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जया बच्चन: एक वाक्य, एक विस्फोट और विवाह पर युगों का विमर्श

सबलोग

झुर्रियों से भरे चेहरे पर जब भाव खिंचते हैं, तो वे उम्र नहीं—स्वभाव का इतिहास बताते हैं। जया बच्चन जब कैमरा के सामने बैठीं और उनके मुँह से अचानक वह वाक्य निकला, तो मानो हवा में एक अजीब-सी झनझनाहट फैल गई। सोशल मीडिया की स्क्रीन पर वही परिचित चेहरे उभर आए—हँसते, चुटकी लेते, आलोचना करते—जैसे फिल्मी दुनिया का हर फ्रेम अचानक एक कॉमिक स्ट्रिप में बदल गया हो। एक नेता के रूप में, और एक सार्वजनिक चेहरे के रूप में, जया बच्चन आजकल अक्सर ट्रोल्स के निशाने पर रहती हैं—कभी कैमरा एंगर पर, कभी उनके तेवरों पर, और अब इस ताज़ा बयान पर। जिस वाक्य को उन्होंने एक खिंची हुई, थोड़ी अप्राकृतिक हंसी के साथ कहा, वही अब सोशल मीडिया पर तूफ़ान बन चुका है; लोग उसकी बारीकियों, उसके अर्थ, और उसके पीछे छिपी मानसिकता तक को तौल रहे हैं। ऐसा लगता है जैसे एक पल का उच्चारित किया गया शब्द अब एक देशव्यापी बहस का फंदा बन गया हो, जिसमें हर कोई अपनी-अपनी समझ, अपने पूर्वाग्रह और अपनी व्याख्या लेकर कूद पड़ा हो।
—*“नव्या शादी नहीं करेगी… शादी अब आउटडेटेड है… पता नहीं मैं आज की पीढ़ी को समझ भी पाऊँगी या नहीं”—*तो वह शब्द केवल जुबान से नहीं निकले थे, वे उनके अंतरमन की प्रतिध्वनि थे।क्योंकि सच तो यही है—
जो भीतर उबलता है, वही शब्दों का रूप लेकर बाहर छलक जाता है।और जया बच्चन जैसे सख्त, सीधी, और निर्भीक स्वभाव वाले लोग—शब्दों को तौलते नहीं, बस बोल देते हैं।

पर शब्द कोई हल्की चीज़ नहीं होते।वे हवा में उड़कर भी ऊर्जा बनकर टकराते हैं, और फिर उस टकराहट से ही
तालियाँ भी पैदा होती हैं और ट्रोलिंग भी।जया जी के इस बयान ने साबित कर दिया कि शब्दों में चरखा भी है और चक्रवात भी।जो बात उन्होंने सहजता से कह दी,जो एक साधारण-सी पीढ़ी-फर्क वाली टिप्पणी हो सकती थी,
वही पल भर में सुर्खी बन गई,और फिर सुर्खी से ट्रोलिंग का अट्टहास।

मीडिया के सामने बिना सोचे बोलना वैसा हैजैसे भीगे चूल्हे पर सूखा अन्न डाल देना—धुआँ भी उठेगा और खाँसी भी।
जया बच्चन की बेबाकी ने वही किया।
जो दिल में था, उसी क्षण बाहर आ गया—और चर्चा का विषय बन गया कि क्या शादी वाकई आउटडेटेड है
या फिर यह सब एक बुज़ुर्ग अनुभवी स्त्री का क्षणिक मनोभाव था।

वास्तव में शब्द कभी अकेले नहीं निकलते। वे हमेशा किसी न किसी अनुभव के पीछलग्गू होते हैं। जया बच्चन की बेबाकी लंबे समय से लोगों के लिए चर्चा का विषय रही है, लेकिन इस बार उनके शब्दों के पीछे एक अलग प्रकार की धुन थी—थकान भी थी, अनुभव भी, और एक अंतर्निहित स्वीकारोक्ति भी। पांच दशक सफल वैवाहिक जीवन बिताने के बाद एक अनुभव स्त्री का ऐसा कहना विस्मित करता है
वे पाँच दशक, जिनमें एक स्त्री ने अपनी पहचान को कई बार सिला, कई बार उधेडा, कई बार समेटा और कई बार अपनी जगह को पुनः निर्मित किया। यह कहना आसान है कि “विवाह अब आउटडेटेड है”, लेकिन यह कहना पाँच दशक तक विवाह की परंपरा को निभाने की बात हास्यास्पद है।हमारी भारतीय परंपरा में विवाह कोई फ़ैशन नहीं, बल्कि एक ऋतु, एक संस्कार और मानसिक अनुशासन है—दो जनों का नहीं, दो कुलों और दो संस्कृतियों का संगम। इसी गरिमा को समझाने के लिए सनातन धर्म में विवाह कोई निजी अनुबंध नहीं, बल्कि दो परिवारों के बीच एक सांस्कृतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक बंधन है। हमारी परंपरा में विवाह के आठ प्रकार बताए गए हैं। हर प्रकार किसी न किसी युग, किसी न किसी सामाजिक परिस्थिति का दर्पण है। आज की नई पीढ़ी जब लिव-इन को विवाह का विकल्प मानती है, तो यह केवल जीवनशैली का परिवर्तन नहीं, बल्कि परंपरा और आधुनिकता की खींचतान है।

