‘यह कहना आज गुनाह होगा कि
इन्द्रावती में तैर रही लाशों का अपना पक्ष है’
ऊपर लिखी गयी पंक्तियाँ कवि मित्र अनुज लुगुन की हैं. भारतीय समाज में अगर आदिवासी समाज की गिनती अत्यधिक अभिवंचित समाज के रूप में की जाय तो इसमें अतिशयोक्ति नहीं होनी चाहिए. ये पंक्तियाँ उनकी समसामयिक दशा को चित्रित करने के लिए पर्याप्त तो हैं ही, इस यथार्थ को भी प्रमाणिक ढंग से प्रस्तुत करती हैं कि जो लोग ‘तैर रही लाशों का पक्ष’ रखेंगे वे भी गुनाह करेंगे. स्थिति यह है कि भारतीय सामाजिक संरचना में अपवंचित समाज जब अपना दुःख कहेगा तो वह दोषी ठहरा दिया जायेगा, उसके साथ साथ वह भी दोषी माना जायेगा जो उनके दुःख के साथ खड़ा होगा और उनके पक्ष की वकालत करेगा. जब यह लिखा जा रहा है उसी समय छतीसगढ़ का सुकमा जिला आदिवासियों को लेकर चर्चा में है. खबर है कि वहां सुरक्षा बल ने 15 आदिवासियों को ‘फर्जी मुठभेड़’ में मार दिया है. जिसमें 5 नाबालिग हैं. यह घटना तो नमूना मात्र है जबकि आये दिन इस तरह की घटनाएँ दिखती हैं. इन घटनाओं को लेकर सामाजिक राजनीतिक तबकों में कोई खास हलचल नहीं दिखती है. ऐसा क्यों है? इस समाज के प्रति यह रवैया इस बात की पुष्टि करता है कि उनका बोलना सत्ता के लिए खतरा महसूस तो होता ही है. हमारे भद्र समाज के लिए भी उनके जान-माल की कोई कीमत नहीं है. समाज में ऐसी स्थिति तभी हो सकती है जब जनता के बड़े हिस्से की मानसिक संरचना को व्यापक सांस्कृतिक अभियानों के माध्यम से ऐसा बना दिया जाय की उसको यह जरुरी लगने लगे कि आदिवासियों का मारा जाना उनके हित की रक्षा के पक्ष में है. यही स्थिति ही समाज में ऐसी घटनाओं को व्यापक स्वीकृति प्रदान करती है. इस पूरी प्रक्रिया के पीछे अपवंचित सामाजिक समूहों की ‘ब्राडिंग’ की प्राविधि काम करती है. सत्ता इस प्राविधि का इस्तेमाल इसी व्यापक स्वीकृति के लिए करती है. हमारे समय की स्थिति यह है कि जितने भी अपवंचित सामाजिक समूह मुखर होकर अपने अधिकारों के लिए आवाज उठा रहे हैं उनकी ‘ब्रांडिंग’ सत्ता और विकास विरोधी के रूप में की जा रही है. आदिवासियों को माओवादी के रूप में, दलितों को नक्सलवादी और मुसलमानों को आतंकवादी के रूप में लगातार चित्रित किया जा रहा है.
