![डॉ. अम्बेडकर](https://sablog.in/wp-content/uploads/2020/04/BR-Amedkar.jpg)
रक्त के मिश्रण से ही अपनेपन की भावना पैदा होगी
डॉ. भीमराव आम्बेडकर का जन्म 14 अप्रैल 1891 को हुआ, वे जन्म से अस्पृश्य थे। आम्बेडकर अभावों और अस्पृश्यता के साथ जुड़े कलंक से जूझते हुए ही पले बढ़े। उच्च शिक्षा प्राप्त कर ऊँचे पदों पर पहुँच जाने पर भी उन्हें पग-पग पर सवर्ण मातहतों तक के हाथों अपमान सहना पड़ा था। आम्बेडकर ने इस अन्यायपूर्ण सामाजिक विवशता के विरुद्ध विद्रोह किया और पूरी शक्ति से इसे मिटाने का प्रयत्न किया। महाराष्ट्र में समाज-सुधार की समृद्ध परम्परा से अनुप्राणित आम्बेडकर ने आरम्भ में हिन्दू समाज-व्यवस्था में सुधार के प्रयत्न किए, किन्तु अपने अनुभव, अध्ययन और विश्लेषण से वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि अस्पृश्यता हिन्दू समाज-व्यवस्था का अभिन्न अंग है। इस समाज व्यवस्था में आमूल परिवर्तन किए बिना इस अभिशाप को नहीं मिटाया जा सकता। डॉ. आम्बेडकर के मन पर जिन विचारकों का गहरा प्रभाव पड़ा, उनमें महात्मा बुद्ध, अमरीकी दार्शनिक जॉन ड्यूई (1859-1952) और महात्मा फुले (1827-90) का विशेष स्थान है।
आम्बेडकर ने अपनी चर्चित कृति ‘एनीहिलेसन ऑफ़ कास्ट’ (1936) में हिन्दू वर्ण-व्यवस्था का विस्तृत विश्लेषण करने के बाद छुआछूत या अस्पृश्यता की प्रथा में निहित अन्याय पर प्रकाश डाला। उन्होंने यह अनुभव किया कि उच्च जातियों के कुछ संत-महात्मा और समाज-सुधारक दलित वर्गों के प्रति सहानुभूति तो रखते थे, और उनकी समानता पर बल देते थे, परन्तु वे इस दिशा में कोई ठोस योगदान नहीं कर पाए थे।
अम्बेडकर के बिना अधूरा है दलित साहित्य
अतः आम्बेडकर ने विचार रखा था कि तथाकथित अछूत ही अछूत को नेतृत्व प्रदान कर सकते हैं। दूसरे शब्दों में, डॉ. आम्बेडकर दलित वर्गों के आत्म-सुधार में विश्वास करते थे। अतः उन्होंने इन जातियों को मदिरा-पान और गोमांस भक्षण जैसी आदतें छोड़ने की सलाह दी, क्योंकि ये आदतें उनकी स्थिति के साथ जुड़े हुए कलंक का मूल स्त्रोत थीं। उन्होंने इन्हें अपने बच्चो की शिक्षा-दीक्षा पर विशेष ध्यान देने और आत्म-सम्मानपूर्ण व्यवहार करने का रास्ता दिखाया। उन्होंने दलितों को हीन भावना से ऊपर उठने के लिए प्रेरित किया। उनका विश्वास था कि इनमें योग्यता की कोई कमी नहीं है।
अमरीका में रहते हुए उन्होने एक बार डॉ. ए. ए. गोल्डन विजर द्वारा आयोजित ‘नेतत्व विज्ञान’ विषय की गोष्ठी में एक निबन्ध पढ़ा। निबन्ध का विषय था ‘भारत में जाति : उद्गम विकास और स्वरूप’। यह 9 मई, 1916 की बात है। आम्बेडकर उस समय केवल 25 वर्ष थे। इस निबन्ध में उन्होंने अपनी उम्र की तुलना में आश्चर्यजनक परिपक्वता तथा आकलन शक्ति दिखाई। समाजशास्त्र के क्षेत्र में प्रसिद्ध बड़े-बड़े नामों से वे नहीं