भारतीय लोकतंत्र ने २०११-’१२ के अन्ना आन्दोलन के जरिये स्वराज और सुराज के लिए वैकल्पिक राजनीति की रचना के लिए निर्णायक करवट ली है. यह संसदवाद की धुंध में फंसी राजनीति को गतिवान बनाने का एलान था. इसके जरिये मौजूदा दलीय व्यवस्था और चुनाव व्यवस्था की आड़ में पनप रहा भ्रष्टाचार और दु:शासन दोनों के खिलाफ जन-असंतोष की अभिव्यक्ति हुई थी. इसने परिवर्तन की राजनीति को प्रोत्साहन दिया. सड़क से लेकर संसद तक जंतर मंतर से शुरु होकर दूर दराज के नुक्कड़ों तक लोकशक्ति के आगे राजशक्ति पराजित हुई. इसके परिणामस्वरूप देश की राजसत्ता के कांग्रेस-मुक्त दौर का भी एक नया अध्याय नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्रित्व में सामने है. लेकिन मोदी शासन के दो तिहाई कार्यकाल के पूरा होने के बावजूद स्वराज की दिशा में हमारी प्रगति का नामोनिशान क्यों नहीं है. सुराज की सुगंध कहाँ है?
किसान की बेचैनी से लेकर नौजवानों की बेरोजगारी तक का कांग्रेस-राज से बेहतर समाधान का दावा केन्द्रीय सरकार के जबानी जमाखर्च से भी गायब है. अब तो भारतीय जनता पार्टी के शिखर पुरुषों से लेकर भारतीय मज़दूर संघ और स्वदेशी जागरण मंच तक के नेतृत्व की तरफ से कहा जा रहा है कि देश की दशा ठीक नहीं है.
लेकिन विपक्ष की दशा तो और भी दयनीय है. न व्यक्तिवाद और परिवारवाद में कमी है. न आत्म-समीक्षा और विचार-शक्ति के जरिये सकारात्मक परिवर्तन का वाहक बनने की तैयारी है. कहीं नयापन नहीं दीखता – न विचार, न कार्यक्रम. न संगठन. न नेतृत्व. इसलिए यह अजूबा अंतर्विरोध नहीं है कि आर्थिक मोर्चों पर अपनी नाकामियों के बढ़ते सिलसिले और सामाजिक-सांस्कृतिक सवालों के बारे में फैलती अराजकता और हिंसा के बावजूद भारतीय जनता पार्टी का राजनीतिक कद बढ़ता जा रहा है. इसके द्वारा गठित राष्ट्रीय लोकतान्त्रिक गठबंधन का दायरा फैलाव पर है. असम और उत्तर प्रदेश में डंके की चोट पर चुनाव में जीत मिली. दिल्ली की तीनों नगर पालिकाओं में आम आदमी और कांग्रेस को बौना साबित किया. महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में स्थनीय निकाय में विजयी हुए. फिर बिहार की हार जीत में बदल गयी. बिहार के तेजस्वी मुख्यमंत्री ‘विकास पुरुष’ नितीश कुमार अपनी पार्टी के शरद यादव – अली अनवर खेमे के विरोध की परवाह किये बिना जनता दल (यूनाइटेड) के बिहार विशाल विधायक दल का बल लेकर भारतीय जनता पार्टी के सहयात्री बन गए. उनका कहना था कि यह बिहार में परिवारवाद और भ्रष्टाचार की आड़ में जंगल-राज की वापसी को रोकने के लिए जरुरी हो गया था. दुसरे शब्दों में, नरेन्द्र मोदी के नेत्रित्ववाला राष्ट्रीय लोकतान्त्रिक गठबंधन और उसके जरिये सत्ता-सञ्चालन भ्रष्टाचार और अपराधीकरण के खिलाफ आज भी एक मजबूत गारंटी है.
चुनावी दृष्टि से सिर्फ पंजाब में स्पष्ट हार हुई है. इसमें किसानों के दुःख, माध्यम वर्ग के मोहभंग और नौजवानों की निराशा ने अकाली दल -भारतीय जनता पार्टी की दस साल पुरानी सरकार के खिलाफ आग में घी का काम किया है. यह आम आदमी पार्टी की व्यक्ति-विशेष से जुडी अवसरवादी राजनीति के खिलाफ भी जनादेश जैसा था. लेकिन बाकी देश में किसानों और गांवों की दुर्दशा की निरंतरता का ऐसा राजनीतिक परिणाम सामने नहीं आ रहा है. शायद विपक्ष का आत्मविश्वास अभी भी बन नही पाया है. क्योंकि कर्णाटक, बंगाल, हिमाचल, केरल, ओडिशा और पंजाब की गैर-भाजपा सरकारों ने भी तो किसानों को कोई खुशखबरी नहीं दी है.
