30 जून 2022 को सुभाषचंद्र कुशवाहा की फेसबुक वाल पर मैंने एक पोस्ट पढ़ी थी जिसमें उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय के असिस्टेंट प्रोफेसर दीपक भास्कर की पोस्ट का हवाला दिया था। दीपक भास्कर ने लिखा है, “आज दुखी हूँ, कॉलेज में काम खत्म होने के बाद भी स्टाफ रूम में बैठा रहा, कदम उठ ही नहीं रहे थे।
दो बच्चों ने आज ही एडमीशन लिया और जब उन्होंने फीस लगभग 16000 सुना और होस्टल फीस लगभग 120000 सुनकर एडमीशन कैंसिल करने को कहा।
पिता ने लगभग पैर पकड़ते हुए कहा कि सर, मजदूर हैं राजस्थान से, हमने सोचा कि सरकारी कॉलेज है तो फीस कम होगी, होस्टल की सुविधा होगी सस्ते में, इसलिए आ गए थे।
मैंने रोकने की कोशिश भी की लेकिन अंत में एडमीशन कैंसिल ही करा लिया।”
कहिए, मेरिट में आने के बावजूद अपने ही देश के सरकारी विश्वविद्यालय में पढ़ने की अभिलाषा को रौंद देने वाले इस मुल्क की आजादी का अमृत महोत्सव ये पिता-पुत्र कैसे मनाएं?
मुंशी प्रेमचंद ने कहा था कि ऐसी आजादी हमें नहीं चाहिए जिसमें कुर्सी पर ‘जॉन’ की जगह ‘गोविन्द’ बैठ जायँ। किन्तु हुआ वही। काले अंग्रेजों के हाथ में सत्ता सौंपकर गोरे अंग्रेज चले गए। व्यवस्था- परिवर्तन का प्रेमचंद का सपना अधूरा ही रह गया। वर्षों बाद अली सरदार जाफरी की हताशा हूक बनकर फफक उठी थी,
“कौन आजाद हुआ?
किसके माथे से गुलामी की सियाही छूटी?
मेरे सीने में अभी दर्द है महकूमी का,
मादरे हिन्द के चेहरे पे उदासी है वही।
कौन आजाद हुआ?”
जिस आजादी पर अली सरदार जाफरी सवाल करते हैं आज हम उसका अमृत महोत्सव मना रहे हैं। मैं भी पिछले वर्षों की तुलना में इस वर्ष दुगुने उत्साह से अपना तिरंगा फहराऊंगा और आजादी की जश्न में भाग लूँगा। लेकिन इस वर्ष प्रेमचंद की चिन्ता और अली सरदार जाफरी की ये पंक्तियाँ मुझसे रह- रह कर पूछ रही हैं कि किसकी और कैसी आजादी का जश्न? अपने देश में साम्प्रदायिकता आज भी उसी तरह आक्रामक है। बैंकों के माध्यम से, गोरों की तरह आज भी लुटेरे देश को लूटकर अमेरिका और इंग्लैंड में जाकर मजे कर रहे हैं। विदेशी कंपनियों के लिए देश के दरवाजे पहले की ही तरह आज भी खुले हुए हैं। आज भी हजारों नहीं, लाखों किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं। आज भी भारत के करोड़ों नौनिहाल स्कूल जाने की जगह कारखानों में रात-दिन खट रहे हैं। आज भी करोड़ों भारतवासी कुपोषण से और इलाज के अभाव में दम तोड़ रहे हैं। पढ़े- लिखे सुयोग्य नौजवान आज भी रोजगार के लिए दर- दर भटक रहे हैं। आज भी निर्भया और दिशा गैंग रेप कांड से लेकर छोटी- छोटी बच्चियों तक से आए दिन बलात्कार और उनकी निर्मम हत्याएं हो रही हैं। आज भी दहेज के लिए बहुएं जलाई जा रही हैं। आज भी कोलकाता की सोनागाछी और मुंबई की कमाठीपुरा पहले जैसा ही आबाद है। क्या जिनके साथ ये घटनाएं घट रही हैं वे आजाद हैं? क्या उनकी और मेरी आजादी के स्वाद में कोई अंतर नहीं है? क्या आजादी का स्वाद इतना कड़वा होता है?
