
नये राजनीतिक इतिहास की जरूरत
राजनीतिक इतिहास के पुनर्लेखन के बिना आज की राजनीतिक स्थिति में आए गुणात्मक अन्तर की पहचान मुश्किल है। आज सिर्फ राजनेतागण पार्टी लाइन पर विभाजित नहीं हैं, उस पर विचार करने वाले पत्रकार और बुद्धिजीवी भी राजनीतिक पार्टी लाइन पर विभाजित हो रहे हैं। भारत के भीतर की राजनीतिक लड़ाई को बाहर खींच कर ले जाना पहले कम ही होता था। इस मामले में काँग्रेस के समर्थकों की दिक्कतें और ज्यादा हैं। इस पार्टी को खास तरह से एक बढ़त बनी हुई थी क्योंकि इनके नेताओं की ट्रेनिंग पब्लिक स्कूलों की थी और वे सहज रूप से विदेशी राजनयिकों से मिलजुल लेते थे। जब से दूसरे दल के लोग भारत का नेतृत्व करने लगे हैं, उनकी शैली में परिवर्तन हुआ है। इसे सहज तरीके से लिया जाना चाहिए। साथ ही यह भी देखा जाना चाहिए कि अँग्रेजों की औपनिवेशिक दासता के फलस्वरूप जो अँग्रेजी ढंग की राजनयिक बातचीत करने की संस्कृति का विकास हुआ है, उससे कुछ अलग ढंग से भी भारतीय राजनयिक और उच्च पदस्थ लोग बात कर सकते हैं।
अभी स्थिति यह बन गयी है कि अगर आप काँग्रेस की राष्ट्रवादी दृष्टि के साथ हैं तो आप गाँधी, नेहरू को राष्ट्रपिता और राष्ट्रनिर्माता मानकर बात करें और उनके कहे किये को सकारात्मक तरीके से देखें समझें। अगर आप भारतीय राष्ट्रवादी दृष्टि के हिन्दूवादी प्रभाव में हों तो आप इन दोनों को आलोचनात्मक ढंग से देखें और उनमें त्रुटियाँ अधिक देखें। उनकी जगह अन्य किसी नेता को अधिक महत्त्वपूर्ण बना कर पेश करें।
इस कारण यदि आप गाँधी, नेहरू के बारे में लिखें तो पहले आपको यह स्पष्ट करना होगा कि आप प्रशंसा करेंगे या उनकी निन्दा! उसके आधार पर आज स्थिति यह हो गयी है कि आप किस ऐतिहासिक व्यक्ति पर टिप्पणी कर रहे हैं और उसके आधार पर आपकी वैचारिक दृष्टि के बारे में राय बन जाती है।
पिछले दिनों भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू पर बातचीत का प्रारम्भ विशेष प्रकार से हुआ। उनको भारत निर्माता, विश्वस्तरीय नेता के रूप में याद किया गया और यह प्रमाणित करने की कोशिश हुई कि आज जो लोकतान्त्रिक भारत का अस्तित्व है, उसके लिए अधिकतर श्रेय उन्हीं को है। काँग्रेस चूँकि नेहरू, गाँधी को आदर्श मानकर राजनीतिक छवि-निर्माण करती रही है, इसलिए नेहरू के बारे में काँग्रेस विरोधी नकारात्मक बातें कहेंगे और इसे स्वाभाविक ही माना जा सकता है।
ऐसे परिवेश में भारत के वर्तमान प्रधानमन्त्री अमरीका के दौरे पर गये और अमरीकी राष्ट्रपति के साथ प्रेस कॉन्फ्रेंस किया। इस तरह के मौकों पर देशहित और मान का ख्याल करके भारतीय पत्रकार ऐसी बातें नहीं लिखते जिससे राष्ट्र के नायक या प्रधानमन्त्री का कोई अपमान हो। याद पड़ता है कि जब सुनील गावस्कर की टीम पाकिस्तान में टेस्ट मैच सीरीज हारी थी तो विजेता कप्तान इमरान खान से जब किसी भारतीय पत्रकार ने सुनील गावस्कर की कप्तानी पर एक प्रश्न पूछा था तो लोगों ने इसे बहुत खराब और देश विरोधी माना था। आपस के झगड़े हों तो उसे हम बाहर नहीं ले जाएँगे, यह भाव बना रहा है पर इस समय यह नहीं होता। अगर प्रधानमन्त्री कहीं अपनी बात को कहते हुए लड़खड़ाए तो उसका मजाक उड़ाना भी ठीक समझा जाता है। जरा इस बात पर गौर किया जाए कि ऐसा होने के क्या कारण हैं।
