मेरा जम्मू मेरा है, फिरकापरस्तों का नहीं-दीपिका सिंह
(कठुआ बलात्कार की नाबालिग पीड़िता की अधिवक्ता दीपिका सिंह राजावत ने सोनिया सरकार को बताया कि वे उत्पीड़न के बावजूद इस मुकदमे में क्यों लगी हुई हैं।)
वो हवा में फड़फड़ाने से रोकने के लिए वकील के अपने काले चोगे को जोर से पकड़े हुए है। उनकी आँखों में गहरा सुरमा लगा हुआ है। उनकी भौंहें सिकुड़ी हुई हैं। एक अंडाकार चश्मा मजबूती से उनकी नाक पर काबिज है। चेहरे पर दृढ़संकल्प के भाव हैं। उनके दाहिने हाथ का टैटू कहता है कि सिर्फ कमजोर ही निष्ठुर हो सकता है। जम्मू की अधिवक्ता दीपिका सिंह राजावत की यह छवि वायरल हो चुकी है। बहुतों का मानना है कि यह छवि भारत में स्त्री सशक्तिकरण का प्रतीक बन चुकी है। मैं राजावत को यह बताती हूँ। वे जम्मू से फोन पर मुझे कहती हैं कि ‘‘अगर यह छवि यह छाप छोड़ती है कि महिलाएँ आज निर्भय हो चुकी हैं, तो मैं स्वयं भी सशक्त महसूस करूँगी।
इस मामले के सभी आठ अभियुक्त गिरफ्तार कर लिये गये हैं। लेकिन पिछले दो महीने राजावत के लिए यंत्रणादायक रहे हैं जिन्हें एक बकरवाल मुसलिम लड़की के मुकदमे को हाथ में लेने के कारण जम्मू कश्मीर उच्च न्यायालय बार संघ में अपने ही साथियों के भारी विरोध का सामना करना पड़ा।
इस संघ के अध्यक्ष भूपिंदर सिंह सलाठिया और दूसरे पदाधिकारियों ने इस मुकदमे को हाथ लगाने के खिलाफ अदालत परिसर में उन्हें धमकी दी। राजावत बताती हैं कि ‘‘4 अप्रैल को सलाठिया मुझे बोला कि उन्होंने कार्य स्थगन का आह्वान किया है और मुझे हड़ताल के दौरान कार्य नहीं करना चाहिए और कि मुझे यहाँ गंदगी नहीं फैलानी चाहिए। उसने बोला कि अगर मैं नहीं मानती तो वह मुझे रोकने के रास्ते जानता है।’’
राजावत ने उच्च न्यायालय के समक्ष एक हलफ़नामा दायर किया जिसमें उन्होंने शिकायत की कि सलाठिया ने उनका शील भंग करने की चेष्टा की थी। लेकिन इस हलफ़नामे के बाद भी दूसरे वकील उन्हें भयभीत करने से बाज नहीं आये। उन्होंने सोशल मीडिया पर उन्हें धमकाना शुरु कर दिया। वे बताती हैं कि ‘‘एक वकील ने फेसबुक पर कहा कि मुझे माफ नहीं किया जायेगा। इसने वास्तव में मुझे व्यथित कर दिया। मुझे अहसास हुआ कि वे अदालत के बाहर भी मेरे लिए समस्या पैदा कर सकते हैं।’’
उसी समय उन्होंने सर्वोच्च अदालत में एक हलफ़नामा दाखिल किया जिसमें उन्होंने न सिर्फ इन धमकियों का जिक्र किया बल्कि निष्पक्ष सुनवाई हेतु इस मुकदमे को चंडीगढ़ स्थानांतरित करने को भी कहा। शीर्ष अदालत ने उसे और पीड़िता के परिवार को समुचित सुरक्षा मुहैया कराने के लिए राज्य सरकार को आदेश दे दिया था। लेकिन मुख्य न्यायधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली एक पीठ बाद में दो आरोपियों की अपील पर सुनवाई के लिए तैयार हो गई जो चाहते हैं कि मुकदमा जम्मू में ही चले और जाँच सीबीआई को हस्तांतरित कर दी जाये।
