
महाकवि सूरदास
- राजीव कुमार झा
महाकवि सूरदास वैष्णव चिन्तक वल्लभाचार्य के शिष्य थे और भगवान कृष्ण की पावन नगरी मथुरा में जब उनका आगमन हूआ तो यमुना के किनारे सूरदास को भी उनके दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उन्होंने महाप्रभु को कृष्ण के प्रति अपने प्रेम और उपासना में रचे सुमधुर पद जब गाकर सुनाये तो वे भाव विभोर हो उठे और कहा जाता है कि वल्लभाचार्य की प्रेरणा से श्रीमद्भागवद् में वर्णित कृष्ण के लीला वर्णन को आधार बनाकर उन्होंने सूरसागर की रचना की और कृष्णभक्ति काव्यधारा में कृष्ण की बाललीलाओं के चित्रण के अलावा सूरदास ने भ्रमरगीत के रूप में जिस काव्य को रचा उसे सारे संसार के प्रेम काव्य में अद्वितीय माना जाता है। सूर को विप्रलंभ श्रृंगार का कवि माना जाता है। वे वात्सल्य रस के भी पुरोधा कहे जाते हैं और कवि के रूप में वे मध्यकाल के सबसे महान कवियों की कतार मे देखे जाते हैं।
हिन्दी साहित्य में कवि के रूप में सूरदास की इस विलक्षण मौजूदगी के पीछे अनेक कारण हैं जिनकी ओट में आकर कविता और जीवन के सरल संदर्भों को भी जानने समझने का मौका भी मिलता है। उनके काव्य में मन के सच्चे सहज भाव समाये हैं और देश के ग्राम्य जनजीवन और संस्कृति का जीवन्त चित्र इनके काव्य में प्रकट होता है। सूरदास ब्रजभाषा के कवि हैं और हिन्दी सगुण काव्यधारा को प्रतिष्ठित करने का श्रेय अगर तुलसी के अलावा सूरदास को भी अगर दिया जाता है तो यह अकारण नहीं है। सचमुच सूरदास की कविता अपनी भाषा में कविता के हरेक कर्मकाण्ड से दूर अपने रचना विन्यास में जीवन की सरलता और सादगी को जिस तरह समेटती है वह काफी महत्वपूर्ण तथ्य है और ग्राम्य औरतों का जीवन संसार भी इनके भ्रमरगीतों में बहुत प्रामाणिकता से उजागर होता दिखायी देता है।
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सूरदास के बारे में कहा जाता है कि वे तुलसी के समकालीन थे और उन्होंने अपने भ्रमर गीत में गोपियों के साथ कृष्ण के सखा उद्धव के ज्ञान और योग संदेश की वार्ताकथा के बहाने प्रकारांतर से तत्कालीन हिन्दू धर्मचिन्तन में ईश्वर की सगुण और निर्गुण उपासना से उभरे विमर्श में सार्थक हस्तक्षेप करते हुए मनुष्य के लौकिक जीवन के बरक्स कृष्ण की अनन्त लीलाओं को धर्म और नीति की कथाओं से समन्वित करके साहित्य को जन जन के कंठ का सरस हार बना दिया। सूर का काव्य आशावादी स्वर से मनुष्य को जीवन के सुख – दुख की राह पर अग्रसर होने का संदेश देता है। कृष्ण इनके काव्य के नायक हैं और वे ललित नायक के रूप में धीरोदात्त गुणों से युक्त पावन प्रेम की प्रतिमूर्ति हैं।
इनके काव्य में समस्त रसों का समावेश है और इनके रचित समस्त पदों में देश-समाज-राष्ट्र-कुल और जनपद का समस्त गोचर-अगोचर दुख दर्द समाया है। सचमुच ब्रजभूमि में गोपियों के तर्क-वितर्क से हारकर अपनी ज्ञान गरिमा में आकंठ चुप्पी को समेटे वापस मथुरा लौटते उद्धव की मार्मिक कथा जहाँ एक ओर देश की माटी के कण कण विद्यमान यहाँ के अलौकिक नर नारियों के पावन तेज का गान करता प्रकट होता है यह काव्य इसके साथ ही कृष्ण के रूप में धर्म की ध्वजा को भी प्रतिष्ठापित करता है।
लेखक शिक्षक और स्वतन्त्र टिप्पणीकार हैं।
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