शख्सियतसमाज

सामाजिक न्याय की राजनीति और मुंगेरीलाल रिपोर्ट

 

आज जब देश में सामाजिक न्याय की राजनीति को लेकर जो हाय-तौबा मची है उस दौर में कर्पूरी ठाकुर की राजनीतिक विरासत और मुंगेरी लाल कमीशन की रिपोर्ट की इतनी प्रासंगिकता क्यों बढ़ गयी है। मेरा पेपर इसे ही समझने और समझाने की कोशिश है।

मेरे समझ से इस रिपोर्ट को लेटीन अमेरिका के लिबरेशन थियोलोज़ी जिसे हम मुक्तिकामी धर्म भी कह सकते हैं, के काफ़ी नज़दीक है। यह समावेशी राजनीति की नींव थी, जिसको मैं ‘बिहार मॉडल ऑफ़ लिबरेशन’ पॉलिटिक्स’ कहता हूँ। इस पूरी राजनीति पर गहनता से समझने की कोशिश करें तो मुंगेरी लाल, बाबू जगजीवन राम, कर्पूरी ठाकुर, भोला पासवान शास्त्री जैसे बिहार के राजनीतिज्ञों का नाम सबसे ऊपर आएगा। इसपे और गहनता से विचार करे तो आप पाएँगे की ये कही ना कही उस दौर का कांग्रेस सिस्टम से जोड़ सकते है, जो की आज पूर्णतः टूट चुका है। और जब हम कांग्रेस सिस्टम की बात करते है तो गाँधी और न्यूनतम नैतिकता (मोरल मिनिमम) की बात किए बिना अधूरा रह जाएगा। कांग्रेस सिस्टम जिसके मुंगेरी लाल जी और बाबू जगजीवन राम पूरजोर समर्थक थे जो हमेशा उस न्यूनतम नैतिकता को न सिर्फ़ स्थापित करने बल्कि मै ये कहूँ की उसके बिना उनका कोई अप्प्रोच ही नहीं होता था तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।

इस रिपोर्ट ने यह बताने की कोशिश की है की मुक्तिगामी राजनीति और न्यूनतम नैतिकता में भी बड़ा नज़दीक का सम्बन्ध है। नि:संदेह मुक्तिकामी राजनीतिज्ञ जैसे अम्बेडकर, गाँधी और मार्क्स आदि की राजनीति न्यूनतम नैतिकता का बात किए बिना नहीं था लेकिन मुंगेरी लाल जी और बाबू जगजीवन राम के लिए उस समय सबसे बड़ी चुनौती थी कि डॉक्टर अम्बेडकर की राजनीति को कांग्रेस सिस्टम में कैसे आत्मसात की जाय। हालाँकि ये दोनो और भोला पासवान शास्त्री डॉक्टर अम्बेडकर से कही ना कही प्रभावित थे लेकिन ये डॉक्टर अम्बेडकर की मुक्तिकामी राजनीति और न्यूनतम नैतिकता दोनो को कांग्रेस सिस्टम में आत्मसात करने का फ़ोर्मुला/सूत्र नहीं ढूँढ पाये। उसका अलग-अलग उदाहरण आप देख सकते है। पहला उदाहरण भोला पासवान शास्त्री का ले सकते है।

Related image जब भोला पासवान शास्त्री मुख्यमंत्री बने और अम्बेडकर जयंती पर उन्हें माल्यार्पण करने गए तो फफक-फफक कर रोने लगे और कहने लगे की मुझे आपसे कोई दुश्मनी नहीं थी, मै बहकावे में आकर, या मेरी मती उस समय मारी गयी थी जो मै अपने इन्नहि हाथो से आप पर पत्थर फेंका था, और आपकी गाँधी मैदान में आयोजित रैली में जाने से रोका था।

दूसरा उदाहरण मुंगेरी लाल जी का है, उन्हें डॉक्टर अम्बेडकर की धर्म परिवर्तन के फ़ैसले से काफ़ी निराशा हुई थी और अम्बेडकर के धर्म परिवर्तन के फ़ैसले को अदूरदर्शी क़रार दिया था। बाबू जगजीवन राम का सन 1934 का गोपालगंज में दिया गया भाषण को आप तीसरा उदाहरण ले सकते है। वो जब डॉक्टर अम्बेडकर के मुक्तिकामी राजनीति, गाँधी और कांग्रेस सिस्टम की मुक्तिकामी राजनीति और न्यूनतम नैतिकता में जब कोई सामंजस्य बनता नहीं दिख रहा था तो बड़ा खिन्न हो करके दलितों को मुक्ति के लिए ख़ुद का स्वतंत्र प्रयास करने की आह्वान करते नज़र आए।

