- डॉ. अमरनाथ
जिस प्रकार प्रगतिवादी आलोचना के विकास के पीछे मार्क्सवादी जीवन दर्शन है उसी तरह आधुनिक भारत में हिन्दुत्ववादी आलोचना का भी विकास हुआ है और उसके पीछे हिन्दुत्ववादी जीवन दर्शन है। इस दर्शन का वैचारिक स्रोत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ है। इसलिए यदि कोई चाहे तो इसे ‘संघवादी आलोचना’ भी कह सकता है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक दक्षिणपन्थी हिन्दू राष्ट्रवादी स्वयंसेवी संगठन है और वह व्यापक रूप से भारत के राजनीतिक दल भारतीय जनता पार्टी का पैतृक संगठन माना जाता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को संक्षेप में ‘संघ’ अथवा ‘आरएसएस’ कहते हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना 27 सितंबर 1925 को विजया दशमी के दिन ‘मोहिते के बाड़े’ नामक स्थान पर डॉ। केशव बलिराम हेडगेवार ने की थी। पाँच स्वयंसेवकों के साथ शुरू हुई विश्व की पहली शाखा आज 50 हजार से अधिक शाखाओ में बदल गयी है। डॉ. हेडगेवार ने शुरू से संघ का कोई संविधान नहीं बनाया और न तो संघ के दर्शन या उद्देश्य के बारे में ही कुछ लिखा। दूसरे सरसंघचालक माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर ने ‘वी आर आवर नेशनहुड डिफाइंड’ शीर्षक से एक पुस्तक लिखी जिसमें पहली बार संघ की विचारधारा और उसके उद्देश्यों के बारे में विवेचन है। लोगों ने इसे ‘संघ की गीता’ कहा है। बाद में ‘बंच ऑफ थाट्स’ नाम से उनके भाषणों आदि का एक संकलन तथा छ: खण्डों में ‘श्री गुरू जी समग्र दर्शन’ भी प्रकाशित हुए। राष्ट्र के सम्बन्ध में अपनी अवधारणा के बारे में गोलवलकर लिखते हैं,
“हिन्दुस्तान हिन्दुओं की भूमि है जिसका पुरखों से प्राप्त एक क्षेत्र है। इस देश में प्रागैतिहासिक काल से एक प्राचीन जाति हिन्दू जाति रहती है। इस महान हिन्दू जाति का प्रख्यात हिन्दू धर्म है। निजी, सामाजिक राजनीतिक तमाम क्षेत्रों में इस धर्म से दिशा निर्देश लेकर इस जाति ने एक संस्कृति विकसित की है जो पिछली दस सदियों से मुसलमानों और यूरोपियनों के अधोपतित सभ्यताओं के घातक संपर्क में आने के बाद भी विश्व में सबसे श्रेष्ठ संस्कृति है।” (वी आर आवर नेशनहुड डिफाइंड, पृष्ठ 40) उनका मानना है कि सिर्फ वे लोग ही राष्ट्रवादी देशभक्त हैं जो अपने हृदय में हिन्दू जाति और राष्ट्र की शान बढ़ाने की आकाँक्षा रखते हैं और इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं।
वास्तव में ‘हिन्दुत्व’ कोई उपासना पद्धति नहीं, बल्कि एक जीवन शैली है। इसीलिए राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के विचारक ‘हिन्दू’ शब्द की व्याख्या करते हुए अमूमन कहते हैं कि हिन्दू वह व्यक्ति हैं जो भारत को अपनी ‘पितृ-भूमि’ और अपनी ‘पुण्य-भूमि’ दोनो मानता है। हिन्दुत्व शब्द केवल हिन्दू जाति के कोरे धार्मिक और आध्यात्मिक इतिहास को ही अभिव्यक्त नहीं करता। इसका अर्थ बहुत व्यापक है। हिन्दू समुदाय के लोग विभिन्न मत-मतान्तरों का अनुसरण करते हैं। इन मत- मतान्तरों व पंथों को सामूहिक रूप से हिन्दूमत या हिन्दूवाद नाम दिया जा सकता है। इस विचारधारा के लोगों का मानना है हर भारतवासी, जो किसी भी मजहब का मानने वाला हो, की रगों में हिन्दू का खून दौड़ रहा है और उसके पूर्वज हिन्दू थे। हममें से कुछ लोगों ने या तो अपनी मर्जी से या दबाव में गैर सम्प्रदाय अपना लिया पर सबकी रगों में एक ही ‘जाति’ का खून बहता है। इसलिए हममें से जो देशभक्त हैं वे किसी भी पंथ या सम्प्रदाय को मानने वाले हो सकते हैं।
