देश

लोकतान्त्रिक और समतावादी नागरिकता का निर्माण

 

देश में ‘सनातन’ के नाम पर छिड़े विमर्श ने हिन्दुत्व को एक नया आक्रामक प्लेटफॉर्म दिया है। तमिलनाडु के मुख्यमन्त्री एम के स्टालिन के बेटे उदयनिधि स्टालिन ने सनातन धर्म के नाम पर ‘ब्राह्मणवादी पितृसत्ता’ को मजबूत करने की प्रवृत्ति को चुनौती दी। उन्होंने जाति और जेण्डर की कसौटी पर कसते हुए ‘सनातन’ को स्त्री और दलित विरोधी बताया व इसके खात्मे की जरूरत पर जोर दिया। तमिलनाडु में पाँव पसारने की कोशिश कर रही भाजपा और उसके पितृ संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने इसपर तीखी प्रतिक्रिया दी। लेकिन बहस तो चल चुकी है- 2024 की चुनावी बिसात पर भी इस बहस को ले जाने की प्रेरणा अपने समर्थकों और नेताओं को पीएम मोदी ने दी।

उदयनिधि स्टालिन जल्द ही सही साबित भी हो गये। मध्य प्रदेश में पन्ना के ‘छत्रसाल वंश’ की महारानी जीतेश्वरी देवी को कृष्ण जन्माष्टमी के दिन मन्दिर के गर्भ गृह में प्रवेश से न सिर्फ रोक दिया गया, बल्कि उन्हें दो दिन के लिए जेल भी भेज दिया गया। इसलिए कि उनके पति की मौत हो गयी है। परम्परा के अनुसार वहाँ चंवर डुलाने का काम राजघराने का सदस्य ही करता है, लेकिन महारानी नहीं कर सकतीं क्योंकि उनके पति नहीं रहे। यह घटना सनातन या ‘हिन्दू धर्म’ के भीतर स्त्रियों की स्थिति का एक उदाहरण है। आज भी रजस्वला स्त्रियाँ, ‘विधवा स्त्रियाँ’ मन्दिर में प्रवेश से वंचित की जाती हैं। केरल के सबरीमाला मन्दिर में तो रजस्वाला होने की उम्र (10 से 55) की स्त्रियाँ प्रवेश नहीं कर सकती हैं।

सवाल है कि जब देश लोकतन्त्र के और संविधान के रास्ते पर कदम बढ़ाने के कई ऐतिहासिक पहलों की रजत और स्वर्ण जयन्ती मना रहा है, तब भी धर्म के नाम पर परम्परा और पुनुरुत्थानवादी ताकतें लोकतान्त्रिक विकास-विस्तार में बाधा बनी हैं। और फिर सवाल उठता है कि क्या हम एक धर्मनिरपेक्ष राज्य के रूप में विकसित हो पाएँगे? संविधान निर्माताओं ने क्या सपना देखा था? संविधान बनाने वाली हमारी पूर्वज स्त्रियों ने किन सपनों की दिशा में अपना सक्रिय योगदान किया था?

संविधान सभा में शामिल स्त्रियों की एक बेहद महत्त्वपूर्ण पहल को न मानकर कैसे अपने शुरुआती दिनों में भी भारतीय राज्य वास्तविक धर्मनिरपेक्षता से दूर होता गया, इसपर बहस होनी चाहिए। संविधान सभा के सदस्यों में चार ऐसे सदस्य थे, जो अधिकारों के निर्धारण की समितियों में होते हुए लोकतान्त्रिक भारत में धार्मिक प्रैक्टिस के अधिकार के पक्ष में नहीं थे, उनमें दो महिलाएँ थीं और दो अनुसूचित जाति से थे। वे धार्मिक पूजा-पाठ के अधिकार के पक्ष में जरूर थे लेकिन धार्मिक प्रैक्टिस के अधिकार के पक्ष में नहीं थे।