मेरा कहने का मतलब है की यदि उस समय यह मुंगेरी लाल कमीशन का रिपोर्ट होता तो शायद गाँधी, कांग्रेस सिस्टम, बाबू जगजीवन राम, मुंगेरी लाल जी, कर्पूरी ठाकुर और भोला पासवान शास्त्री जैसे नेताओ का काम बड़ा आसान हो जाता। शायद बिहार में कांग्रेस सिस्टम भी नहीं टूटता और सबसे महत्वपूर्ण बात की यदि ये रिपोर्ट बिहार में गम्भीरता से लागू होता तो आज सामाजिक न्याय के विचारधारा से उपजा आइडेंटिटी पॉलिटिक्स (पहचान पर आधारित राजनीति) का ये हाल नहीं होता। जिसमें सिर्फ़ पहचान हावी नहीं हो पता और सामाजिक-आर्थिक न्याय पीछे नहीं छूटता।

बिहार और देश में जब (आइडेंटिटी पॉलिटिक्स) पहचान पे आधारित राजनीति का दौर शुरू हुआ उसका सबसे महत्वपूर्ण तत्व सामाजिक न्याय था। सामाजिक-आर्थिक न्याय लेकिन धीरे-धीरे ये राजनीति में सिर्फ़ पहचान हावी हो गया और सामाजिक-आर्थिक न्याय गौड़ हो गया या पीछे छूट गया। इस स्थिति को मुंगेरी लाल आयोग बहुत पहले समझ गया था। इसलिए इस आयोग की पूरी कोशिश न्यूनतम नैतिकता के मापदंड को मानते हुए एक ऐसे राजनीति को स्थापित करना था जो राज्य में सामाजिक न्याय को स्थापित कर सके।

मेरे समझ से इस आयोग की रिपोर्ट का दूसरा सबसे महत्वपूर्ण कोशिश अवसर की समानता के प्रश्न को और बड़े स्तर पर समझने की कोशिश था।
सामाजिक न्याय, आरक्षण जिसका सीधा सम्बन्ध प्रतिनिधित्व और सहभगिता से है और उसको राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया का एक प्रमुख स्तम्भ के तौर पे समझा गया। इसके साथ -साथ मुंगेरी लाल कमीशन ने अवसर की समानता को इसका सबसे प्रमुख स्तम्भों में से एक के तौर पर समझाने की कोशिश या देखने की कोशिश की। इस रिपोर्ट में आरक्षण और अवसर में बड़ा नज़दीक का सम्बन्ध बताया गया है।

इस रिपोर्ट का मानना है की केवल जाति को अवसर की समानता का निर्धारक तत्व नहीं माना जा सकता। अवसर की समानता सबका मूल अधिकार है और सरकार को इसे सबके लिए सुनिश्चित करना चाहिये। दूसरे शब्दों में कहे तो इस रिपोर्ट का मानना है की सामाजिक न्याय का प्रश्न या मुद्दा सभी के लिए महत्वपूर्ण है चाहे वो किसी भी जाति या समुदाय का हो। अतः उस समय की वर्तमान राजनीति को सामाजिक न्याय के प्रश्न को और बड़े स्तर पर देखने और समझने की अपील थी।

दूसरे शब्दों में कहे तो इस रिपोर्ट का मानना था कि आरक्षण और पहचान की राजनीति चीरस्थायी या दीर्घकालिक तभी हो सकता है जब अवसर की समानता के प्रश्न को बड़े स्तर पर समझते हुए सर्वव्यापी या सबके लिए बनाया जाय। मतलब, सामाजिक न्याय के दायरे को बढ़ना और अवसर की समानता के प्रश्न को सर्वव्यापी बनाना आरक्षण और पहचान की राजनीति को चीरस्थायी होने की गारंटी होगी। इसका मतलब, इस रिपोर्ट का देश में ब्रह्मणवादी सामाजिक संरचना के ख़िलाफ़ बराबरी, स्वतंत्रता, भाईचारा और न्याय पर आधारित एक बेहतर वैकल्पिक सामाजिक संरचना और राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया को समाज के सभी वर्ग का प्रश्न और उसकी भागीदारी को सुनिश्चित करने का आह्वान था।

