एक नई वैश्विक भूमिका के मुक़ाम पर भारत
भारत की राजनीति में अघटन (catastrophe) की कुछ बिल्कुल ताज़ा सूरतें
अघटन ऐसा कोई आसन्न विध्वंस नहीं होता, जिससे हम सही रणनीति बना कर अपने को बचा सकते हैं। अघटन अपने तात्त्विक अर्थ में हमारे जीवन में पहले से ही घटित सत्य है, और हमारा अस्तित्व उससे बचे हुए लोग, मानो अवशिष्ट की तरह होता है। ‘हम, भारत के लोग’, का अर्थ है- उपनिवेशवाद के अंत की एक भारी उथल-पुथल के बाद के बचे हुए लोग।
यह कुछ वैसे ही है जैसे धरती पर हुई भारी उथल -पुथल ने कोयला और ईंधन को पैदा किया और फिर धरती पर जब मनुष्य आया जो उसने इस ईंधन का उपयोग करके अपने जीवन का यह विशाल महल तैयार किया। इस प्रकार, मानव जाति की सामान्यता हमेशा किसी सर्वनाश के बाद सत्य ही होता है। मानव सभ्यता मूलगामी क्रांतियों से आगे बढ़ती है।
आज हम मोदी युग के बाशिंदे हैं। अभी 2024 में नहीं, हमारे जीवन में मोदी नामक घटना-चक्र का सर्वनाश तो 2014 में ही घटित हो गया था। आज हम उस अघटन से उत्पन्न सामाजिक ईंधन से अपना जीवन नए सिरे से तैयार कर रहे हैं। अर्थात्, हम 2014 के अघटन के परवर्ती, बचे हुए लोग है। घटनोत्तर अवशिष्ट।
अपने बारे मे इस सत्य को बिना समझे हम कभी अपनी वास्तविकता को नहीं पहचान सकते हैं। राजनीति के क्षेत्र में, ग़नीमत है कि ‘भारत जोड़ों’ यात्रा के बाद ‘इंडिया’ मोर्चे के गठन से भारत के विपक्ष ने इस यथार्थ बोध का परिचय देना शुरू कर दिया है। ज़ाहिर है कि इस लड़ाई के परिणाम भी 2014 के पहले की स्थिति में पुनरावर्तन के रूप में सामने नहीं आयेंगे। उनसे आज के विश्व में भारत के पुनर्निर्माण की एक नई चुनौती पैदा होगी।इसीलिए अभी से ‘इंडिया’ मोर्चे का संचालन उसके दूरगामी लक्ष्यों को सामने रखते हुए किया जाना चाहिए। इस मायने में सचमुच 2024 का महत्व एक और आज़ादी की लड़ाई से कम नहीं होगा। यह दुनिया में उत्तर-उपनिवेशवाद की तरह ही उत्तर-फासीवाद के एक नए युग का प्रारंभ होगा।
आइये, यहाँ हम इस नई परिस्थिति की कुछ बिल्कुल ताज़ा सूरतों को विचार का विषय बनाके हैं। मसलन्, सबसे पहले धारा 370 के विषय को ही लिया जाए।
सुप्रीम कोर्ट में धारा 370
सुप्रीम कोर्ट में धारा 370 पर चली लगभग अठारह दिन की बहस के बीच से सरकार की इच्छा के विपरीत यह बात बिल्कुल स्पष्ट रूप में सामने आई है कि धारा 370 भारत के संविधान का एक अभिन्न अंग है। यह हमारे संविधान के संघीय ढाँचे की अर्थात् संविधान की धारा -1 की पुष्टि करने वाली एक सबसे महत्वपूर्ण धारा है।
