देश

मोदी जी प्लीज! निंदक नियरे राखिये…

 

   जो लोग सवाल नहीं उठाते
     वे पाखंडी हैं।
   जो सवाल नहीं कर सकते
     वे मूर्ख हैं
    जिनके जहन में
   सवाल उभरते ही नहीं
    वे गुलाम हैं
        — जार्ज गार्डन बायरन

      चूंकि मैं स्वयं को गुलाम मानने से हठपूर्वक इंकार करती हूँ; पाखंडी तो हूँ ही नहीं और जहाँ तक बात है मूर्खता की, माँ वागेश्वरी ने थोडी-सी बुद्धि तो अवश्य दी है। इसलिए, सवाल के साथ प्रस्तुत हूँ। देश इस वक्त कोरोना की दूसरी लहर, जिसे सुनामी कहा जाए तो बेहतर, की त्रासद चपेट में है। लोकतन्त्र का उत्सव और संक्रमण एक साथ। दोनों का पारा एक साथ शिखर की ओर। महाराष्ट्र से महामारी का दौरा शुरू हुआ तो पाँचों राज्यों केरल, असम, पुड्डुचेरी, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में रैलियों की प्रतिस्पर्धाएँ भयावह रूप धर रही थीं। राष्ट्रीय/अंतर्राष्ट्रीय मीडिया कोरोना की खौफनाक दशा को चित्रित कर रहे थे।

तमाम वैश्विक सर्वेक्षण संस्थाएँ भी मध्य मई की अनुमानित संक्रमण दर का ब्यौरा दे रही थीं। किन्तु हमारे आका नहीं जागे, सो नहीं जागे। चुनाव सर्वोपरि हो गया। लोकतन्त्र को दुनिया का सर्वोत्तम शासन कहा जाता है किन्तु लानत है ऐसे किसी भी शासन पर जिसमें सत्ता सर चढकर बोलती है और जनता सिसक-सिसक कर सड़कों पर दम तोडती है। जिस वक्त देश की राजधानी दिल्ली जीने लायक ऑक्सीजन, हॉस्पिटल, बेड, इंजेक्शन, वेन्टीलेटर के लिए मारी – मारी फिर रही थी; प्रभावित प्रदेशों के श्मशान मणिकर्णिका में तब्दील हो चुके थे, चिताओं के लिए लकडियों का टोटा पड़ने लगा था, श्मशान गृहों में अनगिन शवों की पंक्तियाँ दीख पड़ रही थीं ; चीत्कार, क्रंदन से धरती-आकाश गूंज रहा था, हमारे नेता “दीदी ओ दीदी” और “खेला होबे” की भद्दी ताल ठोंक रहे थे।

राजनीति के सचमुच हृदय नहीं होता, प्रमाण के लिए यह लहर पर्याप्त है। चुनाव, कुंभ और क्रिकेट। तबलीगी जमात पर हमने ही शोर मचाया था, उन्हें सुपरस्प्रेडर कहा था। अगर वे दोषी थे तो ये क्यों नहीं? वायरस इनका जरखरीद दास है क्या? कोविड-19 सुरक्षा मानकों का पालन करे जनता, क्योंकि आका का आदेश है। मास्क। सोशल डिस्टेंसिंग। सेनेटाइजर। धारा 144। यह आदेश आका पर लागू नहीं होता। उनकी रैलियों में वायरस का प्रवेश वर्जित है!

     सिर से पानी जब गुजर गया। बंटाधार हो चुका। महत्त्वपूर्ण विषयों को अक्सर अपने संज्ञान में लेने वाला माननीय उच्चतम न्यायालय भी जब मौन ही साधे रहा, मद्रास हाई कोर्ट ने चुनाव आयोग पर तीखी टिप्पणी की। उसके अनुसार आयोग पर हत्या का प्रकरण दर्ज होना चाहिये। जब दो-चार ही दिन शेष थे, पार्टियों ने रैलियाँ निरस्त कीं। उधर कुंभ पर भी प्रधान इतना ही बोल सके — इसे प्रतीकात्मक रखा जाए। आदेश क्यों नहीं? बताने की आवश्यकता नहीं।

   इस वक्त देश आक्रोश में है। जहाँ संक्रमण पहुँच चुका, लोग बेहाल हैं। स्वास्थ्य व्यवस्था ढह चुकी। घर-घर शोक है। सभी शासन को कोस रहे हैं। यह मानवनिर्मित आपदा है या प्राकृतिक, समस्या नियंत्रण से बाहर क्यों हुई? गत वर्ष तडितीय तेजी थी। इतनी कि अर्धरात्रि को औचक हुई नोटबंदी की ही भांति निहायत अदूरदर्शी लॉकडाउन की मारक घोषणा कर दी गयी। प्रवासी मजदूरों ने विभाजन-सी पीड़ा झेली। इस बार क्या हुआ? 