यद्यपि पीड़िता के परिवार ने इस मांग का विरोध किया है किंतु भारतीय बार परिषद् की एक रपट कहती है कि यह मांग न्यायसंगत है। सर्वोच्च अदालत ने सुनवाई पर 7 मई तक के लिए रोक लगा दी है और यह भी कहा है कि सुनवाई में पक्षपात की तनिक भी आशंका होने पर मुकदमा कठुआ से स्थानांतरित कर दिया जायेगा।
2003 : एक पत्रकार के रूप में मानसिक रूप से विकलांग एक पाकिस्तानी महिला के लिए वे एक जनहित याचिका दायर करती हैं जिसने असावधानी में सीमा पार कर ली थी और जो जम्मू की एक जेल में दो दशकों से ज्यादा वक्त से बंद थी। वे मुकमा जीतती हैं और वह महिला वापिस पाकिस्तान भेज दी जाती है।
2010 : बेहद जरूरी लैंगिक मुद्दों को उठाने के लिए उन्हें लाडली पुरस्कार से नवाजा जाता है।
2012 : जब वे रहस्यमय परिस्थितियों में जम्मू में एक वकील के घर मृत पाई गई 12 साल की एक लड़की का मुकदमा अपने हाथों में लेती है तो वे विवाद को मौका देती हैं।
2018 : अपने साथी वकीलों के प्रचंड विरोध के बावजूद वे कठुआ बलात्कार पीड़िता का मुकदमा लेती हैं।
इसी दौरान पिछले सप्ताह जम्मू कश्मीर बार संघ ने राजावत को धमकाने के सभी आरोपों से इंकार करते हुए एक जवाबी हलफ़नामा सर्वोच्च अदालत में दाखिल कर दिया।
किंतु राजावत कहती हैं कि धमकियों के अलावा भी वेसामाजिक बहिष्कार का सामना कर रही हैं। उन्हें अधिवक्ताओं के व्हाट्सअप समूह से निकाल दिया गया है। यहाँ तक कि महिला अधिवक्ता तक उनके समर्थन में नहीं आईं। वे बताती हैं कि ‘‘अगले दिन एक महिला पब्लिक नोटेरी ने मेरे द्वारा अनुरोधित कार्य को करने से इंकार कर दिया।’’
यह पहली मर्तबा नहीं है जब राजावत को निशाना बनाया गया है। जब जम्मू में एक अधिवक्ता के घर पर रहस्यमय स्थितियों में मरने वाली एक बारह साल की लड़की का मुकदमा उन्होंने अपने हाथ में लिया था तो 2012 में भी उनके विरुद्ध नारेबाजी की गई थी और उनकी बार संघ की सदस्यता रद्द कर दी गई थी।
जहाँ तक कठुआ वाले मामले की बात है तो आरंभ में राजावत इस मामले को गहराई से देख भर रही थी। वे तो बहुत बाद में फरवरी में इससे जुड़ी जब पीड़िता के माँ-बाप ने मांग की कि जम्मू कश्मीर पुलिस की अपराध शाखा द्वारा की जाने वाली जाँच की उच्च न्यायालय द्वारा निगरानी रखी जाये। इन्होंने अदालत के समक्ष समादेश याचिका दाखिल करते हुए प्रार्थना की कि अदालत विशेष जाँच दल से नियतकालिक रिपोर्ट मांगे।