हुकूमत करने वालों ने अपने समान धर्मा भारतीयों को सत्ता सौंपने के साथ-साथ सांप्रदायिकता की फसल उगाने वाली उर्वर जमीन और विभाजन की क्रूर दास्तान भी सौंप दी लेकिन परिस्थितियाँ ऐसी पैदा कर दीं कि हम विभाजन के अपने दर्द को हमेशा के लिए भूल जायँ और उनके समानधर्माओं के सुख को अपना सुख समझते हुए केवल विजय के गीत गाएँ, केवल आजादी के जश्न मनाएँ जबकि आजादी के स्वाद से करोड़ों लोग अभी कोसों दूर हैं।
मुशी प्रेमचंद हों या शहीद-ए-आजम भगत सिंह, जिस आजादी का सपना वे देख रहे थे उसमें देश के सभी नागरिकों के लिए मुफ्त शिक्षा, मुफ्त स्वास्थ्य-सुविधाएं और रहने के लिए सबको छत समान रूप से सुलभ होने की शर्त थी। ये सब हमारी बुनियादी जरूरतें हैं।
आजादी के तत्काल बाद जब हमारा संविधान लागू हुआ तो देश, सदियों की लूट के बाद मुक्त हुआ था। बेहद गरीबी थी। सामाजिक असमानता थी। फिर भी शिक्षा और स्वास्थ्य को सर्वसुलभ बनाने की ईमानदार कोशिश की गई थी। लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को मूर्त रूप देते हुए प्राथमिक विद्यालयों से लेकर विश्वविद्यालय तक, आईआईटी, आईआईएम और मेडिकल कॉलेज तक बड़ी संख्या में सरकार की ओर से खोले गए थे। ज्ञान के इन मंदिरों के दरवाजे ग्रामीण क्षेत्रों के दूर दराज के प्रतिभाशाली विद्यार्थियों के लिए भी खुले हुए थे। शिक्षा नि:शुल्क या मामूली खर्च पर सुलभ थी। प्रतिभाशाली छात्रों को वजीफे भी मिलते थे। अभावों के बावजूद सरकार इन संस्थाओं में गुणवत्तायुक्त शिक्षा उपलब्ध करा रही थी। इसी का फल था कि मेरे जैसा एक सामान्य किसान पुत्र भी उच्च शिक्षा ग्रहण कर सका।
यही हाल स्वास्थ्य सुविधाओं का भी था। प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों से लेकर जिला चिकित्सालयों और मेडिकल कॉलेजों में भी एक रूपए के पर्चे से आम नागरिकों का इलाज हो पा रहा था। डॉक्टरों के लिखने पर मरीजों की जरूरी जाँच मुफ्त में या नाम मात्र के खर्च में हो जाती थी। अस्पतालों से ही जरूरी दवाएं मिल जाती थीं। उन दिनों टैक्स देने वाले कम थे और सरकार को राजस्व के रूप में बहुत कम धन प्राप्त हो पाता था। फिर भी इतनी बड़ी- बड़ी शिक्षण संस्थाएं और स्वास्थ्य सुविधाएं हमें सहज ही सुलभ थीं। दिन प्रति दिन जहाँ इनमें सुधार होने चाहिए थे, वहाँ शिक्षा और स्वास्थ्य -दोनो को व्यापार के लिए निजी क्षेत्र के हवाले कर दिया गया। अब दुनिया भर के मुनाफाखोर हमारे देश में विश्वविद्यालय खोल रहे हैं, मेडिकल कॉलेज और इंजीनियरिंग कालेज खोल रहें हैं- मुनाफे के लिए। शिक्षा हमारा मौलिक अधिकार होना चाहिए क्योंकि यही राष्ट्र के निर्माण का आधार है। लेकिन आज यह सबसे ज्यादा मुनाफा देने वाला क्षेत्र बन चुका है। इसे देशी- विदेशी कंपनियों को लूटने के लिए खुला छोड़ दिया गया है।
अब वह दिन दूर नहीं जब सरकारी कॉलेजों एवं विश्वविद्यालयों के शिक्षकों को वेतन के भी लाले पड़ जाएंगे। कुछ वर्ष पहले उन्हें स्वयं अपने संसाधन पैदा करने के लिए कह दिया गया था। संसाधन पैदा करने के नाम पर फीस में बेतहासा वृद्धि के अलावा उनके पास रास्ता ही क्या है? अब शिक्षा देशवासियों के लिए अन्न पैदा करने वाले किसानों और आवास व विकास के साधन पैदा करने वाले मजदूरों के बच्चों के लिए नहीं रह गई है चाहे वे जितने भी प्रतिभाशाली क्यों न हों। इस व्यवस्था में किसानों और मजदूरों के बच्चों को अब मजदूर ही बनना है। क्या अर्थ है इनके लिए इस आजादी का?
