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निजी विश्वविद्यालयों का ऑडिट बदलेगा हायर एजुकेशन का चेहरा!

सबलोग

सुप्रीम कोर्ट का हालिया आदेश, जिसमें देश की सभी प्राइवेट और प्राइवेट डीम्ड विश्वविद्यालयों के राष्ट्र स्तरीय ऑडिट के निर्देश दिए गए हैं, भारतीय उच्च शिक्षा व्यवस्था के लिए एक महत्त्वपूर्ण टर्निंग प्वाइंट सिद्ध होने जा रहा है। यह आदेश एक छात्रा की शिकायत के आधार पर दिया गया है जो एक प्राइवेट यूनिवर्सिटी द्वारा परेशान किए जाने को लेकर कोर्ट पहुंची थी। अनेक प्राइवेट यूनिवर्सिटी में नियमों का पालन न किए जाने की गंभीरता का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में भारत सरकार के शिक्षा सचिव, राज्य सरकारों के मुख्य सचिवों तथा यूजीसी के शीर्ष अधिकारियों को प्रत्यक्ष रूप से उत्तरदायी बनाया है। अब इन सभी को शपथपत्र देकर प्राइवेट और डीम्ड विश्वविद्यालयों के विषय में व्यापक और सत्यापित विवरण प्रस्तुत करने होंगे। इस पूरे प्रकरण का केंद्रीय प्रश्न यह है कि क्या देश के प्राइवेट और प्राइवेट डीम्ड विश्वविद्यालय वास्तव में सोशल सर्विस (जैसा कि प्राइवेट विश्वविद्यालय संचालित करने वाली संस्थाओं द्वारा दावा किया जाता है ) मॉडल पर कार्य कर रहे हैं या वे पूर्णतः व्यवसायिक दृष्टि (रेवेन्यू मॉडल) से संचालित हो रहे हैं ? यह कोई छिपी बात नहीं कि अधिकांश प्राइवेट स्वामित्व वाले विश्वविद्यालय व्यवसायिक मॉडल पर संचालित हैं। यूं तो विश्व के अनेक देशों में उच्च शिक्षा संस्थान व्यवसायिक मॉडल पर कार्य करते हैं, परंतु वहां गुणवत्ता के साथ समझौता नहीं होता। भारत में अनेक प्राइवेट विश्वविद्यालयों की गुणवत्ता को लेकर लगातार प्रश्न उठते रहे हैं। इनमें डिग्री बेचे जाने से लेकर फेक डिग्री तक के मामले सामने आ चुके हैं। ये घटनाएं उच्च शिक्षा की बुनियाद पर गहरी चोट हैं।

भारत के प्राइवेट और प्राइवेट डीम्ड विश्वविद्यालयों की स्थिति को मोटे तौर पर तीन श्रेणियों बांटकर में समझा जा सकता है। पहली श्रेणी में वे विश्वविद्यालय आते हैं जिन्हें नैक अथवा इससे उच्च वैधानिक एजेंसियों द्वारा सर्वोच्च स्तर का प्रत्यायन ग्रेड प्राप्त है और जो एनआईआरएफ की शीर्ष 200 की सूची में भी शामिल हैं। ऐसे विश्वविद्यालय गुणवत्तापरक शिक्षा प्रदान करते हैं, परंतु उनकी फीस संरचना अत्यंत ऊंची है। उदाहरण के तौर पर देहरादून स्थित एक प्राइवेट विश्वविद्यालय बीटेक कार्यक्रम के लिए लगभग सात लाख रुपये वार्षिक शुल्क लेती है, अर्थात चार वर्ष की डिग्री की लागत लगभग अट्ठाईस लाख रुपये तक पहुँच जाती है। यह मात्र एक उदाहरण है, देश में ऐसे पचासों उदाहरण आसानी से मिल जाएंगे जहां इस स्तर की फीस वसूली जा रही है। इन विश्वविद्यालयों के संदर्भ में शुल्क नियमन एक बड़ी नीति-चुनौती है, क्योंकि गुणवत्ता उपलब्ध होने के अर्थ मनमाना शुल्क वसूल करना नहीं है।