   जब शासन को स्पष्ट चेतावनी थी, दूसरी लहर की, उसने लापरवाही क्यों की? कोविड टास्क फोर्स की मीटिंग क्यों जरूरी नहीं समझी गयी? निःसंदेह, हमारे आका को बंग-विजय का लक्ष्य प्राथमिक लगा था। वे मेक ओव्हर में मगन थे। रवींद्रनाथ टैगोर। श्वेतकेशी। किन्तु उन्होंने भाँपा या देखा क्यों नहीं कि सोशल मीडिया में उनके कार्टून, मीम आने लगे हैं?

पहला कार्टून– मोदी जी अपनी लम्बी दाढ़ी एक ओर खिसका रहे हैं। श्वेतकेशी परदे के पीछे झांक रहे हैं ढेरों नरमुंड। अगला देखिये। दो तस्वीरों को जोडकर व्यंग्य किया गया — पहली तस्वीर में एक हाइवे है। सड़क पार करती भेडों का झुंड है। सबसे आगे एक गधा है। दूसरी तस्वीर में एक्सीडेंट से मर चुकी भेड़ों का दृश्य है, कैप्शन के साथ– गधे को नेता चुनोगे तो यही होगा। एक जबरदस्त कार्टून है आस्ट्रेलियन फाइनेंशियल रिव्यू में प्रकाशित कार्टूनिस्ट डेविड रोव का, इसमें मोदी विशालकाय हाथी पर सवार हैं जो दम तोड़ रहा है, धराशायी हो चुका है। मोदी के हाथ में माइक है। हाथी भारत का प्रतीक है जो कोरोनाग्रस्त हो मर रहा है जबकि मोदी जी?

     इस वक्त सोशल मीडिया में व्यंग्य, कार्टून, मीम भरे पड़े हैं। सब सरकार की धज्जियां उड़ा रहे हैं। क्यों? सीधी बात कोई क्यों नहीं उठाता? विपक्षी दलों की बात नहीं कर रही। यहाँ बात आम जनता की है। वह कुछ बोलने की कोशिश कर रही है। एक चीनी लोकोक्ति है –आहिस्ता चलने से नहीं, सिर्फ चुपचाप रहने से डर। बावजूद इसके जनता चुप रहना ही समयोचित समझती है। उसने गौरी लंकेश को देखा है। कलबुर्गी और दाभोलकर को भी देखा है। अंधभक्तों को तो जीभर कर देखा है और मोदी प्रेम को ही एकमात्र राष्ट्र-प्रेम की परिभाषा बनते भी देखा है। जुबां खुली नहीं कि खींच दी जाएगी। तो डरो। डरना जरूरी है!

    जनता चुप है। इशारों में अपनी बात कहने की कोशिश कर रही है। हमारा मीडिया कैसा है, कहाँ तक निष्पक्ष है, सब जग-जाहिर है। अंतर्राष्ट्रीय मीडिया को किस बात का धडका? वही मीडिया जो मोदी-छवि की प्रशंसा करते नहीं थकता, जिसने कोरोना की पहली लहर को साधने और विश्व के लिए कोरोना-संकटमोचक के रूप में उभरे भारत की भूरि-भूरि प्रशंसा की, आज एकजुट हो शासन की विफलता का ठीकरा मोदी जी के सिर फोड रहा है। द न्यूयॉर्क टाइम्स, द गार्जियन, ले मोंडे, द ऑस्ट्रेलियन, द वाशिंगटन पोस्ट, टाइम मैगजीन, ग्लोबल टाइम्स, बी बी सी, इंडिपेंडेंट आदि इंटरनेशनल मीडिया के सुर बिगडे हुए हैं। पाँच शवों को एक चिता पर जलते, पंक्तिबद्ध शवों को पेट्रोल छिडककर स्वाहा होते, मरे जानवर की तरह क्रेन से शव उठाकर गठ्ढे में फेकते, पार्किंग प्लेस, फुटपाथ पर अंतिम संस्कार, शव-दाह गृहों की चिमनियाँ पिघलते और सैकड़ों ज्वालाओं के एरियल व्यू देख किस मनुष्य का दिल न पसीजेगा! मीडियाकर्मी आखिर मानुष ही हैं न। उन्होंने जो देखा, वही दिखाया।