संघ की विचारधारा में राष्ट्रवाद, हिन्दूत्व, हिन्दू राष्ट्र, राम जन्मभूमि, अखण्ड भारत, समान नागरिक संहिता जैसे विषय है। महर्षि अरविन्द, श्यामाप्रसाद मुखर्जी, दीनदयाल उपाध्याय जैसे महापुरुष संघ की वैचारिक ऊर्जा के स्रोत हैं। संघ जिन मौलिक प्रश्नों को उठा रहा है, वे हैं भारतीय संदर्भ में राष्ट्रीयता क्या है? पंथ निरपेक्षता का तात्पर्य क्या है? और बहुसंस्कृतिवाद का भारतीय संस्करण क्या है? ऐसे प्रश्नों पर जब संघ विमर्श करता है तो उसका लक्ष्य मैं भारतीय हूँ – इस कथन को सांस्कृतिक एवं सभ्यता का धरातल प्रदान करना है। आरएसएस के एक प्रचार माध्यम अंग्रेजी साप्ताहिक ‘आर्गनाइजर’ के पहले अंक (3 जुलाई 1947) के मुख पृष्ठ पर ‘तेजोमय हिन्दू राष्ट्र’ और अंग्रेजी में ‘ग्लोरियस हिन्दू नेशन’ छपा है जो उसके उद्देश्य की ओर सीधा संकेत है।
संघ के स्वयंसेवक बड़े ही अनुशासित और अपनी संस्कृति व कर्तव्य के प्रति निष्ठावान होते हैं। किन्तु उनके अनुशासन के बारे में गाँधी जी के मत को उनके निजी सचिव प्यारे लाल ने उद्धृत करते हुए लिखा है, “गाँधी जी की टोली के एक आदमी ने टोककर कहा कि आरएसएस के लोगों ने ‘वाह शरणार्थी कैम्प’ में बहुत अच्छा काम किया है। उन्होंने अनुशासन, साहस और कठिन परिश्रम की क्षमता प्रकट की है। गाँधी जी ने उत्तर दिया था, ‘लेकिन भूलो मत कि हिटलर के नाजी और मुसोलिनी के फासिस्ट भी ऐसे ही थे।‘ उन्होंने आरएसएस का चरित्रांकन एक सर्वाधिकारवादी दृष्टिकोण वाले साम्प्रदायिक संगठन के रूप में किया। “(प्यारेलाल, ‘महात्मा गाँधी : द लास्ट फेज’, भाग -2, पृष्ठ-440)
महात्मा गाँधी की हत्या और 6 दिसम्बर 1992 को अयोध्या स्थित राम जन्म- भूमि का विवादित ढांचा सरेआम गिराए जाने के लिए आरएसएस को जिम्मेदार बताया जाता है। वामपन्थी विचारों वाले लोगों की दृष्टि में भारतीय राजनीति में आरएसएस एक ऐसी शक्ति है जो राष्ट्रवाद, जनतन्त्र, राज्य और संघीय ढ़ांचे, सामाजिक न्याय, समाज सुधार तथा आर्थिक विकास के उन सभी विचारों के सर्वथा विरुद्ध है, जिन्हें आजादी के लिए संघर्ष की प्रक्रिया में आधुनिक भारतीय राष्ट्र ने अकूत त्याग और बलिदानों के जरिए अर्चित किया है।
सोवियत संघ के विघटन और भारत में वामपन्थी ताकतों के कमजोर पड़ने के कारण अर्थात भूमण्डलीकरण के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ताकत में अभूतपूर्व इजाफा हुआ। इसके पहले अर्थात संघ के गठन के पचास वर्ष बाद 1975 में जब आपातकाल की घोषणा हुई तब आरएसएस की एक घटक तत्कालीन राजनीतिक पार्टी जनसंघ पर भी संघ के साथ प्रतिबन्ध लगा दिया गया था। आपातकाल हटने के बाद जनसंघ का विलय जनता पार्टी में हुआ और केन्द्र में मोरारजी देसाई के नेतृत्व में मिलीजुली सरकार बनी। 