भारत की संविधान सभा में 15 महिलाएँ शामिल थीं, जिन्होंने 1946 से 1949 तक संविधान निर्माण में अपनी अहम भूमिका निभायी। दुर्गाबाई देशमुख, राजकुमारी अमृत कौर, हंसा मेंहता, बेगम ऐजाज रसूल, अम्मू स्वामीनाथन, सुचेता कृपलानी, दक्षयानी वेलायुद्धन, रेनुका रे, पूर्णिमा बनर्जी, एनी मसकैरिनी, कमला चौधरी, लीला रॉय, मालती चौधरी, सरोजिनी नायडू व विजयलक्ष्मी पण्डित आदि ने 9 दिसम्बर 1946 से 26 जनवरी 1949 तक संविधान सभा और इसकी विभिन्न समितियों में सक्रिय भूमिका निभायी। संविधान सभा के सदस्य के रूप में पहली सूची में बेगम जहांआरा शाहनवाज़ और बेगम शाइस्ता सोहरावर्दी भी शामिल थीं। वे पाकिस्तान बनने के बाद पूर्वी बंगाल की सीटों के पाकिस्तान में शामिल हो जाने के बाद सदस्य नहीं रहीं थीं। तब 14 जुलाई 1947 को रेणुका रे और 29 दिसम्बर 1948 को एनी मसकैरिनी संविधान सभा में क्रमशः पश्चिम बंगाल और त्रावणकोर से शामिल हुईं।

ये समता, बन्धुता और स्वतन्त्रता का स्वप्न देखने वाली महिलाएँ थीं। इनमें दक्षयानी वेलायुद्धन जैसी महिला भी थी, जो सामाजिक रूप से भेदभाव के शिकार पुलाया समुदाय की पहली पीढ़ी की शिक्षितों में से एक थीं। वह पुलाया समुदाय की पहली पीढी की उन महिलाओं में थीं, जिन्होंने पहली बार अधोवस्त्र (ब्लाउज) पहना था, तब केरल में दलित महिलाओं ने लम्बे संघर्ष के बाद ऊपर के वस्त्र पहनने का अधिकार प्राप्त किया था।

धार्मिक प्रैक्टिस की स्वतन्त्रता और महिला व दलित सदस्यों का विरोधी मत (डिसेंट नोट) भारतीय संविधान का प्राथमिक ड्राफ्ट बनाने वाले बी एन राव को संविधान सभा की सदस्य अमृत कौर ने 31 मार्च, 1947 को एक पत्र लिखकर कहा कि ‘ फ्री प्रैक्टिस ऑफ़ रिलिजन’ की जगह ‘फ्रीडम ऑफ़ रिलिजियस वर्शिप’ का अधिकार दिया जाए। प्रैक्टिस टर्म को हटाकर वर्शिप करने के इस प्रस्ताव से एक और सदस्य हंसा मेंहता की भी सहमति थी। इन पत्रों का असर था कि प्राथमिक रिपोर्ट से फ्री प्रैक्टिस टर्म हटा दिया गया था।

इस प्रस्ताव के पीछे महिला सदस्यों का तर्क था कि मौलिक अधिकारों में फ्री प्रैक्टिस ऑफ़ रिलिजन के होने पर धर्म के नाम पर कुरीतियों के पक्ष में भी न्यायालय आदि संस्थाओं को तर्क मिल जाएँगे। ऐसा होने पर भविष्य में धर्म के नाम पर होने वाले अन्यायों, जारी कुरीतियों और महिला विरोधी प्रथाओं का उन्मूलन करना सम्भव नहीं होगा।

इस प्रस्ताव का 18 अप्रैल 1947 का ‘मायनॉरिटीज सब कमिटी’ में विरोध हुआ। मतगणना की नौबत आयी तो बहुमत के आधार पर ‘फ्री प्रैक्टिस ऑफ़ रिलीजन’ मौलिक अधिकारों में शामिल कर लिया गया। फिर भी महिलाओं ने हार नहीं मानी और समिति की सदस्य अमृत कौर ने अपनी ‘असहमति’ दर्ज करायी। इस अहसमति नोट में उन्हें साथ मिला दो बड़े दलित नेताओं का, बाबा साहेब डॉक्टर अम्बेडकर का और बाबू जगजीवन राम का। समाज में महिलाओं और दलितों की इकाई का यह प्रतिनिधि आवाज एकसाथ इसलिए थी कि उनके शोषण और वंचन में धर्म पोषित कुप्रथाओं और कुरीतियों की सबसे बड़ी भूमिका है।