मेरे समझ से मुंगेरी लाल कमीशन अपने समय से काफ़ी आगे के समय में उत्पन्न होने वाले स्थिति को भाप गया था। एक बार फिर मै आप सबको आज़ादी के बाद संविधान सभा द्वारा स्थापित न्यूनतम नैतिकता को याद दिलाना चाहूँगा कि जिसके तहद सामाजिक न्याय, आरक्षण, धर्मनिरपेक्षता, प्रतिनिधित्व, सहभागिता, अवसर की समानता आदि को राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया का प्रमुख स्तम्भ के रूप में स्वीकार्य किया गया और उसके विरोध में एक बाटने वाली प्रकृति और नकारात्मक भावना का भी निर्माण करने की पूरी कोशिश की जा रही थी। मुंगेरी लाल आयोग को यह एहसास हो चुका था की यदि आरक्षण, प्रतिनिधित्व, सहभागिता, अवसर की समानता, धरनिरपेक्षता आदि और सामाजिक न्याय के बीच एक बेहतर सामंजस्य स्थापित करने में यह देश असफल रहता है तो इस पूरे राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया के ख़िलाफ़ यह नकारात्मक विचारधारा को बहुत तेज़ी से फैलायी जायेगी। हम इस सामंजस्य को स्थापित करने में असफल रहे और आज की राजनीति सबके सामने है। यही कारण था की मुंगेरी लाल कमीशन इस नकारात्मक विचारधारा के सामने एक बड़ी लकीर खीचने की कोशिश की थी।

यह कमीशन 1971 में मुंगेरी लाल जी के अध्यक्षता में बना था, 1979 में रिपोर्ट सौंपी गयी थी। इसने हिंदू, मुस्लिम और ईसाई में से 128 पिछड़ी जातिओं की पहचान की थी। तीन निर्धारक तत्व/ मापदंड अपनाए गए थे- सामाजिक-आर्थिक स्थिति, सरकारी नौकरीयों में प्रतिनिधित्व, और उद्धयोग एवं व्यापार में हिस्सेदारी।

कमीशन का यह सुझाव था की इन 128 पिछड़ी जतीयों को सरकारी नौकरीयों में 26 प्रतिशत, और 24 प्रतिशत शैक्षणिक संस्थाओं में आरक्षण दिया जाय। इस कमीशन का सुझाव मानते हुए उस समय का वर्तमान कर्पूरी ठाकुर सरकार ने ओबीसी के लिए 8 प्रतिशत, एमबीसी के लिए12 प्रतिशत, एससी के लिए 14 प्रतिशत, 10 प्रतिशत एसटी के लिए, 3 प्रतिशत सभी जाति के आर्थिक रूप से पिछड़े महिलाओं के लिए और 3 प्रतिशत आर्थिक रूप से पिछड़े सवर्ण जातियों के लिए।

इस रिपोर्ट का पूरा अप्रोच को हम उसी बाटने वाली नकारात्मक भावना को उत्पन्न होने की सम्भावना को ख़त्म करने और एक समावेशी और सबको आत्मसात करने वाली राजनीति को बढ़ाने के साथ-साथ सामाजिक न्याय की राजनीति को राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया से जोड़ने की कोशिश थी।

न्यूनतम नैतिकता, अवसर की समानता का सार्भौमिकीकरण, सामाजिक न्याय के साथ राष्ट्र निर्माण के अलावा चौथा महत्वपूर्ण बात इसमें जो उठाई गयी है वो नौकरशाही का है। इस रिपोर्ट में लालफ़ीताशाही, कार्य करने में लापरवाही या उपेक्षा और इसमें निहित भ्रष्ट।चार से आगे बढ़कर, इसके कारणों को समझते हुए नौकरशाही की उत्तरदायित्व और ज़िम्मेदारी कैसे सुनिश्चत किया जाय उसकी बात की गयी है। मुंगेरी लाल आयोग की रिपोर्ट में दो प्रकार की नौकरशाही की बात कही गयी है। संवेदनशील नौकरशाही और वस्तुनिष्ठ नौकरशाही। इसका मानना था की वस्तुनिष्ठ नौकरशाही हो सकता है की ईमानदार हो लेकिन कोई ज़रूरी नहीं की वह अनुसूचित जाति, जनजाति, ग़रीब, पिछड़े आदि के प्रति संवेदनशील हो।