अभी तक तीन विशेष जाँच दल गठित किये जा चुके हैं। यह अपराध शाखा का विशेष जाँच दल था जिसने आरोपपत्र दाखिल किया और इसी से मुकदमा आगे बढ़ा है। राजावत स्पष्ट करती हैं कि पीड़िता का परिवार वर्तमान विशेष जाँच दल के अन्वेषण से संतुष्ट है। किंतु इसके लिए अपना कार्य करना आसान न था। राष्ट्रवादी हिंदू ग्रुप और हिंदू एकता मंच के कार्यकर्ताओं और जम्मू के वकीलों ने 9 अप्रैल को अपराधा शाखा को मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट की अदालत में आरोपपत्र दाखिल करने से रोकने की कथित रूप से कोशिश की।
विरोध कर रहे वकील आरोपियों के समर्थन में तिरंगा लहराते हुए और भारत माता की जय बोलते हुए गलियों में उतर परे। यहाँ तक कि सर्वोच्च अदालत में अपने जबावी हलफ़नामे में भी इन वकीलों ने उल्लेख किया कि वे जिम्मेदार नागरिक हैं जो ‘भारत को तोड़ने वाली’ और ‘राष्ट्रविरोधी ताकतों’ से लड़ना चाहते थे। इन बातों पर राजावत उग्र होकर कहती हैं कि ‘‘अधिवक्ताओं को समाज के हितों का ध्यान रखना होता है। तिरंगा लहराकर और ‘भारत माता की जय’ के नारे लगाकर ऐसा करना संभव नहीं है।’’
हम बात करते हैं कि कैसे पीड़िता के समुदाय – ख़ानाबदोश बकरवालों के विरोध में बड़ी संख्या में लोग बाहर निकले हैं, कारण कि वे मुसलमान हैं। उनके तो बहिष्कार का आह्वान भी है। वास्तव में वकीलों ने तो रोंहिग्या मुसलमानों को जम्मू से बाहर फेंक देने की बाती भी की। इस मुद्दे को वे बहुत लंबे समय से उठाते रहे हैं किंतु यह ऐसी चीज है जिसका बलात्कार के इस मामले से कोई लेना-देना नहीं है। हिंदुत्ववादी ताकतों का संगठित प्रयास है कि मुसलिम बहुसंख्यक कश्मीर के जबाव में जम्मू को हिंदू बहुसंख्यक स्थान के रूप में पेश किया जाये। राजावत कहती हैं कि ‘’मेरा जम्मू वे लोग नहीं है। मेरा जम्मू मैं हूँ। मेरा जम्मू वे लोग हैं जो सांप्रदायिक नहीं हैं।’’
राजावत का विवाह बहरीन में काम करने वाले एक राजपूत से हुआ है किंतु वे स्वयं एक कश्मीरी पंडित हैं। 1990 में घाटी से व्यापक पैमाने पर पंडितों के निष्कासन से चार साल पहले वे अपने माता-पिता के साथ जम्मू आकर बस गई जो राज्य के शिक्षा विभाग में काम करते थे।
वे मुझे बताती हैं कि इतने सालों से कश्मीरी पंडित बनाम कश्मीरी मुसलमान की जो बहस जारी है, उसे देखकर उन्हें वेदना होती है। हिंदू राष्ट्रवादियों का एक हिस्सा उन पर आरोप लगता है कि अलगाववादी आंदोलन के राजनीतिक मंच हुर्रियत के साथ उनके संबंध थे।, कारण कि वे एक मुसलिम परिवार की सहायता कर रही थी। वे कहती हैं कि ‘‘मेरे अपने ही लोगों द्वारा लगाये गये ऐसे आरोपों को देखना यंत्रणादायक है।’’
वे महसूस करती हैं कि अब धर्म हर सार्वजनिक विमर्श का अंग बन चुका है। पहली बार मैं देख रही हूँ कि बलात्कार के एक मामले में धर्म की टांग घसीटी जा रही है।’’ वे जोड़ती हैं कि ‘‘धर्म के नाम पर राजनीति खेली जा रही है। लेकिन यह हमारे उठ खड़े होने का समय भी है। एक हिंदू को मुसलमान की सहायता करनी चाहिए और एक मुसलमान को एक हिंदू की मदद करनी चाहिए।’’
