झारखंड पिछले कुछ महीनों से राष्ट्रीय राजनीति की चर्चा में बना रहा है। विशेषकर झारखंड मुक्ति मोर्चा के कार्यकारी अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को ईडी द्वारा गिरफ्तार किए जाने के बाद पूरे देश की निगाहें झारखंड पर केंद्रित हुई हैं, और चूंकि देश की सभी विपक्षी पार्टियों के लिए यह मुद्दा माकूल है, उसे भुनाया भी उसी रूप में जा रहा है। इसका असर यह हुआ कि हेमंत सोरेन की पत्नी कल्पना सोरेन को इंडिया गठबंधन के मंच पर न सिर्फ प्रमुख स्थान दिया गया, बल्कि मुंबई और दिल्ली में आयोजित दोनों रैलियों में उनका प्रभावी भाषण भी देखने को मिला। इसके कुछ दिनों बाद इंडिया गठबंधन की तीसरी रैली, जिसे ‘न्याय उलगुलान महारैली’ नाम दिया गया है, 21 अप्रैल को राँची में संपन्न हुई। यहाँ गौर करने वाली बात है कि चुनावी घोषणा के बाद इंडिया गठबंधन अपनी पहली रैली राँची में कर रहा है।
इन तमाम वजहों से झारखंड में इस बार का लोकसभा चुनाव दिलचस्प हो गया है। पूरे देश की निगाहें इसलिए भी यहाँ टिकी हैं कि झारखंड इकलौता ऐसा राज्य है, जहां आदिवासी नामधारी पार्टी सत्ता में हैं और वह राज्य की सबसे बड़ी पार्टी है। इसके अलावा इसलिए भी, कि भाजपा लगातार यह प्रयास कर रही है कि आदिवासी वोट बैंक को वह अपने पाले में कर सके। छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव में भाजपा को काफी हद तक इसमें सफलता मिली है, लेकिन झारखंड में अभी भी आदिवासी मतदाता भाजपा के लिए चुनौती हैं।
पिछले कुछ सालों में भाजपा ने आदिवासी मतदाताओं को अपनी तरफ आकर्षित करने के लिए कई तरह की घोषणाएँ और वादे आदिवासियों को केंद्र में रख कर किये हैं। मसलन 15 नवंबर 2023 को बिरसा जयंती के अवसर पर प्रधानमंत्री मोदी ने झारखंड स्थित खूंटी से अत्यंत संवेदनशील आदिवासी समुदायों के लिए पंद्रह हजार करोड़ रुपये की योजना की शुरुआत की। बिरसा मुंडा की जयंती को केंद्र सरकार पहले ही जनजातीय गौरव दिवस घोषित कर चुकी है। हर साल बिरसा के माध्यम से पूरे देश के आदिवासियों को संबोधित करने का प्रयास किया जाता रहा है।
2019 के चुनाव में इन प्रयासों का असर भी देखने को मिला था। प्रचंड मोदी लहर के बीच एनडीए को झारखंड में 14 में से 12 सीटें मिली थीं, जिनमें से अकेले भाजपा की 11 सीटें थीं। बाकी बची दो सीटों में से एक काँग्रेस और एक झामुमो के पास गई थी, लेकिन दिलचस्प यह है कि झारखंड से काँग्रेस की इकलौती सांसद गीता कोड़ा कुछ महीने पहले भाजपा में चली गईं। इस लिहाज से भाजपा के पास फिलहाल 14 में से 13 सांसद हैं। लेकिन इन सीटों को बचाना ही भाजपा के लिए इस साल सबसे बड़ी चुनौती भी है। क्योंकि 2019 से लेकर अब तक झारखंड की राजनीति में काफी कुछ बदल गया है। सबसे बड़ा बदलाव तो यह हुआ है कि 2019 में ही झामुमो-कांग्रेस-राजद गठबंधन की राज्य में सरकार बनी और झामुमो राज्य की सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। इस बीच हेमंत सोरेन की छवि भी मजबूत हुई और वे राज्य में सबसे बड़ा राजनीतिक चेहरा बन गये। उनके नेतृत्व में पहली बार गैर भाजपा समर्थित सरकार ने अपने पाँच साल लगभग पूरे कर लिये हैं, जिसके आखिरी साल में हेमंत को कथित भ्रष्टाचार के आरोप में ईडी द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया।