घबराये और उन्होंने स्पष्टता और साहस के साथ अपनी बातों को रखा। वे तरुण अवस्था से ही जाति-व्यवस्था प्रहार करने लगे थे। आम्बेडकर को इस बात का दुःख था कि एक हजार साल से दलित वर्गों में कोई बुद्धिजीवी पैदा नहीं हुआ। यह एक प्रकार से दलितों पर लादी गई अवहेलना का प्रतीक था। लेकिन अब भारतीय समाज के सबसे सताए हुए वर्ग से एक ऐसा व्यक्ति निकला था जिसे एक दिन उसके विरोधियों ने भी एक दिग्गज बुद्धिजीवी के रूप में स्वीकार किया।
डॉ. आम्बेडकर ने दलितों के उत्थान के लिए ‘बहिष्कृत हितकारिणी सभा’ का गठन किया। डॉ. आम्बेडकर मात्र सिद्धांतवादी नहीं थे बल्कि एक कर्मनिष्ठ और जुझारू व्यक्ति भी थे। जब उन्होंने पालिका के तालाब से पानी लेने के सवाल पर महाड में सत्याग्रह करने का फैसला किया तो उन्होंने एक विद्रोही सैद्धान्तिक घोषणा-पत्र जारी किया। उन्होंने कहा कि उनका लक्ष्य न केवल अस्पृश्यता को हटाना है बल्कि जाति-व्यवस्था के खिलाफ युद्ध छेड़ना भी है।
मूकनायक के सौ साल
उन्होंने हिन्दुओं के इस दावे का खंडन किया कि विश्व के सब धर्मों में हिन्दू-धर्म सबसे ऊपर और सहिष्णु है। जाति उन्मूलन का जोरदार समर्थन करते हुए उन्होंने कहा :-
“हिन्दू अपनी मानवतावादी भावनाओं के लिए प्रसिद्ध है और प्राणी जीवन के प्रति उनकी आस्था तो अद्भुत है। कुछ लोग तो विषैले साँपों को भी नहीं मारते। हिन्दुओं में साधुओं और हट्टे-कट्टे भिखारियों की बड़ी फौज है और वे समझते हैं कि इन्हें भोजन-वस्त्र देकर तथा इनको मौजमस्ती के लिए दान देकर वे पुण्य कमाते हैं। हिन्दू दर्शन ने सर्वव्यापी आत्मा का सिद्धान्त सिखाया है और गीता उपदेश देती है कि ब्राह्मण तथा चांडाल में भेद न करो।
राष्ट्र के समग्र विकास के पैरोकार रहे बाबा साहब डॉ. भीमराव आम्बेडकर
प्रश्न उठता है कि जिन हिन्दुओं में उदारता और मानवतावाद की इतनी अच्छी परम्परा है और जिनका इतना अच्छा दर्शन है, वे मनुष्यों के प्रति इतना अनुचित तथा निर्दयतापूर्ण व्यवहार क्यों करते हैं? हिन्दू सामज जाति-व्यवस्था की इस्पाती चौखट में बंधा हुआ है जिसमें एक जाति सामाजिक प्रतिष्ठा में दूसरी से नीचे हैं और प्रत्येक जाति में अपने स्थान के अनुपात में विशेषाधिकार, निषेध और असमर्थताएं है। इस प्रणाली ने निहित स्वार्थों को जन्म दिया है जो इस प्रणालीजन्य असमानताओं को बनाए रखने पर निर्भर है।”
डॉ. आम्बेडकर की लोकतान्त्रिक दृष्टि
आम्बेडकर ने घोषणा की कि जाति-व्यवस्था को बनाए रखना और केवल अस्पृश्यता को खत्म करना काफी नहीं होगा। उन्होंने कहा, ‘हिन्दुओं की विभिन्न जातियों में परस्पर भोजन को ही नहीं बल्कि परस्पर विवाह को भी आम बनाया जाना चाहिए। केवल अस्पृश्यता के कलंक को हटाने का मतलब होगा अस्पृश्यों को अन्य शूद्रों के श्रेणी में रखना।’ वे यह नहीं चाहते थे, क्योंकि स्मृतियों और धर्मशास्त्रों में अन्य शूद्रों पिछड़ों को भी नीच कहा गया हैं। वे चाहते थे वर्णाश्रम व्यवस्था खत्म की जानी चाहिए और अधिकार, उत्तरदायित्व तथा प्रतिष्ठा आकस्मिक जन्म के बजाय योग्यता पर आधारित होना चाहिए।