इस प्रसंग में यह भी स्पष्ट हो जाना चाहिए कि उस वक्त, संवैधानिक शब्दावली में मायनॉरिटी उन समूहों को कहा जाता था, जो किसी भी प्रसंग में, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक वंचना के शिकार हैं। वंचना के लिए ‘डिजऐबिलिटी’ टर्म का इस्तेमाल होता था। इसलिए मायनॉरटीज समिति महिलाओं, दलितों, अलपसंख्यकों के अधिकार के लिए समिति थी। महिलाएँ डिजऐबिलिटी को प्राकृतिक नहीं मानती थीं। जाति-जेण्डर-धर्म आधारित डिजऐबिलिटी सामाजिक कारणों से हैं।

आज देश भर में धार्मिक जुलूसों के नाम पर उन्मादी ताकतें तनाव का वातावरण तैयार करती हैं। हर त्यौहार और उत्सव देश में साम्प्रदायिक घटनाओं को उकसाने वाले ऐसी जुलूसों का अवसर बन जाता है। अमृत कौर ने अपने विस्तृत ‘असहमति नोट’ (डिसेंट नोट) में लिखा था कि धार्मिक प्रैक्टिस के नाम पर धार्मिक जुलूस आदि आयोजित करना भी मौलिक अधिकार होगा, जिसके दौरान आम तौर पर विभिन्न समुदायों में तनाव का वातावरण बन जाता है, दुश्मनियाँ बढ़ जाती हैं। महिलाएँ भारतीय समाज के यथार्थ को करीब से देख रही थीं और उसकी भुक्तभोगी भी थीं। इसलिए वे बेहद सटीक स्टैंड पर थीं और भारतीय राज्य को सही मायने में धर्मनिरपेक्ष बनाने का प्रस्ताव रख रही थीं।

भारतीय समाज को इन्हीं अर्थों में बाबा साहेब डा. अम्बेडकर समझ रहे थे। संविधान सभा के अपने अन्तिम भाषण में उन्होंने कहा था कि ’26 जनवरी 1950 को हम विरोधाभाषी स्थितियों में प्रवेश करने वाले हैं। राजनीतिक रूप से हम समानता हासिल कर लेंगे लेकिन सामाजिक और आर्थिक रूप से हम असमान जीवन जी रहे होंगे।’ उन्होंने स्पष्ट कहा कि सामाजिक जीवन में हम एक व्यक्ति और एक मत और एक मत का एक मूल्य सिद्धान्त से कोसों दूर होंगे। वे ब्राह्मणवादी पितृसत्ता को बहुत करीब से देख रहे थे, जो ‘हाई कास्ट हिन्दू मेंल’ (ऊँची जाति के हिन्दू पुरुष) को सर्वाधिकार सम्पन्न बनाता है। धर्म उसे तर्क देता है।

संविधान सभा की महिला सदस्य इसे खूब समझ रही थीं। यह अकारण नहीं है कि उनका डर उनका डिसेंट नोट लिखने के 70 साल बाद भी सही सिद्ध हो रहा है। सबरीमाला मन्दिर में रजस्वला उम्र की महिलाओं के प्रवेश-निषेध को प्रथा के नाम पर महिला जज,जस्टिस इंदू मल्होत्रा,ने जायज ठहराया। वे 5 जजों की उस खण्डपीठ की सदस्य थीं, जिसने बहुमत से सबरीमाला मन्दिर में रजस्वला उम्र की महिलाओं के प्रवेश-निषेध की प्रथा को अमान्य किया था। लेकिन जस्टिस इंदू मल्होत्रा ने अपने असहमति का निर्णय लिखते हुए मौलिक अधिकारों के इसी उपबन्ध ‘फ्री प्रैक्टिस ऑफ़ रिलीजन’ का इस्तेमाल किया। इसी बात से संविधान सभा के सदस्य डर रहे थे।

इसके पहले भी राजस्थान के देबराला में सती कांड (1987 ) के महिमामण्डन के पक्ष में तर्क देने वाले बुद्धिजीवी धार्मिक प्रथाओं के पालन की स्वतन्त्रता का ही हवाला देते रहे थे। पन्ना की महारानी को जेल भेजने के पीछे मजिस्ट्रेट की मानसिकता भी तो इसी मतधारा की प्रतिनिधि मानसिकता है। स्त्री की खुद की मानसिक अधीनस्थता धर्म ने इतनी ज्यादा कर रखी है कि उसे अपनी वंचना भी सहज लगती रही है।