संवेदनशील नौकाशाही वह है जिसके पास पात्रता के साथ-साथ अनुभव भी हो। जो ग़रीबी, पिछड़ेपन, शोषण और अन्य सामाजिक पीड़ा को महसूस कर सके और उन समस्ययों के निपटारा के लिए अपने उतरदायित्व को ज़िम्मेदारी से निभाये। इसलिए इस रिपोर्ट ने संवेदनशीलता और नौकरशाहिक दक्षता, उत्तरदायित्व और ज़िम्मेदारी के बीच गहरा सम्बन्ध को वर्तमान सरकार को देखने और समझने की सलाह दी है।

इसके अलावा यह रिपोर्ट इससे बहुत आगे जाकर इन समुदायों की मूल-भूत समस्यायों को कैसे समझा जाय और प्राथमिकता के आधार पर प्रगतिशील, परिवर्तनकारी उपाय क्या होना चाहिए को बड़े ही सलीक़े से बताया गया है।


मिड-डे-मील योजना (मध्याह्न भोजन), अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए मुफ़्त शिक्षा, पुस्तकें, भोजन, वस्त्र, विछावन, आवासीय विद्यालय स्कूलों में बहुत कम नामांकन आदि की समस्या से कैसे निजात पाया जाय? शिक्षा का माध्यम क्या हो? यहाँ तक कि जनजातीय इलाक़ों में शिक्षक नियुक्ति का गाइडलाइन, वेतनमान एवं अन्य भत्तों का भी सुझाव दिया गया है।
नौकरशाही की दक्षता के प्रश्न उठाने, बैक्लॉग वेकन्सी (अबतक नहीं भरी गयी पदों) को भरने के सुझाव और समय पर अनुदान नहीं दिए जाने का सवाल उठाने के साथ-साथ ये अनुदान कैसे सुनिश्चत किया जाय ये भी बताया गया है।

अनुसूचित जाति और जनजातियों की अबतक नहीं भरी गयी पदों को भरने में कुछ सीमा भी सुझाए गए है ताकि उनके प्रतिनिधित्व को सुनिश्चत किया जा सके। जैसे अनापूरित आरक्षित स्थानों की पूर्ति अनुसूचित जाति के स्थान पर अनुसूचित जनजाति या अनुसूचित जनजाति के स्थान पर अनुसूचित जाति के ही उम्मीदवार से किया जाय।
इसमें ये भी सुझाव दिया गया की सरकार इस बात का प्रयास करे की अनुसूचित जाति और जनजाति के छात्र चिकित्सा और तकनीकी पाठ्यक्रम भी कैसे आए।

मुफ़्त कोचिंग की व्यवस्था, इन छात्रों की सहायता के लिए व्यवसाय मार्गदर्शक पदाधिकारी की नियुक्ति, अनुसूचित जाति और जनजाति की महिलाओं के लिए विशेष सुविधा, जैसे: उनके लिए अनुमंडल में कम से कम एक आवासीय विद्यालय की व्यवस्था आदि।
इसके आगे इन वर्गों के महिलाओं की प्राकृतिक झुकाव को मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से समझने की कोशिश की गयी है। जैसे; इस रिपोर्ट में एक जगह यह बताने की कोशिश की गयी है कि आदिवासी महिलाओं की प्रकृति नर्सिंग/उपचर्या की ओर होती है इसलिए उन्हें नर्सिंग की ट्रेनिंग देने का सुझाव दिया गया है। यहाँ मै सुनिश्चित करना चाहता हूँ की ये कही से भी आदिवासी महिलाओं की क्षमता और योग्यता को कम आँकते हुए उनको सिर्फ़ नर्सिंग के ही क़ाबिल समझने और उन्हें वही तक सीमित करने की कोशिश नहीं थी।