हेमंत की गिरफ्तारी के बाद की स्थितियों का आकलन अभी भी किया जा रहा है, जिसका अच्छा खासा असर झारखंड में हो रहे लोकसभा चुनाव पर देखने को मिलेगा। कुछ गणितज्ञों का अनुमान है कि भाजपा को अपनी कुछ सीटें गँवानी पड़ सकती हैं, वहीं कुछ भाजपा के 12 सीटों के आँकड़े तक फिर से पहुँच जाने की बात कर रहे हैं। लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि 14 में लगभग 8 सीटें ऐसी हैं जहां वाकई मुकाबला काँटे का है और यह किसके पक्ष में जाएगा, अभी कहा नहीं जा सकता। दैनिक जागरण के ब्यूरो प्रमुख, वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप सिंह कहते हैं कि भले ही देश के कई हिस्सों में चुनाव शुरू हो चुका है, लेकिन झारखंड में चौथे चरण (13 मई) से चुनाव होने हैं, इसलिए अभी राज्य में उस तरह का कोई माहौल या चुनावी सरगर्मी भी देखने को नहीं मिल रही है। राजनेताओं के भाषणों, लोगों का मूड और जमीन पर मतदाताओं का तेवर देख कर ही अंदाजा लगाया जा सकता है, जिसके लिए अभी इंतजार करने की जरूरत है। हालाँकि वे इस बात पर बल देते हैं कि पिछली बार के मुकाबले इस बार राज्य में मुद्दे काफी अलग हैं। प्रदीप सिंह के अनुसार भाजपा को सबसे बड़ी चुनौती 5 आदिवासी रिजर्व सीटों पर मिलेगी। ये सीटें हैं- दुमका, खूंटी, लोहरदगा, सिंहभूम और राजमहल। इनमें से तीन सीटें दुमका, लोहरदगा और खूंटी पिछली बार भाजपा के खाते में गई थीं और इनमें जीत का अंतर बेहद कम था। खूंटी से तो पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा सिर्फ 1445 वोट से जीत पाये थे।
फॉलोअप न्यूज पॉर्टल के सह-संस्थापक और राजनीतिक पत्रकार संजय रंजन कहते हैं कि हजारीबाग और कोडरमा जैसी कुछ गैर-आदिवासी सीटों पर भी इंडिया गठबंधन के प्रत्याशी भाजपा प्रत्याशियों को टक्कर देने की स्थिति में हैं। उनका मानना है कि इस बार झारखंड में मोदी लहर जैसी कोई बात नहीं दिख रही है और यदि इंडिया गठबंधन आदिवासी बहुल सीटों पर मजबूती से लड़ाई कर पाती है, तो भाजपा को झारखंड में अपनी 3-4 सीटें गँवानी पड़ सकती हैं।
दरअसल हेमंत को लेकर भाजपा की राजनीति गहरी है। कल्पना सोरेन के अचानक परिदृश्य में आने के साथ ही भाजपा ने सोरेन परिवार की बड़ी बहु सीता सोरेन को अपने पाले में कर लिया। हालाँकि उन्हें दुमका से उम्मीदवार बनाया गया है, लेकिन उन्हें भाजपा में लाने का एक उद्देश्य कल्पना सोरेन के नैरेटिव को तोड़ना भी है, जिसके माध्यम से कल्पना आदिवासियों की सहानुभूति हासिल करने का प्रयास कर रही हैं।
