योग : वैश्विक स्वास्थ्य का द्योतक
योग एक आध्यात्मिक प्रक्रिया है। यह शरीर, मन और आत्मा को एक सूत्र में बांधती है। योग दर्शन है, जीवन जीने की कला है। योग स्व के साथ अनुभूति है। इससे स्वाभिमान और स्वतन्त्रता का बोध होता है। यह मनुष्य व प्रकृति के बीच सेतु का कार्य करती है। योग मानव जीवन में परिपूर्ण सामंजस्य का द्योतक है। यह ब्रह्माण्ड की चेतना का बोध कराती है। बौद्धिक व मानसिक विकास में भी सहायक है। आत्मा को परमात्मा के साथ जोड़ना, जीवन में संयम का होना, और समाधि, यही योगिक क्रियाएं योग कहलाती हैं।
योग सार्वभौमिक चेतना के साथ व्यक्तिगत चेतना का संघ है। इसका जन्म प्राचीन भारत में हजारों साल पहले हुआ था। यह माना जाता है कि शिव पहले योगी या आदियोगी और पहले गुरु हैं। हजारों साल पहले हिमालय में कंटिसारोकर झील के तट पर आदियोगी ने अपने ज्ञान को महान सात ऋषियों के साथ साझा किया था क्योंकि इतने ज्ञान को एक व्यक्ति में रखना मुश्किल था। ऋषियों ने इस शक्तिशाली योग विज्ञान को दुनिया के विभिन्न हिस्सों में फैलाया जिसमें एशिया, उत्तरी अफ्रीका, मध्य पूर्व और दक्षिण अमेरिका शामिल हैं।
भारत को अपनी पूरी अभिव्यक्ति में योग प्रणाली को प्राप्त करने का आशीष मिला हुआ है। आज योग भारत की बदौलत ही दुनिया भर में फैला है। भारत के प्रयासों की बदौलत संयुक्त राष्ट्र महासभा में इसकी स्वीकृति हुई थी जिसके बाद 21 जून 2015 में पहली बार इसे विश्व स्तर पर मनाया गया। अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस हर साल 21 जून को मनाया जाता है। इस वर्ष 21 जून को विश्व, सातवां (7) योग दिवस मना रहा है। वर्ष 2021 में योग दिवस की थीम है- ‘योग के साथ रहें, घर पर रहें’।
इस थीम से स्पस्ट है कि महामारी के इस दौर में लोगों को घर पर ही नियमित योग करने का संदेश दिया गया है। कोविड-19 महामारी के इस दौर में अपने अंदर सकारात्मक ऊर्जा और बेहतर प्रतिरोधक क्षमता विकसित करने के लिए योग का महत्व और अधिक बढ़ गया है। भारत सरकार का आयुष मंत्रालय और भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद (आईसीसीआर) योग दिवस को सफल बनाने का कार्य करती है।
योग, अंग्रेजी के चार अक्षरों से मिलकर बना है। वाई, ओ, जी और ए (yoga)। वाई, येलो कलर (पीला रंग) का प्रतीक है। ओ, ऑरेंज कलर (नारंगी/गेरुआ रंग) का प्रतीक है। जी, ग्रीन कलर (हरा रंग) का प्रतीक है। ए प्रतीक है एक्शन (क्रिया/काम ) का। कहने का तात्पर्य है – तीनो रंगों का काम/प्रभाव योग का प्रतीक है। पीला रंग देवी सरस्वती का रंग है। अतएव यह ज्ञान को दर्शाता है। नारंगी रंग/गेरुआ रंग भक्ति का प्रतीक है। हरा रंग प्रकृति का प्रतीक है। यह जीवन देता है। हरा रंग उर्वरता और विकास का द्योतक है। अतएव हरा रंग कर्म का प्रतीक है। ये तीनो रंग क्रमशः ज्ञान योग, भक्तियोग और कर्मयोग को दर्शाते हैं।
गीता में योग के कई प्रकार हैं लेकिन मुख्यतः तीन तरह के योगों का वास्ता मनुष्य से अधिक होता है ज्ञानयोग, भक्तियोग और कर्मयोग।
ज्ञानयोग – साक्षीभाव द्वारा विशुद्ध आत्मा का ज्ञान प्राप्त करना ही ज्ञानयोग है। यही ध्यानयोग है।