इसमें यह भी साफ़ हुआ कि धारा 370 ने भारत के साथ कश्मीर के पूर्ण विलय में कभी किसी बाधक की नहीं, बल्कि सबसे बड़े सहयोगी की भूमिका अदा की है। पिछले पचहत्तर साल का भारत का संवैधानिक और राजनीतिक इतिहास भी इसी बात की गवाही देता है। संघीय ढाँचा भारत के वैविध्यपूर्ण स्वरूप की एकता और अखंडता की एक मूलभूत शर्त और भारत के संविधान की आत्मा है। इसीलिए धारा 370 को किसी भी शासक दल की राजनीतिक सनक का विषय नहीं बनाया जा सकता है। धारा -370 को हटाना भारत के संघीय ढाँचे और संविधान पर कुठाराघात से कम नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट में धारा 370 पर चली बहस से ये बातें बिल्कुल साफ़ रूप में उभर कर सामने आई हैं। इस विषय पर सरकारी पक्ष संवैधानिक दलीलों के बजाय राजनीतिक नारेबाज़ियों का सहारा लेता हुआ दिखाई दिया। सरकार की ओर से लगातार संघीय ढाँचे के खिलाफ केंद्रीयकृत, एकात्मक ढाँचे के पक्ष में, राष्ट्रपति में तमाम संवैधानिक शक्तियों और सार्वभौमिकता के निहित होने की तरह की तानाशाही की पैरवी करने वाली दलीलें दी जा रही थीं। इससे सिर्फ मोदी सरकार का तानाशाही चरित्र ही खुल कर सामने आया।
अब यह सवाल साफ़ हो चुका है कि संविधान के मूलभूत ढाँचे से जुड़ी इस प्रकार की एक धारा के बारे में कोई भी राय देने के पहले किसी के भी सामने यह स्पष्ट होना चाहिए कि वह भारत में किस प्रकार का राज्य चाहता है? जनतांत्रिक, धर्म-निरपेक्ष और संघीय राज्य या तानाशाही, धर्माधारित और केंद्रीयकृत राज्य। आपका यह नज़रिया ही धारा 370 के प्रति आपके रुख़ को तय करेगा।
धारा 370 में एक जनतांत्रिक, धर्म-निरपेक्ष और संघीय भारत की अधिकतम संभावनाओं के सूत्र निहित है। इसे हटा कर इनकी संभावनाओं को कम किया गया है। इस अर्थ में धारा 370 भारतीय संविधान का एक master signifier है।
भारतीय राज्य का सच यह है कि वह विविधता का महाख्यान, बहु-जातीय आख्यानों का समुच्चय, बहु-राष्ट्रीय राज्य, अर्थात् एक आधुनिक उत्तर-आधुनिक राष्ट्र है। इसीलिए उसे बहु-देशीय उपमहादेश कहा जाता है। हमारे संविधान की भाषा में, “इंडिया, यानी भारत, राज्यों का एक संघ”। यह कोई एकात्मक, केन्द्रीकृत राज्य या तानाशाही नहीं, राज्यों का स्वैच्छिक संघ, विकेंद्रित सत्ता पर आधारित सच्चा जनतंत्र है।
इसी बुनियाद पर भारत के संविधान में सार्वभौमिकता सिर्फ़ जनता (We the people) में निहित है। राज्य के बाक़ी सारे अंगों, न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका का दायित्व है कि वह जनता के मूलभूत अधिकारों, नागरिक स्वतंत्रताओं, जन-जीवन में धार्मिक और सांस्कृतिक विविधताओं अर्थात् धर्म-निरपेक्षता और विभिन्न राज्यों के अपने विधायी अधिकारों अर्थात् राज्य के संघीय ढाँचे की रक्षा करें। कमोबेश यही भूमिका राज्य के चौथे स्तंभ पत्रकारिता से भी अपेक्षित है।
भारत में कश्मीर के विलय के साथ संविधान में जिस धारा 370 को जोड़ा गया, उसके पीछे परिस्थितियों का कोई भी दबाव क्यों न रहा हो, उसमें अन्य राज्यों की तुलना में कश्मीर की जनता को प्रकट रूप में कुछ अतिरिक्त अधिकारों की घोषणा के बावजूद वह भारतीय संविधान के संघीय, जनतांत्रिक और धर्म-निरपेक्ष ढाँचे से पूरी तरह से संगतिपूर्ण था। फ़र्क़ सिर्फ़ इतना था कि धारा 370 के ज़रिए भारत के संघीय ढाँचे के अंतर के उस तात्त्विक सच को कहीं ज्यादा व्यक्त रूप में रखा गया, जिसकी बाक़ी राज्यों के मामले में, अर्थात् सामान्यतः कोई ज़रूरत नहीं समझी गई थी।