1975 के बाद से धीरे- धीरे इस संगठन का महत्व बढ़ता गया और अन्त में इसकी परिणति भाजपा जैसे राजनीतिक दल के रूप में हुई जिसे आमतौर पर संघ की राजनीतिक शाखा के रूप में देखा जाता है। संघ की स्थापना के 75 वर्ष बाद सन् 2000 में प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए गठबन्धन की सरकार भारत की केन्द्रीय सत्ता पर आसीन हुई और उसके बाद सन् 1914 ई. में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा की पूर्ण बहुमत की सरकार बनी जिससे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की शक्ति में अभूतपूर्व विस्तार हुआ। अटल बिहारी वाजपेयी उदारवादी विचारधारा के राजनेता थे। वे स्वयं कवि भी थे। बुद्धिजीवियों और लेखकों के एक समूह पर उसका सकारात्मक प्रभाव पड़ा। कुछ सत्ता से लाभ पाने की ललक में भी उधर झुके और इस तरह हिन्दी में हिन्दुत्ववादी आलोचना की एक धारा का विकास हुआ। भाजपा की पूर्ण बहुमत वाली सरकार बनने के बाद देश में हिन्दुत्ववादी आलोचना की धारा पुष्ट होती हुई दिखायी देती है। यद्यपि आज भी इस आलोचना धारा में हिन्दी के प्रतिष्ठित आलोचक बहुत कम हैं। हम यहां कुछ के आलोचना- कर्म का संक्षिप्त परिचय दे रहे हैं।
इस आलोचना धारा के सबसे प्रमुख आलोचक हैं कमलकिशोर गोयनका (1938- )। कमलकिशोर गोयनका हिन्दी के अकेले ऐसे आलोचक हैं जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन प्रेमचंद के अध्ययन- अनुशीलन में खपा दिया और वामपन्थी विचारधारा के आलोचकों की पूरी जमात से अकेले मुठभेड़ करते हुए अपनी मान्यताओं के साथ किसी तरह का समझौता न करते हुए डट कर खड़े रहे। प्रेमचंद के जीवन, विचार तथा साहित्य के अनुसंधान एवं आलोचना के लिए आधी शताब्दी अर्पित करने वाले, देश- विदेश में प्रेमचचंद- विशेषज्ञ के रूप में प्रतिष्ठित कमलकिशोर गोयनका की प्रेमचंद पर अबतक लगभग पच्चीस पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। इसके अलावा हिन्दी के अन्य लेखकों पर भी उनकी तेईस किताबें प्रकाशित हैं किन्तु उनकी ख्याति का आधार उनका प्रेमचंद पर प्रकाशित प्रचुर आलोचना-कर्म ही है।
वामपन्थी आलोचकों द्वारा मुंशी प्रेमचंद को अपने खेमे में हथिया लिए जाने के खिलाफ कमलकिशोर गोयनका ने जमकर लिखा है और प्रेमचंद को मार्क्सवादी साबित किए जाने वाली अवधारणाओं का तार्किक ढंग से खंडन करने की कोशिश की है। प्रेमचंद की कहानियों का कालक्रमानुसार अध्ययन कमलकिशोर गोयनका की नवीनतम पुस्तक है। इसमें शोधकर्ता प्रो। गोयनका ने समय के बदलावों को चिन्हित करते हुए प्रेमचंद की कहानियों का विश्लेषण प्रस्तुत किया है। उनके शब्दों में, “ यह पहला प्रामाणिक अध्ययन है, जो प्रत्येक कहानी को कालक्रम में देखता है और परखता है तथा कहानी के पूर्वापर संबंधों के रहस्यों को भी उद्घाटित करता है।” प्रेमचंद को किसी वाद-विशेष में बांधने से अच्छा है यह देखना कि समयानुसार उनमें कौन- कौन से परिवर्तन आए। इन्हें जाने बिना उचित मूल्यांकन संभव नहीं है।