दूसरी श्रेणी के विश्वविद्यालय वे हैं जो औसत स्तर के हैं और जिनमें से अधिकांश को नैक द्वारा मूल्यांकित किया गया है और ऐसे अधिकतर विश्वविद्यालय बी ग्रेड के आसपास ही पाए गए हैं। इन संस्थानों के मामले में ऑडिट से यह तथ्य सामने आएगा कि प्रवेश प्रक्रिया, शिक्षकों की नियुक्ति और बुनियादी संरचनात्मक सुविधाओं में गंभीर कमी और न्यूनताएं मौजूद हैं। हालांकि ये डिग्रियों की खरीद बिक्री में शामिल नहीं हैं। इस श्रेणी के विश्वविद्यालयों में शुल्क पहली श्रेणी जितना ऊंचा नहीं है, परंतु उनकी गुणवत्ता भी औसत से नीचे ही है। तीसरी श्रेणी में वे विश्वविद्यालय सम्मिलित हैं जिनकी गतिविधियाँ अनेक स्तरों पर संदिग्ध पाई गई हैं। इनमें से कई प्राइवेट विश्वविद्यालय डिफॉल्टर घोषित किए जा चुके हैं और कुछ पर पीएचडी उपाधि प्रदान करने पर प्रतिबंध लगाया जा चुका है। यह वे संस्थान हैं जहां स्नातक से लेकर शोध उपाधि तक की डिग्री की खरीद-फरोख्त के आरोप समय-समय पर सामने आते रहे हैं। यूजीसी भी इन गतिविधियों से अनजान नहीं है, और वह प्रत्येक वर्ष कुछ विश्वविद्यालयों को ब्लैकलिस्ट करती रही है, परंतु इन पर अभी तक पूरी तरह रोक लगाना संभव नहीं हो पाया है। ऐसे विश्वविद्यालयों की अनुचित गतिविधियों के कारण अच्छी श्रेणी के विश्वविद्यालय भी संदेह की दृष्टि से देखे जा रहे हैं। इस पृष्ठभूमि में सुप्रीम कोर्ट का निर्णय अत्यधिक महत्वपूर्ण है, विशेष रूप से इसलिए कि वर्तमान में यूजीसी के स्थान पर उच्च शिक्षा आयोग (HECI) के गठन की प्रक्रिया भी चल रही है। सरकार द्वारा इसका बिल तैयार किया गया है, जिसमें लॉ और मेडिकल को छोड़कर अन्य सभी नियंत्रण, नियमन, फंडिंग और नीति निर्माण के कार्य इसी आयोग के पास होंगे। इस संक्रमणकालीन परिस्थिति के संदर्भ में सबसे उपयुक्त उपाय यह होगा कि सर्वोच्च न्यायालय की निगरानी में एक उच्च स्तरीय टास्क फोर्स का गठन किया जाए, जिसमें शिक्षा नीति, शैक्षिक प्रशासन, वित्तीय प्रणाली प्रबंधन, तकनीकी विशेषज्ञता तथा उच्च शिक्षा क्षेत्र के स्वतंत्र और तटस्थ व्यक्तियों को शामिल किया जाए। इस टास्क फोर्स को प्राइवेट विश्वविद्यालयों की संस्थागत संरचना, वित्तीय स्थिति, प्रवेश एवं परीक्षा प्रणाली, उपाधि पंजीकरण, उपाधि वितरण तथा प्रबंधन व्यवस्था की विस्तृत समीक्षा करनी चाहिए।