20वीं सदी के प्रारम्भिक दिनों से ही महिला एक्टिविस्ट, नेता और बुद्धिजीवी एक समतावादी नागरिक के निर्माण के लिए संघर्षरत दिखते हैं। वे एक व्यक्ति के एक मत और उसके एक मूल्य को भी बखूबी समझ रही थीं। सौ सालों से महिला अधिकार के लिए महिलाओं की सक्रियता का केन्द्रीय एजेण्डा रहा है स्त्री को एक व्यक्ति, एक नागरिक, एक लोकतान्त्रिक व्यक्तित्व के रूप में पहचान मिले, अधिकार मिले और वह स्वयं इस रूप में विकसित हो।

स्त्री की एक व्यक्ति, एक नागरिक, एक जेण्डर-मुक्त पहचान की प्रस्तावना आज बहुत कुछ हमें सहज दिखता है, स्वीकृत दिखता है लेकिन हमारी पुर्वजाओं ने, संविधान सभा की सदस्य स्त्रियों ने संविधान सभा और उसके बाहर इस सहजता को हासिल करने में बड़े धैर्य,बड़ी प्रखरता और बड़े हस्तक्षेप के साथ संघर्ष किया। संविधान सभा हो या यूनाइटेड नेशन की समितियाँ स्त्रियों ने भाषा और परसेप्शन के स्तर पर जेण्डर-जस्टिस के लिए संघर्ष किया। तबतक ‘मैन’ शब्द स्त्री और पुरुष दोनों के लिए इस्तेमाल होता रहा था। तत्कालीन सजग स्त्रियों ने हर उस प्रावधान में जहाँ ‘मैन’ शब्द का इस्तेमाल होता था वहाँ उन्होंने या तो ‘मैन’ और ‘वुमैन’ लिखवाये या ‘पर्सन’ जैसे जेण्डर न्यूट्रल शब्दों की इस्तेमाल के लिए जोर डाला।

स्त्रियों की स्वतन्त्र पहचान के लिए हमारी पूर्वजा स्त्रियों के स्टैंड,उनकी व्याख्याएँ,उनकी पहल आज के स्त्रीवादी विचारों की पूर्व पीठिका हैं। वे पितृसत्ता और स्त्री के सामाजिक कंस्ट्रकट को बखूबी समझती थीं और व्यक्त करती थीं, जिसे बाद में दूसरे वेब के स्त्रीवादियों ने स्त्रीवादी टर्म में व्यक्त किया। यूनाइटेड नेशंस के ह्यूमन राइट्स कमीशन (यूडीसीएचआर) की रिपोर्ट,1948 में भारत से इसकी सदस्य हंसा मेंहता ‘परिवार’ को समाज की प्राकृतिक इकाई माने जाने के खिलाफ थीं। उन्होंने इस बात पर जोर दिया था कि डिक्लयरेशन में ‘परिवार की कोई परिभाषा’ न दिया जाए। आल इण्डिया वीमेंन कांफ्रेंस की सदस्य कपिला खण्डवला ने आल इण्डिया कॉंग्रेस द्वारा 1938 में स्थापित नेशनल प्लानिंग कमिटी की सब कमिटी ‘विमेंस रोल इन प्लांड इकोनॉमी’ की सदस्य के तौर पर जोर दिया कि ‘विवाह को दो समान व्यक्तियों का सम्बन्ध माना जाना चाहिए और उसे तबतक मान्यता हो जबतक दोनों की सम्बन्ध में होने की इच्छा हो। एक व्यक्ति को ही समाज की इकाई होना चाहिए, न कि परिवार को।’ उन्होंने उपसमिति की रिपोर्ट में अपनी असहमति नोट के जरिये यह महत्त्वपूर्ण और क्रान्तिकारी स्थापना दी थी।

समतावादी स्वप्न की ये स्त्रियाँ उस वक्त परिवार को एक शोषक संस्था की तरह देख रही थीं, जिसके भीतर स्त्री को अस्तित्वविहीन हो जाना पड़ता है,जिसके लिए स्त्रियाँ समर्पित हो जाती हैं। आज की पीढ़ी को शायद ही यकीन हो कि उस वक्त समाज में स्त्री-पुरुष समता के लिए प्रतिबद्ध ये स्त्रियाँ ‘जेंडर्ड डिवीजन ऑफ़ लेबर’ की बात कर रही थीं। ‘विमेंस रोल इन प्लांड इकोनॉमी’ समिति ने ‘घरेलू स्त्रियों’ के श्रम और उसके आर्थिक मूल्य की भी बात की थी। इस समिति के अनुसार ‘महिलाओं के घेरलू काम को न राज्य और न ही समाज कोई मान्यता देता है। घरेलू काम अपने आर्थिक मूल्य के साथ चिह्नित होने चाहिए और घर के बाहर की आर्थिक गतिवधियों की तुलना में किसी भी सूरत में कमतर नहीं माने जाने चाहिए।’