कमलकिशोर गोयनका के अनुसार प्रेमचंद को साधारण जन का कहानीकार कहना उचित नहीं है क्योंकि उनकी संवेदना एवं सहिष्णुता का संसार बहुत ही व्यापक है। यह सच है कि गांव के प्रति उनकी सहानुभूति और निष्ठा अधिक है किन्तु अपने समय के मध्य और उच्च वर्ग की स्थिति, मनोविज्ञान, जीवन एवं विचारशैली के मर्म के प्रति भी वे अनजान न थे। प्रेमचंद को गांव तक सीमित करके उनकी संवेदना को सीमित करना और शहरी जीवन के चित्रण को हाशिए पर डालना उनके समग्र अध्ययन के लिए उचित नहीं है।
कमलकिशोर गोयनका के अनुसार प्रेमचंद ने अपनी कहानियों में ‘लघु मानव’ अर्थात साधारण जन की प्रतिष्ठा करके हिन्दी कहानी के चरित्र में क्रान्तिकारी परिवर्तन किया है। किन्तु इसके मूल में मार्क्सवादी चेतना न होकर स्वामी विवेकानंद के विचारों का प्रभाव है। प्रेमचंद के पात्र वास्तव में ‘भारतीय विवेक चेतना’ के प्रतीक हैं।
कमलकिशोर गोयनका मानते हैं कि प्रेमचंद ने अपने साहित्य सिद्धांत आदर्शोन्मुख यथार्थवाद के द्वारा जीवन के समग्र एवं विराट रूप को संग्रथित करने का प्रयत्न किया है, किन्तु हिन्दी के प्रगतिशील आलोचकों ने इसे आदर्श तथा यथार्थ के दो टुकड़ों में बांटकर जीवन को समग्रता में देखने तथा चित्रित करने की लेखकीय दृष्टि की बड़ी भर्त्सना की है। गोयनका जी के अनुसार इन आलोचकों ने प्रेमचंद को आदर्शवादी तथा यथार्थवादी दो रूपों में विभक्त करके आदर्शवादी प्रेमचंद के विरुद्ध यथार्थवादी प्रेमचंद को खड़ा कर दिया है, जबकि प्रेमचंद जीवन की संपूर्णता के लिए साहित्य में यथार्थ और आदर्श दोनो को अनिवार्य मानते हैं। कमलकिशोर गोयनका के अनुसार प्रेमचंद के कथा-साहित्य में राष्ट्रीय चेतना मुखर है। वे आर्थिक दृष्टि से भी गरीब नहीं थे और उनके निधन के समय उनकी अन्तिम यात्रा में भी बड़े-बड़े साहित्यकार मसलन् प्रसाद जैसे साहित्यकार शामिल हुए थे। इस तरह प्रेमचंद के बारे में मार्क्सवादियों द्वारा स्थापित बहुत सी अवधारणाओं का उन्होंने खंडन किया है।
‘प्रेमचंद विश्वकोश’ (पाँच भाग), ‘प्रेमचंद का अप्राप्य साहित्य’ (दो भाग), ‘प्रेमचंद की हिन्दी–उर्दू कहानियाँ’, ‘प्रेमचंद के उपन्यासों का शिल्प-विधान’, ‘प्रेमचंद और शतरंज के खिलाड़ी’, ‘प्रेमचंद : अध्ययन की नई दिशाएं’, ‘प्रेमचंद चित्रात्मक जीवनी’ आदि कृतियाँ कमलकिशोर गोयनका की कीर्ति के आधार हैं।
इस धारा के अन्य आलोचकों में मृदुला सिन्हा मुख्य रूप से कथाकार हैं किन्तु उनकी स्त्री विमर्श पर केन्द्रित पुस्तकें भी हैं। उनमें ‘बिटिया है विशेष’ तथा ‘मात्र देह नहीं है औरत’ उल्लेखनीय हैं। उनका स्त्री विमर्श मर्यादित एवं परंपरानुकूल है। तात्पर्य यह कि वे कन्या-जन्मोत्सव, कन्या भ्रूणहत्या के विरुद्ध, विवाहपूर्व परामर्श तथा विवाह विघटन को रोकने जैसे विषयों पर लिखती हैं। वे भारतीय जनता पार्टी से जुड़ी हैं और संप्रति गोवा की राज्यपाल हैं। सदानंद प्रसाद गुप्त ( 1952 ) भक्ति साहित्य के गंभीर अध्येता है। ‘हिन्दी साहित्य : विविध परिदृश्य’, तथा ‘राष्ट्रीय अस्मिता और हिन्दी साहित्य’ इनकी प्रमुख आलोचनात्मक कृतियाँ हैं। सदानंद प्रसाद गुप्त ने ‘राष्ट्रीयता के अनन्य साधक महन्थ अवेद्यनाथ’ (तीन खण्ड) ‘संस्कृति का कल्पतरु कल्याण’, ‘आचार्य रामचंद्र शुक्ल’, निर्मल वर्मा का रचना संसार’, ‘अज्ञेय : सृजन