भक्तियोग – भक्त श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन रूप- इन नौ अंगों को नवधा भक्ति कहा जाता है। भक्ति योगानुसार व्यक्ति सालोक्य, सामीप्य, सारूप तथा सायुज्य-मुक्ति को प्राप्त होता है, जिसे क्रमबद्ध मुक्ति कहा जाता है। भक्ति योग ईश्वर प्राप्ति का सर्वश्रेष्ठ योग है। जिस मनुष्य में भक्ति नहीं होती उसे भगवान् कभी नहीं मिलते।
कर्मयोग – कर्म करना ही कर्मयोग है। इसका उद्देश्य है कर्मों में कुशलता लाना। यही सहज योग है।
कहने का तात्पर्य है कि रंग हमारे जीवन में महत्वपूर्ण प्रभाव डालते हैं। रंगो का योग से घनिष्ठ सम्बन्ध है। सिंधु-सरस्वती सभ्यता के जीवाश्म अवशेष प्राचीन भारत में योग की मौजूदगी का प्रमाण हैं। इस उपस्थिति का लोक परम्पराओं में उल्लेख है। यह सिंधु घाटी सभ्यता, बौद्ध और जैन परम्पराओं में शामिल है। सूर्य को वैदिक काल के दौरान सर्वोच्च महत्व दिया गया था और इसी तरह सूर्य नमस्कार का बाद में आविष्कार किया गया था। महर्षि पतंजलि को आधुनिक योग के पिता के रूप में जाना जाता है। हालाँकि उन्होंने योग का आविष्कार नहीं किया क्योंकि यह पहले से ही विभिन्न रूपों में था। उन्होंने इसे प्रणाली में आत्मसात कर दिया। उन्होंने देखा कि किसी को भी अर्थपूर्ण तरीके से समझने के लिए यह काफी जटिल हो रहा है। इसलिए उन्होंने आत्मसात किया और सभी पहलुओं को एक निश्चित प्रारूप में शामिल किया जिसे योगसूत्र कहते हैं।
योगसूत्र, योगदर्शन का मूल ग्रंथ है। यह छः दर्शनों में से एक शास्त्र है और योगशास्त्र का एक ग्रंथ है। योग सूत्रों की रचना 3000 साल के पहले पतंजलि ने की। योगसूत्र में चित्त को एकाग्र करके ईश्वर में लीन करने का विधान है। पतंजलि के अनुसार चित्त की वृत्तियों को चंचल होने से रोकना (चित्तवृत्तिनिरोधः) ही योग है। अर्थात मन को इधर-उधर भटकने न देना, केवल एक ही वस्तु में स्थिर रखना ही योग है। महर्षि पतंजलि ने योग को ‘चित्त की वृत्तियों के निरोध’ (योगः चित्तवृत्तिनिरोधः) के रूप में परिभाषित किया है।
उन्होंने ‘योगसूत्र’ नाम से योग सूत्रों का एक संकलन किया जिसमें उन्होंने पूर्ण कल्याण तथा शारीरिक, मानसिक और आत्मिक शुद्धि के लिए अष्टांग योग (आठ अंगों वाले योग) का एक मार्ग विस्तार से बताया है। अष्टांग योग को आठ अलग-अलग चरणों वाला मार्ग नहीं समझना चाहिए; यह आठ आयामों वाला मार्ग है जिसमें आठों आयामों का अभ्यास एक साथ किया जाता है। योग के ये आठ अंग हैं: 1. यम, 2. नियम, 3. आसन, 4. प्राणायाम, 5. प्रत्याहार, 6. धारणा 7. ध्यान 8. समाधि। योग करने से तनाव नहीं होता है। यह जीवन को तनाव मुक्त बनाता है। तनाव सारी बीमारियों की जड़ है। तनाव शब्द का निर्माण दो शब्दों से मिल कर हुआ है “तन”+”आव”। तन का तात्पर्य शरीर से है और आव का तात्पर्य घाव से है। अर्थात वह “शरीर” जिसमे घाव हैं।
कहने का तात्पर्य तनाव एक मानसिक बीमारी है जो दिखाई नहीं देती है। शरीर का ऐसा घाव जो दिखाई न दे, तनाव कहलाता है। तनाव से ग्रसित इंसान को सारा समाज पागल दिखाई देता है। तनाव वो बीमारी है जिसमे इंसान हीन भावना से ग्रसित होता है। तनाव मूल रूप से विघर्सन है। घिसने की क्रिया ही विघर्सन कहलाती है। घिसना अर्थात विचारों का नकारात्मक होना या मन का घिस जाना। अतएव तनाव मनोविकार है। तनाव नकारात्मकता का पर्यायवाची है। एक कहावत है- “भूखे भजन न होए गोपाला। पहले अपनी कंठी माला”। भूखे पेट तो ईश्वर का भजन भी नहीं होता है।