डॉ. आम्बेडकर का विचार था कि जाति-प्रथा से लड़ने के लिए चारों तरफ से प्रहार करना होगा। उन्होंने कहा ‘जाति ईंटों की दीवार जैसी कोई भौतिक वस्तु नहीं है। यह एक विचार है, एक मनःस्थिति है। इस मनःस्थिति की नींव शास्त्रों में है। वास्तविक उपाय यह है कि प्रत्येक स्त्री-पुरुष को शास्त्रों के बन्धन से मुक्त किया जाए।’ आम्बेडकर को विश्वास था कि इसका सही उपाय है, अन्तर्जातीय विवाह। उनका कहना था ‘जब जाति का धार्मिक आधार समाप्त हो जाएगा तो इसके लिए रास्ता खुल जाएगा। रक्त के मिश्रण से ही अपनेपन की भावना पैदा होगी और जब तक यह अपनत्व तथा बंधुत्व की भावना पैदा नहीं होगी, तब तक जाति-प्रथा द्वारा पैदा की गई अलगाव की भावना समाप्त नहीं होगी।’
डॉ. आम्बेडकर यह मानते थे कि मनुष्यों में केवल राजनीतिक समानता और कानून के समक्ष समानता स्थापित करके समानता के सिद्धांत को पूरी तरह सार्थक नहीं किया जा सकता। जब तक उनमें सामाजिक-आर्थिक समानता स्थापित नहीं की जाती, तब तक उनकी समानता अधूरी रहेगी। भारतीय संविधान का प्रारूप प्रस्तुत करते समय उन्होंने संविधान सभा में कहा था : “इस संविधान को अपनाकर हम विरोधाभासों से भरे जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं। इससे राजनीतिक जीवन में तो हमें समानता प्राप्त हो जाएगी, परन्तु सामाजिक और आर्थिक जीवन में विषमता बनी रहेगी। राजनीति के क्षेत्र में तो हम ‘एक व्यक्ति, एक वोट, एक मूल्य’ के सिद्धांत को मान्यता प्रदान कर देंगे, परन्तु हमारा सामाजिक और आर्थिक ढांचा इस ढंग से नहीं बदल जाएगा जिससे ‘एक व्यक्ति, एक मूल्य’ के सिद्धांत को सार्थक किया जा सके।’
डॉ. आम्बेडकर का मानना था कि सामाजिक समानता हासिल करने के लिए राजनीति में अपने बल पर ही लड़ना होगा। अन्य राजनीतिक दलों से सहायता नहीं मिलेगी ऐसा उनको लग रहा था। 1936 में आचार्य नरेन्द्र देव ने कहा कि ‘जाति प्रथा जनतन्त्र के खिलाफ है’। उसके बाद डॉ. आम्बेडकर ने माना कि सोशलिस्टों के साथ सहयोग हो सकता हैं।
सोशलिस्ट नेता डॉ. राममनोहर लोहिया आर्थिक समानता के साथ-साथ सामाजिक समानता की बात करते थे। नर-नारी समानता की बात करते थे, तथा जाति -प्रथा मिटाना उनके नीतियों में शामिल था। यह देखकर लोहिया के साथ सहयोग करने की भूमिका आम्बेडकर ने धीरे-धीरे अपनायी। 1952 के आम चुनाव में डॉ. आम्बेडकर की ‘शेड्यूल कास्ट फेडरेशन, नामक पार्टी ने सोशलिस्ट पार्टी को सहयोग किया। आगे चलकर दोनों मिलकर एक ही पार्टी बनाए ऐसा विचार होने लगा था पर 1956 में आम्बेडकर के निधन होने से वह प्रक्रिया रुक गयी।
.