प्राइवेट विश्वविद्यालयों को सही दिशा में विनियमित करना कठिन नहीं है, बशर्ते केंद्र सरकार, राज्य सरकारें और यूजीसी उस स्तर गंभीर कार्यवाही करके दिखाए जिसकी अपेक्षा सर्वोच्च न्यायालय ने व्यक्त की है। इस क्रम में सबसे पहली आवश्यकता विश्वविद्यालयों के उपलब्ध भौतिक एवं मानव संसाधनों की जांच की है। जिन मानकों का निर्धारण भारत सरकार केंद्रीय विश्वविद्यालय और राष्ट्रीय स्तर के संस्थानों के लिए करती है, वही पैरामीटर प्राइवेट विश्वविद्यालयों पर भी लागू होने चाहिए और राज्य सरकारों को इन मानकों में किसी प्रकार की छूट देने का अधिकार नहीं होना चाहिए। यह भी स्पष्ट होना चाहिए कि किस स्थान पर कितने और किस प्रकृति (मेडिकल, टेक्निकल, एग्रीकल्चर, ट्रेडीशनल नॉलेज या जनरल डिग्री) के प्राइवेट विश्वविद्यालय खोले जाएं क्योंकि विश्वविद्यालय कोई माध्यमिक विद्यालय नहीं हैं, जिन्हें जनसंख्या आधार पर हर स्थान पर अनिवार्य रूप से स्थापित करना हो। उच्च शिक्षा संस्थाओं के लिए गुणवत्ता और संसाधन सर्वोपरि हैं। यदि किसी स्थान पर भौगोलिक, आर्थिक या राजनीतिक कारणों से उपर्युक्त दोनों बातें संभव नहीं हैं तो वहां यूनिवर्सिटी नहीं खोली जानी चाहिए। प्राइवेट विश्वविद्यालयों के मामले में संसाधनों के साथ-साथ शिक्षकों की चयन प्रक्रिया पर विशेष रूप से ध्यान देना आवश्यक है। यह कार्य यूजीसी के माध्यम से सुगमता से किया जा सकता है। यूजीसी को एक केंद्रीय पोर्टल विकसित करना चाहिए जिसमें पूरे देश के योग्य उम्मीदवारों (जिन्होंने नेट, पीएचडी या अन्य उच्च योग्यता प्राप्त की हो) की अकादमिक, शैक्षिक और शोध-संबंधी जानकारी दर्ज हो। इसी क्रम में विश्वविद्यालयों को आदेशित किया जाना चाहिए कि वे केवल उन्हीं व्यक्तियों की नियुक्ति करें जिनका पंजीकरण उस पोर्टल पर है। इससे शिक्षकों की न्यूनतम योग्यता स्वतः निर्धारित हो सकेगी और कम योग्य व्यक्तियों की नियुक्ति को रोका जा सकेगा। जिस प्रकार मेडिकल कॉलेजों के मामले में व्यवस्था बनाई गई है कि कोई एक व्यक्ति एक से अधिक स्थानों पर नियुक्त नहीं दिखाया जा सकता, वैसा ही मैकेनिज्म प्राइवेट यूनिवर्सिटी के मामले में भी लागू किया जाना जरूरी है। इसे लागू करने में सरकार को किसी बड़ी पूंजी की नहीं, बल्कि मजबूत इच्छा शक्ति की जरूरत है।

प्राइवेट विश्वविद्यालयों के मामले में दूसरा महत्त्वपूर्ण पहलू प्रवेश प्रक्रिया से संबंधित है। देश के अनेक राज्यों में अब समर्थ पोर्टल के माध्यम से कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में प्रवेश दिया जाता है। इससे लाभ यह है कि एक निर्धारित तिथि के बाद कहीं भी प्रवेश नहीं हो सकता और परीक्षा का समय भी पूर्व निर्धारित रहता है। यदि सभी प्राइवेट विश्वविद्यालयों को भी समर्थ पोर्टल के दायरे में लाया जाए तो बैक-डोर प्रवेश, निर्धारित तिथि के बाद दाखिले, पुराने वर्षों की परीक्षाएं कराकर डिग्री प्रदान करने जैसे अनियमितताओं को काफी हद तक नियंत्रित किया जा सकेगा। औसत और निम्न श्रेणी के प्राइवेट विश्वविद्यालयों में सबसे बड़ी समस्या शोध उपाधियों की अनियमितता से जुड़ी है और इसमें यूजीसी की लापरवाही भी एक बड़ा कारक है। पीएचडी उपाधियों की खरीद-फरोख्त और बैक डेट में प्रवेश जैसी अनियमितताओं को रोकना कठिन नहीं है। इसके लिए यूजीसी को यह नीति लागू करनी चाहिए कि प्राइवेट विश्वविद्यालय केवल उन्हीं छात्र-छात्राओं को पीएचडी कार्यक्रम में प्रवेश दें जिन्होंने राज्य सरकार का सेट या यूजीसी नेट, यूजीसी नेट फॉर पीएचडी, सीएसआईआर नेट या इसी स्तर की कोई राष्ट्रीय परीक्षा उत्तीर्ण की हो। प्रतिवर्ष इन परीक्षाओं को मिलाकर एक लाख से अधिक अभ्यर्थी उत्तीर्ण होते हैं जबकि पीएचडी में हर साल नए पंजीकृत शोधार्थियों की संख्या लगभग पचास हजार के आसपास होती है। इस प्रकार यह दावा कि पीएचडी के लिए योग्य छात्र नहीं मिल सकेंगे, तथ्यात्मक रूप से निराधार सिद्ध होता है। जैसे ही इन परीक्षाओं के आधार पर ही प्रवेश अनिवार्य किया जाएगा, शोध उपाधियों के अवैध कारोबार को नियंत्रित करने में बड़ी सफलता मिल सकेगी। साथ ही, जो छात्र पीएचडी में पंजीकृत किए जाएं, उनका समानांतर पंजीकरण यूजीसी या भारत सरकार के किसी केंद्रीय पोर्टल पर अनिवार्य किया जाना चाहिए, जिससे बाद में किसी प्रकार की अनियमितता न हो। अभी शोध गंगा पर सिनॉप्सिस और पीएचडी शोध प्रबंध को अपलोड किया जाता है, लेकिन इसके लिए टाइम लाइन निर्धारित नहीं है।

