राजनीति
कांग्रेस को कम न आंकें – अब्दुल गफ्फार
प्रियंका गांधी और ज्योतिरादित्य सिंधिया को राष्ट्रीय महासचिव बनाया जाना कांग्रेस को कम आंकने वालों के लिए गंभीर चुनौती है। भाजपा तो कांग्रेस के लिए मुख्य विरोधी दल है ही लेकिन अब सपा बसपा और राजद के लिए भी ये ख़बर ख़तरे की घंटी से कम नहीं है।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट राजपूत दलित मुस्लिम को साधने के लिए युवा तुर्क ज्योतिरादित्य सिंधिया को कमान थमाना और पुर्वी उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण बनिया दलित मुस्लिम वोटरों में पैठ बैठाने के लिए इंदिरा गांधी की कॉपी समझी जाने वाली प्रियंका गांधी को लाया जाना, बुआ बबुआ के लिए टेढ़ी खीर साबित हो सकता है।
उत्तर प्रदेश के मुस्लिम मतदाताओं पर भी इस नियुक्ति का गंभीर प्रभाव पड़ने की संभावना है। अब उन्हें सपा बसपा गठबंधन के विकल्प के रूप में कांग्रेस भी एक मज़बूत पार्टी के रूप में नज़र आएगी। हालांकि इस बात का सीधा लाभ भाजपा को मिलना भी निश्चित लगता है।
पुर्वी उत्तर प्रदेश की रीढ़ समझी जाने वाली लोकसभा सीट, वाराणसी से प्रियंका गांधी को उम्मीदवार भी बनाया जा सकता है ताकि पुर्वी उत्तर प्रदेश और पड़ोसी राज्य बिहार की कुछ सीटों पर कांग्रेस के लिए माहौल को जीवंत बनाया जा सके।
बिहार में कांग्रेस कम से कम बारह सीटों पर डटी हुई है जबकि राजद आठ सीटें देकर अन्य दलों को एडजस्ट करने की फ़िराक़ में है। इस परिस्थिति पर भी प्रियंका के आगमन का गंभीर प्रभाव पड़ना निश्चित है।
उत्तर प्रदेश में संभव है कि इस नियुक्ति के दबाव में आकर सपा बसपा,फिर से कांग्रेस को पंद्रह सोलह सीटें देकर महागठबंन बनाने का प्रयास करें और ये भी संभव है कि कांग्रेस बिहार और उत्तर प्रदेश की सभी सीटों पर, कुछ छोटे दलों को लेकर मैदान में उतर जाए।
कांग्रेस, यूपी – बिहार में अकेले लड़कर भी दस से पंद्रह सीटें जीत सकती है और गठबंधन या महागठबंन में रहकर भी उतनी ही सीटें जीत पाएगी। अकेले लड़ने से कांग्रेस को एक और बड़ा फ़ायदा ये होगा कि मोदी के ख़िलाफ़ सभी विपक्षी दलों का एकजुट होने का प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा का चुनावी नारा भी कुंद पड़ जाएगा। इस प्रकार कांग्रेस नेतृत्व को अकेले अपने दम पर चुनाव लड़कर अपना जनाधार बढ़ाने पर ही सोचना श्रेयस्कर लगता है।
लेखक कहानीकार एवं सामाजिक कार्यकर्ता हैं, तथा लेखन के कार्य में लगभग 20 वर्षों से सक्रीय हैं|
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