धोनी भी आख़िर हाड़-मांस के आदमी हैं…
महेन्द्रसिंह धोनी से जो लोग आज भी वैसे ही चौके-छक्के की उम्मीद करते हैं, जिनसे वे असम्भव जीत को सम्भव या निश्चित हार को जादुई जीत बना देते थे, उनके असीम भरोसे के भाव को समझा जा सकता है, ऐसे भावुकों का इस्तक़बाल भी किया जा सकता है; परंतु ऐसे बर्बरों का क्या किया जाये, जो उनकी अबोध बच्ची को लेकर ज़ुबानी ही सही, अपनी पाशविक जघन्यता का नंगा प्रदर्शन कर रहे हैं और उनके लिए भस्मासुर बने मुफ्त के समाज माध्यम (सोशल मीडिया) तो हाजिर हैं ही। डिजिटल-युग के ये अभिशाप ऐसे बर्बरों से मिलकर अभी और क्या-क्या गुल खिलायेंगे, कौन जाने!! लेकिन अभी तो यह कहना है कि ऐसे लोग पक्के तौर पर भयंकर मनोरोगी है, बर्बर और जाहिल हैं…।
लेकिन गौतम गम्भीर और उन्हीं जैसे कुछ और समझदारों का क्या किया जाये, जो धोनी से आज भी वैसी ही उम्मीद करते हुए झींकते रहे हैं, कोसते रहे हैं। धोनी से बल्लेबाज़ी-क्रम में ऊपर आकर जिताने के लिए नेतृत्त्व करने की माँग करते रहे हैं!! ऊपरी क्रम में न आने को लेकर सवाल करते रहे हैं, चुनौती देते रहे हैं। और वे तो मैदान की हक़ीकत और खिलाड़ी की उम्र व ताकत के भुक्तभोगी हैं। धोनी के हमउम्र होकर भी राष्ट्रीय टीम से विदा हो चुके हैं और आईपीएल की कप्तानी तथा खेल भी बीच में छोड़कर भाग चुके हैं। तभी शायद धोनी की इतनी ज़ोरदार आलोचना के पीछे उनकी अपनी सीमाओं और असफलताओं की कुण्ठाएं भी बोलती हैं…।
वीरेन्द्र सेहवाग की नसीहतों के पर्दे में छिपी कहानी भी ऐसी ही है। और दबी ज़ुबान से निकली इरफ़ान व हरभजन जैसों की भँड़ासों के हाल भी वही हैं। इन सबके साथ मानो कुछ हक़तल्फ़ी हुई भी हो, तो राष्ट्रीय स्तर पर जिम्मेदारी से बँधी शख़्सियतों की तमाम अडचनें-चुनौतियां व मज़बूरियां तथा बेशक़ मानवीय कमज़ोरियां भी होती हैं, जिनसे मुक्त कोई नहीं, क्योंकि तटस्थ तो सिर्फ़ मशीन इसलिए हो सकती है कि न वह सोच सकती, न महसूस कर सकती। और इसका पता सबको है – धोनी को भी। इसलिए यक़ीन है वे ‘मिस्टर कूल’ की अपनी पहचान को साबित करते हुए इन सब कुछ को ठण्डे दिल-दिमांग से ही लेंगे…।
वरना आज के इस बर्बराने आक्रोश व धमकी के बरक्स तो अब कोई धोनी अपनी कला व कूबत के ऐसे गुर पेश करते हुए दस बार सोचेगा, क्योंकि उम्र एक दिन सबकी बढ़नी है और ‘अहह प्रथम बल मम भुज नाहीं’ की सचाई से सबको रू-ब-रू होना है। दिन सबके फिरने हैं और महाभारत जीतने वाले अर्जुन का भी एक दिन वह हाल हुआ कि ‘भिल्लन लूटी गोपिका वहि अर्जुन वहि बान’। और धोनी जब लगभग साल भर बाद खेलने आये हैं, तो अपनी औक़ात एवं स्थितियों से नावाक़िफ नहीं हैं। आईपीएल शुरू होने के पहले सन्यास की घोषणा कर देना इसका सबसे बड़ा सुबूत है, वरना यहाँ के प्रदर्शन के आधार पर राष्ट्रीय दल में शामिल होने की बात चल रही थी, जिसे सिरे से ख़ारिज़ करके इसमें उतरे हैं।
फिर यहाँ शुरू के तीन मैचों में सातवें-आठवें नम्बर पर आके अपने को अन्दाज़ा…। पहले में आउट हो जाने के बाद दूसरे में आके आख़िरी ओवर में तीन छक्के भी मारके अपना टेस्ट लिया, लेकिन तीसरी बार आने पर मालूम पड़ा कि पास नहीं हुए। फिर चौथे मैच में सनराइज़र्स के सामने चार विकेट जल्दी गिर जाने से ऐसे हालात बन गये कि दूसरा उपाय न था और उधर लोगों के कहने-आलोचना करने का दबाव तो था ही। लिहाजा, अपने को ऊपर के पाँचवे क्रम में ले आये या ले आना पड़ा। तब गेंदें ज्यादा मिलीं और इस पारी में धोनी ने अपनी