…टूटे घुंघरुओं को जोड़ने अब नहीं लौटेंगे महाराज
ताल का लय के साथ एक रिश्ता टूट गया। नाद के तमाशे थोड़ी देर के लिए तो जरूर ठहर गए हैं। कथक सम्राट बिरजू महाराज का जाना, छंद के उस पुलिंदे का बिखर-सा जाना है, जो हमेशा हमें और हमारी संस्कृति को लय में बांधते थे।
कथक उनका मजहब था और छंद थे उनका ईमान। अगर आप उनसे परिचित नहीं भी थे, तो भी उनकी लहलहाती हंसी देखकर यकीन के साथ कह सकते थे कि उन्हें किसी का साथ मिला हुआ है। वे हमेशा हंसते हुए कहते थे- ”कथक का मिला है न, वह भी छह साल की उम्र से।”
छह के इस अंक को महाराज बड़े नेह से छूते हुए अपने अतीत में पहुंच जाते थे- “वर्ष 1944 की बात। छह साल के एक बच्चे को अपने पिता के साथ रामपुर नवाब के दरबार में नाचने जाना है। बच्चे को सबेरे-सबेरे जगाकर मां काजल लगा रही है। कंघा कर रही है। साफा बांध रही है। बच्चे को नींद से उठना नागवार गुजरता है। गुस्से में पैर पटकते हुए कहता है, “यह नवाब मर क्यों नहीं जाता।” छोटी उम्र के इस छोटे-से गुस्से ने उस बच्चे की पूरी दुनिया ही बदल दी। बच्चे ने नवाब के दरबार में जाने से इंकार कर दिया। नवाब नाराज हो गए। बाबू जी ने नौकरी छोड़ दी। बच्चे ने गुस्साना छोड़ दिया। फिर एक दिन दोनों ने घर छोड़ दिया।”
इसके बाद शुरू हुआ उस बच्चे का एक अनथक सफर, जिसमें हर मोड़ पर लय, हर पड़ाव पर ताल और हर आंख में नाद के तमाशे। जब पता भी नहीं था कि मरना क्या होता है, पिता जी चल बसे।
तब बिरजू की उम्र थी कुल साढ़े नौ साल। बहुत दिनों तक पिताजी दिखाई नहीं दिए, तो यही लगा कि पिताजी किसी लंबे टूर पर गए हैं, लेकिन साथ लेकर नहीं गए। अम्मा को रोते देखकर दुख होता था। घर में पैसे कमी होने लगी तो धीरे-धीरे बात समझ में आने लगी। तब जीजा जी उन्हें लेकर कानपुर आ गए। 25-25 रुपये के दो ट्यूशन मिले। पहले दिन पढ़ाने गए तो….कहा, ये खेलेंगे या सिखाएंगे। इतने छोटे हैं, कैसे सिखाएंगे। लेकिन जब पहले दिन सिखाया तो मामला जम गया।
टयूशन पढ़ाने जाते थे, तो रास्ते में श्मशान पड़ता था। लगभग 10 साल का कत्थक मास्टर डर के मारे अकेले रास्ता ही पार न कर पाए। रिक्शा लेने का मन बनता, लेकिन रिक्शा का किराया दें, तो खाएं क्या? फिर किसी आदमी से मदद मांगते कि भैया यह श्मशान पार करा दो। बाद में कमाई से जोड़-जोड़ कर एक साइकिल खरीदी। नाम रखा रॉबिनहुड। बचपन में रॉबिनहुड की कहानियां सुनी थी कि वह जंगलों में बहुत तेज भागता है। उनकी साइकिल भी तेज भागती थी। खूब सफाई करते, चमकाकर रखते, लेकिन साइकिल चलाने में डर लगता था। साइकिल पर चढ़कर चौराहा पार करना तो असंभव ही था। तब चौराहे और भीड़भाड़ वाले इलाके से बचते हुए कोई पतली गली पकड़ कर निकल पड़ते थे बिरजू महाराज। लेकिन उनकी गाड़ी चल निकली थी। तब वे अच्छन महाराज के बेटे, शंभू महाराज और लच्छू महाराज के भतीजे थे।
