आज ब्राह्मणशाही का संचालक आरएसएस और उसकी राजनीतिक पार्टी भाजपा है। एक पार्टी के रूप में कॉंग्रेस अपनी करनी की सजा भोग रही है, पर उसके ब्राह्मण तथा सामंती नेता भाजपा में सत्ता-सुख भोग रहे हैं। कॉंग्रेस की ब्राह्मणशाही ने शोषण की जो खाई दलित वर्गों के लिए खोदी थी, उसे आरएसएस-भाजपा की ब्राह्मणशाही और भी चौड़ी कर रही है। देश के बौद्धिकों ने डा। आम्बेडकर की चेतावनी को गम्भीरता से नहीं लिया, उसी का परिणाम है कि भारत में लोकतन्त्र तो है, पर वह ब्राह्मणवाद से ग्रसित है।
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उन्होंने कहा था कि लोकतन्त्र में स्वतन्त्रता,सम्पत्ति और खुशहाली का अधिकार प्रत्येक नागरिक को होता है, परन्तु लोकतन्त्र ने सबसे ज्यादा इसी अधिकार का दमन किया। इस लोकतन्त्र ने, स्वतन्त्रता का समर्थन करते हुए भी, गरीबों, दलितों, और वंचितों की आर्थिक विषमताओं को लगातार बढ़ाया है। जिस लोकतन्त्र की बुनियाद ही गलत है, उससे गरीबों के हित में कुछ करने की उम्मीद नहीं की जा सकती। लोकतन्त्र के ब्राह्मणवादी ढाँचे में आज भी शासन और प्रशासन के नब्बे फीसदी लोग सामन्ती प्रवृत्ति के हैं और जन्मजात गरीब-विरोधी हैं।
डॉ. आम्बेडकर की विचारधारा का दूसरा आयाम वर्गीय दृष्टिकोण है। उन्होंने कहा था कि दलितों और मजदूर वर्गों के प्रधान शत्रु दो हैं—ब्राह्मणवाद और पूँजीवाद। इन दोनों का खत्मा किए बगैर दलितों और मजदूर वर्गों के दुखों का खात्मा नहीं हो सकता। किन्तु इन दोनों दुश्मनों का अन्त तभी हो सकता है, जब इसके लिए दलित और मजदूर वर्ग अपनी लड़ाई को वर्गीय बनाएगा। क्या ऐसा होगा? लेकिन ऐसा नहीं लगता कि ब्राह्मणवाद दलित वर्ग की लड़ाई को वर्गीय बनने देगा, क्योंकि इसी के विरुद्ध तो ब्राह्मणवाद को पूँजीवाद पाल-पास रहा है।
लेखक प्रसिद्द दलित चिन्तक हैं|
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