इस धारा के ज़रिए, कश्मीर की नाज़ुक परिस्थितियों के दबाव में ही क्यों न हो, जनता के आत्म-निर्णय के उस अधिकार को प्रकट स्वीकृति दी गई थी जिसे किसी भी संघीय ढाँचे के सत्य का मर्म कहा जा सकता है। राज्यों के आत्म-निर्णय के अधिकार को ही संघीय ढाँचे का अंतिम सच कहा जा सकता है। अर्थात् उसे हासिल करने का अर्थ है राज्यों का अपनी प्राणी सत्ता में सिमट जाना और उनके प्रमाता, संघीय ढाँचे के अंग के रूप का अंत हो जाना।
यही वजह है कि राज्यों का ‘स्वैच्छिक संघ’ विविधता में एकता का एक सबसे मज़बूत सूत्र है जिसमें हर राज्य अपनी अस्मिता से किंचित् समझौता करके ही संघ के साथ अपने को जोड़ता है।
कहना न होगा, आज़ाद भारत कुल मिला कर एक ऐसे ही आधुनिक राष्ट्र के निर्माण का प्रकल्प था जिसमें कश्मीर का विलय इसके संघीय ढाँचे के लचीलेपन की पराकाष्ठा को मद्देनज़र रख कर किया गया था। भारत में जो तमाम कथित राष्ट्रवादी ताक़तें बिल्कुल प्रकट रूप में, हमेशा भुजाएँ फड़काने वाले मज़बूत और केन्द्रीकृत भारत की कामना करती रही हैं, कश्मीर की विशेष स्थिति उन्हें कभी मान्य नहीं थी। उन्हें कश्मीर को अलग रखना मंज़ूर था, पर उसे भारत में कोई विशेषाधिकार देना नहीं। इसीलिए इतिहास में वे कश्मीर को अलग रखने के पक्षधर महाराजा हरिसिंह के साथ खड़ी थी।
यह ज़ाहिर है कि भारत के पुनर्निर्माण के इस आधुनिकता के प्रकल्प में शुरू में उनकी जिस आवाज़ को दबा दिया गया था, वही दमित आवाज़ अब धारा 370 को ख़त्म करने की बहस के ज़रिये प्रतिहिंसा के भाव के साथ लौट कर आ रही है। यह भारत के आधुनिकता के प्रकल्प में सांप्रदायिकता और धर्म-निरपेक्षता के बीच के अन्तर्विरोधों की अभिव्यक्ति है।
सांप्रदायिक ताक़तें धारा 370 पर हमला करके भारत की एकता के ‘स्वैच्छिक संघ’ के सबसे मूलभूत सूत्र को कमजोर कर रही है और भारत में विभाजनकारी ताक़तों के लिए ज़मीन तैयार करती है। मज़े की बात है कि इस भारत-विरोधी मुहिम का नेतृत्व वर्तमान केंद्रीय सरकार खुद कर रही है। इसीलिए इस धारा पर विचार के ज़रिए सुप्रीम कोर्ट को पूरी मोदी सरकार के दक्षिणपंथी प्रकल्प पिपरा अपनी राय सुनानी है।
जी-20 सम्मेलन
अब दूसरा उदाहरण बिल्कुल ताज़ा जी-20 सम्मेलन का लिया जा सकता है। सचमुच, इसे देख कर लगता है कि मानो यह दुनिया एक अनोखी, उल्टी-पुल्टी दुनिया है। भारत में जब शासक दल की राजनीति का मुख्य एजेंडा सांप्रदायिक असहिष्णुता पैदा करना, नफ़रत फैला कर समाज को तोड़ना और सभी जन-प्रचार माध्यमों पर क़ब्ज़ा करके अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन है तब इसी देश के तत्वावधान में जी-20 सम्मेलन के घोषणापत्र में गाजे-बाजे के साथ धार्मिक सहिष्णुता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्ष में संयुक्त राष्ट्र संघ की मूलभूत प्रतिबद्धता को दोहराया गया है !