उन्हीं दिनों लखनऊ में एक महफिल सजी थी। उस्ताद बिस्मिल्लाह खान शहनाई बजा चुके थे और मंच से घोषणा हुई कि अब अच्छन महाराज का बेटा बिरजू नाचेगा। उस दिन बिरजू कुछ ऐसा नाचा कि उस्ताद बिस्मिल्लाह खान दाद देना भूल गए। रोने लगे। शंभू महाराज के पास आए और बोले, “नाचता तो तू भी है। अच्छन भी नाचता था, लेकिन तेरा भतीजा क्या खूब नाचता है।” फिर उन्होंने बिरजू के सिर पर हाथ रखकर दुआ दी- “जीते रहो बेटा, नाचते रहो।”
शहनाई के शहंशाह बिस्मिल्लाह खां की आखों में आसुओं से बड़ी और कौन-सी दाद बिरजू महाराज को मिलती? उसको, जिसके पेट में आने ही मां बीमार रहने लगी थी। अस्पताल के जिस कमरे में वह पैदा हुए थे, उसी कमरे में तीन और लड़कियों का जन्म हुआ था। सबने कहा, गोपियों के बीच में कन्हैया जन्मा है। तभी नाम रखा गया, बृजमोहन नाथ मिश्र। इतना बड़ा नाम लोग बोलें तो कैसे बोलें। बिना किसी घोषणा के बृजमोहन नाथ मिश्र सबके लिए बिरजू हो गया। जब कथक की दुनिया से बिरजू का परिचय हुआ तो वंश की परंपरा को आगे बढ़ने के लिए नाम के आगे महाराज जोड़ दिया गया। तब से बृजमोहन नाथ मिश्र गुम ही रहा और बिरजू महाराज पांच साल के उस लड़के को ढूंढने में बेताब रहे। यह बेताबी तब और बढ़ जाती…जब फुरसत होती थी। लेकिन फुरसत थी ही कहां? बस नाचते रहे।
नृत्य के आचार्य यही कहा करते कि बिरजू महाराज की कला में पिता अच्छन महाराज का संतुलन, चाचा शंभू महाराज का जोश और दूसरे चाचा लच्छू महाराज के लास्य की त्रिवेणी बहती है।
दुनिया के हर हिस्से में अपने कथक का प्रदर्शन कर चुके बिरजू महाराज बेहतरीन कोरियोग्राफर रहे और फिल्मी दुनिया ने भी इसे माना। वह कला की दुनिया के उन गिने-चुने लोगों में से थे, जिन्हें लोक तोड़ना अच्छा लगता है। सारे वाद्ययंत्र उनके इशारे समझते थे। गले की मिठास ऐसी कि पनघट भी मुग्ध हो जाए। शायद इसकी वजह यह थी कि पिता अच्छन महाराज की कक्षाओं में बैठ-बैठकर नन्हे-से बिरजू ने लय और ताल को मन में उतार लिया था।
जीवन की पहली कमाई से खरीदी हुई साइकिल ‘रॉबिनहुड’ की सफाई करते और उसे चमकाकर रखते, खराब होने पर अपनी कार को खुद से ठीक करते, अमिताभ बच्चन के डायलॉग सुनते, गोविंदा का डांस देखते, वहीदा रहमान की अदा पर मुग्ध होते, शिष्यों को वैजयंती माला के नृत्य को देखने की सलाह देते और अपने दादा महाराज बिंदादीन की ठुमरी को गुनगुनाते बिरजू महाराज हमेशा एक सहज जिंदगी जीते हुए दिखे।
प्लेट में रबड़ी और कलाकंद देखकर बच्चों की तरह मचलने वाले और अपनी पोती के हाथों से कॉमिक्स लपककर लेने वाले महाराज अपने अंतिम समय तक कथक में नए प्रयोगों के बारे में सोचते रहे। प्रयोग का जो जुनून बचपन में शुरू हुआ था, वह जारी रहा। उन्होंने न तो अपनी जिंदगी में किसी कंफ्यूजन की बात स्वीकार की और न ही कभी फ्यूजन की बात मानी। हमेशा कहते रहे, “सड़क कोई भी हो, चलेगा तो बिरजू ही।” लेकिन हर किसी की जिंदगी में एक सड़क ऐसी भी आती है, जिसमें यू-टर्न नहीं होता। आगे ही बढ़ना होता है…बहुत आगे, जहां से कोई नहीं लौटता। टूटे हुए घुंघरुओं को जोड़ने अब महाराज भी नहीं लौटेंगे।