कहने का तात्पर्य जब हम स्वयं का आदर व सम्मान करते हैं तभी हम देश और समाज की सेवा कर सकते हैं। तनाव से ग्रसित इंसान जो खुद बीमार है वो दूसरों को भी बीमार करता है। तनाव से ग्रसित इंसान दूसरों को भी तनाव में डालता है। ऐसे नकारात्मक लोगों से दूर रहना चाहिए। समाज की अवनति का कारण है तनाव। योग करने से सकारात्मक विचारों का उदभव होता है। यह सकारात्मकता की जननी है। सकारात्मकता से तनाव पर विजय पाई जा सकती है। अतएव असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्मामृतं गमय ॥– बृहदारण्यकोपनिषद् 1.3.28 ।। अर्थ- मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो। मुझे अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलो। मुझे मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो॥
यही अवधारणा समाज को चिंतामुक्त और तनाव मुक्त बनाती है। स्व को विकसित करने की आध्यात्मिक प्रक्रिया ही योग है। अर्थात यह अपनेपन को विकसित करता है। अपनापन, अकेलापन को दूर करता है। अपनापन का शाब्दिक अर्थ है -आत्मीयता/स्वाभिमान/आत्माभिमान। आत्मीयता अर्थात अपनी आत्मा के साथ मित्रता। स्वाभिमान अर्थात स्व के साथ जुड़ना। आत्माभिमान अर्थात आत्मा के साथ जुड़ना। कहने का तात्पर्य – मनुष्य कभी अकेला नहीं होता है। मनुष्य जब नकारात्मक विचारों से ग्रसित होता है तो वह आत्मीयता/स्वाभिमान/आत्माभिमान का अनुभव नहीं करता है। नकारात्मकता अकेलेपन को जन्म देती है। सकारात्मकता अपनेपन को जन्म देती है। अपनापन ही अकेलापन को दूर करता है। भीड़/लोगों में शामिल होने से हम अपने को अपनेआप से अलग करते हैं। भीड़ में शामिल होना अर्थात अपने को अपने आप से अलग करना हुआ। अलग होना आत्मीयता/स्वाभिमान/आत्माभिमान के लक्षण नहीं हैं।
अपने आप को अपने से अलग करके कभी भी अकेलापन दूर नहीं किया जा सकता है। अतएव अपनी आत्मीयता/स्वाभिमान/आत्माभिमान को बनाए रखें। जिससे जीवन में अकेलेपन का अनुभव न हो। कोई भी व्यक्ति इस धरती पर अकेला नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति भौतिक रूप से भौतिक संसाधनो व चारो ओर के आवरण से घिरा हुआ है। देखा जाए तो भौतिक रूप से भी व्यक्ति अकेला नहीं है। अतएव हम कह सकते हैं कि कोई भी व्यक्ति न तो आध्यात्मिक रूप से अकेला है और नहीं भौतिक रूप से। योग से रोग प्रतिरोधक क्षमता का विकास होता है। यह रोग को ख़त्म करता है।
आयुष मंत्रालय का मानना है की मानव अपनी रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाकर कोविड-19 महामारी से लड़ सकता है। इस महामारी से बचने का कारगर उपाए है योग। तनावमुक्त जीवन जीने की कला है योग। सकारात्मकता से ही सदगुणों का विकास होता है। सकारात्मकता, योग करने से आती है। योग, सदगुणों के विकास का वाहक है। अतएव हम कह सकते है योग, वैश्विक स्वास्थ्य का द्योतक है।