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ओटीटी और डिजिटल युग का सांस्कृतिक विवेक

 

मनोरंजन और संचार की दुनिया आज जिस तीव्र परिवर्तन से गुजर रही है, उसका सबसे सशक्त प्रतीक ओटीटी प्लेटफार्म हैं। सिनेमा हॉल की अँधेरी गलियों से लेकर टीवी चैनलों की गहमागहमी तक, जिस दृश्य-संस्कृति ने दशकों तक हमारे जीवन और संवेदना को आकार दिया, उस पर अब डिजिटल स्क्रीन ने आक्रामक नियन्त्रण बना लिया है। दशकों तक जो सिनेमा और टेलीविजन समाज की स्मृति, भावनाओं और संवाद के केन्द्र थे, वे अब डिजिटल युग में व्यक्तिगत उपभोग के उपकरण बन चुके हैं। ओटीटी (ओवर द टॉप) केवल तकनीकी उपलब्धि नहीं, बल्कि एक नयी सांस्कृतिक संरचना है—एक अनिवार्य डिजिटल संस्कृति, जिसने मनोरंजन की परिभाषा और समाज की संवेदनात्मक दिशा दोनों को बदल दिया है।

ओटीटी का उदय तकनीकी क्रान्ति का प्रत्यक्ष परिणाम है। स्मार्टफोन की सर्वसुलभता, सस्ते इंटरनेट डेटा और उच्चगति नेटवर्क ने मनोरंजन को हमारी हथेली में पहुँचा दिया है। नेटफ्लिक्स, अमेजन प्राइम, डिज्नी हॉटस्टार, जियो सिनेमा, सोनी लिव जैसे प्लेटफॉर्म दर्शक को यह आभास कराते हैं कि अब वह पूर्णतः स्वतन्त्र है—वह जो चाहे, जब चाहे, जहाँ चाहे देख सकता है। परन्तु यह स्वतन्त्रता उतनी सरल नहीं जितनी प्रतीत होती है, वह अन्दर से जटिल है। सिनेमा के सामूहिक उत्सव से लेकर टेलीविजन के पारिवारिक अनुभव तक जो सामाजिकता जुड़ी थी, वह अब स्क्रीन के एकान्त में खो गयी है। पहले फिल्में समाज को जोड़ती थीं, अब वही अनुभव व्यक्ति को समाज से काट रहा है।

टेलीविजन और सिनेमा केवल मनोरंजन के साधन नहीं थे, वे सामूहिक भावनाओं का उत्सव थे। एक घर के आँगन में बैठकर ‘रामायण’, ‘महाभारत’, ‘भारत एक खोज’ या ‘हम लोग’ देखने का अनुभव सामूहिक संस्कृति का हिस्सा था। सिनेमा हॉल में अजनबियों के साथ हँसना या रोना सामाजिक आत्मीयता का प्रतीक था। ओटीटी ने इस सामूहिकता को नष्ट कर दिया है। अब हर व्यक्ति अपने निजी स्क्रीन में बन्द है—उसकी हँसी, आँसू और रोमाँच सब व्यक्तिगत हैं। इसने समाज में एक ऐसे  ‘संवेदनात्मक एकान्त’ को गढ़ा है—जहाँ व्यक्ति तो है, पर समुदाय अनुपस्थित है।

इस एकान्त के भीतर एक आकर्षण भी है। ओटीटी ने भारतीय दर्शकों को भाषाई और विषयगत विविधता से परिचित कराया है। अब एक क्लिक पर कोरियाई थ्रिलर, मराठी ड्रामा, तमिल राजनीति या इस्लामिक दुनिया की कहानियाँ उपलब्ध हैं। सेंसरशिप की जकड़न से अपेक्षाकृत मुक्त यह मंच रचनाकारों को उन विषयों पर काम करने का अवसर देता है जिन पर पारम्परिक सिनेमा प्रायः  मौन रहा—स्त्री अस्मिता, जाति, यौनिकता, आदिवासी जीवन, पर्यावरणीय संकट, धार्मिक असमानता या सत्ता का विखण्डन। यह विविधता निस्सन्देह लोकतान्त्रिक है, पर इसके भीतर एक गहरा भ्रम भी है—स्वतन्त्रता का भ्रम।