इतना ही नहीं, जिस सीमा तक सरकारी संस्थाएं स्ववित्त पोषित होंगी उसी सीमा तक उनका पाठ्यक्रम भी बाज़ार नियंत्रित हो जाएगा। इन संस्थाओं को बाज़ार की माँग के अनुसार आपूर्ति करनी पड़ेगी। ज़ाहिर है, बाज़ार को कुशल या अर्धकुशल कामगार चाहिए, न कि विद्वान। ऐसे में इन उच्च सरकारी शिक्षण संस्थाओं में आज जो रिसर्च आदि के काम हो रहे हैं, इसके उलट आगे उन्हें स़िर्फ बाज़ार की ज़रूरत के हिसाब से मानसिक श्रमिकों की आपूर्ति करनी होगी।
याद रखें, कोठारी आयोग ने कहा था कि प्राइवेट स्कूल की अवधारणा ही लोकतन्त्र के खिलाफ है।
इस समय देश में चाहे जिस किसी पार्टी की सरकार हो, इस बात को लेकर सभी एकमत हैं कि शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी ही होगी। उ. प्र. की योगी सरकार ने सत्ता में आने के साथ पहला काम यही किया कि प्रदेश के पाँच हजार सरकारी प्राथमिक विद्यालयों को अंग्रेजी माध्यम में बदल दिया। आंध्र प्रदेश की वाईएसआर सरकार ने तो समूची प्राथमिक शिक्षा को ही अंग्रेजी माध्यम में बदलने का आदेश जारी कर दिया है। कुछ लोग इसके खिलाफ कोर्ट में गए तो अब यह मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है। यही हाल बंगाल का भी है। तेजी से बंगला माध्यम के विद्यालय अंग्रेजी माध्यम में बदले जा रहे हैं। इंग्लिश स्पीकिंग कोर्स की कोचिंग तो गली- गली वैसे ही चल रही है, दिल्ली की केजरीवाल सरकार खुद इंग्लिश स्पींकिंग कोर्स चला रही है। सबसे हास्यास्पद स्थिति तो राजस्थान की है, जहाँ की कांग्रेस सरकार ने पाँच हजार से अधिक की आबादी वाले सभी गाँवों में महात्मा गाँधी इंग्लिश मीडियम स्कूल खोला है। जिस गाँधी ने आजीवन अंग्रेजी माध्यम का विरोध किया था उन्हीं के नाम पर इंग्लिश मीडियम स्कूल। हाय रे काँग्रेस की बौद्धिक परिणति!
