
इस बात पर खुश और दुखी—दोनों हुआ जा सकता है कि इस बार के बिहार विधानसभा चुनाव में पलायन एक मुद्दा बना। जाति और सम्प्रदाय वाला कार्ड न चलने पर रोजगार और पलायन का कार्ड चलाने की कोशिश हुई। कुछ चुनावी वायदे भी हुए, और सुशासन की तमाम तारीफों के बावजूद राजग और महागठबन्धन—दोनों ने इसे मुद्दा माना। शासन से इसका हिसाब माँगने, इस ‘बीमारी’ के लिए उसे जिम्मेदार ठहराकर सजा देने या सुधार का आदेश देने के बजाय विपक्ष ने इसे वोट बटोरने वाला मुद्दा मानने की भूल की। सत्ता पक्ष बोलता कुछ भी रहा हो, पर उसने रेल–बसों के साथ-साथ विमानों (बड़ी कम्पनियों द्वारा पेड लीव और हवाई टिकट दिलाकर) से प्रवासी बिहारियों को चुनाव के अवसर पर वापस भेजकर वोट डलवाने का अभियान चलाया। यह अलग बात है कि कई लोगों ने दो-दो जगह वोट डालकर सोशल मीडिया पर उसे दिखाने की गलती कर दी। उधर हरियाणा भाजपा के लोग गरीब बिहारी मजदूरों को छठ पर घर भेजने और मताधिकार के प्रयोग में मदद के नाम पर ट्रेनें बुक कर उन्हें बिहार भेजने की बात कबूलते दिखे। कई हजार बसों में भी लोग आये।
नीतीश सरकार के शुरुआती दौर में दावा किया गया था कि सुशासन के कारण मजदूरों का पलायन रुका ही नहीं है, बल्कि उनकी घर-वापसी का दौर शुरू हो गया है। अब ऐसे दावे नहीं होते, लेकिन पलायन बढ़ने की बात भी स्वीकार नहीं की जाती। अन्तरराज्यीय प्रवासी मजदूर कानून में बाहर जाने वाले मजदूरों के पंजीकरण की शर्त है, पर इसके बावजूद बिहार ही नहीं, केन्द्र सरकार के पास भी यह आँकड़ा नहीं है कि राज्य से कितने मजदूर बाहर जाते हैं। पूरा कानून लागू कराने की बात तो अधिकारी और सरकार भूल ही गये। किसी अकादमिक संस्था या अकेले अध्येता के लिए इस संख्या को जुटाना असम्भव ही है। इस बार की चर्चा का सार यही निकला कि कुछ मीडिया संस्थान सचेत हुए और चुनाव के बाद के पखवाड़े में लगभग 75 लाख बिहारी लोगों के बाहर जाने का आँकड़ा सामने आया—सम्भवतः सामान्य रेल, स्पेशल ट्रेनों और बसों की बुकिंग के आधार पर। इसी आधार पर यह दावा भी सही प्रतीत होता है कि बिहार से कुल पलायन ढाई से तीन करोड़ के बीच है। अधिकांश पलायन ‘पुश फैक्टर’ की वजह से होता है—‘पुल फैक्टर’ भी बना हुआ है, लेकिन चिन्ता का असली कारण पुश फैक्टर ही है। घर पर कमाने, परिवार चलाने और जीवन निर्वाह तक की स्थिति न होने पर मजदूर बाहर जाते हैं; यह मजबूरी तो दिखाता ही है, साथ ही उनके ‘देस’ की बदहाली भी दिखाता है, जो उनसे काम करवा पाने या ‘शोषण’ करने की स्थिति में भी नहीं है। पलायन पिछड़ेपन की अन्तिम अवस्था है—जब प्राकृतिक संसाधन नष्ट हों, उद्योग अविकसित हों, पूँजी बाहर भाग जाए, और सेवा क्षेत्र भी काम देने की हालत में न हो। इसे रोकना लम्बा और कष्टसाध्य कार्य है। पलायन करने वाला मजदूर वर्गचेतना से रहित होने के कारण सर्वहारा भी नहीं माना जाता। उसकी पहली और अन्तिम चिन्ता अपने व परिवार की जान बचाना होती है; वह लाल झण्डा देखकर डरता है।