आल इण्डिया वीमेंन कांफ्रेंस के अध्यक्ष के तौर पर ‘कमला देवी चटोपाध्याय’ ने 1944 में इसे बेहद स्पष्टता से कहा, ‘दो लिंगों के बीच में श्रम के सामाजिक विभाजन ने मध्य और उच्च मध्यवर्ग के बीच एक धारणा बना दी है कि महिलाएँ परजीवी होती हैं और अपने पति पर निर्भर होती हैं। उनका कोई योगदान नहीं होता। महिलाओं की शक्ति मूलभूत है और महिलाओं को एक सामाजिक और आर्थिक इकाई की तरह देखा जाना चाहिए न कि अपने आदमियों के सहायक के तौर पर।’

जेण्डर मुक्त समाज की कल्पना में इस ‘साथी स्त्री’ की छवि के साथ हमारी पूर्वज स्त्रियाँ एक नागरिक स्त्री के गढ़न और उसकी भागीदारी सुनिश्चित करने में लगी थीं। वे स्पष्ट रूप से मानती थीं और सुनिश्चित करने में लगी थीं कि शिक्षा और स्वास्थ्य के अधिकार उन्हें वैसे ही हासिल हों, जैसे पुरुष को। शिक्षा और पाठ्यक्रम की एक समिति की अध्य्क्षता करते हुए स्पष्ट करती हैं कि ‘स्त्री और पुरुष की क्षमता में कोई प्राकृतिक भेद नहीं है और उनके लिए शिक्षा समान होने चाहिए सभी स्तरों पर जेण्डर भेद के सामाजिक पूर्वग्रह को समाप्त करने वाली होनी चाहिए।’

‘फॉउन्डिंग मदर्स ऑफ़ द, इण्डियन रिपब्लिक’ के लैखक अच्युत चेतन ‘विमेंस रोल इन प्लांड इकोनॉमी’ की रिपोर्ट से इन पंक्तियों में भारत का प्रारम्भिक ‘स्त्रीवादी घोषणा पत्र’ देखते हैं, ‘हम पुरुषों की कल्पना की उस नस्लीय छवि को खत्म करना चाहती हैं, जिसमें पुरुष नयी दुनिया को जीतने के लिए अग्रसर है और स्त्री अपनी गोद में बच्चे को लिए उसके पीछे चल रही है। हमारी कल्पना की छवि में स्त्री और पुरुष,एक साथ, एक साथी की तरह आगे बढ़ रहे हैं और बच्चा दोनों द्वारा उत्साहपूर्वक साथ ले जाया जा रहा है, एक दूसरे की गोद में है।’

भारत में महिला मताधिकार की माँग ने जोर पकड़ी 1918 में जब ब्रिटिश सरकार ने अपने महिला नागरिकों को सीमित मताधिकार दिये, यानी सम्पत्ति और शिक्षा के आधार पर। लेकिन ब्रिटिश उपनिवेशों की महिला नागरिकों को यह अधिकार नहीं मिला।

ब्रिटेन और दुनिया में महिला मताधिकार की वकालत करने वाली पहली महिला अधिकारवादी शख्सियत थीं, मेंरी वोल्स्टन क्राफ्ट, जिनकी 1792 में लिखी गयी किताब ‘विंडीकेशन ऑफ़ राइट्स ऑफ़ वीमेंन’ ने महिला अधिकार के विचार की नीव रखी। महिला मताधिकार के विचार को जॉन स्टुअर्ट मिल और उनकी जीवन साथी हैरिएट मिल ने 1850 में आगे बढ़ाया। इसके बाद यह एक आन्दोलन बन गया।