झारखंड में एनडीए के कई उम्मीदवारों के खिलाफ लोगों में आक्रोश है। इनमें कोडरमा से प्रत्याशी केंद्रीय मंत्री अन्नपूर्णा देवी, गिरिडीह से आजसू प्रत्याशी चंद्र प्रकाश चौधरी, पलामू से विष्णु दयाल राम, चतरा से सुनील सिंह आदि नाम शामिल हैं। इनके विरोध में ग्रामीण और कई जगह तो भाजपा के कार्यकर्ता भी विरोध कर रहे हैं। ग्राउंड रिपोर्ट कर रहे कई न्यूज चैनलों और यू ट्यूब चैनलों के कैमरे पर लोग खुल कर यह बात कह रहे हैं कि उन्हें भाजपा का प्रत्याशी बिल्कुल पसंद नहीं है, लेकिन वे फिर भी मोदी के कारण उन्हें वोट देंगे। ऐसा कहने और करने वालों की संख्या बहुत अधिक है।
इसी आधार पर दैनिक जागरण से ही वरिष्ठ पत्रकार दिब्यांशु कहते हैं कि एनडीए अपनी 12 सीटों की संख्या फिर से प्राप्त करने में कामयाब हो जाएगी। वे कहते हैं कि हो सकता है कि भाजपा दुमका हार जाए और राजमहल जीत जाए, लेकिन सीटों की संख्या में कोई अंतर नहीं पड़ेगा। दिब्यांशु कहते हैं कि हेमंत की गिरफ्तारी को लेकर जिस आदिवासी समाज में नाराजगी और आक्रोश है, वे पहले ही झामुमो के वोटर हैं। भाजपा के वोटरों में ऐसी कोई नाराजगी नहीं है। ऐसे में भाजपा को कोई नुकसान होता नहीं दिख रहा है।
स्वतंत्र पत्रकार आनंद दत्त भी भाजपा की सीटें कम होने जैसी बात को नकारते हैं, हालाँकि उनका आधार काफी अलग है। वे कहते हैं कि राज्य की जिन सीटों पर भाजपा या उनके प्रत्याशी से लोगों की नाराजगी है, वहाँ इंडिया गठबंधन की तरफ से मजबूत प्रत्याशियों का चुनाव नहीं किया गया है। वे कहते हैं कि सिंहभूम जैसी सीट, जहां हो समुदाय की संख्या अधिक है, वहाँ जोबा मांझी की जगह किसी हो प्रत्याशी को टिकट दिए जाने का प्रभाव झामुमो के लिहाज से अधिक सकारात्मक हो सकता था। कोडरमा और चतरा में भी नाराजगी का फायदा उठा पाने में इंडिया नाकामयाब रहेगी, ऐसा वे मानते हैं।
इस बात पर गौर किया जाना चाहिए कि राज्य की सभी 14 सीटों पर एनडीए और इंडिया गंठबंधन में सीधी टक्कर है। केवल एक गिरिडीह सीट पर नए चेहरे के रूप में जयराम महतो थोड़ा प्रभाव डाल सकते हैं। इसके अलावा कुछ सीटों पर झारखंड पार्टी ने भी अपने उम्मीदवार उतारे हैं। पत्रकार दिब्यांशु का मानना है कि चूंकि झारखंड पार्टी और झामुमो लगभग एक ही धुरी के हैं, झारखंड पार्टी के कारण झामुमो को नुकसान होगा। हालाँकि झापा के प्रत्याशी कितना प्रभाव डाल सकेंगे, यह चर्चा का विषय है।
हम राज्य की सभी आदिवासी सीटों पर एक नजर डालते हैं, जो इस चुनाव में निर्णायक होने वाले हैं। खूंटी में पिछले साल भाजपा प्रत्याशी अर्जुन मुंडा सिर्फ 1445 मतों से जीत पाये थे। उनके खिलाफ काँग्रेस की तरफ से कालीचरण मुंडा मैदान में थे, जो इस बार भी हैं। मजेदार बात है कि कालीचरण मुंडा भाजपा नेता नीलकंठ सिंह मुंडा के भाई हैं। नीलकंठ सिंह मुंडा ने पिछली बार भी अपने भाई की मदद की थी, लेकिन अर्जुन मुंडा ने नीलकंठ सिंह मुंडा के घर से ही अपना