यह बातचीत फोन पर एक घंटे लंबी चली थी। उनका स्वर मैं अब ज्यादा आग्रही होते सुन सकती थी। फोन का संपर्क कमजोर था और हर बार हमें फोन दुबारा लगाकर बातचीत को फिर से शुरु करना पड़ा था। वे जाँचती रही कि पिछली बार मैंने उन्हें ठीक से सुना था कि नहीं।
तालिब हुसैन नाम के राजावत की टीम के एक बकरवाल सदस्य और राजावत के बारे में हाल में एक मीडिया चैनल ने दावा किया था कि उन्होंने पैसे जुटाने के लिए कुछ दिन दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में बिताये थे। वास्तव में यह अटकलबाजी भी थी कि वह पैसा आखिर पीड़िता के परिवार तक पहुँचा कि नहीं। राजावत बताती हैं कि न तो उन्होंने और न उनके दल के किसी सदस्य ने कोई पैसा इस मुकदमे में लिया है।
वे गरजती हैं कि ‘‘एक ताकत इस मुकदमे के खिलाफ काम कर रही है।’’ पिछले सप्ताह उनका ट्वीटर हैंडल हैक कर लिया गया जिसका एक अरसे से उन्होंने इस्तेमाल ही नहीं किया था। हैक करने के बाद इसे फिर से सक्रिय किया गया और कठुआ बलात्कार पीड़िता की तस्वीर हैडर तस्वीर के रूप में अपलोड कर दी गई। वे कहती हैं कि लोगों के एक हिस्से की व्यापक मंशा मुझे तर्क और प्रति तर्क में उलझाये रखने की है जिससे मेरा मुकदमा बिगड़ जाये। वे मेरी ताकत तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं किंतु ऐसा होने वाला नहीं है।’’
हमारी फोन कॉल एक बार फिर टूट गई। इस बार संपर्क नहीं टूटा था अपितु यह सर्वोच्च अदालत की अधिवक्ता इंदिरा जयसिंह का फोन था और वे भी कठुआ मुकदमे को देख रही कानूनी दल का हिस्सा हैं।
राजावत ने अपने कानूनी पेशे के पिछले नौ साल जयसिंह के साथ घनिष्ठता से काम किया है। नियंत्रण रेखा पर भूमिगत सुरंगों के शिकार लोगों को क्षतिपूर्ति दिलाने हेतु वे संघर्ष करती रही हैं। उन्होंने मानसिक रूप से विकलांग एक पाकिस्तानी महिला के लिए जनहित याचिका भी डाली थी जिसने लापरवाहीवश सीमा पार की थी और जिसे जम्मू में 26 सालों की जेल हो गई थी। उन्होंने यह मुकदमा जीता और उस महिला को वापिस पाकिस्तान जाने की अनुमति दे दी गई। इस जनवरी उन्होंने एक ऐसी महिला का मुकदमा लिया जिसने एक सेवारत उप न्यायधीश पर बलात्कार का आरोप लगाया था। वह आरोपी अब सलाखों के पीछे है।
राजावत बताती हैं कि वे हमेंशा से एक अधिवक्ता होना चाहती थीं क्योंकि वे एक दहाड़नेवाली आवाज़ बनना चाहती थीं। पाँच साल की बेटी की यह माँ कहती है कि ‘‘मेरी बेटी ही मेरी असली ऊर्जा और ताकत है।’’ फिर वे शांतिपूर्वक जोड़ती हैं ‘‘मैं यह मुकदमा उसके लिए भी लड़ रही हूँ।’’
29 अप्रैल 2018 के दि टेलीग्राफ में छपी दीपिका सिंह राजावत के साथ सोनिया सरकार की बातचीत
अनुवाद- डॉ. प्रमोद मीणा