पिछले तीन दशकों से बिहार के पलायन पर गम्भीर नजर रखने वाले अध्येता अलख नारायण शर्मा और उनकी संस्था ‘इंस्टीट्यूट ऑफ ह्यूमन डेवलपमेंट’ का निष्कर्ष है कि 1999-00 में पलायन वाले परिवारों का अनुपात जहाँ 36 फीसदी था, वह 2017 में बढ़कर 65 फीसदी हो गया। इस अवधि में पलायन के चरित्र में भी बड़ा बदलाव आया। पहले कम अवधि का पलायन होता था, अब आठ माह या उससे ज्यादा अवधि के लिए होता है। छोटी अवधि वाले पलायन का अनुपात 1998-99 में 72 फीसदी था जो 2017 में घटकर 20 फीसदी रह गया। अध्ययन यह भी बताता है कि अधिकांश प्रवासी मजदूर साल में औसतन 48 हजार रुपये घर भेजते हैं—जो उनके परिवारों ही नहीं, बल्कि बिहार की अर्थव्यवस्था का भी बड़ा सहारा बन चुका है। कोई औद्योगिक घराना हजारों करोड़ लेकर आता, तो राज्य सरकार उसके आगे बिछ जाती (इस सरकार ने अदानी समूह को एक रुपये में हजारों एकड़ जमीन दे दी)। लेकिन मजदूर पैसे भेजने, घर लौटने और थोड़ा बहुत निवेश (आमतौर पर एक–दो कट्ठा जमीन खरीदने) में कैसी-कैसी परेशानियों से गुजरते हैं—इस पर उपन्यास लिखा जा सकता है। अध्ययन यह भी दर्ज करता है कि प्रवासियों में महिलाओं का अनुपात मात्र पाँच फीसदी है—जिसका अर्थ है कि बोझ, विरह और घरेलू जिम्मेदारियाँ लगभग पूरी तरह महिलाओं पर बढ़ जाती हैं। पुरुषों के पलायन से बूढ़ों, बच्चों, खेती और पशुओं की देखरेख का भार भी उन्हीं पर आता है।
इस लेखक ने अपनी पत्रकारिता के गम्भीर हिस्से के रूप में तीस साल पहले पंजाब गये बिहारी मजदूरों पर अध्ययन किया था—हिन्दी ही नहीं, अँग्रेजी में भी तब कोई किताब उपलब्ध नहीं थी। भाई अनुपम मिश्र ने जब पलायन पर काम करने वाले एक एनजीओ को इसका हवाला दिया तो उन्होंने इस अध्ययन को नये रूप में करने का प्रस्ताव दिया। बीस साल बाद उन्हीं जगहों पर जाकर स्थिति दोबारा देखी और अध्ययन को नया रूप दिया। पहली किताब प्रवासी मजदूरों की पीड़ा ‘राधाकृष्ण प्रकाशन’ से छपी। वरिष्ठ साथी अशोक सेकसरिया का कहना था कि शीर्षक कुछ अबूझ है, इसलिए किताब चर्चा में कम आयी। उनके न रहने के बाद जब नये संस्करण की तैयारी हुई तो शीर्षक बदलकर ‘बिहारी मजदूरों की पीड़ा’ कर दिया गया। 1994 में लालू सरकार थी और 2019-20 में नीतीश सरकार—यह तुलना भी दिलचस्प है। इस सन्दर्भ में एक निजी प्रसंग उल्लेखनीय है। एक टीवी चर्चा में लालू जी और प्रभाष जोशी भी थे। मेरी बातों का लालू जी ने खण्डन किया। विस्तार सम्भव न था, तो प्रभाष जी ने पटना में सेमिनार का प्रस्ताव दिया।