विवाह के जो आठ रूप बताए गए हैं उनमे ब्रह्म विवाह कर्तव्य, संयम और शुचिता का प्रतीक है; तो दैव विवाह यज्ञ और परंपरा की मंगलपूर्ण पूर्णता को दर्शाता है; आर्ष विवाह सादगी और संतोष की पूँजी पर टिका है; प्राजापत्य विवाह समानता और सहमति के आधार पर साझेदारी की शुरुआत कराता है; गंधर्व विवाह प्रेम की स्वाभाविकता को स्वीकार करता है; जबकि असुर विवाह लालच से उपजा अनुचित संबंध है और राक्षस विवाह बलपूर्वक किया गया युद्धकालीन मिलन। सबसे निम्न स्थान पैशाच विवाह को मिलता है, जहाँ स्त्री की सहमति अनुपस्थित होती है और जिसे समाज स्पष्ट रूप से दोषपूर्ण मानता है। इन विविध रूपों में छिपा जीवन-दर्शन यही बताता है कि विवाह मात्र सामाजिक व्यवस्था नहीं, बल्कि मूल्य, अनुशासन, भावनाओं और जिम्मेदारियों का वह तंत्र है जिसकी गरिमा कभी पुरानी नहीं होती।

अमिताभ के साथ जया के 52 वर्ष इसी प्रसंग में वह मीम्स याद आता है,सोशल मीडिया पर फैली वह तस्वीर, आपने भी देखी होंगी जिसमें अमिताभ बच्चन के कंधे पर जया बच्चन इस तरह झुकी बैठी थीं जैसे विक्रम के कंधों पर बैठा सफ़ेद बाल वाला बेताल हो। दृश्य में न कोई हास्य था, न करुणा का पूर्ण रूप, बल्कि एक असहज सत्य। जिसमें एक शांत पुरुष के कंधे पर वैवाहिक जीवन की ढेर सारी जिम्मेदारी और सहनशक्ति थी!
तब जौन एलिया की पंक्ति यहाँ जैसे इस दृश्य के गाल पर आती हुई थपकी देती है—
“हम तो समझे थे कि हम भूल गए उसे, क्या हुआ आज कि फिर याद बहुत आता है।”जया बच्चन के बयान में भी वही पुरानी यादें थीं—अग्निपरीक्षाएँ, समझौते, उलाहने, अपमान, जिम्मेदारियों और सार्वजनिक जीवन का बोझ।
लेकिन प्रश्न यह उठता है—क्या विवाह सचमुच“आउटडेटेड” है?या यह एक अनुभवी स्त्री की अनकही पीड़ा का अचानक फूट पड़ा लावा है?

भारत में विवाह कोई निजी अनुबंध नहीं, बल्कि दो परिवारों के बीच एक सांस्कृतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक बंधन है। हमारी परंपरा में विवाह के आठ प्रकार बताए गए हैं। हर प्रकार किसी न किसी युग, किसी न किसी सामाजिक परिस्थिति का दर्पण है। आज की नई पीढ़ी जब लिव-इन को विवाह का विकल्प मानती है, तो यह केवल जीवनशैली का परिवर्तन नहीं, बल्कि परंपरा और आधुनिकता की खींचतान है।लेकिन जो प्रेम शाश्वत है, जो निष्ठा आदिम है, जो समर्पण जन्मों-जन्मों से चला आ रहा है, वह आज भी प्रासंगिक है। पक्षियों और पशुओं में भी कई प्रजातियाँ आजीवन एक ही साथी के प्रति निष्ठावान रहती हैं और साथी के मृत्यु के बाद जीवन भर विदुर की तरह एकाकी। यह एक प्राकृतिक सत्य है कि स्थिरता और दीर्घकालिक साथ जीवन की सबसे बड़ी सुरक्षा होते हैं।

ऐसे में जया बच्चन का विवाह को आउटडेटेड कहना, स्वयं उनके व्यक्तित्व से एक विरोधाभास प्रस्तुत करता है। पाँच दशक तक एक पुरुष के साथ रहकर, उसके उतार-चढ़ाव, विवादों, सार्वजनिक असहजताओं, और निजी जख्मों के बीच संबंध को ढोते हुए, आज उनकी यह घोषणा—कहीं न कहीं उनके भीतर के असंतोष की प्रतिछाया h