दर्शक यह मानता है कि वह अपनी पसन्द से सामग्री चुन रहा है, जबकि वास्तविकता में एल्गोरिद्म उसके विवेक को दिशा देता है। ओटीटी ने संस्कृति को ‘डेटा’ और ‘सिफारिश’ के गणित में बदल दिया है। मशीन यह तय करती है कि हमें क्या देखना चाहिए, क्योंकि वही सबसे लाभप्रद है। इस प्रकार दर्शक स्वतन्त्र नहीं, बल्कि ‘डेटा पॉइंट’ में सिमट गया है। उसके देखने, लाइक करने, स्क्रीन पर ठहरने और प्रतिक्रिया देने के हर क्षण को मापा जाता है और उसी के अनुसार उसे वही परोसा जाता है जो पूँजी और कॉर्पोरेट  के लिए उपयोगी है।

स्वतन्त्रता के इस छलावरण में ओटीटी ने हिंसा, फूहड़ता और यौनिकता को मनोरंजन का आसान औजार बना दिया है। ‘मिर्ज़ापुर’, ‘आश्रम’, ‘जामताड़ा’ जैसी शृंखलाएँ  जहाँ यथार्थ के नाम पर क्रूरता और विकृति को सामान्य बनाती हैं, वहीं इन दृश्यों का प्रभाव किशोरों के मानस पर गहरा पड़ता है। नेटफ्लिक्स या अमेजन जैसे वैश्विक मंचों पर ‘क्यूटीज’ और ‘फिफ्टी शेड्स ऑफ ग्रे’ जैसी सामग्री ने कला की सीमाओं और नैतिकता की बहस को तीखा किया है। मनोरंजन की यह दिशा संवेदनाओं को कुण्ठित करती है और समाज को धीरे-धीरे असंवेदनशील बनाती है।

ओटीटी स्वयं को सांस्कृतिक लोकतन्त्र के रूप में प्रस्तुत करता है—जहाँ हर भाषा, हर वर्ग और हर विचार को स्थान है। परन्तु इस लोकतन्त्र की जड़ में पूँजी का वर्चस्व छिपा है। वैश्विक कॉरपोरेट घराने यह तय करते हैं कि किस प्रकार की कहानियाँ प्रमुखता पाएँगी। इस प्रकार मनोरंजन पूँजी की वैचारिक परियोजना बन गया है, जो दर्शक के स्वाद, विचार और संवेदना को नियन्त्रित करती है। यह एक ऐसी सांस्कृतिक राजनीति है जिसमें रचनात्मकता का उपयोग उपभोक्ता बनाने के लिए किया जाता है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि मनोरंजन अब बाजार-नियन्त्रित वैचारिकी का उपकरण बनता जा रहा है। संस्कृति अब अनुभव और अनुभूति से ज्यादा  उत्पाद बन गयी है। यह स्थिति लोकतन्त्र में सांस्कृतिक विविधता और विचार की स्वतन्त्रता के लिए गम्भीर चुनौती है।

परन्तु इसी के साथ एक कठिन प्रश्न उभरता है—क्या ओटीटी की यह स्वतन्त्रता समाज के नैतिक ढाँचे को कमजोर कर रही है? निर्माताओं का तर्क है कि यह व्यक्तिगत उपभोग का माध्यम है, अतः इसका नियमन कलात्मक स्वतन्त्रता का हनन होगा। परन्तु जब यही माध्यम किशोरों और बच्चों की मानसिकता को प्रभावित करने लगे, तब क्या इसे केवल ‘कला’ कहकर टाला जा सकता है? 2025 में सरकार द्वारा लगभग 25 ओटीटी प्लेटफार्मों पर अश्लील और अभद्र सामग्री के कारण प्रतिबन्ध लगने से यह बहस और तीखी हो गयी। कलाकारों ने इसे ‘अभिव्यक्ति की हत्या’ कहा, जबकि कई सामाजिक संगठनों ने इसे आवश्यक कदम बताया। सच्चाई यह है कि भारत को अब अन्य देशों की तरह स्पष्ट, विवेकपूर्ण और सख्त नियामक व्यवस्था की आवश्यकता है—जो स्वतन्त्रता और जिम्मेदारी दोनों का सन्तुलन बनाए रखे।

पत्रकारिता भी इस लहर से अछूती नहीं रही। अनेक ओटीटी प्लेटफार्म अब सामाजिक और राजनीतिक विषयों पर गम्भीर डॉक्यूमेंट्री प्रस्तुत कर रहे हैं—पर्यावरण संकट, स्त्री हिंसा, अल्पसंख्यक अधिकार और शासन की पारदर्शिता जैसे विषयों पर। यह एक सकारात्मक संकेत है क्योंकि इससे दर्शक केवल उपभोक्ता नहीं, बल्कि नागरिक बनता है। परन्तु इसी के समानान्तर सनसनी और अराजकता का बाजार भी फैला है, जहाँ सत्य और मनोरंजन की सीमाएँ धुँधली हो गयी हैं। दर्शक को यह समझना कठिन होता जा रहा है कि वह विचार देख रहा है या व्यापार।

