इन मजदूरों की मौत का जिम्मेदार कौन?
- विश्वजीत राहा
कोरोना संक्रमण को रोकने लिए मोदी सरकार के द्वारा बिना किसी तैयारी के किया गया इक्कीस दिनों का लॉकडाउन देश के गरीबों के लिए अब घातक होता जा रहा है। बड़े सपनों की उम्मीद लिये गांव से शहरों की ओर पलायन करने वालों के लिए अब यह जीवन मरण का प्रश्न बन चुका है। लॉकडाउन में जिन्दगी की उम्मीद लिये मजदूर शहरों से गांव की ओर पैदल ही पलायन को मजबूर हैं। इस मजबूरी में लॉकडाउन के चौथे दिन गरीबों कामगारों की मौत का सिलसिला शुरू हो गया है।
दरअसल लॉकडाउन में मजदूरों के मरने की पहली घटना संभवतः मुंबई से आई जहाँ लॉकडाउन के बाद मुंबई से गुजरात पैदल जा रहे चार मजदूरों की सड़क हादसे में मौत हो गयी। बीते शनिवार तड़के पैदल चलकर मुम्बई से गुजरात जा रहे 7 मजदूरों को मुंबई-अहमदाबाद हाईवे पर एक टेम्पो ने कुचल दिया था।
लॉकडाउन की सबसे वीभत्स चेहरा आगरा से आई। दिल्ली से मुरैना पैदल जा रहे रणवीर नाम के एक मजदूर की मौत भूख और प्यास से हो गयी। मृतक मध्य प्रदेश के मुरैना का रहने वाला था और दिल्ली में काम करता था। रणवीर दिल्ली में कमाने आए थे, लेकिन लॉकडाउन के बाद जब उनके सामने भुखमरी का संकट खड़ा हुआ तो वो दिल्ली से अपने घर मुरैना के लिए पैदल ही निकाल पड़े। बता दें कि दिल्ली से मुरैना की दूरी तकरीबन 350 किलोमीटर है। भुखमरी से बचने के लिए रणवीर पैदल ही इतने लम्बे सफर पर निकल तो पड़े लेकिन वो अपने घर तक नहीं पहुंच सके। रास्ते की थकन और भूख व प्यास के आगे उनकी हिम्मत ने दम तोड़ दिया और वो जिन्दगी की जंग हार गए। रणवीर की मौत ने एक बात फिर से बिना तैयारी के पीएम मोदी के लॉकडाउन के फैसले को कटघरे में खड़ा कर दिया है।
लॉकडाउन के फरमान के बाद अपने ही देश में बिना कोरोना संक्रमण के ये मजदूर जिन्दगी की जंग हार गये। ये वही मजदूर थे जो दिल्ली, मुंबई, गुजरात जैसे जगहों में पसीना बहाकर विकास का पहिया घुमा रहे थे। मुसीबत के दौर में राज्यों ने इन्हें भागने को मजबूर कर दिया। पैदल निकले ये मजदूर सिर्फ उदाहरण हैं जो लॉकडाउन का दंश झेलते हुए मारे गये। ऐसे न जाने कितने मजदूर भूख और प्यास के बीच पैदल चलते जिंदगी का रण हार जाएंगे। इंसानियत भूल चुका समाज कुछ भी तर्क दें, लेकिन सरकार अपनी जिम्मेदारी से कैसे बच सकती है?
बहरहाल पूरे देश में 21 दिन के बंद के सबसे ज्यादा तकलीफ देश में मजदूरों को झेलनी पड़ रही है। फैक्ट्री बंद होने से काम ना मिलने के कारण मजदूर मजबूरन भूख से नहीं तो सड़क हादसों से मर रहे हैं। बड़ी संख्या में मजदूरों ने एक राज्य से दूसरे राज्यों अपनी घर की तरफ पलायन कर दिया है। ऐसे में कई मजदूरों को अपनी जिंदगी से हाथ धोना पड़ रहा है। केंद्र की मोदी सरकार ने पूरे देश में 21 दिन का सम्पूर्ण लॉकडाउन तो कर दिया, मगर इंतजाम देखकर लगता है कि सरकार ने गरीब मजदूरों के बारे में विचार नहीं किया। यही वजह है कि लाखों की तादाद में गरीब मजदूर महानगरों से अपने घर की ओर पलायन करने पर मजबूर हैं। गरीब कामगारों के गांवों की पलायन की स्थिति भयानक रूप अख्तियार करती जा रही है।
एकबारगी 21 दिनों के लॉकडाउन के ऐलान से शहरों में इन मजदूरों के पास काम नहीं रह गया जिसकी वजह से इन्हें खाने-पीने, रहने जैसे तमाम दिक्कतें आने लगीं। इसीलिए अपने गांव-देहात की ओर पलायन करने को मजबूर हैं। हजारों की संख्या में मजदूरों का जत्था देश के लगभग हर उस हाईवे पर दिखाई दे रहा है जो बड़े शहरों को ग्रामीण क्षेत्रों को जोड़ता है। इन हाइवे पर नहीं दिखाई दे रही थी तो वो थी चाकचैबंद वाली सरकार व्यवस्था। ऐसे में सवाल बहुतेरे हैं। सवाल यह कि क्या सरकार को इसका कोई अंदाजा नहीं था कि गांवों से शहरों की पलायन करने वाले लाखों लोगों के लिए लॉकडाउन एक त्रासदी बनकर आयेगा? क्या सरकार ने बिना किसी तैयारी के ही लॉकडाउन का ऐलान कर दिया जिसका खामियाजा गरीब मजदूरों को उठाना पड़ रहा है? क्या सरकार के लॉकडाउन में प्रवासी मजदूरों के लिए कोई योजना थी ही नहीं जिसका दुष्परिणाम अब सामने आ रहा है? ये आखिर जाएं तो जाएं कहाँ?
बहरहाल सरकार को भी शायद इस बात का एहसास देर से ही सही हो गया है। इसी का परिणाम है कि कई जगहों में पुलिस ऐसे लोगों को मदद करती नजर आई तो कई राज्यों ने केन्द्रीकृत रसोईघर तक की व्यवस्था की। जरूरत है सरकार ‘जो जहाँ है वहीं रहे’ के लिए खास कर हर राज्य के प्रमुख शहरों में इन मजदूरों के लिए भोजन, पानी व रहने के स्थान का इंतजाम करे तभी सही मायने में लॉकडाउन सफल भी हो पायेगा।
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