भारतीय प्रधानमन्त्री जब अन्तरराष्ट्रीय मंचों पर बोलते हैं तो वे अँग्रेजी में बोलते रहे हैं। यह चलन नेहरू के समय से ही है। अँग्रेजी में होने वाली बातचीत में अँग्रेजी जिनकी मातृभाषा है, उनको एक बढ़त होती ही है। नेहरू इंग्लैंड में पढ़े थे और वे उनके तौर-तरीकों को जानते-समझते थे; इसलिए वे उनके साथ अच्छी बातचीत कर लेते थे। काँग्रेस को शुरू से ही इस बात का ख्याल था कि उनके नेता की अन्तरराष्ट्रीय छवि का फायदा उनको मिलना चाहिए; इसलिए वे मीडिया प्रबन्धन कायदे से करते थे। यह काम तीस के दशक से ही जवाहरलाल नेहरू के लिए करने वाले लोग थे। तीस और चालीस के दशक में सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका कृष्ण मेनन की थी। इसके बारे में सुविस्तारित ढंग से मेनन की जीवनी में लिखा है। बाद में इंदिरा गाँधी के लिए काम करने वालों में कई दिग्गज लोग रहे। काँग्रेस में तब दिक्कत की स्थिति आयी जब नेहरू परिवार के बाहर के लोग प्रधानमन्त्री के रूप में बाहर गये। लालबहादुर शास्त्री जब प्रधानमन्त्री बने तो उनका मजाक उड़ाया गया था। इस बात की चर्चा भी हुई थी कि कैसे अय्यूब खान ने लाल बहादुर शास्त्री से हाथ मिलाने से इनकार कर दिया था।
बाद में उनकी छवि युद्ध में विजय, जय जवान, जय किसान के नारे के बाद बदली पर उसके पहले उनकी छवि अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर अच्छी नहीं थी।
नरसिम्हा राव जैसे विद्वान भी जब अमरीका गये तो ज्वाइंट कॉन्फ्रेंस में हास्यास्पद स्थिति तब पैदा हो गयी जब अमरीकी राष्ट्रपति क्लिंटन से ही सारे सवाल पूछे गये। इसके पूर्व राजीव गाँधी की अमरीकी यात्रा में भाषणों और प्रेस कॉन्फ्रेंस में उनको यह दिक्कत नहीं हुई। मनमोहन सिंह विद्वान थे और वे संभल-संभल कर तौल-तौल कर बोलते थे; इसलिए उनको दिक्कत नहीं हुई।
जब प्रतिपक्ष के प्रधानमन्त्री बने तो उनमें से अधिकतर घर में ही ज्यादा उलझे रहे। मोरारजी देसाई से लेकर विश्वनाथ प्रताप सिंह और अटल बिहारी वाजपेयी के लिए वैश्विक स्तर पर बहुत अधिक बोलने के अवसर कम आये। ये सभी बड़े कद के राजनेता थे लेकिन अँग्रेजी में प्रेस कॉन्फ्रेंस में वे उतने सहज नहीं होते थे। अटल जी हिन्दी में बहुत प्रभावी वक्ता थे और उनके भाषण हिन्दी में होने के कारण हिन्दी समर्थकों को पसन्द भी आते थे। याद पड़ता है, मोरारजी देसाई का एक इंटरव्यू हाल में यूट्यूब पर जब सुना गया तो कई सुनने वाले आश्चर्य व्यक्त कर रहे थे कि मोरारजी की अँग्रेजी बहुत अच्छी थी!