वैसे युवा-शक्ति के मोहभंग और बगावत का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है. रोहित वेमुला आत्महत्या के बाद से दलित विद्याथियों, विशेषकर आम्बेद्करवादी संगठनों को निशाने पर लिया गया. इसके बाद अलगाववाद समर्थक एक रहस्यमय प्रकरण के बाद जे. एन. यू. के छात्र-छात्राओं-शिक्षकों को तो देश-विरोधी बताया ही जा चुका है. हालाँकि अदालत ने इसके लिए पुलिस-सरकार-विश्वविद्यालय प्रशासन को गैर-जिम्मेदार ही पाया है. अब दिल्ली विश्वविध्यालय
के छात्रसंघ में चार साल से चल रही जीत इसबार कांग्रेस के विद्यार्थी मंच के हाथों पराजय में बदल गयी. इलाहाबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय में पिछले साल जीते थे लेकिन इस साल समाजवादी पार्टी के समर्थक उम्मीदवार ने मोदी-महंत जी की जय करने वालों को पटखनी दे दी. प्रधानमंत्री मोदी के अपने चुनाव क्षेत्र बनारस में तो बी.एच.यू. की असुरक्षित बेटियां सडकों पर बैठ गयीं और पुलिस के हाथों मान-मर्दित की गईं. सरकारी दबाव के बावजूद मीडिया चुप नहीं रह सका. इससे देश भर में धिक्कार मिलने लगा. शुरु में न-नुकुर करने के बाद अपने पोषित कुलपति को, दबंगों के जरिये छात्राओं को प्रताड़ित करने के प्रकरण सामने आने पर, कार्यकाल के अंतिम तिमाही में जबरन अवकाश पर भेजने का निर्णय लेना पड़ा. इसीके समान्तर सरोकारी पत्रकार और निडर नागरिक गौरी लंकेश की हत्या पर सत्ता-प्रतिष्ठान के नायकों की चुप्पी और सोशल मीडिया में कुछ तत्वों ने जैसी ख़ुशी जाहिर की उससे मौजूदा सत्ताधीशों की छबी धूमिल हुई है. प्रतिपक्ष ही नहीं बाकी लोगों में भी यह भाव फ़ैल रहा है कि यह निजाम महिला के प्रति असंवेदनशील है. २०१९ की आम पंचायत में यह मामूली दोष नहीं साबित होगा.
दलित-विरोधी और मुस्लिम-प्रताड़क होने के आरोपों की सफाई अभीतक बकाया है. श्री रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति बनाने की पहल से दलित प्रसंग की आंच कम हो चुकी है. लेकिन आम दलित के मन में गो-रक्षकों का आतंक गहरे तक बैठा है.
इसके लिए सिर्फ दिल्ली दरबार में जगह बनाने से काम कैसे बनेगा. गाँव-कसबे की हवा में घुली हुई जातिवादी हिंसा के लिए कुछ नया करना होगा. गौरक्षकों की बान्हे बंधी गयी तो चुनाव में झंडे उठानेवाले हाथ कम हो जायेंगे. अगर उनको छुट्टा सांड बने रहने दिया गया तो देशभर में फैले २५ प्रतिशत दलितों-आदिवासिओं के वोट का छिटक जाना एक प्रबल संभावना है. इसमें अधिकांश मोदी-समर्थकों का मुसलमान विरोधी होने का सच घाव पर नमक का काम कर्रेगा. पाकिस्तान से खराब खबरें कम नहीं हुई हैं. सरहद पर शहीद होनेवाले भारतीयों की यात्राओं ने यदि कांग्रेसी-राज की जड़ें हिला दीं तो मोदी सरकार के लिए खाद का काम नहीं कर रही हैं. फिर पाकिस्तान –भारत रिश्तों की खटास और इससे जुड़े कश्मीर प्रसंग और आतंकवादी हिंसा के अध्याय में भी तो कोई फरक नहीं आया है. चीन ने दोक्ला और अरुणाचल और लद्दाख तक सरहदी सुरक्षा का सच बेपरदा कर दिया है. अब म्यांमार-बंगलादेश से आ रहे रोहंगीय शरणार्थियों का दुविधा भरा प्रश्न भी समाधान के लिए सामने है.