प्रचार प्रसार किया था और किसी तरह जीत पाने में कामयाब हुए थे। दूसरा फैक्टर हैं कि अर्जुन मुंडा पातर मुंडा हैं और कालीचरण माकी मुंडा हैं। सहायक प्राध्यापक मीनाक्षी मुंडा बताती हैं कि माकी मुंडा मुंडा राजाओं के वंशज हैं, या उनसे संबंधित हैं। जबकि पातर मुंडा को बहिष्कृत का दर्जा प्राप्त है। खूंटी लोकसभी सीट पर माकी मुंडाओं की संख्या अधिक है। इस लिहाज से कालीचरण मुंडा का पलड़ा भारी नजर आता है।
लेकिन इन पांच सालों में अर्जुन मुंडा ने भी अपनी स्थिति मजबूत की है। इस बार का चुनाव वे केंद्रीय मंत्री की हैसियत से लड़ेंगे, जिसका असर देखने को मिल सकता है। उनका विभाग भी आदिवासियों और कृषि से संबंधित है। इसके अलावा हाल ही में अर्जुन मुंडा ने उड़ीसा के राज्यपाल और झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री रघुवर दास से मुलाकात की है, जिसकी तस्वीरें भी सोशल मीडिया पर पोस्ट की गईं। जाहिर है, खूंटी के वैश्य मतदाताओं को भी वे लुभाने का प्रयास कर रहे हैं। हालाँकि इस प्रयासों के बावजूद वे जीत के कितने करीब पहुँच पाएंगे, यह अभी कहना मुश्किल है।
दुमका सीट पर भाजपा ने पहले सुनील सोरेन को अपना प्रत्याशी बनाया था। लेकिन सीता सोरेन के भाजपा में आने के बाद पार्टी ने अपना उम्मीदवार बदल दिया। तबतक यह चर्चा थी कि दुमका से हेमंत सोरेन चुनाव लड़ सकते हैं। लेकिन भाजपा के द्वारा सीता सोरेन को आगे किये जाने के बाद संभवतः हेमंत ने पारिवारिक कलह को हवा नहीं देने का विकल्प चुना और वहाँ से नलिन सोरेन को प्रत्याशी बनाया। अभी तक के मुकाबले में सीता सोरेन और नलिन सोरेन बराबर ही हैं। लेकिन इस बात पर गौर किया जाना चाहिए कि दुमका झामुमो का गढ़ और शिबू सोरेन की पारंपरिक सीट रही है। कई पत्रकार और राजनीतिक विशेषज्ञ मानते हैं कि दुमका के साथ-साथ राजमहल में भी शिबू सोरेन बहुत बड़ा फर्क डाल सकते हैं। राजनीतिक कार्यक्रम में सिर्फ उनकी उपस्थिति ही प्रत्याशी को जीत का आश्वासन दिला सकती है। हालाँकि शिबू सोरेन बीमार हैं और राजनीतिक रूप से निष्क्रिय हैं, फिर भी किसी न किसी रूप में झामुमो उनका जरूर इस्तेमाल करेगी। यदि ऐसा होता है, तो स्थितियाँ निश्चत तौर पर झामुमो के पक्ष में जाएंगी।
संथाल की ही एक और सीट राजमहल है। यहाँ पिछली बार झामुमो ने जीत दर्ज की थी। इस बार भी पार्टी ने पुराने प्रत्याशी विजय हांसदा को ही टिकट दिया है। भाजपा की तरफ से यहाँ ताला मरांडी हैं। लेकिन झामुमो के परिष्ठ नेता और शिबू सोरेन के साथी रहे लोबिन हेंब्रम ने अपनी ही पार्टी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। वे प्रत्याशी की चयन से नाराज हैं और निर्दलीय चुनाव लड़ने की घोषणा कर चुके हैं। यदि ऐसा होता है, तो इसका नुकसान झामुमो को उठाना पड़ सकता है और झामुमो को अपनी एक मात्र सीट गँवानी पड़ सकती है।