पीएचडी उपाधि तभी कन्फर्म होनी चाहिए, जब सिनॉप्सिस और शोध प्रबंध, दोनों अपलोड कर दिए गए हों और दोनों को अपलोड करने की अवधि के बीच निर्धारित अंतराल पूरा हो। इसके साथ साथ अन्य सभी व्यावसायिक उपाधियों में भी शत-प्रतिशत प्रवेश राष्ट्रीय स्तर की परीक्षाओं के माध्यम से ही होना चाहिए, जैसा कि केंद्रीय और राज्य विश्वविद्यालयों में होता है। इससे गुणवत्ता स्वतः निर्धारित होती है और प्रवेश प्रक्रिया पारदर्शी हो जाएगी। इन बातों को लागू करने का एक बड़ा लाभ यह होगा कि निम्न श्रेणी के प्राइवेट विश्वविद्यालय या तो अपनी गुणवत्ता सुधरेंगे या स्वतः ही बंद हो जाएंगे। इस समस्त चर्चा के बीच एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह भी है कि वास्तव में भारत को कितने विश्वविद्यालयों की आवश्यकता है। इस समय देश में केंद्रीय, राज्य, डीम्ड, प्राइवेट और समकक्ष संस्थानों की संख्या बारह सौ से अधिक है। और यह हर साल बढ़ रही है। यह संख्या उच्च शिक्षा में सकल नामांकन अनुपात (GER) को पचास प्रतिशत तक ले जाने के लक्ष्य के लिए पर्याप्त प्रतीत होती है। इसलिए नए विश्वविद्यालय स्थापित करने के मामले में केंद्र और राज्यों दोनों को आवश्यकता-आकलन आधारित नीति अपनानी चाहिए। उदाहरण के लिए उत्तराखंड जैसे छोटे राज्य, जिसकी जनसंख्या लगभग एक करोड़ है, में तीन दर्जन विश्वविद्यालय संचालित हो रहे हैं। इसी प्रकार उत्तर-पूर्व के कई राज्यों में कुछ लाख की आबादी पर डेढ़-दो दर्जन विश्वविद्यालय संचालित हैं। प्रश्न यह है कि इतनी बड़ी संख्या में विश्वविद्यालयों की आवश्यकता किस आधार पर उत्पन्न हुई, जबकि विश्वविद्यालय कोई डिग्री कॉलेज नहीं है, जिसे कुछ हजार की आबादी के आधार पर खोला ही जाना चाहिए। यदि यह गतिविधि विशुद्ध रूप से व्यावसायिक उद्देश्य से प्रेरित नहीं है, तो दस लाख से भी कम आबादी वाले सिक्किम में दर्जन भर विश्वविद्यालय स्थापित किए जाने का क्या औचित्य ? वस्तुतः यह कमजोर नियमों का लाभ उठाने की कोशिश ही है।

अब, उम्मीद की जानी चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा आदेशित ऑडिट इन सभी विश्वविद्यालयों की व्यापक जांच करेगा और निकट भविष्य में निम्न श्रेणी के विश्वविद्यालयों को उच्च शिक्षा के क्षेत्र से बाहर किया जा सकेगा। साथ ही, शुल्क नियमन, योग्य शिक्षकों की नियुक्ति और पारदर्शी प्रवेश-प्रणाली जैसी व्यवस्थाएँ बेहतर रूप में सामने आ सकेंगी।

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सुशील उपाध्याय

लेखक चमन लाल महाविद्यालय, लंढौरा (रुड़की) के प्रिंसिपल हैं. सम्पर्क +919997998050, gurujisushil@gmail.com
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