सारी खेल-खूबियों व आदतों का शब्दश: पालन करके अपने को पूरा-पूरा आज़माया। मसलन, जमने (सेट होने) के लिए जरूरी गेंदे खेलीं, पिच को अच्छी तरह पढ़ा-परखा। गेंदबाजों की गति-लय, दशा-दिशा को बख़ूबी भाँपा-जाँचा-झेला…। ख़ुद को खेल में ढाल पाने के सब प्रयत्न किये…। फिर बड़े शॉट लगाने चाहे – लगाने चले, पर न लगा पाये…। दौड़ लगाके दो-दो रन लिये, तो हालात के राज़ ज्यादा खुले। हाँफा छूटने लगता। बेचैनी-बेकली होने लगती। गेंद खेलने के बाद बैट रखके दोनो हाथ घुटने के ऊपर टेक लगा के आराम करने लगते…।
अंत में देहोपचारक (फीज़ियोथिरैपिस्ट) बुलाया गया, लेकिन उसके बाद भी बड़े टाँड़ (शॉट) न मार सके। सुबह से पड़ रही भारी गर्मी से गला सूखने की सचाई भी जाहिर हुई। इसे सुनकर लोगों ने कोरोना की आशंका भी जागा दी, जो समय के लिहाज से सम्भावित भी थी, क्योंकि उनकी टीम कोरोना के गहरे असर से निकल के आयी है…, लेकिन यह शंका बिल्कुल निर्मूल सिद्ध हुई। और अभी कल बंगलोर के सामने स्वेच्छा से पाँचवें क्रम में आकर जल्दी ही बड़े टाँड़ मारने का प्रयोग भी किया। एक छक्का लगाया भी, लेकिन दूसरे छक्के की कोशिश में लपके गये। याने आज का हाल तो यही है कि न अनुभव काम कर रहा, न कोशिश व प्रयोग कामयाब हो रहे…।
तो प्राकृतिक सचाई सिद्ध हो रही है कि धोनी भी हाड़-मांस के बने आदमी हैं, कोई अवतार नहीं। अब उम्र 40 की हो गयी है और इस दौरान उन्होंने अपने क्रिकेट को कितना दूहा है, उस पर ग़ौर कीजिए। उनका काम विकेट सँभालने में पूरी पारी बेहद चौकन्ना रहना रहा है। इसके साथ कप्तानी करते हुए मन-मस्तिष्क पूरे समय पूरी तरह सर्वाधिक व्यस्त-पस्त रहा है। बल्लेबाज़ी के बीच अधिकतम समय मैदान पर रहना रहा है। उनकी पारियों और खेलों (मैचेज़) की संख्या भी सबसे अधिक है। सबसे अधिक तनाव के क्षण उन्होंने झेले और जिताये हैं…। इन सबमें तन की ताक़त ही लगती रही है। दिमांग ही खपता रहा है…। इससे भी अनजान नहीं हैं धोनी। पिछले विश्वकप में जब रन-आउट होके मैच हारे, तो भले दौड़ के कैच लेने में नाक़ामयाब हो गये क्लाइव लॉयड के ‘साल भर पहले मैं यह कैच ले सकता था’ की तरह कह नहीं पाये कि सालभर पहले मैं अपनी हद (क्रीज़) में पहुँच सकता था, लेकिन इतनी आत्मग्लानि में डूबे कि मैंने कूदके पाल्हे में पहुँचने की कोशिश क्यों नहीं की!! और अपने को असुलभ बताकर लम्बे समय तक खेल से दूर रहे…।
लेकिन किसी ने उस शख़्स के मन को, उसकी आत्मग्लानि को समझने की जानिब से नहीं सोचा। और अंत में अपनी हैसियत का कोई इस्तेमाल किये बिना और चयनकर्त्ताओं को नैतिक संकट में डाले बिना खेल छोड़ दिया। इसी तरह अपनी जिस्मानी क़ूबत और ढलान को वे ख़ुद आँक रहे हैं। अपना फैसला वे लेंगे, लेकिन उनकी विकेट-रक्षा की चुस्ती और मैच-जिताऊ कप्तानी कौशल अभी वैसा ही बरकरार है। चेन्नई वाले दल के तो वे निर्माता ही हैं। इस सब बिना पर चेन्नई वाले अपने माही को अभी और अवसर देकर लाभान्वित भी हो सकते हैं तथा उनके योगदान की कद्र का सिला भी पेश कर सकते हैं। फिर तो क्रिकेट की घनघोर अनिश्चितता वाली प्रवृत्ति के तहत कौन जाने कि धोनी अपनी पुरानी लय (फॉर्म) में आ ही जायें और फिर कुछ दिनों वैसे ही चौकों-छक्कों की बहार देखने को मिल सके…। लेकिन ऐसा हो या न हो…दोनो ही हालात में समूचे धोनी को समझने वाले क्रिकेट-प्रेमी उनका तहे दिल से इस्तक़बाल करते रहे हैं – करते रहेंगे…आमीन!!
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