भारत के मद्रास में मारग्रेट कजिन्स ने वीमेंन’स इण्डियन असोसिएशन के गठन की पहल की और एनी बेसेंट की अध्यक्षता में इसका गठन हुआ, जो महिलाओं के मताधिकार सहित विविध अधिकारों पर काम करने के लिए प्रतिबद्ध था। एस अम्बुजामल, कमलादेवी चटोपाध्याय, हेराबाई टाटा आदि भारतीय सदस्य थीं। मांटेग्यू चेम्सफोर्ड सुधार के लिए एक सरोजिनी नायडू के नेतृत्व में 14 महिलाओं का एक डेलिगेशन मॉन्टेग्यू से मिला। इस डेलिगेशन ने महिला मताधिकार की माँग की। लेकिन जब 1918 में यह सुधार की संस्तुतियाँ सामने आयीं तो महिला मताधिकार उनमें शामिल नहीं था। इसके बाद असोसिएशन और इन महिला अधिकारवादियों ने अलग-अलग आवेदन देने शुरू किये। तब प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘स्त्री धर्म’ में वे आवेदन छापे गये।

1919 तक महिलाओं के संघर्ष जारी रहे। जब 1919 के दिसम्बर में गवर्नमेंट ऑफ़ इण्डिया एक्ट लागू हुआ तो उसमें यद्यपि केन्द्रीय स्तर पर महिला मताधिकार का प्रावधान नहीं था, लेकिन राज्यों पर इसे छोड़ दिया गया था कि वे चाहें तो लागू करें। 2019 में ही मद्रास ने म्यूनिसपल कॉउन्सिल में महिलाओं को सीमित मताधिकार दिया लेकिन उन्हें चुनाव में खड़ा होने का अधिकार नहीं दिया। तब पुरुषों को भी सीमित मताधिकार थे, लेकिन वे चुनाव में खड़े हो सकते थे। महिलाओं ने पुरुषों के बराबर मताधिकार का संघर्ष जारी रखा। 2020 में त्रावणकोर और झालवार स्टेट में मताधिकार मिला। लेकिन 1921 में पहली बार मद्रास प्रेसिडेंसी ने चुनाव लड़ने के अधिकार पर रोक को भी खत्म कर दिया। उसके बाद बॉम्बे सहित अन्य राज्यों में बारी-बारी से सीमित महिला मताधिकार मिला।

महिलाओं के मताधिकार के सवाल पर बिहार विधान परिषद में 1921, 1925, 1929 में बहस हुईं। अजब-गजब तर्क दिये गये।

बिहार में महिला मताधिकार अन्ततः 1929 में मिला। दो बार प्रस्ताव गिरा। 1921 में 21 वोट मताधिकार प्रस्ताव के पक्ष में दिए गये और 32 वोट खिलाफ में। 1925 में 18 के मुकाबले 32 वोट से यह प्रस्ताव गिरा लेकिन 1929 में 14 के मुकाबले 47 वोट से प्रस्ताव पारित हुआ।

कुछ दिनों तक महात्मा गाँधी भी महिलाओं के मताधिकार के खिलाफ थे। उनका मानना था कि महिलाओं को आजादी की लड़ाई में पुरुषों की मदद करनी चाहिए। हालाँकि उनका यह विचार बदला भी। बिहार में शिक्षा के लिए अपने योगदान के लिए जाने जाने वाले सर गणेश दत्त सिंह ने 1929 में भी इस मताधिकार के खिलाफ वोट किया था।

बिहार प्रोविंस के सदस्य मताधिकार के खिलाफ तर्क देते हैं कि कैसे महिलाएँ बच्चा पालन की अपनी मुख्य भूमिका को भी नहीं निभा पा रही हैं और बच्चे मर रहे हैं। यह वोट के लिए उनकी अयोग्यता के पक्ष में एक तर्क है। माननीय सदस्य महिलाओं की भलाई घर के भीतर होने की बात करते हैं, उनके अनुसार चहारदीवारी में ही उनका सर्वांगीन विकास सम्भव है। कुछ माननीय उनके मताधिकार के बाद कॉउंसिल में उनके चुने जाने से भयभीत थे। तुर्रा यह कि उनका दावा यह कि वे महिलाओं से बेहतर महिलाओ का पक्ष समझते हैं। वे कहते हैं कि यूँ ही नहीं पुरुषों को महिलाओं का हसबैंड बनाया गया है-हसबैंड मतलब स्वामी-पुरुषों में काबिलियत है और महिलाओं में अक्षमता।

सर गणेश दत्त सिंह तो प्रस्ताव का मजाक उड़ाते हुए कहते हैं कि ‘उन्होंने कहा कि पुरुषों ने महिलाओं पर बहुत वर्षों तक शासन किया है। तो क्या वे महिलाओं द्वारा शासित होना चाहते हैं? हँसते हुए पूछते हैं कि क्या सभी क्षेत्रों में?’ 1950 में भारत में संविधान लागू होने के साथ पुरुषों और महिलाओं, दोनों को वयस्क मताधिकार मिला।

