- दीपक भास्कर
।। प्रधानमन्त्री, चौकीदार क्यों बन रहे हैं?।।
चौकीदार शब्द, अब भारत में प्रधानमन्त्री के लिए उपयोग किया जा रहा है। भारत के प्रधानमन्त्री खुद को चौकीदार बताते हैं, पहरेदार बताते हैं तो वहीं विपक्षी पार्टियां ने “चौकीदार चोर है” का नारा जनमानस के चेतना में डाल दिया है।
बहरहाल, किसी भी देश के प्रधानमन्त्री का चौकीदार हो जाना, उस देश के हित में कतई नहीं है। सैद्धांतिक रूप से, चौकीदार और प्रधानमन्त्री की संकल्पनाएं बिल्कुल अलग हैं। इन दोनों शब्दों के मूल सिद्धांत को समझना आवश्यक है।
चौकीदार मुख्य रूप से पहरेदारी के लिए होते हैं। उदाहरण के तौर पर एक बिल्डिंग और महानगरों की सोसाइटी के सामने एक चौकीदार खड़ा होता है जो यह सुनिश्चित करता है इस सोसाइटी अथवा घर में कोई बाहर से आकर चोरी न कर ले, किसी तरह की अप्रत्याशित घटना को अंजाम न दे। चौकीदार को इससे कतई मतलब नहीं होता कि किसी के घर के अंदर क्या हो रहा है।
अब ऐसे में जब कोई प्रधानमन्त्री, चौकीदार बन जाता है तो वो असल में अपने प्रधानमन्त्री के उत्तरदायित्वों को छोड़कर सिर्फ रखवाली के उत्तरदायित्व में आ जाता है। सैद्धान्तिक रूप में, यह कह सकते हैं “राज्य”(देश) का चरित्र ही बदल जाता है। अब राज्य नवउदारवादी सिद्धान्त पर ही मूल रूप से चलने लगता है, जिसमें वह तमाम उत्तरदायित्व को छोड़कर बस एक पहरेदार बन जाता है। ऐसे में प्रधानमन्त्री का चौकीदार हो जाना यह साफ साबित करता है कि वो अब किसी के घर में खाना, कपड़े, शिक्षा, स्वास्थ्य, शांति, समृद्धि है अथवा नहीं, इससे कोई मतलब नहीं रखता। कोई किसी घर में भूखा सो रहा है या मर गया है, उससे उसे कोई लेना देना नहीं। अगर कभी कोई चौकीदार से अपने भूखे होने का दुख सुनाए तो चौकीदार उसे उसके भाग्य पर कोसने अथवा कहीं पकौड़ा की दुकान लगाने के सिवाय क्या कह सकता है। अगर चौकीदार से कोई अपने बीमार होने की व्यथा सुनाए तो चौकीदार उसे प्रार्थना करने के सिवा क्या कह सकता है। अगर कोई अपने आर्थिक वजह से शिक्षा न ग्रहण कर पाने का दर्द बताए तो चौकीदार उसे कर्ज अथवा लोन लेकर पढ़ने के सिवाय क्या कह सकता है। बहरहाल, चौकीदार, किसी को सुनने के बजाय अपने ही मन की बात सुना सकता है। शायद यह हो भी रहा है।
खैर। प्रधानमन्त्री का राज्य की सरकार के प्रमुख होने की वजह से दायित्व होता है कि कहीं किसी भी घर में कोई भूखा न सो जाएं, कोई बच्चा अशिक्षित न रह जाए, कोई बीमार न हो जाय, कहीं कोई अशांति न हो इत्यादि का ध्यान रखे। राज्य या फिर उसकी सरकार को इतना शक्तिशाली इसलिए ही बनाया गया है ताकि उसे हर तरह या किसी भी तरह के उत्तरदायित्व को निभाने में कठिनाई न हो। ऐसा कहीं भी न हो कि राज्य किसी कार्य का निर्वाह करने में “शक्ति” की कमी की वजह से असफल हो रहा है।
इस बाबत, भारत के प्रधानमन्त्री का खुद को चौकीदार बताना या कहना, अपने तमाम उत्तरदायित्व से भागने जैसा है। शायद यही हुआ भी है जब देश में बेरोजगारी अपने 40 साल में सबसे ऊपर है, नौकरियां नदारद है, समाज में अशांति का माहौल है, शिक्षा पर से लगातार राजस्व कम किया जा रहा है।
अब शायद हम नव-उदारवाद आर्थिक नीति के उस मुकाम पर पहुंच गए हैं जहां राज्य अपनी “शक्ति” को कम नहीं बल्कि उत्तरदायित्व को लगातार कम करती जा रही है। ऐसे में “पूर्ण-शक्ति”, वो भी बिना उत्तरदायित्व के बेहद खतरनाक साबित हो सकता है और शायद इसके लक्षण दिखाई भी देने लगे हैं। अब सरकार और देश के बीच अंतर पाट दिया गया है, वो शायद इसलिए क्योंकि चौकीदार के सैद्धान्तिक सिद्धांत में देश महज बिल्डिंगों का समूह है जिसकी सुरक्षा में वह लगा हुआ है जबकि देश तो लोगों का समूह होता है, वो भी विभिन्न तरह के लोगों का, अगर प्रधानमन्त्री चौकीदार न होकर प्रधानमन्त्री की भूमिका में होते तो शायद समाज में वैमनस्यता न बढ़ती, लोगों के जीवन और उसकी समस्याओं का ध्यान रख पाते जो शायद चौकीदार की भूमिका में संभव ही नहीं है। असल में, प्रधानमन्त्री और चौकीदार के अंतर को वो समझ ही न पा रहे हैं या फिर कहें की वो उत्तरदायित्व से मुंह फेरने के लिए इस नए पद को चुन लिए हैं।
#सत्यमेवजयते
डॉ दीपक भास्कर, दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीति पढ़ाते हैं।
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