इस घोषणापत्र में कहा गया है कि “हम संयुक्त राष्ट्र महासभा के प्रस्ताव ए/आरईएस/77/318, विशेष रूप से धार्मिक और सांस्कृतिक विविधता, संवाद और सहिष्णुता के प्रति सम्मान को बढ़ावा देने की इसकी प्रतिबद्धता पर ध्यान देते हैं। हम इस बात पर भी जोर देते हैं कि धर्म या आस्था की स्वतंत्रता, राय या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, शांतिपूर्ण सभा का अधिकार और सहचर्य की स्वतंत्रता का अधिकार एक दूसरे पर आश्रित, अंतर-संबंधित और पारस्परिक रूप से मजबूत हैं और उस भूमिका पर जोर देते हैं ये अधिकार धर्म या आस्था के आधार पर सभी प्रकार की असहिष्णुता और भेदभाव के खिलाफ लड़ाई में निभायी जा सकती है।’’
शब्दकोश के अनुसार उलट-पुलट जाने का अर्थ होता है कि आप जिस काम को बहुत सोच-समझ कर करते हैं, वही ऐन आख़िरी वक्त में बिल्कुल बिखर जाए, सारी चीज़ें दिशाहीन नज़र आने लगे, क्या हो रहा है, क्या नहीं हो रहा है, इसका कुछ पता ही न चले। पर जिसे हेगेलियन द्वंद्वात्मकता कहते हैं, उसमें ‘उलट-पुलट’ का मायने यह है कि किसी भी एक सुचिंतित प्रकल्प का उसके घोषित उद्देश्य के बिल्कुल विपरीत परिणाम निकलना — मसलन, स्वतंत्रता के सपने का आतंक में बदल जाना, नैतिकता का मिथ्याचार में, बेशुमार दौलत का बहुसंख्यक आबादी की ग़रीबी में तब्दील हो जाना।
मोदी चाहते है कि वे जी-20 का प्रयोग भारत में 2024 के चुनाव को जीतने के लिए करेंगे ; इससे अपनी कलंकित छवि को चमकाएँगे ; अपनी डूबती हुई राजनीति को पार करायेंगे।
पर जी-20 का सम्मेलन ख़त्म हो गया, हज़ारों करोड़ फूंक कर दिल्ली में भारी तमाशा हुआ, मोदी दुनिया के अनेक राष्ट्राध्यक्षों के विनयी सेवक बने हुए उनके चारों ओर मंडराते दिखें, लेकिन कुल मिला कर हासिल क्या हुआ ? हासिल वही हुआ, जिसे हम ‘उलट-पुलट’ कहते हैं। इस सम्मेलन में जिस घोषणापत्र पर सर्वसम्मति बनी, उसकी एक भी पंक्ति मोदी की राजनीति का समर्थन नहीं करती है।
अर्थात् भारत में आगामी चुनाव प्रचार में मोदी सिर्फ दुनिया के नेताओं के साथ अपनी तस्वीरें चमका पायेंगे, इस सम्मेलन में हुई एक भी बात का वे प्रामाणिक रूप में कहीं उल्लेख भी नहीं कर पायेंगे।
उल्टे, सम्मेलन के घोषणापत्र की बातों से लगेगा कि जैसे इसमें ‘नफ़रत के बाज़ार में मोहब्बत की दुकान खोलने’ की बात की ताईद की गई है। इसमें ‘धर्म या आस्था के आधार पर सभी प्रकार की असहिष्णुता और भेदभाव’ को ख़त्म करने की बात कही गई है जो ‘लव जेहाद’, ‘आबादी जेहाद’, ‘वोट जेहाद’ आदि-आदि नाना जेहादों के नाम पर मोदी और आरएसएस की मुसलमान-विरोधी राजनीति को एक सिरे से ठुकराती है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात भी मोदी की नीतियों के खुले विरोध से कम नहीं है।
इस प्रकार, आँख मूँद कर कोरे उत्सव-धर्मी भाव से नाचने-कूदने की मोदी की राजनीति के इस प्रहसन वाले हिस्से ने उनकी समग्र राजनीति की कब्र खुद खोदने का काम किया है। अंत में जाकर, जी-20 सम्मेलन के स्थल ‘भारत मंडपम’ में बारिश का पानी भर जाने से आयोजन की व्यवस्था की मोदी की दक्षता की भी पोल खुल गई है।
यह है 2014 के अघटन के बाद का भारत जिसमें ‘इंडिया’ की जनतांत्रिक राजनीति को एक नए वैश्विक इतिहास की रचना करनी है। मोदी का ‘विश्वगुरु ‘ का प्रचार इसी प्रकार भारत में जनतांत्रिक आंदोलन की वैश्विक संभावनाओं को खोल रहा है।