     अब देखिये। मुश्किल यह है कि अव्वल तो सरकार के आँख-नाक-कान बंद हैं। वह आत्ममुग्ध ही नहीं आत्मप्रवंचक भी है। वह आत्मप्रशंसक है। अपनी नजर में वह पाक-साफ है, उसके कार्य बिलकुल सही हैं वह मासूम है। चूकती नहीं है। पर हुजूर! नाम चतुरानन, पर चूकते चले गये। जब साक्षात् बह्मा भी चूके, आप से चूक क्यों नहीं हो सकती? माटी के पुतले। कभी भी दरक सकते हैं। पर मुश्किल यह कि न देखते हैं, न सुनते हैं, न सूंघते हैं। अंतर्राष्ट्रीय मीडिया चीख-चीख कर एक स्वर में कह रहा है कि आपदा प्रबंधन में भारी चूक, चुनावी रैली, गलत फैसले, प्रधान के अति आत्मविश्वास और अहंकार ने मोदी के आभामंडल को चीर दिया है। भारतीय मीडिया कितना सच बोलेगा इस वक्त, कहने की आवश्यकता नहीं। पर सोशल मीडिया को खंगालिये और फर्स्ट हैंड इन्फार्मेशन प्राप्त कीजिए। किसने रोका है?

   इसमें कोई शक नहीं कि मोदी के रूप में भारत को अरसे बाद एक करिश्माई नेता हाथ लगा था। उनमें दम भी है। उनके काल में कुछ बेहतरीन कार्य हुए हैं। उनका युग इसलिए तो जाना ही जाएगा कि भ्रष्टाचार का एक छींटा भी किसी मंत्रालय पर नहीं पडा। भारत उनकी अगुआई में विश्व मानचित्र पर प्रभावी रूप से उभर कर आ सका। किन्तु अब दृश्य बदल रहा है। सब दिन जात न एक समान। बिगडी स्थितियां सुधारी जा सकती हैं बशर्ते मोदी जी टू मैन शो के दायरे से जरा बाहर आएँ। दूसरों की भी सुनें। आपका आई टी सेल आपकी प्रतिष्ठा बचाने डैमेज कंट्रोल में लग गया है। जनता जब अपनी स्वास्थ्य व्यवस्था का हिसाब मांग रही है, वह आपके महान कार्यों की सूची लेकर सोशल मीडिया में मारा मारा फिर रहा है।

आपकी महानता से कब इंकार है, पर आप जनमानस में तनिक डुबकी तो लगाइये। पहचानिये कि उसकी मनोदशा क्या है? पीड़ा क्या है? अपने चाटुकारों से पृथक, जरा निंदकों पर भी कान दीजिए। सुधारक निंदक ही होते हैं। वही आपको मार्ग दिखाएंगे। डिनायल मोड से बाहर आइये। स्वीकार कीजिए कि हालात खराब हैं। असहमतियों को ठुकराइये नहीं ….सचमुच अगर देश और देशवासियों के प्रति सच्चा प्रेम है तो! अन्यथा, देश के मस्तिष्क-पटल पर युगों तक अंकित रहेगा यह कार्टून— चुनावी मंच पर माइक थामे मोदी जी और सामने कई चिताएँ धधकती हुई …चिताओं पर खेली जाती राजनैतिक बाजियाँ….कौन कर सकेगा क्षमा? हर घर से निकलती आंसू की धारा आपसे सवाल पूछती है! कुँवर नारायण को याद करते हुए, उनके शब्दों में मूक-भीत भारत का निवेदन-

असहमति को अवसर दो
सहिष्णुता को आचरण दो
कि बुद्धि सिर ऊँचा रख सके
उसे हताश मत करो 
काइयाँ तर्कों से हरा हरा कर

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सुभद्रा राठौर

लेखिका संस्कृतिकर्मी और प्राध्यापक हैं। सम्पर्क +919425525248, subhadrarathore44@gmail.com 
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