तबाही, तूफान की या विकास की?
- कुमार प्रशांत
डेढ-दो हफ्तों के अन्तराल से देश के पूर्वी (पश्चिम बंगाल, उडीसा) और पश्चिमी (महाराष्ट्र, गुजरात) तटों पर आए चक्रवाती तूफान, क्रमश: ‘अम्फान’ और ‘निसर्ग’ ने एक बार फिर हमारे सर्वाधिक विवादित विकास को चर्चा में ला दिया है। वैज्ञानिक बार-बार चेतावनी दे रहे हैं कि मौजूदा विकास के चलते कार्बन उत्सर्जन बढा है और नतीजे में जलवायु-परिवर्तन ने समूचे सौर-मंडल का प्राकृतिक संतुलन बिगाड दिया है। सवाल है, क्या हम अब भी कुछ सीखने, बदलने को तैयार होंगे? प्रस्तुत है, इसी मसले का खुलासा करता कुमार प्रशांत का यह लेख।–संपादक
तब ‘अम्फान’ आ कर गुजर गया था, अब ‘निसर्ग’ आ कर गुजर गया है। राहत की आवाज सुनाई दे रही है कि चलो, गुजर गया! हिसाब यह लगाया जा रहा है कि ‘अम्फान’ ओडिसा से कट कर निकल गया, ‘निसर्ग’ ने मुंबई के चेहरे पर कोई गहरी खरोंच नहीं डाली और तूफान कमजोर पड़ गया! तूफान कैसे कमजोर पड गया, इसका हिसाब लगाया आपने? जवाब तुरन्त आता है, मौत के आँकड़े देखिए। इतने कम मरे तो क्या ताकत थी तूफान में! लेकिन यह हिसाब बहुत गलत ही नहीं, बहुत खतरनाक भी है। कोई तूफान यों ही नहीं गुजर जाता, बहुत कुछ कह कर, बहुत कुछ दिखाकर जाता है और यह भी कह जाता है कि फिर आऊंगा।
विज्ञान ने इतने सालों की खोज और शोध से यह तो सम्भव बना दिया है कि हम ऐसी प्राकृतिक आपदाओं की आहट पहले से जान जाते हैं और किस्म-किस्म की छतरियां तान कर अपनी जान बचा लेते हैं। फिर माल का जो होना हो, हो। इसके आगे और इससे अधिक विज्ञान कुछ कर भी तो नहीं सकता है। विज्ञान का रिश्ता ज्ञान से है। वह ज्ञान तो देता है कि यह क्या हुआ और क्यों हुआ। उससे बचने या उससे बच निकलने का अभिक्रम तो हमें ही करना होगा। हम वह न करें तो विज्ञान न तो ‘लॉकडाउन’ करने आएगा, न ‘कोरेंटीन’ में डालने पहुँचेगा।
विज्ञान ने हमें बताया है कि यह सारा खेल जलवायु-परिवर्तन का है। जल और वायु दोनों ही निरन्तर हमारे निशाने पर हों और हमारा जीवन-व्यापार सामान्य चलता रहे, क्या यह सम्भव है? विज्ञान कहता है कि ऐसा नहीं हो सकता है। जब आप जल और वायु में परिवर्तन करेंगे तो पर्यावरण में परिवर्तन होगा ही, क्योंकि ये सब एक संतुलित चक्र में बन्ध कर चलते हैं। गणित के प्रमेय की तरह यह सिद्ध अवधारणा है। हवा में जब भी कार्बन की मात्रा बढ़ेगी, पर्यावरण में उसकी प्रतिक्रिया होगी। कार्बन की मात्र बढ़ेगी तो पर्यावरण में गर्मी बढ़ेगी। गर्मी बढ़ेगी तो प्रकृति में जहाँ भी बर्फ होगी वह पिघलेगी। पहाड़ पिघलेंगे, ग्लेशियर पिघलेंगे तो समुद्र का जलस्तर बढ़ेगा। समुद्र अपनी हदें तोड़कर धरती पर चढ़ आएगा और गाँव-मुहल्ले-नगर-देश सब शनै:-शनै: डूबते जाएँगे। इसका असर धरती पर होगा, नदियों-समुद्रों के पानी की सतह पर होगा और गर्भ में भी होगा। इसका असर धरती के नीचे की दुनिया पर भी होगा। जो डूब जाएँगे वे तो समझिए बच जाएँगे, लेकिन जो बच जाएँगे वे भी जाएँगे। फसलें मरेंगी, फल-फूल का संसार उजड़ेगा, अकाल होगा, तूफान होगा, भूकम्प होगा। इतना ही नहीं होगा, कोरोना की तरह के तमाम नये-अजनबी रोगों का हमला होगा। सारे वायरस जलवायु-परिवर्तन की औलादें हैं। जलवायु-परिवर्तन अपनी औलादों को प्राणी-जगत तक पहुँचाता है और वे नये-नये वायरसों के वाहक बन जाते हैं। अभी हम खोज रहे हैं कि कोरोना किस प्राणी से हो कर हमारे पास पहुँचा है। जब तक हम यह खोज करेंगे तब तक प्रकृति कुछ और नये वायरस हमारे पास पहुँचा रही होगी। यह सिलसिला न आज का है, न कल खत्म होने वाला है। यह कार्बन के कंधों पर बैठा है और हमारे विकास के स्वर्णिम महल के कंधों पर कार्बन बैठा है।