भारत सरकार ने 2021 में ‘सूचना प्रौद्योगिकी (मध्यस्थ और डिजिटल मीडिया आचार संहिता)’ लागू की ताकि जवाबदेही की भावना स्थापित हो सके। समर्थकों का मत है कि नियन्त्रण आवश्यक है ताकि धार्मिक अपमान या अश्लीलता के नाम पर समाज में विभाजन न फैले। विरोधियों का कहना है कि यह रचनात्मकता को कुचल देगा। वस्तुतः सत्य इन दोनों के बीच है—स्वतन्त्रता और स्वच्छन्दता के बीच एक महीन रेखा है जिसे पहचानना समाज के विवेक की जिम्मेदारी है।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 19 अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता देता है, पर साथ ही ‘युक्तियुक्त प्रतिबन्ध’ का भी प्रावधान रखता है। यही सन्तुलन ओटीटी पर भी लागू होना चाहिए। न पूर्ण नियन्त्रण, न पूर्ण अराजकता—बल्कि ऐसा तन्त्र जो कला की स्वतन्त्रता को संरक्षित करते हुए सामाजिक मर्यादाओं की रक्षा करे। रचनात्मकता तभी सार्थक है जब वह समाज के विकास और संवेदना को दिशा दे, न कि केवल व्यावसायिक लाभ को।

ओटीटी की विशेषता यह भी है कि उसने भारतीय समाज के अनछुए पहलुओं को सामने लाने का साहस दिखाया है—समलैंगिकता, जातीय असमानता, स्त्री अस्मिता, सत्ता की हिंसा या धार्मिक पाखण्ड जैसे विषयों पर खुलकर चर्चा शुरू हुई है। यह खुलापन समाज को आत्ममन्थन की दिशा देता है। परन्तु अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का अर्थ यह नहीं कि कला नैतिकता से मुक्त हो जाए। रचनाकार का उत्तरदायित्व है कि वह अपने माध्यम को समाज के उत्थान का साधन बनाए, न कि केवल उत्तेजना का बाजार।

सरकार सेंसरशिप के बजाय ‘सांस्कृतिक आत्मनियन्त्रण’ की भावना को बढ़ावा दे, यह समय की माँग है। निर्माताओं और दर्शकों दोनों को समझना होगा कि मनोरंजन केवल सुख नहीं, एक सामाजिक जिम्मेदारी भी है। जिस प्रकार पौष्टिक भोजन शरीर को स्वस्थ रखता है, वैसे ही सुसंस्कृत मनोरंजन समाज को स्वस्थ बनाता है। यदि ओटीटी केवल व्यावसायिक खपत का माध्यम बन गया, तो यह समाज को संवेदनहीन बना देगा। पर यदि इसके माध्यम से आलोचनात्मक चेतना, रचनात्मक विवेक और सामाजिक संवेदना जागृत होती है, तो यह हमारे सांस्कृतिक पुनर्जागरण का औजार बन सकता है।

कुछ वेब सीरिज ने यह प्रमाणित भी  किया है, इसलिए  यह कहना अन्याय होगा कि ओटीटी केवल पतन का दस्तावेज  है। इसने अनेक सशक्त और संवेदनशील रचनाएँ भी दी हैं—‘पंचायत’, ‘गुल्लक’,  ‘बन्दिश बैंडिट’ ‘महारानी’ ‘पाताल लोक’, ‘हाउस ऑफ कार्ड्स’, ‘फौदा’ या ‘नार्कोस’ जैसी शृंखलाएँ इस बात का प्रमाण हैं कि यदि इच्छाशक्ति और दृष्टि हो तो मनोरंजन और सामाजिक उत्तरदायित्व का सन्तुलन सम्भव है। इन कहानियों ने दिखाया कि सादगी, ईमानदारी और मानवीयता आज भी दर्शक के हृदय को छू सकती है।