जो भी राज्य सरकारें ऐसा कर रही हैं उनका तर्क है कि अभिभावकों की यही माँग है। क्या किसी राज्य सरकार ने इस तरह का कोई सर्वे कराया है? हमें तो इसकी कोई सूचना नहीं है। इसके बावजूद यदि यह मान भी लिया जाय कि अभिभावकों की यही माँग है तो क्या इस प्रश्न पर विचार किया गया कि अभिभावक ऐसी माँग क्यों कर रहे हैं? अभिभावक यह देख रहे हैं कि उनके बच्चे चाहे जितनी भी भारतीय भाषाएँ सीख लें किन्तु यदि एक विदेशी भाषा अंग्रेजी नहीं जानते हैं तो उन्हें इस देश में कोई नौकरी नहीं मिलने वाली है। आज यूपीएससी से लेकर चपरासी तक की सभी नौकरियों में सिर्फ अंग्रेजी का ही दबदबा है। सुप्रीम कोर्ट से लेकर पच्चीस में से इक्कीस हाई कोर्टों में एक भी भारतीय भाषा का प्रयोग नहीं होता। सब जगह सिर्फ अंग्रेजी चलती है। यह एक ऐसा तथाकथित आजाद मुल्क है जहाँ की जनता को अपनी भाषा मे न्याय पाने का भी अधिकार नहीं है। मुवक्किल को पता ही नहीं होता कि जज और वकील उसके बारे में क्या सवाल-जवाब कर रहे हैं। मुवक्किल को कोर्ट से अपने बारे मे मिले फैसले को समझने के लिए भी वकील के पास जाना पड़ता है और उसके लिए भी वकील को पैसे देने पड़ते हैं। ऐसी दशा में कोई अपने बच्चों को अंग्रेजी न पढ़ाने की मूर्खता कैसे कर सकता है?
निजी क्षेत्र के विद्यालयों का तो धंधा ही अंग्रेजी माध्यम के नाम पर फल-फूल रहा है। विद्यालयों में हिन्दी या अपनी मातृभाषा बोलने पर बच्चों को दंडित किया जाता है। छोटे-छोटे मासूम बच्चों से उनकी मातृभाषा छीन लेना कितनी बड़ी क्रूरता है? इस अपराध के लिए इतिहास हमें कभी माफ नहीं करेगा।
व्यक्ति चाहे जितनी भी भाषाएं सीख ले, किन्तु सोचता है अपनी भाषा में। दूसरे की भाषा में कभी कोई मौलिक चिन्तन नहीं हो सकता। आज भी अमेरिका, इंग्लैंड, रूस, चीन, जर्मनी, जापान, फ्रांस आदि दुनिया के सभी विकसित देश अपनी भाषा में ही पढ़ते हैं। दूसरे की भाषा में पढ़कर सिर्फ नकलची पैदा होते हैं। हमारे बच्चे दूसरे की भाषा में पढ़ते हैं, उसे सोचने के लिए अपनी भाषा में ट्रांसलेट करते हैं और लिखने के लिए फिर उन्हें दूसरे की भाषा में ट्रांसलेट करना पड़ता है। इस तरह हमारे बच्चों के जीवन का बड़ा हिस्सा दूसरे की भाषा सीखने में चला जाता है। अबतक इस मुद्दे को लेकर जितने भी आयोग बने हैं सभी का यही सुझाव है कि बुनियादी शिक्षा सिर्फ मातृभाषाओं के माध्यम से ही दी जानी चाहिए। गाँधी जी ने कहा था कि, “यदि मैं डिक्टेटर होता तो आज से ही मातृभाषाओं में शिक्षा अनिवार्य कर देता। मैं पाठ्य पुस्तको की प्रतीक्षा नहीं करता, क्योंकि पाठ्य पुस्तकें तो स्वयं ही माध्यम लागू होने के साथ ही बाजार में आ जाती।”
