पूर्वोत्तर में अपने विजय रथ को आगे बढ़ाते हुए भारतीय जनता पार्टी ने अब त्रिपुरा में वाममोर्चा के किला पर कब्जा करने के लिए पूरी ताकत झोंक दी है। उसने अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए क्षेत्रीय दल आईपीएफटी के साथ हाथ मिला दिया है। यह पार्टी स्थानीय आदिवासियों के वर्चस्व की मांग करती आई है। त्रिपुरा की साठ सदस्यीय विधानसभा के लिए 18 फरवरी को चुनाव होने हैं।
त्रिपुरा में भाजपा के प्रचार का नेतृत्व असम के मंत्री तथा नार्थ ईस्ट डेमोक्रेटिक एलायंस (नेडा) के संयोजक डा. हिमंत विश्व शर्मा रहे हैं। वे सफल रणनीतिकार माने जाते है। असम में भाजपा को विजय दिलाने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इसलिए भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने त्रिपुरा में वाममोर्चा के गढ़ में सेंध लगाने की जिम्मेदारी सौंपी है। यह अलग बात है कि मुख्यमंत्री माणिक सरकार की निजी छवि और व्यक्तित्व भाजपा के प्रयासों पर भारी पड़ रहा है। वह 20 साल से सत्ता संभाले हुए हैं।
यह बात भी ध्यान में रखनी होगी कि असम समेत पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों की तुलना में त्रिपुरा की राजनीति अलग है। वहां पर पिछले 25 वर्षों से वाममोर्चा की सरकार है। मुख्यमंत्री की स्वच्छ छवि की वजह से सरकारी योजनाओं का लाभ पंचायत तक पहुंचा है और मार्क्सवादी कम्यनुस्टि पार्टी का संगठन गांव-गांव तक फैला है। केंद्र की उपेक्षा के बावजूद सरकारी योजनाओं की गुणवत्ता की जांच पंचायत स्तर के पदाधिकारी करते हैं। पंचायतों की बैठकों में योजनाओं की समीक्षा होती है और योग्य व जरूरतमंद लाभार्थियों की सूची तैयार होती है। यही वजह है कि माकपा की जड़ें गहरी हैं।
आईपीएफटी पर अलगावादी होने का आरोप लगता रहा है। यह एक आदिवासी बहुल पार्टी है। इसका वजूद 1997 से 2001 तक रहा था। 2009 में यह इंडेजेनियस नेशनलिस्ट पार्टी आफ त्रिपुरा (आईएनपीटी) में शामिल हो गई। जिसे उग्रवादी संगठन नेशनल लिबरेशन फ्रंट आफ त्रिपुरा का समर्थन रहा है। सन 2000 के स्थानीय निकायों के चुनाव में उग्रवादी संगठन त्रिपुरा नेशनल वालिंटीयर ने इसका समर्थन किया था। सन 2003 के विधानसभा चुनावों ने आईएनपीटी ने कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ा और छह सीटों पर कब्जा किया था। बाद में इसमें फूट पड़ गई। 2009 के लोकसभा चुनाव के पहले इंडेजेनियस पीपुल्स पार्टी आफ त्रिपुरा का फिर से पुनर्गठन किया गया। जिसकी मुख्य मांग आदिवासी स्वायत्त परिषद को इलाके में अलग त्रिपुरालैंड नामक राज्य की मांग है। लेकिन लोकसभा की दोनों सीटों पर इसे नाममात्र का मत मिला।
यही वजह है कि माकपा महासचिव सीताराम येचुरी ने भाजपा पर दोहरे मापदंड अपनाने का आरोप लगाया है। उनका कहना है कि भाजपा पूरे देश में खुद को राष्ट्रवादी ताकत के तौर पर पेश करती है, लेकिन त्रिपुरा में ‘अतिवादी संगठनों’ के साथ हाथ मिला लिया है। भाजपा वाम विरोधी ताकतों और अतिवादी संगठनों को साथ लाने की कोशिश कर रही है। उसनेआईपीएफटी के साथ गठबंधन भी कर लिया है। इसके जवाब में भाजपा के त्रिपुरा प्रभारी सुनील देवधर ने दावा किया कि आईपीएफटी त्रिपुरालैंड या पृथक राज्य की मांग नहीं उठाएगा। भाजपा ने त्रिपुरा के जनजातीय लोगों की समस्याओं के समाधान का भी आश्वासन दिया है। हम राज्य के सामाजिक-आर्थिक, सामाजिक-सांस्कृतिक और भाषायी चिंताओं के समाधान पर सहमत हुए हैं। इसके विपरीत भाजपा जनजातियों को अधिक स्वायत्तता देना चाहती है जिनका राज्य की आबादी में एक तिहाई हिस्सा है।
माकपा भी समझ रही है कि चुनाव में भाजपा की दिलस्पी की वजह से सही उम्मीदवारों का चयन जरूरी है। जिनकी छवि ठीक नहीं हैं, वैसे उम्मीदवारों को इस बार टिकट नहीं दिया गया है। वाममोर्चा ने इस बार 12 नए चेहरे को मैदान में उतारा है। लेकिन अधिकतर पुराने नेताओं को इसमें जगह दी गयी है। सत्तारूढ़ गठबंधन में शामिल तीन मुख्य दल आरएसपी, भाकपा और फॉरवर्ड ब्लॉक को एक-एक सीट दी गयी। पिछले चुनाव में इन्हें दो-दो सीटें दी गयी थीं।
दिलचस्प बात यह है कि पिछले चुनावों में माकपा को चुनौती देने वाली कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस इस बार हाशिए पर हैं और भाजपा दूसरे नंबर की पार्टी बन गई है। तृणमूल के विधायक भाजपा में शामिल हो गए हैं। जमीनी हकीकत को देखते हुए तृणमूल कांग्रेस प्रमुख और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी इस बार त्रिपुरा चुनाव में ज्यादा दिलचस्पी नहीं ले रही हैं। त्रिपुरा चुनाव में क्या भाजपा का खाता खुल पाएगा, हालांकि भाजपा बहुमत का दावा कर रही है और इसके लिए हर तरह का प्रयास कर रही है।
रविशंकर रवि
लेखक दैनिक पूर्वोदय के संपादक हैं।
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