के आयाम’, ‘संस्कृति संवाद’, तथा ‘सुमित्रनंदन पंत’ का संपादन भी किया है। करुणाशंकर उपाध्याय (1968) नई पीढ़ी के ऊर्जावान आलोचक हैं। मध्यकालीन से लेकर आधुनिक साहित्य तथा पाश्चात्य से लेकर भारतीय काव्यशास्त्र तक सभी क्षेत्रों से संबंधित उनकी कृतियाँ प्रकाशित हैं। ‘सर्जना की परख’, ‘साहित्यकार बेकल : संवेदना और शिल्प’, ‘आधुनिक हिन्दी कविता में काव्य –चिन्तन’, ‘मध्यकालीन काव्य- चिन्तन और संवेदना’, ‘पाश्चात्य काव्य- चिन्तन’, ‘आधुनिक कविता का पुनर्पाठ’, ‘हिन्दी कथा- साहित्य का पुनर्पाठ’, ‘आवाँ विमर्श’, हिन्दी साहित्य : मूल्याँकन और मूल्याँकन’, ‘वक्रतुंड : मिथक की समकालीनता’, ‘माया गोविन्द : सृजन के अनछुए संदर्भ’, ‘साहित्य और संस्कृति के सरोकार’ आदि उनकी आलोचनात्मक पुस्तकें हैं। सोशल मीडिया का सार्थक उपयोग करने में करुणाशंकर उपाध्याय सिद्धहस्त हैं। जय प्रकाश ( 1943 ) तुलसी साहित्य के गंभीर अध्येता हैं। मध्यकालीन साहित्य इनके अध्ययन का प्रिय क्षेत्र है। ‘तुलसीदास : नए साक्षात्कार’, ‘बिहारी की काव्य-सृष्टि’, ‘ध्वनि और रचना संदर्भ’, ‘काव्य में अर्थबोध की समस्या’ आदि इनकी प्रमुख प्रकाशित पुस्तकें हैं। जय प्रकाश जी ने ‘कविवर देव’ नाम से साहित्य अकादमी के लिए विनिबन्ध भी लिखा है। सुरेन्द्र दुबे ( 1953 ) पर शैली विज्ञान का विशेष प्रभाव है। ‘कामायनी का शैली वैज्ञानिक अध्ययन’, ‘दिनकर की काव्यभाषा का संरचनात्मक अध्ययन’ तथा ‘काव्यादर्श और काव्यभाषा’ उनकी प्रमुख प्रकाशित पुस्तकें हैं। नंदकिशोर पाण्डेय ( 1965 ) भक्तिकाव्य के विशेषज्ञ है। ‘संत साहित्य की समझ’ और ‘संत रज्जब’ शीर्षक उनकी आलोचनात्मक पुस्तकें हैं। केन्द्रीय हिन्दी संस्थान का निदेशक रहते हुए उन्होंने हिन्दी साहित्य की समृद्धि तथा पूर्वोत्तर की भाषाओं को हिन्दी से जोड़ने की दिशा में ऐतिहासिक कार्य किया है। त्रिभुवन नाथ शुक्ल ( 1953 ) का काम मुख्यत: भाषा के तकनीकी पक्ष पर है किन्तु मध्यकालीन व आधुनिक साहित्य की समीक्षा को लेकर भी उनकी कुछ पुस्तकें प्रकाशित हैं, जिनमें ‘समीक्षक नंददुलारे वाजपेयी’, ‘अवधी साहित्य की भूमिका’, ‘मध्यकालीन कविता का पाठ’ तथा ‘भारतीय राम साहित्य का विकास’ प्रमुख है। कुमुद शर्मा की आलोचना का कोई विशेष क्षेत्र नहीं है। उन्होंने मीडिया और पत्रकारिता के क्षेत्र में भी कार्य किया है और स्त्री- विमर्श पर भी लिखा है। ‘भूमण्डलीकरण और मीडिया’, ‘जनसंपर्क प्रबन्धन’ तथा ‘विज्ञापन की दुनिया’ नाम से उनकी पुस्तकें प्रकाशित हैँ। ‘भारतीय साहित्य के निर्माता : अम्बिका प्रसाद बाजपेयी’ विषय पर उन्होंने साहित्य अकादमी के लिए विनिबन्ध भी लिखा है। अवजिनेश अवस्थी ने तुलसी साहित्य का विशेष अध्ययन किया है। ‘गोस्वामी तुलसीदास : अध्ययन की दिशाएं’ तथा ‘आलोचना के नए परिदृश्य’ जैसी उनकी आलोचनात्मक कृतियाँ प्रकाशित हैं। भारतीय जनता पार्टी के बहाने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का प्रभाव जैसे- जैसे बढ़ रहा है हिन्दी आलोचना की यह धारा भी मजबूत हो रही है।
लेखक हिन्दी के वरिष्ठ आलोचक हैं|
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