हमारी सरकार भारत के अतीत का गुण गाते नहीं थकती और विश्व गुरु होने का सपना भी देखती है किन्तु उसे यह समझ में नहीं आता कि अपने अतीत की हमारी उपलब्धियाँ इसी कारण हैं कि हम उन दिनों अपनी भाषा में पढ़ते थे। यही कारण है कि हम हजारों साल पहले दुनिया के पहले शल्य चिकित्सक शूश्रुत, शरीर विज्ञानी चरक, खगोल विज्ञानी आर्यभट्ट, वैयाकरण पाणिनि, योगाचार्य पतंजलि, अर्थशास्त्री कौटिल्य जैसे आचार्यों को दे सके। अंग्रेज नहीं आए थे जब हमने ताजमहल बनाया। रामविलास शर्मा ने कहा है कि दुनिया की किसी भी संस्कृति से मुकाबला करने के लिए हिन्दी क्षेत्र के तीन ही नाम ले लाना काफी है-तानसेन, तुलसीदास और ताजमहल।
हाल ही में संक्रांत सानु, राजीव मल्होत्रा और कार्ल क्लेमेंस की एक पुस्तक ‘द इंग्लिश मीडियम मिथ’ शीर्षक से प्रकाशित हुई है। इसमें उन्होंने दुनिया के सबसे अमीर और सबसे गरीब बीस-बीस देशों की सूची दी है। सबसे अमीर बीस देश हैं क्रमश: स्विट्जरलैंड, डेनमार्क, जापान, यूनाइटेड स्टेट्स, स्वीडेन, जर्मनी, आस्ट्रिया, नीदरलैंड, फिनलैंड, बेल्जियम, फ्रांस, यूनाइटेड किंगडम, आस्ट्रेलिया, इटली, कनाडा, इजराइल, स्पेन, ग्रीस, पुर्तगाल और दक्षिण कोरिया। इनमें से सभी देशों की जनभाषाएं ही वहाँ की शिक्षा के माध्यम की भी भाषाएं हैं और सरकारी काम-काज की भी। दूसरी ओर उन्होंने दुनिया के सबसे गरीब बीस देशों की जो सूची दी है, वे हैं क्रमश: काँगो, इथियोपिया, बरुंडी, सियेरा लियोन, मलावी, नाइजर, चाड, मोजाम्बीक, नेपाल, माली, बरकिना फासो, रवांडा, मेडागास्कर, कंबोडिया, तंजानिया, नाइजीरिया, अंगोला, लाओस, टोगो और उगांडा। इन देशों में सिर्फ नेपाल एक मात्र ऐसा देश है जहाँ की जनभाषा नेपाली ही वहाँ की शिक्षा के माध्यम की भी भाषा है और सरकारी काम- काज की भी। बाकी उन्नीस देश ऐसे हैं जहाँ की जनभाषाएं उपेक्षित और बोलचाल तक ही सीमित हैं और वहाँ शिक्षा के माध्यम तथा सरकारी काम- काज की भाषाएं भारत की तरह अन्य विदेशी भाषाएं है।
आज हमारे गाँवो में सिर्फ अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय ही बचे हैं, गिने चुने सरकारी विद्यालयों को छोड़कर। मेरे गाँव में जो लोग मजदूरी करते हैं वे भी अपना पेट काटकर अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों पढ़ा रहे हैं और उम्मीद कर रहे हैं कि उनके नौनिहाल भी अंग्रेजी पढ़कर उनके दुख दर्द दूर कर देंगे। उन्हें नहीं पता कि उनके बच्चे शहरों के पाँच सितारा संस्कृति वाले स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों का मुकाबला कभी नहीं कर सकेंगे। जबतक यह दोहरी शिक्षा रहेगी, पैसे वाले लोग अपने बच्चों के लिए उच्च कोटि की शिक्षा खरीद लेंगे। दोहरी शिक्षा-व्यवस्था ही सारी समस्याओं की जड़ है। यह भारतीय संविधान के संकल्प -अवसर की समानता -के खिलाफ तो है ही, देशहित के खिलाफ और मानवता के भी खिलाफ है।