दरसल नब्बे के बाद भारतीय समाज में अपवंचित मानी जाने वाले सामाजिक समूहों के एक हिस्से का सामाजिक और आर्थिक स्तर पहले की तुलना में कुछ बेहतर तो हुआ ही है. लेकिन राज्य द्वारा लोककल्याणकारी योजनाओं में लगातार बदलाव और उसमें लगातार कटौती के कारण इन समूहों से आने वाले तमाम नौजवानों में शिक्षित और अर्धशिक्षित बेरोजगारों की संख्या में लगातार बढ़ोत्तरी हुई है. इन स्थितियों ने जहाँ उनके भीतर पुरानी सामाजिक और आर्थिक संरचना से आजादी का भाव पैदा किया है वहीँ इन परिस्थितियों के खिलाफ उनमे प्रतिरोध की भावना को भी जगाया है. इन समूहों का राजनीतिक प्रतिनिधित्व करने का दावा करने वाले राजनीतिक दलों से एक स्तर पर विलगाव भी हुआ है. लेकिन इसके बाद भी व्यापक सामाजिक आन्दोलन के रूप में उनकी आकाँक्षाओं की अभिव्यक्ति हो रही है. इतना ही नहीं वह इतिहास को पुनर्परिभाषित भी करके उससे उर्जा ग्रहण करने की कोशिश कर रहे हैं. महाराष्ट्र की भीमा कोरे गाँव की घटना इसी बात का प्रमाण है. पेशवाई के खिलाफ अपनी जीत का जश्न मनाना इसी का हिस्सा है. लेकिन इतिहास को याद करने का वर्तमान सन्दर्भ भी होता है. जब दलित समाज को यह महसूस हो रहा है कि सामाजिक और राजनीतिक सत्ता में उनकी भागीदारी को शातिराना ढंग से ख़ारिज किया जा रहा है और नए ढंग की पेशवाई लागू की जा रही है तब वे अपने पुरखों के संघर्ष को याद कर रहे हैं, और अपनी आजादी को परिभाषित कर रहे हैं.
पेशवाई संस्कृति की पोषक सत्ता को यह सब नागवार लग रहा है इसीलिए वह इसमें शामिल कार्यकर्ताओं को नक्सली बताकर उनका दमन कर रही है. बहुत दिन नहीं हुआ उत्तर प्रदेश के सहारनपुर में भीम आर्मीको समाजविरोधी संगठन के रूप में प्रचारित कर उससे जुड़ने वाले लोगों का दमन किया गया.
यह जोर देकर कहने लायक है कि ऐसे समय में जब राजनीतिक एक्ध्रुवियता का कोई मुखर राजनीतिक आलोचनात्मक पक्ष बहुत कमजोर है तो ये अपवंचित तबकों से उठने वाली आवाजें ही सही मायने में सत्ता का बुनियादी आलोचनात्मक विपक्ष रचती हैं. एस सी एस टी एक्ट में बदलाव के खिलाफ दलित संगठनों द्वारा 2 अप्रैल को हुएभारत बंद को इसी सन्दर्भ में देखा जाना चाहिए. अपवंचित वर्ग के जिन समूहों ने राजीनीतिक उलट-फेर की क्षमता हासिल कर ली है, उनके कुछ मुद्दों पर सत्ता समर्पण करने का दिखावा भी कर देती है. जबकि जिन समूहों को यह क्षमता हासिल नहीं है वे सत्ता और राजनीतिक दल दोनों ही स्तरों पर अलगाव में डाल दिए जाते हैं. उदहारण के तौर पर आदिवासी, मुस्लमान और महिलाएँ. इन समूहों की स्वतंत्र राजनीतिक अस्मिता का निर्माण अभी इस स्तर का नहीं हुआ है कि ये किसी बड़े राजनीतिक उलट-फेर को अंजाम देने की क्षमता हासिल कर सकें. यही कारण है कि समाज में इनके दमन के खिलाफ व्यापक प्रतिरोध की गोलबंदी भी शिथिल रहती है.
इन दिनों मुसलमानों की गौ कशी के नाम पर ‘भीड़’ द्वारा कई हत्याएं हुई हैं. ऐसे मामलों में अब तक 88 लोगों की जान जा चुकी है. गौरक्षा के नाम पर भारतीय समाज को उत्तेजक भीड़ में तब्दील किया जा रहा है. कुछ लोग इसके लिए भारतीय समाज के बदलते मनोविज्ञान को दोषी मान रहे हैं जिसके पीछे पलायन और बेरोजगारी को प्रमुख मान रहे हैं. लेकिन यह मामला इतना ही भर नहीं है बल्कि एक वर्चस्ववादी राजनीतिक माडल मुसलमानों की ऐसे ब्रांडिंग कर रहा है कि वे ही बाकी लोगों के हक़ हुकुक के हड़पने के जिम्मेदार हैं. इस तरह यह भीड़ कही जाने वाली ‘मोब’ बेहद राजनीतिक है और इसके पीछे सचेत लोग खड़े हैं. तमाम मामलों में इसके सबूत भी आ चुके हैं. आश्चर्यजनक यह है कि मुसलमानों के ऊपर होने वाले इस तरह के दमन के खिलाफ मुसलमानों का कोई संगठित प्रतिरोध भी नहीं दिख रहा है. इसके पीछे कौन सा मोविज्ञान काम कर रहा है.