कार्बन को रोकना हममें से किसी के बस में नहीं है, क्योंकि हमने कार्बन को ही अपने विकास का आधार बना रखा है। प्रकृति कार्बन को जहाँ तक सम्भव है, दबा-छिपा कर रखती है, क्योंकि वह इसका खतरनाक चरित्र जानती है। हम छिपाकर रखा कार्बन उसके पेट से खोद कर निकाल लेते हैं। कोयला निकाल कर बिजली बनाते हैं, तेल निकाल कर कार चलाते व हवाई जहाज उड़ाते हैं। बिजली और कार के बीच में आ जाते हैं, धरती से आकाश तक फैले हुए हमारे नाना प्रकार के आरामगाह! सब एक ही काम करते हैं, छिपाकर रखा हुआ कार्बन हवा में फेंकते हैं। जल और वायु दोनों पर लगातार कार्बन का हमला होता रहता है। प्रकृति के इंजीनियर रात-दिन इस हमले का मुकाबला करने में लगे रहते हैं, लेकिन कर नहीं पाते क्योंकि यह उनकी क्षमता से कहीं बड़ा काम हो जाता है। यह कुछ वैसा ही है जैसे जब भी आप कोई उपकरण खरीद कर लाते हैं तो उस पर लिखा देखते हैं कि इसकी मोटर लगातार कितने घंटे चलाई जा सकती है। उस मर्यादा के भीतर आप चलाते हैं तो उपकरण अच्छा काम देता है। मर्यादा तोड़ते हैं तो मोटर बंद पड़ जाती है या फुंक जाती है। ऐसा ही प्रकृति के साथ भी है। वह अपनी क्षमता के भीतर अपने संरक्षण में पूर्ण सक्षम है।
आप देखिए न, सारा संसार कोरोना की चादर तले कसमसा रहा है तो प्रकृति संवरती जा रही है। जल और वायु दोनों धुल-पुंछ रहे हैं। ‘नमामि गंगे परियोजना’ लॉकडाउन में है, लेकिन गंगा अपने उद्गम से ले कर नीचे तक जैसी साफ हुई है वैसी साफ गंगा तो कभी देखी ही नहीं थी! हिमालय की चोटियां दूर से नजर आने लगी हैं और हमारी खिड़कियों से ऐसे पंछी दिखाई देने लगे हैं जिन्हें हमने ‘विलुप्त’ की श्रेणी में डाल रखा था। यह सब सिर्फ इसलिए हो रहा है कि हम अपना विकास ले कर जरा पीछे हट गये हैं। हम हटे हैं तो प्रकृति अपने काम पर लग गई है। इसलिए न तो पर्यावरण बचाने की जरूरत है और न धरती को। जरूरत है, लोभ व द्वेष से भरी अपनी जीवन-शैली बदलने की। मतलब अपना कार्बन-जाल समेट लेने की।
‘लॉकडाउन’ के बाद से अब तक देश की राजधानी दिल्ली में पाँच बार भूकम्प के झटक आए हैं। धरती के नीचे का विज्ञान जानने वाले बता रहे हैं कि नीचे काफी कुहराम मचा है। कुछ भी घट सकता है। कोरोना तो आ कर बैठा ही है। हम उसके सामने बेबस हैं, क्योंकि हम इसे जानते ही नहीं हैं। हमारे शरीर का सुरक्षा-तन्त्र अपने भीतर प्रवेश करने वाले जिस-जिस दुश्मन से लड़ता है उसकी पहचान सुरक्षित रख लेता है। ऐसी करोड़ों पहचानें उसके यहाँ संग्रहित हैं। उनमें से कोई एक विषाणु भी भीतर आ जाए तो वे हमला कर उसका काम तमाम कर देते हैं। लेकिन जब कोई अनजाना विषाणु भीतर प्रवेश करता है तो वे अवश हो जाते हैं। उनके पास जितने हथियार हैं वे इन पर काम नहीं आते। तो इस नयी बीमारी का सामना करने लायक हथियार बनाने में उसे वक्त लग जाता है। इस दौरान जो जहाँ, जैसे और जितना मरे, उसकी फिक्र वह कर ही नहीं सकता है। प्रकृति न सदय होती है, न निर्दय, वह तटस्थ होती है।
कोई भी तूफान, फिर उसका नाम ‘अम्फान’ हो कि ‘निसर्ग’ कि ‘कोरोना,’ गुजर नहीं जाता, कमजोर नहीं पड़ जाता, ऊँची आवाज में फिर से लौट आने का अपना संदेश दे कर चला नहीं जाता तब तक उसके असर भोगने होंगे। वह कह कर गया है और कोरोना लगातार, बार-बार कह रहा है कि पिछले कोई 10 हजार साल में तुमने जितना ‘विकास’ किया है, उसमें ही तुम्हारे विनाश के बीज छिपे हैं। उससे हाथ खींच लो। मनुष्य और मनुष्य के बीच में दो गज की दूरी भी न रखी जा सके, ऐसी घनी आबादी के महानगर मत बनाओ। मत कहो उसे सभ्यता जो अकूत संसाधनों को खा कर ही जिंदा रह पाती है। सागरों को छोटा और आसमान को धुंधला करने वाला कोई भी काम तुम्हारे हित में नहीं है। विज्ञान की राजनीति और विज्ञान से राजनीति हमेशा आत्मघाती होगी। प्राणी-जगत और मनुष्य-जगत अपने-अपने दायरे में, दो गज की दूरी बना कर ही रहें, क्योंकि इनका सहजीवन शुभ है। अशुभ है, इनका एक-दूसरे में रहना। गाँधी नाम के व्यक्ति ने इसके लिए एक सुंदर-सा शब्द दिया था – ‘स्वेच्छा से स्वीकारी हुई गरीबी।‘ यही अमीरी की चाभी है। लाचारी नहीं, अपनी पसन्दगी! हम पसन्द तो करें। (सप्रेस)
श्री कुमार प्रशांत प्रभावशील लेखक और गाँधी शांति प्रतिष्ठान के अध्यक्ष हैं।