
हाल में हुए बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजे भले ही कई लोगों को चौंकाते हों, लेकिन राजग की भारी जीत अप्रत्याशित नहीं थी। पिछले दो दशकों में बिहार की त्रिकोणीय राजनीति के केन्द्र में हमेशा नीतीश कुमार और उनकी पार्टी जदयू रही है। उनकी राजनीतिक स्थिति ऐसी रही है कि वे जिसके साथ चुनावी गठबन्धन करते हैं, उसका पलड़ा भारी हो जाता है। यही कारण है कि इस चुनाव में भी राजग सामाजिक और जातीय समीकरणों की दृष्टि से इंडी गठबन्धन से कहीं अधिक मजबूत दिखाई दिया।
इस बार राजग में चिराग पासवान, जीतन राम मांझी और उपेंद्र कुशवाहा जैसे नेताओं की उपस्थिति ने इसके जातीय आधार को और विस्तारित किया। हालाँकि यह भी सच है कि छोटे दल अक्सर एक परिवार या एक नेता के इर्द-गिर्द घूमते हैं और उनका यह दावा कि वे किसी जाति विशेष का प्रतिनिधित्व करते हैं—लोकतान्त्रिक कसौटी पर कई बार कमजोर पड़ जाता है। मुकेश सहनी की करारी हार इस मिथक को भविष्य में और कमजोर कर सकती है।
दरअसल सामाजिक न्याय की राजनीति के प्रभाव से पिछड़ी जातियों के भीतर एक नया वर्गीय ढाँचा उभरा है। एक मह्त्त्वाकांक्षी, उभरता हुआ वर्ग भी अस्तित्व में आया है, जिसे केवल जाति आधारित नेतृत्व से सन्तोष नहीं है। यह नये प्रकार की आकांक्षाओं वाला समूह है, जो परिवारवादी राजनीति और जाति-ठेकेदारी को अपने हितों का प्रतिनिधि नहीं मानता। यही कारण है कि पिछड़ों की राजनीति अब एक नये विखण्डन और पुनर्गठन के दौर से गुजर रही है।
मण्डल राजनीति के बाद यह विखण्डन अधिक स्पष्ट हुआ। 1995 में समता पार्टी के गठन से इसका संकेत मिल भी गया था। समय के साथ लालू यादव की राजनीति भी सभी पिछड़ों के बजाय एक जाति-विशेष के प्रतिनिधित्व में सिमट गयी। दूसरी ओर, 2023 की जातीय जनगणना के अनुसार 36 प्रतिशत आबादी वाले अति-पिछड़े अब अपनी अलग राजनीतिक जगह की तलाश में हैं। वर्तमान में यह समूह सुरक्षा और प्रतिनिधित्व की उम्मीद नीतीश कुमार में देखता है। यादव-प्रधान पिछड़ा नेतृत्व के प्रति इसकी असहमति ने भी इसे नीतीश के करीब रखा है।
भारतीय जनता पार्टी इस स्थिति को भली-भांति समझती है। लेकिन नीतीश से अलग होकर वह अति-पिछड़ों का समर्थन हासिल नहीं कर पाती—2015 इसका उदाहरण है। उत्तरप्रदेश की तरह बिहार में एक प्रमुख पिछड़ी जाति के खिलाफ अति-पिछड़ों को खड़ा करने की रणनीति अभी सफल नहीं हुई है।
यह स्थिति एक बड़ा सवाल उठाती है—क्या बिहार की राजनीति भविष्य में भी इसी जातीय जाल में उलझी रहने के लिए अभिशप्त है? क्या सामाजिक परिवर्तन केवल जातीय फ्रेम में ही सम्भव है? यह सवाल इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि जिस प्रदेश ने सामाजिक न्याय की ‘मूक क्रान्ति’ देखी, उसी प्रदेश में 65 प्रतिशत लोगों की आय 10,000 रुपये मासिक से कम है, 34 प्रतिशत की आय 6,000 से नीचे है, और केवल 6 प्रतिशत लोग ही स्नातक हैं। 96 प्रतिशत लोगों के पास दोपहिया वाहन तक नहीं है। यह सब 2023 की जातीय जनगणना के आँकड़े बताते हैं।