इसी तरह लोहरदगा में झामुमो के विधायक चमरा लिंडा नाराज हैं। इस सीट से वे सांसद प्रत्याशी बनने की रेस में थे, लेकिन गठबंधन में यह सीट काँग्रेस के पास चली गई और काँग्रेस ने सुखदेव भगत को अपना प्रत्याशी घोषित कर दिया। भाजपा की तरफ से यहाँ समीर उरांव मैदान में हैं। सभी की निगाहें चमरा लिंडा पर हैं, वे काँग्रेस के खिलाफ माहौल बनाने में सक्षम हैं। हालाँकि अभी तक उन्होंने निर्दलीय चुनाव लड़ने जैसी कोई बात नहीं कही है। जानकारी है कि उन्हें मनाने की कोशिश हो रही है, यदि वे मान जाते हैं, तो संभव है कि यहाँ से काँग्रेस जीत दर्ज कर पाने में कामयाब हो जाए।
पांचवी आदिवासी सीट सिंहभूम है। सिंहभूम काँग्रेस की इकलौती जीती हुई सीट थी, लेकिन उनकी संसाद गीता कोड़ा ने भाजपा का दामन थाम लिया है। अब गठबंधन के तहत यह सीट झामुमो के खाते में है और उनकी तरफ से झारखंड सरकार में मंत्री जोबा मांझी को उम्मीदवार बनाया गया है। हालाँकि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि गीता कोड़ा की सिंहभूम में पकड़ मजबूत है। संदर्भ के लिए बता दें कि गीता कोड़ा पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा की पत्नी हैं। झामुमो की तरफ से मजबूत पक्ष यह है कि राज्य के वर्तमान मुख्यमंत्री चंपाई सोरेन भी इसी क्षेत्र से आते हैं और उनका भी अच्छा प्रभाव है। लेकिन हो मतदाताओं में जिस कथित नाराजगी की बात हो रही है, उसका सामना झामुमो को करना होगा। अन्यथा यहाँ जीतना झामुमो के लिए मुश्किल हो सकता है।
यहाँ यह स्पष्ट कर दिया जाना चाहिए कि गैर आदिवासी सीटों पर भी मुकाबला कड़ा है। लेकिन चूँकि दोनों खेमा आदिवासी सीटों पर विशेष जोर दे रहा है, यही सीटें निर्णायक रहने वाली हैं।
झारखंड में लोकसभा चुनाव की परिप्रेक्ष्य में एक सुखद बात यह है कि इस बार दोनों गठबंधन की तरफ से 14 में से 7 सीटों पर महिला प्रत्याशी को मौका दिया गया है। इनमें भाजपा की तरफ से अन्नपूर्णा देवी (कोडरमा), सीता सोरेन (दुमका) और गीता कोड़ा (सिंहभूम) के नाम शामिल है। इंडिया गठबंधन ने जोबा मांझी (सिंहभूम), दीपिका पांडेय सिंह (गोड्डा), अनुपमा सिंह (धनबाद) और सुनीता भुइंया (चतरा) को इस बार चुनावी मैदान में उतारा है। यानी झारखंड लोकसभा चुनाव में दोनों खेमों की तरफ से 25 फीसदी उम्मीदवार महिला हैं। यह संख्या संभवतः किसी भी अन्य राज्य से अधिक है। गांडेय (विधानसभा) में हो रहे उपचुनाव को जोड़ दें, तो इंडिया गठबंधन की तरफ से कल्पना सोरेन का नाम भी शामिल हो जाता है।
झारखंड में इस बार दोनों खेमों का नेतृत्व आदिवासी नेताओं के हाथ में है। बाबूलाल मरांडी के नेतृत्व में भाजपा अब तक कोई विशेष उपलब्धि भी हासिल नहीं कर सकी है। यह चुनाव जहाँ उनके लिए परीक्षा की तरह है, वहाँ झामुमो के लिए चुनौती की तरह भी है क्योंकि पहली बार हेमंत के जेल में होते हुए वे चुनावी मैदान में हैं। परिणाम जो भी हो, लेकिन इतना तो तय है कि यहाँ से झारखंड की राजनीति की दिशा काफी हद तक बदल जाएगी।