हम सब पटना पहुँचे। नीतीश जी को छोड़कर लगभग सभी बड़े नेता—लालू, सुशील मोदी, जगदाजी आदि—मौजूद थे। योगेंद्र यादव और मैंने एक परचा लिखा, जिसे ‘प्रभात खबर’ ने पूरे पन्ने में छापा। योगेंद्र के न आने पर श्रीकांत ने इसे पढ़ा। अन्त में लालू जी ने बोलते हुए दिनभर की लगभग सारी बातों को नकार दिया और कहा कि धर्म प्रचारक श्रीलंका जाएँ या बिहारी फिजी–मारीशस, यात्रा से ही बिहार का विकास होगा। फिर उन्होंने ‘पाटलिपुत्र इज ऑन मार्च’ का उद्घोष किया—जो सुर्खी बना। नये संस्करण का विमोचन भी पटना में नीतीश जी के हाथों हुआ। वहाँ ‘आद्री’ के सैबाल गुप्ता, मनोज झा, संजय पासवान भी थे। मैंने कहा कि नीतीश शासन की शुरुआत में पलायन कुछ मद्धिम पड़ा था, लेकिन अब फिर बढ़ने लगा है। यह बात नीतीश जी को अप्रिय लगी और उन्होंने भाई श्रीकांत का नाम लेकर काफी कुछ कहा। अन्त में उनका भी उद्घोष था—“अब तो बिहारी दिल्ली की गद्दी पर बैठेगा”—और यह पंक्ति अगले दिन की लीड बनी।
यह पूरा प्रसंग इसलिए कि पलायन के सवाल पर पिछले 35 वर्षों में बिहार की सत्ता के नजरिए में कोई बदलाव नहीं आया है। जिन कॉंग्रेसी सरकारों को आज सब कोसते हैं, उसी दौर में अन्तरराज्यीय प्रवासी मजदूर कानून बना और आयोग गठित हुआ—भले ही उसे कर्मकाण्ड कहा जाए। लालू राज तक में इस कानून के तहत एक लाख मजदूरों का पंजीकरण हुआ। आज यह सब भुला दिया गया है। आज बाहर गये मजदूरों को चुनाव में पटाकर लाने की जो तत्परता दिखती है, वह कई गुना बढ़ जाएगी यदि मजदूरों की सही संख्या और वे कितनी रकम भेजते हैं, इसका सही आकलन कर लिया जाए। तब यह भी सम्भव है कि उनके सघन प्रवासी क्षेत्रों में सहायता केन्द्र चलें—बीमार, घायल या शोषित मजदूरों की मदद, सुरक्षित आवाजाही की सुविधा, और गाँव में परिवार के समर्थन के निर्देश—थाना–ब्लॉक स्तर तक। इससे बड़ा फर्क पड़ सकता है।
चुनाव में यह सवाल उठा—यह खुशी की बात है, और अपने तीस साल पुराने शोध के बाद भी उठने पर मैं विशेष प्रसन्न हूँ। दुख यह है कि मजदूरों की सही संख्या, आय, कमाई और परिवार की स्थिति पर कोई विश्वसनीय आँकड़ा उपलब्ध नहीं। नेताओं को कानून का ज्ञान नहीं, अधिकारी उसका पालन नहीं करते। किसी को भी इस दिशा में ध्यान देने की जरूरत नहीं लगती। दिल्ली आज बिहारियों का दूसरा सबसे बड़ा शहर है—अब इतने बिहारी पटना छोड़कर कहीं और नहीं रहते। बिहार चुनाव में मनोज तिवारी को ‘टपका’ देने और बिहार चुनाव में रेल–बस उपलब्ध कराने से भाजपा का कर्मकाण्ड पूरा होता है। उधर बिहार की महिलाओं के सारे दुख-दर्द को दस हजार रुपये में भुलवाना ‘मास्टरस्ट्रोक’ बन जाता है—लेकिन राजद और महागठबन्धन को इसका भी होश नहीं रहता। सचमुच यह दुखी होने की बात तो है ही।