गैर-कॉंग्रेसी नेताओं की वैचारिकी से एलीट का सम्पर्क बहुत कम रहा। लोहिया का तो सौभाग्य था कि पित्ती जैसे लोगों ने उनके बोले लिखे को हमारे लिए सुरक्षित रखा, वरना हम ठीक से जान ही नहीं पाते कि लोहिया का काँग्रेस विरोध क्यों था! अम्बेडकर का लिखा तो बहुत था लेकिन उस पर ध्यान तब दिया गया जब विश्व स्तर की संस्थाओं ने अपने कारणों से उनके ऊपर लिखने-पढ़ने के लिए शोधार्थियों को तैयार किया और उन्हें आर्थिक मदद देना शुरु किया। उसके पहले तक तो सब कुछ गाँधी नेहरू के ऊपर ही केन्द्रित रखा गया। निजलिंगप्पा, हरे कृष्ण माहताब और बहुत सारे लोग हैं जिनके बारे में जानकारी बहुत कम उपलब्ध है।
नरेन्द्र मोदी के बारे में सबको यह लगता था कि ये देश में जो भी करें जब अन्तरराष्ट्रीय मंच पर जाएँगे तो उनका सीमित अँग्रेजी ज्ञान उनको हल्का बना देगा। मोदी ने अँग्रेजी बोलकर दिखला दिया, तब कहा गया कि टेलीप्रिन्टर की मदद से बोले! इस बार मोदी बुरे फंसेंगे ऐसा भी सोचा गया क्योंकि वे अमेरिका की मीडिया के सामने थे। इस प्रेस कॉन्फ्रेंस में भारतीय प्रधानमन्त्री ने हिन्दी में अपनी बात रखी। इस निर्णय ने अँग्रेजी की बढ़त खत्म कर दी। भारत के एलीट के लिए भारत के प्रधानमन्त्री का हिन्दी में बोलना असह्य रहा होगा; ऐसा माना जा सकता है।
दूसरा उदाहरण तब सामने आया जब भारत के पूर्व चीफ जस्टिस चंद्रचूड़ का इंटरव्यू बीबीसी के प्रोग्राम हार्ड टॉक के लिए रिकॉर्ड हुआ। बीबीसी के कार्यक्रम में भारत के पूर्व चीफ जस्टिस के साथ बीबीसी के पत्रकार की बातचीत को पूरा सुनने के बाद एक बात समझ में आती है कि अँग्रेजी का अहंकार अभी भी श्रेष्ठताबोध का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है। चंद्रचूड़ अँग्रेज के टर्म्स में बोल रहे थे। उनकी भाव-भंगिमाओं को देखकर यह साफ समझ में आता है कि अँग्रेज पत्रकार भारतीय मुख्य न्यायाधीश पर हावी होकर बोल रहा था।
इस बात को कई बार कहा जा चुका है कि समग्रतावादी राष्ट्रवाद काँग्रेस की शक्ति है और वही नेहरू की विरासत को बचाने का मूलमन्त्र भी है लेकिन इसके लिए काँग्रेस ने आन्दोलन किया और जनता को भागीदार बनाया। उसके बिना काँग्रेस की शक्ति का कोई विशेष अर्थ नहीं होता। जनता से जुड़े बिना विरोध लबरियाना है; शब्दों का खेल है। लबरियाना शब्द मैंने उनके लिए बनाया है जो शब्दों से ही सभी युद्ध में विजय प्राप्त कर लेना चाहते हैं। विजय जिस तरह से हो, जिसकी भी हो, अमृत कलश को अपने कब्जे में लेने की कोशिश में चालाक लोग आजादी के बाद एक बार सफल हो गये। दुबारा भी होने की कोशिश में लगे हैं।
ऐसा कहा जाना अब जरूरी है कि उदार विचारधारा के हिसाब से चल रही सोच भारतीय राजनीतिक क्षेत्र में प्रभाव खो चुकी है। धर्म और जाति सबसे महत्त्वपूर्ण मुद्दे हैं। ये दोनों ही मुद्दे उदार विमर्श में बहुत महत्त्व नहीं पाते। इसलिए उदार बौद्धिकता अब राजनीति के क्षेत्र में निष्प्रभावी है। हां, अकादमिक बहसों में अभी भी उसका प्रभाव है।
बौद्धिकता का असली मामला संघर्ष से जुड़ा है। काँग्रेस के राजनीतिक संघर्ष का एक लम्बा इतिहास है लेकिन कतिपय कारणों से संघर्ष करने वाले कॉंग्रेसी नेतागण अँग्रेजी पढ़े कॉंग्रेसी तन्त्र के मुकाबले में पिछड़ गये। जब तक पीएन हक्सर जैसे लोग रहे काँग्रेस में पढ़े-लिखों की कद्र रही। खुद इंदिरा गाँधी भी पढ़े-लिखे लोगों के महत्त्व को समझती थी। खुशवन्त सिंह को भी साथ रखती थीं और विद्यानिवास मिश्र को भी महत्त्व देती थीं। आज कमलापति त्रिपाठी जैसे नेता यूपी में क्यों नहीं हैं? देखा जाए तो हर राज्य में काँग्रेस के बड़े-बड़े नेता थे। आज कुछ राज्यों को छोड़ अधिकतर जगह नेतृत्व का संकट है। इंदिरा गाँधी कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट लोगों को भी अपने आसपास जगह देती थीं।