मताधिकार बेहद महत्त्वपूर्ण अधिकार था, इसके बाद महिलाएँ विभिन्न सदनों में चुनकर जा भी सकती थीं। इस अधिकार के बावजूद आज भी संसद में महिलाओं की संख्या महज 14% है। महिला आरक्षण की माँग काफी लम्बे समय से की जाती रही है। पहली बार 1942 में नागपुर में आयोजित आल इण्डिया शेड्यूल्ड कास्ट वीमेंन फेडरेशन के कांफ्रेंस में 20 जुलाई को इस आशय का प्रस्ताव पास हुआ। उस कांफ्रेंस की अध्यक्षता सुलोचना बाई डोंगरे ने की थी और डाक्टर अम्बेडकर उसमें उपस्थित थे। हिन्दी की पहली दलित महिला आत्मकथा की लेखिका कौशल्या बैसंत्री तब एक किशोर भागीदार के रूप में उसमें शामिल हुई थीं। 1975 में आई टुवर्ड्स इक्वलिटी रिपोर्ट में महिला आरक्षण की संस्तुति की गयी थी और तब से महिलाओं के लिए 33% आरक्षण की माँग को लेकर महिला संगठनों का संघर्ष शुरू हुआ।

स्थानीय निकायों में महिलाओं के प्रतिनिधित्व के लिए पहला सुझाव आया कि गाँव और शहरों के इन निकायों में महिलाओं को मनोनीत करके उनका प्रतिनधित्व सुनिश्चित किया जाये। इसका व्यापक विरोध हुआ। विरोध करने वाले महिला संगठनों का मानना था कि ऐसी स्थिति में पार्टियों और पार्टियों के भीतर पुरुष वर्चस्व की भूमिका अहम हो जायेगी, जो कि अन्ततः महिलाओं के खिलाफ एक व्यवस्था का रूप ले लेगी।

इसके बाद 1993 में 73वें संवैधानिक संशोधन के जरिये पंचायतों और स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण दिए जाने का प्रावधान हुआ। इस प्रावधान का महिलाओं और महिला आरक्षण समर्थकों ने व्यापक स्वागत किया। लेकिन ऐसा भी नहीं था कि सत्ता में बैठा सम्पूर्ण पुरुष वर्ग इस फैसले से खुश था। शिवसेना के तत्कालीन सुप्रीमो बाला साहब ठाकरे ने इस बिल के बाद मुम्बई महानगर पालिका के लिए हो रहे चुनाव के दौरान कहा कि मुम्बई महानगरपालिका अब ‘वेश्याओं से भर जाएगा’। इस संवैधानिक बिल को लाने के पीछे भी कोई स्त्रीवादी धरणा काम नहीं कर रही थी, अफसरानों की राय थी कि चूँकि महिलाएँ कम संसाधनों में प्रबन्धन कर लेती हैं , इसलिए स्थानीय निकायों में उनकी भूमिका बढ़ानी चाहिए । हालाँकि प्रबन्धन का यह तर्क विधानसभाओं और लोकसभा तक के लिए विस्तार नहीं पा सका। इसके बावजूद इस बिल के पारित होने के बाद हुए1996 के लोकसभा चुनाव में सभी प्रमुख पार्टियों ने संसद और राज्यों की विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण को अपने चुनावी घोषणापत्रों में रखा।

तत्कालीन यूनाइटेड फ्रंट के प्रधानमन्त्री एचडी देवगौड़ा के नेतृत्व वाली सरकार ने सबसे पहले महिला आरक्षण बिल को 4 सितम्बर, 1996 को लोकसभा में पेश किया। इसे गीता मुखर्जी की अध्यक्षता वाली संयुक्त संसदीय समिति को भेज दिया गया, जिसने 9 दिसम्बर, 1996 को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत कर दी। हालाँकि राजनीतिक अस्थिरता के चलते इसे 11वीं लोकसभा में दुबारा पेश नहीं किया जा सका। इसे दुबारा पेश किया अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने 12वीं लोकसभा में। भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने इसे चार बार लोकसभा में पेश किया और हर बार हंगामें के बाद ‘सर्वसम्मति निर्मित’ करने के नाम पर इसे टाल दिया गया। कॉंग्रेस की नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने भी इसे दो बार संसद में पेश किया। मार्च 2010 में राज्यसभा ने इस बिल को पारित भी कर दिया लेकिन उसके बाद चार साल (15वीं लोकसभा के भंग होने तक) तक यह बिल लोकसभा में नहीं लाया जा सका।