अपवंचित तबकों में सबसे आसान शिकार महिलाएं हैं. अकादमिक जगत में भले ही महिला विमर्श प्रमुखता हासिल करता हुआ दीखता हो लेकिन राजनीति और सामाजिक स्तर पर महिला विरोधी संस्कृति को अभी भी व्यापक स्वीकृति प्राप्त है. यह अपवंचित समूह अभी राजनीतिक अर्थ में स्वायत्त समूह नहीं बन पाया है. यही कारण है कि यह राजनीतिक उलट-फेर कर पाने की अपनी क्षमता हासिल नहीं कर सका है. इसीलिए जब भी सत्ता की ओर से कोई महिला विरोधी वकतव्य, गतिविधि या नीति आती है तो इसके खिलाफ जिस स्तर का प्रतिरोध होना चाहिए नहीं हो पाता है.
अपवंचित समाज को किसी ऐकिक अस्मिता के रूप में परिभाषित किया भी नहीं जा सकता है. यही वह गैप है जिसका इस्तेमाल करके सत्ता अपवंचित समूहों को विभाजित करती है और अपने हक़ में गोलबंद करती है.उदाहरण के तौर पर राजस्थान का संभुलाल रैगर वाला मामला देखा जा सकता है। विभाजन की राजनीति को अपवंचित तबके की तरफ से संगठित समर्थन का यह पहला मामला है। यहाँ दलित समुदाय को मुसलमानों के खिलाफ खड़ा करने का प्रयास है।
इसके बाद भी भारत में अपवंचित तबका अपने दमन के खिलाफ मुखर होकर बोल रहा है। यह बात भले हो कि उसकी आवाज की अनदेखी की जा रही हो। अपवंचित तबके को ज्ञान के परिक्षेत्रों से भी बेदखल करने की कोशिश लगातार की जा रही है। अभी हाल ही में बिहार के मोतिहारी में एक असिस्टेन्ट प्रोफ़ेसर के ऊपर सिर्फ इसलिए जानलेवा हमला किया गया कि उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी का मूल्यांकन सत्ता की रीति से हटकर कर दिया। वहां के अध्यापक संघ द्वारा जारी बयान से इस बात की पुष्टि होती है कि दरसल यह मामला अपवंचित तबके को अकादमिक क्षेत्र से बेदखल करने के विरोध का परिणाम है। यह घटना अपने आप में कई तरह के संकेत करती है। एकतरफ जहाँ यह मॉब लिंचिंग की प्रविधि को दिखाती है और यह सिद्ध करती है कि इस प्रायोजित हिंसक भीड़ का शिकार केवल मुसलमान नहीं बल्कि हिन्दू भी हो सकता है। इस तरह की घटनाओं से यह भी सन्देश देने की कोशिश की जाती है कि इस देश पर दावा सिर्फ गैरवंचित तबके का है। इस देश की अवधारणा सिर्फ गैरपवंचित से ही परिभाषित होती है। अपवंचित विमर्श के विद्वान् इसकी परिभाषा में भी यही बताते हैं कि जो अभिजन नहीं है वही अपवंचित है। इसी से यह बात भी स्पष्ट हो जाती है कि दरसलदेश को सिर्फ कारपोरेट और अभिजन का देश बनाना है। यह कारपोरेट और अभिजन अपनी सोच में वर्चस्ववादी है। इसके रास्ते में जो भी रोड़ा बनेगा उसे हटा दिया जायेगा। इसीलिए अपवंचितों की सार्वजनिक और सत्ता से बेदखली अभिजनों की विजय यात्रा का अभियान है।
कहा गया कि बोलना आजाद होना है। इसीलिए यदि अपवंचित को आजाद होना है तो बोलना होगा। वह बोल रहा है। बोल सकता है और बोलता रहेगा।
राम नरेश राम
लेखक जनसंस्कृति मंच की दिल्ली इकाई के सचिव हैं।
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