सत्तर के दशक के बाद राजनीति की दिशा जिस तरह जाति और धर्म को लेकर बदली, उस बदलाव के बीच काँग्रेस पुराने किस्म की अपनी राजनीति को अस्सी में टिकाए रख सकी, लेकिन नब्बे के दशक में काँग्रेस बदल गयी। काँग्रेस को अब अपने को बदलना था, नेहरू परिवार के बाहर के लोगों को काँग्रेस का मुख्य बनाना था। उन्हें अच्छे नेता भी मिल सकते थे। राजीव गाँधी की दुर्भाग्यजनक हत्या के बाद भी काँग्रेस ने नेहरू, इंदिरा की विरासत को लेकर ही काम किया। प्रधानमन्त्री के लिए परिवार का कोई उपलब्ध नहीं हुआ तो बीच के अंतराल के लिए उनको नेता बनाए रखा गया जिनको जब चाहे हटाया जा सके। इस बीच में इतिहास की जो व्याख्या काँग्रेस द्वारा राष्ट्रीय हित में प्रचारित हुई, उसमें गाँधी, नेहरू की केन्द्रीयता बनी रही। देश की राजनीति आगे बढ़ चुकी थी और देश के राजनीतिक इतिहास की वही पुरानी समझ ही चलाई जाती रही।
मुझे लगता है, भारतीय राजनीतिक इतिहास के मूल में एक गुत्थी है। इस वाक्य पर गौर करें: “संविधान से राज्य चल सकता है समाज नहीं।” इस बात को कहने के बाद कुछ और प्रश्न पूछे जा सकते हैं। राज्य के लिए संघर्ष कौन कर रहा था? किसके लिए कर रहा था? दूसरे शब्दों में कहें, राज सत्ता किसे मिली? इसी प्रश्न से जुड़ा एक प्रश्न है : राजसत्ता के लिए संघर्ष और समाज में वास्तविक बदलाव के लिए संघर्ष एक-दूसरे से कितते जुड़े हैं? जुड़े हैं तो देश में जो लोग मुक्ति के लिए संघर्ष करने वाले थे, उनके इतिहास को ठीक से रखा जाना चाहिए या उन्हें बस साइड में रखकर चलना चाहिए? सामाजिक और आर्थिक बदलाव के लिए लड़ने वाले लोग जो आजादी का सपना देख रहे थे, वह तो लड़कर छीनने का सपना था। उसमें पिछ्ले शासक से सत्ता लेने का विकल्प था ही नहीं। हमने वैधानिक तरीके से आजादी हासिल की। तमाम कानूनी दांव पेंच लगाकर। इस पूरी प्रक्रिया में गाँधी की लोकशक्ति वह दबाव शक्ति थी जो 1942 तक नियन्त्रित रही। उसके बाद की लोकशक्ति नियन्त्रित नहीं थी। इस अनियन्त्रित लोकशक्ति से ब्रिटिश भयभीत थे और भारतीय राष्ट्रीय नेतृत्व भी। इस पांच साल के इतिहास पर ध्यान देने से यह समझ में आ जाना चाहिए कि अँग्रेज कॉंग्रेसी नेतृत्व को राजनीतिक खेल में मात देने की कोशिश में थे और काँग्रेस अपना काम निकालने की हड़बड़ी में थी।
भारत का विभाजन होने के पीछे मूल कारण धर्म था या राजनीति? इतिहास को पढ़ने से लगता है धर्म के दुरुपयोग की राजनीति थी। साहित्य को ठीक से पढ़िए तो लगता है, यह दुरुपयोग इसलिए हो सका क्योंकि धर्म का उपयोग उसके दुरुपयोग से जुड़ा हुआ है। धर्मशक्ति से बल लेकर गाँधी ने जो नयी राजनीति बनायी थी उसपर ध्यान दीजिए। और वह हिन्दू धर्मशक्ति नहीं थी, इस्लामिक धर्मशक्ति थी। इस शक्ति ने गाँधी को तिलक, चित्तरंजन दास और मदनमोहन मालवीय से ऊपर उठाया। यह नयी किस्म की राजनीति थी।
जिन्ना ने गाँधी को इसके खतरों के प्रति सचेत किया था पर गाँधी को लगता था कि वे सबको साथ लेकर चल लेंगे। वे अँग्रेजों के प्रति आस्था रखते थे, मुसलमानों के प्रति विश्वास रखते थे और हिन्दुओं की भाषा में नैतिक राजनीति करते थे। यही गाँधीवाद को उस ऊँचाई पर ले गया जिसके कारण वे देश के सबसे शक्तिशाली नेता बने रहे दो दशकों तक।