ऐसे सामाजिक-आर्थिक हालात में भी यदि राजनीति जाति के इर्द-गिर्द घूमती रहे, तो इसे वैचारिक खोखलापन ही कहा जाएगा। राजनीति वहीं ठहर जाती है, जहाँ जनता के वास्तविक मुद्दों के बजाय पहचान-आधारित लामबन्दी हावी हो जाए।
बिहार का इतिहास बताता है कि यह प्रदेश वैचारिक राजनीति की धरती रहा है—गाँधीवादी, समाजवादी, साम्यवादी धाराओं ने यहाँ गहरी छाप छोड़ी। सम्पूर्ण क्रान्ति की पुकार भी यहीं से उठी थी। बाद में सामाजिक न्याय ने इसकी राजनीतिक धुरी बदल दी। लेकिन आज जो वैचारिक जड़ता दिख रही है, वह राजनीतिक विकल्पहीनता का परिणाम प्रतीत होती है।
हाल के वर्षों में प्रशांत किशोर और उनकी जनसुराज पार्टी ने जाति-आधारित राजनीति से अलग एक विकास-आधारित विकल्प प्रस्तुत करने की कोशिश की। उन्होंने बिहारी अस्मिता, पलायन, बेरोजगारी, और शासन-सुधार जैसे मुद्दों को केन्द्र में रखा। लेकिन उनकी करारी हार बताती है कि जनता अभी इस तरह के गैर-जातीय विकल्प को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं दिखती। हालाँकि प्रशांत किशोर ने अपने अभियान को दस वर्षों तक जारी रखने का संकल्प जताया है। समय बताएगा कि क्या उनका प्रयास बिहार की राजनीति में कोई नयी दिशा दे पाएगा।
वामपन्थ का असर भी कमजोर पड़ा है। सीपीआई(एमएल) हाल के वर्षों में वाम दलों में अपेक्षाकृत प्रभावी रही है, मगर इस चुनाव में उसे भी भारी नुकसान हुआ। पूरे देश की तरह बिहार में भी वाम राजनीति का प्रभाव क्षीण होता जा रहा है।
कॉंग्रेस की स्थिति भी दयनीय है। वह भी जाति-आधारित राजनीति को साधने की कोशिश कर रही है, लेकिन बिहार में लालू-नीतीश जैसे नेताओं के मुकाबले कॉंग्रेस की विश्वसनीयता कमजोर है। राहुल गाँधी की वोट-अधिकार यात्रा का असर भी नगण्य रहा। कॉंग्रेस यदि बिहार में कोई भूमिका निभाना चाहती है, तो उसे सामाजिक न्याय के अगले चरण—आर्थिक सशक्तिकरण—को अपनी राजनीति का आधार बनाना होगा। लेकिन इसकी राह कठिन है क्योंकि कॉंग्रेस संगठनात्मक रूप से कमजोर, दिशाहीन और जमीनी स्तर पर लगभग निष्क्रिय है।
भाजपा की स्थिति भी किसी से छिपी नहीं है। बिहार उत्तर भारत का एकमात्र बड़ा प्रदेश है जहाँ भाजपा अपने दम पर सरकार नहीं बना सकी। धार्मिक ध्रुवीकरण यहाँ सफल नहीं होता क्योंकि जातीय पहचान धार्मिक पहचान पर भारी पड़ती है। दूसरा कारण यह है कि भाजपा बिहार में अब तक ऐसा पिछड़ा नेतृत्व तैयार नहीं कर पायी है जो नीतीश और लालू की राजनीतिक हैसियत को चुनौती दे सके। पार्टी नये प्रयोग कर रही है, पर उसे कोई ठोस सफलता नहीं मिली है।
सवाल है कि यह चुनाव परिणाम क्या विकल्पहीनता का परिणाम है? क्या यह ‘सुशासन मॉडल’ की स्वीकृति है? या यह नीतीश कुमार के राजनीतिक संन्यास की पूर्वाभास से उपजी सहानुभूति? समाजशास्त्रीय दृष्टि से देखें तो यह परिणाम सामाजिक न्याय की राजनीति के भीतर जमा होती खोखलाहट का संकेत भी है, जो किसी बड़े परिवर्तन की भूमिका लिख रहा है।