अब तो बचे खुचे सरकारी प्राथमिक विद्यालयों को भी बेच देने की योजना बन रही है। हरियाणा सरकार ने विगत 1 जुलाई से नियम-134ए खत्म कर दिया है और उसकी जगह ‘चिराग योजना’ लागू किया है। इस योजना के अनुसार एक लाख अस्सी हजार रूपए से कम सालाना आय वाले परिवारों के जो बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे हैं वे यदि प्राइवेट स्कूलों में पढ़ेंगे तो उन्हें दूसरी से बारहवीं कक्षा तक की शिक्षा मुफ्त दी जाएगी और सरकारी स्कूलों में पढ़ने वालों को मोटी फीस देनी पड़ेगी। कम आय वालों को लुभाने वाली इस योजना का लक्ष्य सरकारी विद्यालयों को जर्जर और बदहाल बना देना है ताकि उसका हवाला देकर निजी हाथों में उन्हें बेचा जा सके।
हमारे संविधान की प्रस्तावना में ही समानता, स्वतन्त्रता और बंधुत्व की बात कही गई है। व्यक्ति की प्रतिष्ठा तथा अवसर की समानता उसका बुनियादी लक्ष्य है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भी इसका उल्लेख है और कहा गया है कि, “इस कार्य में ऐतिहासिक रूप से हाशिए पर रह रहे समुदायों, वंचित और अल्प-प्रतिनिधित्व वाले समूहों पर विशेष ध्यान दिए जाने की जरूरत होगी।” ( पृष्ठ-5) और घोषित किया गया है कि, “गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तक पहुँच को प्रत्येक बच्चे का मौलिक अधिकार माना जाना चाहिए।” किन्तु व्यवहार में ठीक इसके उलट हो रहा है।
दरअसल, संविधान निर्माताओं का लक्ष्य तो यही था। पूरी शिक्षा सबके लिए समान और मुफ्त होनी ही चाहिए। तभी सुदूर गावों में दबी हुई प्रतिभाओं को भी खिलने का और मुख्य धारा में शामिल होने का अवसर मिल सकेगा। क्यों हमारे देश में भरपूर मात्रा में केन्द्रीय विद्यालयों या नवोदय विद्यालयों जैसे विद्यालय नहीं बन सकते? क्यों हर बार माँग होने के बावजूद बजट का छ: प्रतिशत शिक्षा के मद में नहीं रखा जाता। कुछ वर्ष पहले इलाहाबाद हाई कोर्ट ने एक आदेश दिया था कि राष्ट्रपति से लेकर चपरासी तक, जो भी सरकारी खजाने से वेतन पाते हैं उनके बच्चे अनिवार्य रूप से सरकारी विद्यालयों में ही पढ़ेंगे। यदि हाई कोर्ट के उक्त आदेश पर अमल किया गया होता तो शिक्षा की दशा बदलते देर नहीं लगती। हमारे पड़ोस के देश भूटान में भी निजी क्षेत्र के विद्यालय हैं किन्तु उनमें वे ही बच्चे प्रवेश लेते है जिनका प्रवेश सरकारी विद्यालयों में नही हो पाता। इसका कारण सिर्फ यही है कि वहाँ राज परिवार के बच्चे भी सरकारी स्कूलों में ही पढ़ते हैं। इसी तरह चीन की यात्रा करके लौटने वाले लोग बताते हैं कि चीन के गाँवो में सबसे सुन्दर भवन उस गाँव के विद्यालय होते हैं।
सच यह है कि अंग्रेजी अब सिर्फ एक भाषा नहीं है। वह हमारे देश के उन थोड़े से लोगो के हाथ में उपलब्ध एक ऐसा हथियार है जिसके सहारे वे देश के प्रतिष्ठित पदों और ऊँची कुर्सियों पर स्वयं भी विराजमान हैं और अपने साहबजादों और साहबजादियों के लिए भी सुरक्षित रखे हुए हैं। आखिर क्या कारण है कि अस्सी प्रतिशत से अधिक आईएएस के घरों के लोग ही आईएएस बन रहे हैं, सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्टों के जजों की संताने ही जज बन रही हैं, डॉक्टरों के बेटे-बेटिय़ाँ ही डॉक्टर बन रहे हैं?