इन सभी अवसरों पर ‘कोटा विदीन कोटा’, यानी महिला आरक्षण के कोटे के भीतर ओबीसी महिलाओं के लिए आरक्षण की माँग उठती रही। और अब पहले नकारते हुए भाजपा सरकार ने जब यह बिल लोकसभा और राज्यसभा से पारित करवा लिया है तो उसमें ओबीसी महिलाओं के लिए कोई आरक्षण नहीं है और कॉंग्रेस व अन्य दल इसकी माँग कर रहे हैं। राजनीति में पुरुषों की अनिच्छा का आलम यह है कि बिल के क़ानून बनने के बाद इसके लागू होने में आगामी जनगणना और परिसीमन के इन्तजार का एक क्लॉज जोड़ दिया गया है।

एक लम्बे संघर्ष के बाद महिलाओं ने यदि अपने लिए महिला आरक्षण की सफलता पाते हुए मताधिकार के सौ सालों बाद एक और हासिल पाया है तो कोई उसे उपकार की तरह पेश नहीं कर सकता, जैसा कि पीएम मोदी और उनकी पार्टी कर रही है। मोदी सरकार ने इस बिल का नाम ‘नारी शक्ति वंदन’ रखा है और उसके पक्ष में या उनके इसके कदम के यशोगान में उनके पार्टी के लोग मिथकीय आख्यानों को आगे बढ़ा रहे हैं। वे आख्यान जो महिलाओं के दोयम दर्जे को तर्क देते हैं, उनकी अधीनस्थता को पुष्ट करते हैं। 100 साल पहले ही महिलाओं ने अपनी अधीनस्थता को नकार कर पूर्ण नागरिक और व्यक्ति के रूप में अपनी पहचान व स्वीकार की प्रस्तावना लिखी थी।

1932 में राजकुमारी अमृत कौर ने अपने एक भाषण में स्पष्ट कहा था, ‘महिलाएँ अपने लिए समाज की पुरुष-चेतना द्वारा निर्धारित मानदण्डों को नहीं मानने वाली हैं, चाहे वे मानदण्ड दैनंदिन के हों, राजनीतिक हों या नैतिक। हम जानते हैं कि ऐसे मानदण्ड हमारी अधीनस्थता को सुनिश्चित करने या हमें कमतर आँकने के लिए इस्तेमाल होते हैं। हम अपने खुद के तय मानदण्डों द्वारा स्वमूल्यांकन की जरूरत को समझते हैं, हम जीवन की वास्तविकताओं से मुकाबले के लिए, स्त्रियों के लिए संघर्ष के लिए और उसके खतरों के लिए तैयार हैं। ‘

महिला आरक्षण के रूप में प्रतिन्धित्व को समतावादी उन्मुखता की इसी निरन्तरता में देखा जाना चाहिए। इतिहास के संघर्ष और उसकी प्रस्तावना किसी काल खण्ड में आकर रुक नहीं जाते और ऐसा नहीं है कि 2014 में कोई हिन्दू मान्यता का ‘प्रलय’ हुआ और उसके बाद दुनिया रची जाने लगी। हमारी पीढ़ी ने नागरिकता के लिए महिलाओं द्वारा पिछले 100 सालों का सबसे बड़ा संघर्ष देखा है, उसमें हम सब सहयोगी भागीदार भी हुए हैं- शाहीनबाग़ हुआ और देश भर में फैला नागरिकता आन्दोलन

सन्दर्भ के लिए आभार-

बिहार विधान सभा प्रोसिडिंग पुस्तिका , संपादक जाबिर हुसैन।

संविधान सभा की प्रोसिडिंग, लोकसभा सचिवालय द्वारा प्रकाशित।

अच्युत चेतन, फॉउन्डिंग मदर्स ऑफ़ इण्डियन रिपब्लिक, कैम्ब्रिज पब्लिकेशन।

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संजीव चंदन

लेखक ‘द मार्जनालाइज्ड’ प्रकाशन संस्था की चर्चित पत्रिका ‘स्त्रीकाल’ के संपादक हैं। संपर्क- themarginalised@gmail.com
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