नीतीश कुमार की राजनीति अपने अन्तिम चरण में है, यह लगभग तय है। उनके राजनीतिक अवसान के साथ बिहार में पुराने समीकरण टूटेंगे। अति-पिछड़ों और अन्य वंचित जातियों की राजनीति नये स्वरूप में सामने आ सकती है। प्रशांत किशोर इस उम्मीद में टिके हैं कि नयी जमीन तैयार होगी। भाजपा अपने लिए स्थायी आधार खोज रही है। कॉंग्रेस तभी उभरेगी जब वह जाति से आगे बढ़कर विकास और समावेशी राजनीति का स्पष्ट एजेंडा जनता के सामने रख सके।
अन्ततः बिहार की राजनीति अब एक ऐसे मोड़ पर खड़ी है जहाँ जातीय पहचान की सीमाएँ साफ दिखने लगी हैं, आर्थिक समस्याएँ सामाजिक न्याय की पहली पीढ़ी की उपलब्धियों को चुनौती दे रही हैं, और जनता नये विकल्पों की तलाश में आन्दोलित दिख रही है। यही वह क्षण है जो बड़े राजनीतिक पुनर्गठन की ओर संकेत करता है। आने वाले वर्षों में बिहार की राजनीति में कई नये समीकरण बनेंगे—और यही सम्भवतः एक नये दौर की शुरुआत होगी।
पिछले बीस वर्षों में शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क और बिजली जैसी बुनियादी सुविधाओं तक पहुँच तो बढ़ी है, लेकिन इन सुधारों ने समाज में वह आत्मविश्वास नहीं पैदा किया जिसके आधार पर राजनीति अपनी दिशा बदल सके। विकास का लाभ विस्तार से अधिक सतही रहा है—लोगों का जीवन थोड़ा सुगम हुआ है, पर आर्थिक सुरक्षा का वातावरण नहीं बन पाया। परिणामस्वरूप, राजनीतिक चेतना उस स्तर तक नहीं पहुँच सकी जहाँ मतदाता रोजगार, उद्योग, निवेश, तकनीक और कृषि के भविष्य जैसे जटिल मुद्दों पर दलों से जवाबदेही माँग सकें। इसके विपरीत, राजनीतिक दल भी जानते हैं कि जाति आधारित पहचान अभी भी वोटर व्यवहार की सबसे प्रभावी कुंजी है; इसीलिए वे बार-बार उसी फ्रेम को पुनर्जीवित करते हैं। लेकिन इसके समानान्तर एक और बदलाव चुपचाप चल रहा है—नयी पीढ़ी के युवा, जो पलायन को अपनी नियति मान चुके हैं, अब अपने अनुभवों के आधार पर राजनीति की भाषा बदलना चाहते हैं। वे विकास, अवसर, बेहतर स्किलिंग और सम्मानजनक रोजगार को राजनीतिक विमर्श का केन्द्र बनता देखना चाहते हैं। यही वह वर्ग है जो सोशल मीडिया, तकनीक और बाहरी दुनिया के अनुभवों से प्रभावित है और जिसकी अपेक्षाएँ जातिगत वादों से ज्यादा भविष्य-केन्द्रित हैं। हालाँकि यह वर्ग अभी बिखरा हुआ है और किसी एक मंच पर संगठित नहीं हो पा रहा, लेकिन आने वाले वर्षों में बिहार की राजनीति में परिवर्तन का सबसे बड़ा आधार यही बन सकता है। यदि कोई राजनीतिक दल ईमानदारी से उनके प्रश्नों को समझे, उनकी भाषा में संवाद करे और ठोस कार्यक्रम प्रस्तुत करे, तो बिहार की राजनीति में वह शक्ति सन्तुलन बदल सकता है जिसे आज तक जाति ने बाँध कर रखा है। इस नये उभरते सामाजिक यथार्थ को समझना बिहार की राजनीति की दिशा तय करने में अत्यन्त निर्णायक होगा।