दो दशक बाद उनका वास्तविक राजनीतिक आधार खिसक गया क्योंकि वे जिस उद्देश्य को लेकर चल रहे थे, वह राजनीतिक से अधिक नैतिक था। उसको राजनीतिक तरीके से हासिल नहीं किया जा सकता था। सामाजिक आन्तरिक संघर्ष तीव्र थे जिसके दबाव में राष्ट्रीय एकता टूट रही थी। ऐसे में जब समाजवादी स्वप्न सांगठनिक शक्ल लेने लगा और काँग्रेस को रेडिकल बनाने लगा (एमएन राय, समाजवादी और साम्यवादी समेत नेहरू, सुभाष जैसे राष्ट्रवादी कॉंग्रेसी इसमें एक साथ थे) तब यह बहुत कठिन हो गया। उस दबाव में काँग्रेस ने अपनी शक्ति को सांगठनिक बल और गाँधी की शक्ति से सरदार पटेल के नेतृत्व में पूँजीपतियों के सहयोग से ही बनाए रखने में सफलता पायी। नेहरू की वैचारिकता और गाँधी- पटेल की राजनीति के बीच में जो तनाव उत्पन्न हुए उसमें से जिस नेहरू का उदय हुआ, वह एक मिश्रित विरासत को लेकर चला।
1936 के पहले और उसके बाद के नेहरू में अन्तर क्या है, यह विचारणीय है। बहरहाल, जो हुआ वह यह कि राजनीतिक चक्रव्यूह में राष्ट्रीय नेतृत्व फॅंस गया और किसी तरह से आजादी मिली तो देश-विभाजन की कीमत पर।
यह देश विभाजन राजनीतिक कौशल से नहीं रोका जा सका। अब इस स्वाधीन भारत में जवाहरलाल नेहरू देश के भाग्य विधाता थे। उनके पास गाँधी की विरासत थी, काँग्रेस का संगठन बल सरदार के रूप में था और पूँजीपतियों का समर्थन था। साथ ही उनके पास समाजवादी सोच की भाषा भी थी। जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय आन्दोलन से निकले हुए बौद्धिक रूप से सचेत व्यक्ति थे। वे राष्ट्रीयता की शक्ति को जानते थे। उन्होंने कुशलता से अपनी राजनीतिक शक्ति को प्रतिष्ठित किया। सरदार की मृत्यु के बाद वे सबकुछ थे।
इस नेहरू के स्वप्न में एक आधुनिक भारत के निर्माण का स्वप्न था जो देश के इतिहास, दर्शन को यूरोपीय विज्ञान के साथ जोड़कर सोचने में यकीन करता था। इस प्रक्रिया में उन्हें औपनिवेशिक एलिट की मदद सशर्त मिली। इसमें उन्होंने साम्यवादी बौद्धिक शक्ति को भी जोड़ने में सफलता पायी। यही एलीट प्रभु वर्ग के रूप में दिल्ली समेत सभी केन्द्रों में शक्तिशाली बना। इस एलीट के लिए राजसत्ता के समस्त सुख और सुरक्षा का इन्तजाम नेहरू और इंदिरा गाँधी की सरकारों ने किया। इस एलीट के पास राजनीति की शक्ति नहीं थी। उसका सारा इंतजाम काँग्रेस के जिम्मे था। काँग्रेस के लिए राजनीतिक लड़ाई का काम करने वाले इस एलीट वर्ग के सदस्य कम ही हो सके। लोकतांत्रिक संग्राम के और आगे बढ़ने के बाद काँग्रेस जब दरकने लगा, काँग्रेस की राजनीतिक शक्ति कम होने लगी, कालान्तर में राजनीतिक सत्ता काँग्रेस के हाथ से फिसल कर बाहर चली गयी।
इसके साथ नयी राजनीति का समय आया। आज काँग्रेस को राजनीतिक शक्ति पाने के लिए जो जमीनी लड़ाई करनी पड़ रही है, उसमें इस लबरिया वर्ग की कोई खास भूमिका नहीं है। इनको लगता है कि इनकी विद्वता से जनता अपना समर्थन इधर से उधर कर देगी। इस बीच जनता का मन ही बदल गया है।
जनता की रुचि अभी भी धर्म विमुख नहीं हुई है। यह राष्ट्र का सौभाग्य है। धर्म इस देश को जोड़े हुए है। अगर यह नहीं होता तो देश का बंटाधार हो गया होता। इस सामाजिकता की शक्ति को नेहरू समझते थे। दुर्भाग्य से अपने को नेहरूवियन कहने वाले लोग इसे नहीं समझ सके। समग्रतावादी राष्ट्रीयता ही काँग्रेस को शक्तिशाली बना सकती है। इस दिशा में बढ़ने की पहली शर्त है, देश के भाव को समझना, उसकी भाषा में देश से जुड़कर सोचना।