‘पंचायत’ गाँव के उस यथार्थ की बारीक तस्वीर है, जहाँ जीवन छोटे-छोटे प्रसंगों में धड़कता है। यहाँ नायकत्व किसी एक पात्र में नहीं, पूरे समुदाय में है। फुलेरा गाँव का सामूहिक जीवन हमें बताता है कि भारतीय गाँव आज भी संवेदना का जीवित केन्द्र है। ‘पंचायत’ का हास्य किसी उपहास से नहीं, बल्कि जीवन की सहजता से उपजता है। इसमें रेणु के आंचलिक बोध और प्रेमचंद की सामाजिक दृष्टि का आधुनिक पुनर्पाठ दिखाई देता है। ‘गुल्लक’ शहरी मध्यवर्ग के घर की सुगन्ध लिए हुए है – मोहल्ले की गलियाँ, बिजली का बिल, माँ की झिड़की और पिता की थकान – सब मिलकर छोटे-से संसार की आत्मीयता रचते हैं। यहाँ संघर्ष मामूली हैं पर भावनाएँ गहरी। गुल्लक के पात्रों का जीवन इस बात का प्रमाण है कि छोटे सपने भी बड़े अर्थ रखते हैं। इस सीरीज का नैरेटिव ‘संघर्ष में भी जीवन की मिठास’ का महाकाव्य रचता है। ‘बन्दिश बैंडिट्स’ संगीत और परम्परा के द्वंद्व को आधुनिकता के आलोक में प्रस्तुत करती है। यहाँ शास्त्रीयता और पॉप संस्कृति का टकराव दरअसल उस भारत की प्रतीकात्मक कहानी है जो परम्परा और ग्लोबल आधुनिकता के बीच सन्तुलन खोज रहा है। जयपुर के राजन-पण्डित परिवार के माध्यम से संगीत की साधना, अनुशासन और आत्मा को यह सीरीज एक नया सौन्दर्यबोध देती है। तीनों सीरीज मिलकर भारत की त्रिवेणी बनाती हैं — ‘पंचायत’ का ग्रामीण आत्मविश्वास, ‘गुल्लक’ का घरेलू यथार्थ और ‘बन्दिश बैंडिट्स’ का सांस्कृतिक संगम — ये सब मिलकर यह सिद्ध करते हैं कि भारतीय कथ्य अब केवल हिंसा और सनसनी से नहीं, बल्कि जीवन की संवेदना से भी लोकप्रिय हो सकता है। ओटीटी की इस नयी संवेदनशील लहर में गाँव, घर और गीत – तीनों फिर से अपने असली अर्थ में लौट आये हैं।

दरअसल ओटीटी का मुद्दा  सितार के  तार जैसा है—बहुत कस दिये तो टूट जाएगा, बहुत ढीला रखे  तो बेसुरा हो जाएगा। अत्यधिक नियन्त्रण रचनात्मकता को प्रभावित करेगा, और अव्यवस्थित स्वतन्त्रता समाज में अराजकता बढ़ाएगी। इसलिए आवश्यकता है विवेकपूर्ण सन्तुलन की—जहाँ कला को उड़ान मिले, पर वह समाज की जमीन से जुड़ी रहे। ओटीटी का भविष्य केवल तकनीक या बाजार नहीं तय करेगा, बल्कि यह समाज के विवेक, आलोचना और सांस्कृतिक दृष्टि पर निर्भर करेगा।

इसलिए, ओटीटी यदि हमें अभूतपूर्व विकल्पों की नयी दुनिया देता है, तो वह हमारी संवेदना, सामूहिकता और सांस्कृतिक जिम्मेदारी की भी परीक्षा लेता है। यह माध्यम उतना ही रचनात्मक और प्रेरक बन सकता है, जितनी हमारी दृष्टि और संवेदना सजग रहे। यदि हम इसे विवेक, सौन्दर्यबोध और उत्तरदायित्व के साथ दिशा दें, तो यह हमारे सांस्कृतिक नवजागरण का वाहक सिद्ध हो सकता है; पर यदि यह केवल उपभोग और मनोरंजन का उपकरण बनकर रह गया, तो यह हमारे भावबोध के क्षरण की कथा लिखेगा। कलात्मक स्वतन्त्रता की ऊर्जा बनी रहे, पर सामाजिक मर्यादाओं का सन्तुलन भी अक्षुण्ण रहे—इसी सन्तुलन में ओटीटी युग की सार्थकता  और मानवता का सांस्कृतिक एवं नैतिक भविष्य निहित है।

                                                किशन कालजयी

 

 

 

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किशन कालजयी

लेखक प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका 'संवेद' और लोक चेतना का राष्ट्रीय मासिक 'सबलोग' के सम्पादक हैं। सम्पर्क +918340436365, kishankaljayee@gmail.com
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