तिल का ताड़ कैसे बनता है और किसी बयान को नेतागण किस प्रकार तोड़-मरोड़कर अपने हित में प्रचारित करते हैं- इसका ताजा उदाहरण प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी का हाल ही में दिया गया पकौड़े बेच कर रोजगार पाने वाला बयान है। माननीय प्रधानमंत्री जी ने लोकसभा चुनाव के समय युवाओं को रोजगार देने का बड़ा प्रलोभन दिया था और इसका राजनीतिक लाभ भी उनके दल को मिला किन्तु चुनाव के बाद की स्थितियाँ स्पष्ट करती हैं कि उनका रोजगार सम्बंधी वादा दूर-दूर तक पूरा नहीं हुआ है और इसी की बौखलाहट उनके इस बयान में जाहिर हो रही है।
प्रश्न यह भी है कि मूँगफली, चाट, पकौड़ा, भेलपूरी, खिलौने, फल, मिठाई जैसे व्यवसाय करने के लिए विद्यालयों-विश्वविद्यालयों की बड़ी-बड़ी डिग्रियाँ प्राप्त करने की क्या आवश्यकता है ? ये कार्य तो बिना डिग्रियों के भी भली-भांति किए जा सकते हैं। फिर हमारी सरकारें इन डिग्रियों को प्रोत्साहन क्यों करती हैं ? उच्च शिक्षा के नाम पर करोड़ों रुपये क्यों खर्च किये जाते हैं ? उच्च शिक्षित बेरोजगार डाक्टरों , इंजीनियरों और अन्य डिग्री धारकों को ऐसे व्यवसायों की सलाह दिया जाना कहाँ तक उचित है ? निश्चय ही ऐसा बयान प्रधानमंत्री जी की गरिमा के अनुरुप नहीं कहा जा सकता ।
चुनावी घोषणापत्र में किए गए वायदों को पूरा करना सत्ताधारी दल की नैतिक जिम्मेदारी होती है और इस दृष्टि से रोजगार देने का कार्य वर्तमान सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए। इससे इनकार नहीं किया जा सकता किन्तु कांग्रेस एवं अन्य विपक्षी दल रोजगार के वायदे को लेकर जिस प्रकार सरकार की टाँग खींच रहे हैं वह शर्मनाक है, क्योंकि ऐसे चुनावी वादे इन दलों ने भी सत्ता में आने पर कभी पूरे नहीं किए हैं। जिनके अपने चेहरे पूरी तरह काले हैं वे दूसरों के दाग दिखा रहे हैं। ऐसी ओछी राजनीति से बाज आना चाहिए।
सुयश मिश्र
( माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में अध्ययनरत )
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