आज से चालीस-पैंतालीस साल पहले जिन जिला चिकित्सालयों में मध्यम वर्ग का इलाज आसानी से और नाम मात्र के खर्च पर हो जाता था, अस्पताल से दवाएं तक मिल जाती थीं, नियमित रूप से और समय से डॉक्टर अपने कक्षों में बैठते थे और ईमानदारी से मरीजों की जाँच करते थे, उन्हें उपयुक्त सुझाव देते थे, आज वहाँ की दशा यह है कि गाँव के अत्यंत गरीब लोग भी उन अस्पतालों में जाने से घबड़ाते हैं। उपयुक्त और विशेषज्ञ डॉक्टरों की अनुपलब्धता, साधनों की कमी, मरीजों की उपेक्षा, उनसे तरह-तरह की अतिरिक्त धन उगाही, बिना ठीक से जाँच के ही दवाएं लिख देना, जरूरी न होने पर भी कमीशन के लिए अस्पताल से बाहर जाँच कराने के लिए लिखना, मँहगी और ऐसी दवाएं लिखना जो अस्पताल में उपलब्ध न हो, आदि ऐसी चीजे हैं जिनसे मरीज भयभीत होता है और फीस देकर प्राइवेट दिखाने को विवश हो जाता है। प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों के खुल जाने से डॉक्टरी की पढ़ाई अब इतनी मँहगी हो गई है कि आज जब एक मेडिकल का छात्र पढ़ाई पूरी करके कॉलेज से निकलता है तो उसे अपने प्रोफेसन की नैतिकता नहीं दिखाई देती बल्कि अपनी पढ़ाई में हुआ खर्चा दिखता है और वह पढ़ाई के खर्चे का कई गुना मरीजों से वसूलने में लग जाता है।
सरकारें जनता के लिए स्वास्थ्य बीमा जैसी तरह-तरह की योजनाएं लागू करके उसे भ्रमित करती हैं। जाहिर है बीमा की ये किस्तें जनता के पैसे से ही चुकाई जाती हैं। किसी- किसी को इसका लाभ भी होता है, किन्तु ज्यादातर बीमा राशि, बीमा-कंपनियाँ हड़प लेती हैं। यदि सरकारें इस धन का उपयोग सरकारी अस्पतालों को साधन संपन्न बनाने में करतीं तो जनता को प्राइवेट अस्पतालों में भटकने और लुटे जाने की नौबत ही नहीं आती। किन्तु वास्तविकता तो यह है कि आज जिसे हम सरकार कहते हैं वह तो देश के चंद बड़े उद्योगपतियों की दलाल मात्र है। असली शासक तो बड़े-बड़े पूँजीपति ही हैं। संसद में सारे कानून उन्हीं के हित में और उन्ही के इशारे पर बनाए जाते हैं।
एक ओर जहाँ आजादी के पचहत्तर साल बीतने की खुशी में हम आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं तो दूसरी ओर हमारे देश की बड़ी आबादी गुणवत्ता पूर्ण उच्च शिक्षा से तथा स्वास्थ्य-सुविधाओं से पूरी तरह वंचित है। आज डॉक्टरी की पढ़ाई इतनी मँहगी हो चुकी है कि चाहे जितना भी प्रतिभाशाली क्यों न हो, एक सामान्य किसान या मजदूर का बच्चा डॉक्टरी नहीं पढ़ सकता। ऐसे करोड़ों लोग, जिनके लिए उच्च शिक्षा के सारे दरवाजे बंद हैं, बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं दुर्लभ हैं, रहने के लिए झोपड़पट्टियाँ हैं, उनके लिए आजादी का क्या अर्थ?
सच यह है कि जब तक देश के सभी लोगों के लिए, उनकी मातृभाषाओं में एक समान और मुफ्त शिक्षा की व्यवस्था नहीं हो जाती, सभी को एक समान और मुफ्त स्वास्थ्य की सुविधाएं सुलभ नहीं हो जातीं और सबके के लिए छत सुलभ नहीं हो जाती तबतक यह आजादी अधूरी है। जो लोग इन सुविधाओं से वंचित हैं उनके लिए आजादी के अमृत-महोत्सव का कोई अर्थ नहीं।