- शिवदयाल
तथाकथित शांतिकाल में पिछले तीस सालों में पाकिस्तान हमारे हजारों नागरिकों और सुरक्षाकर्मियों (अनुमानतः अस्सी हजार से एक लाख!) की जान ले चुका है। वह निरंतरता के साथ भारत को तिल-तिल कर मारने की नीति पर अमल करता आ रहा है। एक चूहा भी अगर एक हाथी का रोज मांस नाेचता रहे, तो हाथी कितने दिन बचेगा ? वह हमारे इलाकों की जनसंख्यात्मक वास्तविकताओं को भी अपने पक्ष में बदलने पर आमादा है, कश्मीर घाटी को वह हिन्दूरहित करने में सफल रहा, हम कुछ नहीं कर सके। इसके बाद उसका हौसला बहुत बढ़ा और वह तबसे लगातार हमपर हमले करता रहा है।
यहाँ सरकार चाहे धर्मनिरपेक्ष हो या धर्मनिष्ठ , पाकिस्तान के लिए भारत हिन्दू भारत मात्र है जिससे घृणा पर उसका वजूद टिका है। पाकिस्तान की नई पीढ़ी को जन्मघूँटी की तरह भारत से वैमनस्य का पाठ पढ़ाया जाता है। पाकिस्तान पर उसकी दमित उपराष्ट्रीयताओं का जबरदस्त दबाव है। उनको शमित या काउंटर करने का एकमात्र उपाय इस्लामीकरण और भारत विरोध है। कश्मीर एक बहाना है। अगर वह सचमुच कश्मीर समस्या का हल चाहता है तो सबसे पहले 14 अगस्त 1947 की स्थिति क्यों नहीं बहाल करता?
लोकतंत्र का सबसे अधिक फायदा उन लोगों ने उठाया है जो इस प्रणाली का एक व्यवस्था या साधन मात्र के रूप में इस्तेमाल करते हैं, लोकतंत्र को एक मूल्य के रूप नहीं स्वीकार करते। पाकिस्तान इन लोगों का इस्तेमाल अपने हक में करना चाहता रहा है, सनद रहे। असहमति का भी विवेक होता है, इस अधिकार का विवेकहीन उपयोग अंतत: लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए ही चुनौती प्रस्तुत करता है। पाकिस्तान जैसे शत्रु देश को अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने में इससे मदद मिलती है। लोकतांत्रिक अधिकारों की उपलब्धि ही मूल्यवान नहीं, देशकाल परिस्थिति के अनुसार इनका विवेकपूर्ण उपयोग भी उतना ही महत्वपूर्ण है। सौभाग्यवश हमारी सेना का अभी राजनीतिकरण नहीं हुआ, वह पूरी तरह पेशेवर और प्रतिबद्ध है। ऐसे में राजनीतिक पैंतरेबाजी के लिए उसके दावों पर सवाल उठाना, या संदेह करना एकदम अनुचित है, बल्कि उसके राजनीतिकरण के प्रयास जैसा है। ठीक उसी प्रकार सेना की उपलब्धियों को दल विशेष की चुनावी संभावनाओं से जोड़ना भी नितांत अवांछनीय है।
एक और चिंतनीय तथ्य है कारपोरेट मीडिया द्वारा राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े विषयों को सनसनीखेज बनाना और एक तरह से युद्ध का एजेंडा तय करने की कोशिश। वहीं युद्ध की परिस्थितियों को हल्का करके दिखाने की कोशिश भी खतरनाक कही जाएगी । ये दोनों ही अतियाँ मीडिया को संदेह और अविश्वास के घेरे में लेती हैं जो लोकतंत्र के लिए कतई शुभ संकेत नहीं।
कुछ लोग भारतीय राष्ट्र के समक्ष उत्पन्न संकट के समय भारतीय समाज के दरारों को दिखाने की कोशिश कर रहे हैं। कुछ ने यह भी कहा कि हिन्दी क्षेत्र के लोगों को युद्ध की विभीषिका का पता नहीं, लेकिन खासतौर पर ‘ उच्च ‘ सामाजिक सोपान के लोग ज्यादा राष्ट्रवादी प्रलाप कर रहे हैं। क्या हिन्दी पट्टी के लोगों के यहाँ शहीदों के शव नहीं आ रहे? और क्या एक ही वर्ग के लोग बलिदान हो रहे हैं? सोचिए कि ऐसे वक्त में ऐसी फार्मूलेबाजी से किसका फायदा या नुकसान हो रहा है। आजतक दुनिया में ऐसा कोई राष्ट्र या समाज नहीं जिसमें दरारें नहीं खोजी जा सकतीं। लेकिन संकटकाल या युद्धकाल में ऐसी कोशिश खतरनाक है, सबके लिए ।
पाकिस्तान को संसद पर हमले या मुंबई हमले के समय ही सबक सिखाना चाहिए था। कोई भी आत्माभिमानी सम्प्रभु देश यही करता। लेकिन पाकिस्तान नीति कहीं न कहीं मुस्लिम समुदाय पर होनेवाले काल्पनिक प्रभाव से निदेशित होती रही है। हमें अपने ही नागरिकों पर भरोसा होना चाहिए । आतंकवाद के सभी समान रूप से शिकार और भुक्तभोगी हैं।
यहीं यह कहना भी जरूरी है कि यह राष्ट्रवादी ज्वार आत्मरक्षा से उपजा है और हमारे जवानों का लगातार बहता खून इसके मूल में है, जो हर क्षेत्र-प्रांत , धर्म-वर्ग-जाति से सम्बन्ध रखते हैं। इसीलिए यह अखिल भारतीय परिघटना है। इसे संकुचित मत होने दीजिए और संकुचित नजरिए से मत देखिए । आप चाहें न चाहें, पसंद करें न करें, प्रधानमंत्री मोदी प्रतिकार की पहल लेकर स्वयं इस सद्यप्रसूत राष्ट्रवादी उभार का प्रतीक बन चुके हैं।
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं|
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