इसके अलावा, ग़ैर-जनजातियों द्वारा अवैध रूप से दख़ल की गयी भूमि को पुनः उन्हें वापस करने की सुझाव और कैसे किया जा सकता है उसका तरीक़ा। खेती लायक़ भूमि का बंदोबस्त और सिंचाई की व्यवस्था के साथ-साथ अनुसूचित जाति और जनजातियों को साहूकारों के चंगुल से बचाने की सुझाव दिया गया है। इन कमज़ोर वर्गों के लिए बैंकिंग प्रणाली और लोन को इनके लिए कैसे सरल बनाया जाय। कृषि सम्बन्धी पैदावार तथा वन उत्पाद की उचित क़ीमत दिलाने के लिए एक अलग संस्था स्थापित करने की सरकार की सलाह भी दी गयी थी।

इस रिपोर्ट की सार्वभौमिकता और गहनता का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता कि एक और महत्वपूर्ण मुद्दा जो अनुसूचित जाति और जनजातियों दोनो से सम्बन्धित था लेकिन अनुसूचित जनजातियों की तुलना में अनुसूचित जाति में भयावह था। आप अनुमान नहीं लगा सकते आश्चर्य भी हो सकता है, वह था अनुसूचित जाति की आवास की समस्या। चुकी जनजाति अछूतपन का शिकार नहीं थे, अनुसूचित जाति अछूतपन का शिकार थे और वो मुख्य भूमि/भाग में रहते थे इसलिए उनके लिए आवास बनाने की समस्या बड़ा ही भयावह थी। समाज को इस गहराई तक समझ पाना, या इसे रिपोर्ट में शामिल करना मुंगेरी लाल कमीशन की बहुत बड़ी उपलब्धि कह सकते है। इसलिए सरकार से उन्हें ज़मीन आबँटन के सुझाव के साथ-साथ तमाम तरह के सुरक्षा का भी सुझाव आप देख सकते है इस रिपोर्ट में।

निष्कर्षत: मै कह सकता हूँ की मुंगेरी लाल आयोग की रिपोर्ट लोगों को बाटने के लिए नहीं, वल्कि सभी वर्ग के लोगों को जोड़ने के लिए था। सभी वर्ग के लोगों की समस्यायों, उनके दुःख-दर्द को समान रूप से समझते हुये सभी के बीच बराबरी, अवसर की समानता, और सबका सम्मान और गरिमा को सुनिश्चित करने का प्रयास था। इसके सुझावों का मक़सद था उस समय की वर्तमान राजनीति को रास्ता दिखाना जिससे सभी वर्गों के बीच आपसी सम्मान, एक-दूसरे के प्रति दयालुता, उदारता, न्याय, भाईचारा और मानवता की भावना स्थापित की जा सके। सभी वर्ग के लोगों के बीच एक ऐसी सामंजस्य स्थापित करना ताकि लोग भय और भेद-भाव के स्थान पर आशा और प्रेम, भूतकाल के दर्द और ज़ंजीरों के स्थान पे प्रगति और उन्नत्ति को चुन सके। वर्तमान राजनीति और सरकार अपने समुदाय के सेवा के साथ-साथ सभी समुदाय और देश और मानवता की सेवा करना अपना उत्तरदायित्व और ज़िम्मेदारी समझे तभी राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया को संविधान के मूल आदर्शों के अनुसार सुनिश्चित किया जा सकता है।

पता नहीं इस रिपोर्ट को किस मानसिकता से ग़ायब किया गया ये शोध का विषय हो सकता है लेकिन मेरा मानना है की यदि इसे सरकारें ज़िम्मेदारी से लागू करने की कोशिश करती तो न सिर्फ़ सामाजिक न्याय की राजनीति ही देश का स्थापित विकल्प होता वल्कि राष्ट निर्माण की प्रक्रिया को भी एक नई ऊँचाई मिली होती। हालाँकि सामाजिक न्याय की राजनीति के पक्षधरों के लिये एक और मौक़ा बन सकता है यदि ईमानदारी और ज़िम्मेदारी से ‘बिहार मॉडल ऑफ़ लिबरेशन पॉलिटिक्स’ को पुनर्जीवित कर उसे अपनी राजनीतिक विकल्प के रूप में स्थापित करने की ईमानदार कोशिश की जाय।

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राकेश रंजन

लेखक जे.एन.यू. नई दिल्ली के पूर्व शोधार्थी, वर्तमान में बी. आर. ए. बिहार विश्वविद्यालय मुजफ्फरपुर में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। सम्पर्क +919899339892, rakeshjnu06@gmail.com
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