सवाल यह नहीं कि नव्या शादी करेगी या नहीं। सवाल यह भी नहीं कि आने वाली पीढ़ी विवाह को बोझ माने या स्वतंत्रता की राह। सवाल यह है कि एक समाज, जो हजारों वर्षों से विवाह को सामाजिक स्थिरता और संस्कार का आधार मानता आया है, उसमें इतनी बड़ी अनुभवी अभिनेत्री ने यह कथन क्यों दिया?यह कथन कहीं न कहीं उस कुंठा को उजागर करता है जो उन्होंने विवाह में अनुभव किया। अमिताभ बच्चन जैसे व्यक्तित्व के साथ, उनकी ऊँचाई, उनकी लोकप्रियता, उनके विवाद, उनकी छवि—इन सबके साथ जया का जीवन आसान नहीं रहा।
कभी पत्नी,कभी माँ,कभी अभिनेत्री,कभी सार्वजनिक व्यक्तित्व,कभी परंपरा की प्रतीक,और कभी केवल एक स्त्री—इन सब भूमिकाओं को ढोते-ढोते कभी-कभी मन चटक जाता है और शब्द फूट पड़े।

जबकि विवाह केवल निभाने की परंपरा नहीं है, यह मन का संतुलन है।यह सामाजिक दायित्व है पर साथ ही आत्मीयता का भी आधार है।यह केवल दायित्व नहीं, बल्कि धैर्य, सहिष्णुता और संवेदना का प्रशिक्षण है।समाज की जड़ें तब जीवित रहती हैं जब विवाह जैसी संस्थाएँ अपनी गरिमा बनाए रखती हैं।आज की युवा पीढ़ी चाहे जितना कह ले कि विवाह पुरानी चीज़ है, पर सच्चाई यह है कि बिना स्थिर बंधन के न भावनाएँ टिकती हैं, न रिश्ते।

मेरी नज़र में स्वतंत्रता और स्वच्छंदता दो बिल्कुल अलग चीज़ें हैं।जया बच्चन का कथन उनके व्यक्तिगत अनुभव का सत्य हो सकता है, पर यह समाज का सार्वभौमिक सत्य नहीं बन सकता।विवाह आज भी वही है, जैसा हजारों वर्षों से था—बंधन भी, मुक्ति भी, परीक्षा भी, सुरक्षा भी, संघर्ष भी, और प्रेम भी।

और आखिर में—यदि विवाह आउटडेटेड होता, तो पाँच दशक बाद एक स्त्री यह बात मंच पर बैठकर न कहती।
कहती वही है जो भीतर अब भी थका हुआ है।
जिसे अब भी चोट है।जिसे अब भी उम्मीद है कि अगली पीढ़ी शायद कम टूटे, कम झुके, कम समझौते करे।

पर समाधान विवाह को खारिज करना नहीं है।
समाधान है विवाह को बेहतर बनाना, रिश्तों में संवेदना, संवाद और सम्मान लौटाना।क्योंकि अंततः—जिस समाज में विवाह टूट जाते हैं, वहाँ पीढ़ियाँ बिखरती हैं।और जहाँ विवाह टिकते हैं, वहाँ संस्कार पनपते हैं।

विवाह पर जितने प्रश्न उठाए जाते हैं, उतने ही उत्तर हमारे ग्रंथ, हमारी परंपरा और हमारी सामूहिक स्मृति पहले से सँजोए हुए हैं।सार रूप मे यही कहूँगी कि संबंध निभाना केवल संस्कार नहीं—मानसिक अनुशासन, धैर्य और सह-अस्तित्व की तपस्या है। जीवन की हर पीढ़ी अपने अनुभवों से इसे परखती है, पर इसकी आत्मा युगों से अचल है। और अंत में, बात को चबाने से कुछ नहीं होगा—एक वाक्य, एक विस्फोट, और विवाह पर युगों का पूरा विमर्श इस एक आलेख में समाहित हो चुका है।

चलते-चलते :  मुंबई में जहाँ विश्वभर के नामी-गिरामी सितारे पेपराज़ी की उपस्थिति को सहजता, मुस्कान और संवाद का अवसर मानते हैं, वहीं जया बच्चन उन्हें देखते ही अनावश्यक क्रोध और कठोर शब्दों से तपती प्रतीत होती हैं। लगातार फटकार और रूखे व्यवहार से आहत होकर अब पेपराज़ी ने अभूतपूर्व निर्णय लिया है—जया बच्चन का पूर्ण बहिष्कार। किसी भी फोटोग्राफर ने उनकी तस्वीर न लेने की घोषणा की है। यह घटना एक बार फिर उस प्रश्न को तीखे रूप में सामने लाती है कि क्या लोकप्रियता केवल प्रतिभा से नहीं, बल्कि व्यवहार और सार्वजनिक संवाद की मर्यादाओं से भी तय होती है।

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मेनका त्रिपाठी

लेखिका जानी मानी कवयित्री, शिक्षिका और फ़िल्म गीतकार हैं, भाषा विज्ञान में विशेष रूचि रखती हैं. मो.- 9690370638 (menkatriphathi@gmail.com)
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