दूसरे शब्दों में, कांग्रेस-मुक्त राजसत्ता से देश को राहत कम और आफतें जादा मिली हैं. नए सत्ताधीशों की आर्थिक मोर्चे पर दृष्टिहीनता और असफलता छुपाये नहीं छिपी. व्यक्तिगत शुचिता का दावा धीरे धीरे धुधला गया है. हाँ, अभी
उच्चस्तरीय भ्रष्टाचार, परिवारवाद या अपराधियों से सांठ -गांठ वाला कलंक नहीं है. लेकिन लंगोटिया पूंजीपतियों से याराना जग-जाहिर है. सामाजिक जीवन में सांप्रदायिक तनाव पैदा करना तो वोट-बैंक के लिए रणनीति का हिस्सा ही था. सिर्फ वोट, मीडिया और धनबल के जरिये राजनीतिक व्यवस्था पर पकड़ मजबूत है. अब यह कितने दिन काम आयेगा यह किसे मालूम? लेकिन इसका यह अर्थ नहीं लगना चाहिए कि देश में मोदी हटाओ-कांग्रेस लाओ का नारा गूँजने जा रहा है.
प्रधानमंत्री मोदी के कद में कमी आई है. चार बरसों में कथनी –करनी के बीच बढ़ते फासले के कारन ‘मात्र वचनवीर’ की छबी बनी है. लेकिन मोदी की टीम के पास अभी भी १. संगठन, २. विचार, ३. प्रभुत्वशाली वर्गों का साधन और समर्थन, ४. प्रचारतंत्र, और ५. हिंदुत्व आधारित वोट बैंक का बल है. इसलिए उनके मुकाबले में साधु-शैतान सबका एकजुट हो जाना १९७१ में ‘इंदिरा हटाओ’ वाले नारे के भरोसे बने महागठबंधन की तरह ‘उलटा दांव’ भी साबित हो सकता है. बस ‘गरीबी हटाओ’ जैसे किसी नारे और पकिस्तान से हफ्ते –दो हफ्ते की धींगा-मुश्ती से मोदी की नाव पार लग जाएगी. क्योंकि गैर-मोदी जमातों में अभी भी आत्म-समीक्षा की तयारी नहीं है. प्रायश्चित भाव नहीं है. भ्रष्टाचार, व्यक्तिवाद, परिवारवाद, कार्यक्रमशुन्यता और विचारहीनता की दुर्गन्ध है.
देश को वैकल्पिक लोकतान्त्रिक राष्ट्र-निर्माण का मार्ग चाहिए. भारतीय संविधान में निहित न्याय-त्रिवेणी अर्थात – सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय की संयुक्तता पर आधारित नागरिकता और राष्ट्रीयता – के संकल्पों का असरदार क्रियान्यवयन चाहिए. इसलिए दल व्यवस्था और चुनाव व्यवस्था में सुधार की आधारशिला पर नयी नागरिक एकता और राजनीतिक महा अभियान के लिए नए-पुराने राजनितिक मंचों की एकजुटता की देश को जरुरत है. तभी मुट्ठी भर लंगोटिया पूंजीपतियों की पूंजी, हिंदुत्व के वोट बैंक और मोदी के करिश्मा के बलपर चल रहा मौजूदा अजूबा ढहेगा. इसलिए १. आर्थिक जीवन में, चुनाव में और दलों में लंगोटिया पूंजीपतियों के काले धन का प्रभुत्व, और २. राजनीति में विचारहीनता के मलबे पर उग आये व्यक्तिवाद-वंशवाद जैसे महादोषों पर चुप्पी तोड़ना विकल्प निर्माण की पहली जरुरत है. यही तो भ्रष्टाचार के दो स्त्रोत रहे हैं. इनसे मुक्ति की तलाश में देश बेचैन २०११ से बेचैन है. बिना इस बारे में दिशा की स्पष्टता के २०१९ में एक और नयी सरकार बन सकती है लेकिन नयी राह नहीं बनेगी.
वैसे मौजूदा माहौल में यह सब कहना अवसरवाद के नक्कारखाने में आदर्शवाद की तूती बजाना है. क्योंकि हम सजग लोग धीरे धीरे दो खेमों में बंटते जा रहे हैं – मोदी के भक्त और मोदी के विरोधी. दोनों एक ही मनोभाव से पीड़ित हैं : सच से परहेज. इसीलिए हम सदगुरु कबीर की दो पंक्तियों को याद करके इस चर्चा के सन्दर्भ का भी ध्यान दिला कर बात को समेटना चाहते हैं:
साधू! देखो जग बौराना.
सांच कहे तो मारन दौड़े, झूठ कहे पतियाना.
साधू, देखि जग बौराना!