स्त्रीकाल

नारी स्वतंत्रता और ‘छिन्नमस्ता’

 

भारतीय समाज में अधिकांश स्त्रियाँ अपने व्यक्तिगत स्तर पर जिस दमन एवं शोषण को भोग रही हैं उसे अनदेखा नहीं किया जा सकता। समाज के निर्माण में स्त्री और पुरुष दो परस्पर पूरक तत्व हैं, फिर समाज के संचालन में एक की सक्रियता और दूसरे की बाध्यता क्यों? यही वास्तव में मानव को कुंठित कर देती है। धर्मशास्त्र भी स्त्री की अधीनता को सही मानता है । उसकी नियति ही ऐसी है कि उसे सदा किसी की अधीनता स्वीकार करनी ही है। कुमारावस्था में पिता, युवावस्था में पति तथा बुढ़ापे में पुत्र ही स्त्री की रक्षा करता है। यानि किसी भी सूरत में स्त्री स्वतंत्र नहीं है। क्या सचमुच स्त्री जीवन पुरुष की अधीनता को स्वीकार कर सार्थक हो जाता है? क्या वह अधीनता को स्वीकार कर खुश है? अगर गुलाम रहकर भी स्त्री सुखी रह पाती तो शायद आज का महिला लेखन इतनी तीव्रता और आक्रोश के साथ उभर कर नहीं आता। जब स्त्री स्वतंत्र होगी तब ही वह पुरुषों की तरह अपना निर्णय स्वयं ले सकेगी।

स्त्रियों की भूमिका या उपयोगिता कामेच्छा की पूर्ति, संतानोत्पति, पति और परिवार के अन्य सदस्यों की सेवा तथा घरेलू कार्य तक ही सीमित रही। नारी की दशा एवं स्थिति में सुधार के लिए अनेक कानून बनाए गए किन्तु व्यवहारिक तौर पर वह फाइलों में ही बंद रहे। इससे अधिक विडंबना और क्या हो सकती है कि आज भी बालिका शिशु की हत्या, बलात्कार और एसिड अटैक आदि घटनाएँ अखबार की सुर्खियों में छायी रहती है।

वैज्ञानिक युग में प्रवेश पाकर जहाँ हम इतना आगे बढ़े, वहीं बालिका शिशु या भ्रूण हत्या का मामला हमारी पिछड़ी मानसिकता की ओर ही संकेत करता है, जिसे सिर्फ इसलिए नष्ट किया जाता है कि वह एक बालिका है। सती-प्रथा, दहेज प्रथा, भ्रूण हत्या सभी तो कानूनी तौर पर अपराध हैं किन्तु आज भी ये पूरी तरह से बंद नहीं हो पाए है। स्त्रियों के संवैधानिक अधिकारों एवं रूढ़िगत  सामाजिक अधिकारों में जमीन-आसमान का फर्क है। घर, परिवार, रिश्तेदार, धर्म, परंपरा के नाम पर स्त्रियों का दायरा सीमित किया जाता है, जिससे न तो वे अपने व्यक्तित्व का पूर्ण विकास कर पाती हैं और न ही समाज को अपना पूरा योगदान दे पाती हैं।

सामाजिक गतिविधियों में हस्तक्षेप करने वाली ‘बवंडर’ फिल्म की नायिका का जो हस्र हुआ उसे भूल पाना शायद नामुमकिन है। राजस्थान की सातवीं घटना पर आधारित यह फिल्म नारी की स्थिति को स्पष्ट कराती है। वस्तुत इन्हीं हस्र को देखते हुए कुछ युवतियां सहम कर समझौता कर लेती हैं और कुछ समझौता करने को मजबूर कर दी जाती हैं। औरत जैविक स्तर पर कमजोर होती है इसे माना जा सकता है किन्तु क्या जैविक स्तर पर कमजोर आदमी की अपनी कोई पहचान नहीं होती? क्या वह व्यक्ति सामान्य तौर पर इस तरह कि थोपी गई अधीनता, रश्मो-रिवाज को अपने लिए स्वीकार करता है? शायद नहीं। ऐसा क्यों? शायद इसलिए कि वह खुद को मानसिक स्तर पर श्रेष्ठ समझता है। औरतों को मानसिक रूप से कमजोर बनाया जाता है। यही वजह है कि उसे विभिन्न प्रकार के सामाजिक बंधनों में बाँधा जाता है।

प्रभा खेतान द्वारा लिखित ‘छिन्नमस्ता’ उपन्यास में नायिका प्रिया को इन्हीं सामाजिक बंधनों में बाँधकर कमजोर बनाने की प्रवृत्ति नरेंद्र के कथन में मिलती है, जब वह प्रिया से कहता है कि यह मत भूलो कि तुम विवाहिता हो, एक बच्चे की माँ हो-“ तुम्हारा दिमाग खराब हुआ है! तुम गुप्ता हाउस की बेटी नहीं, अग्रवाल हाउस की बहू हो!”1

जिस देश में इंदिरा गांधी, मीरा कुमार, प्रतिभा पाटिल, सुषमा स्वराज, कल्पना चावला, अरुणिमा सिन्हा जैसी महिलायें पैदा होती है और विश्व पटल पर भारत देश की प्रतिष्ठा में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका दर्ज कराती है, उसी देश में एक पढ़ी-लिखी स्त्री और ‘छिन्नमस्ता’ की नायिका प्रिया के पति नरेंद्र के द्वारा प्रिया के व्यक्तित्व की पहचान एक ‘विवाहिता’ और ‘अग्रवाल हाउस की बहु’ के रूप में कराते हुए उसे अपने नियंत्रण में लेने की कोशिश करना निःसंदेह सोचनीय है। लेखिका अमृता प्रीतम से अपनी बातचीत के दौरान श्रीमति इंदिरा गांधी ने कहा था – “औरत मर्द के फर्क में न पड़कर मैंने अपने आप को हमेशा इंसान सोचा है। शुरू से जानती थी, मैं हर चीज़ के काबिल हूँ। कोई समस्या हो, मर्दों से ज़्यादा अच्छी तरह सुलझा सकती हूँ, सिवाय इसके कि ज़िस्मानी तौर पर वजन नहीं उठा सकती, और हर बात में हर तरह काबिल हूँ। “2

भारत में नारी की स्थिति विरोधाभाष पूर्ण रही है। परंपरा से नारी को शक्ति का रूप माना गया है, किन्तु आम बोल चाल में उसे अबला कहा जाता है। शायद इन्हीं विरोधाभाष पूर्ण स्थिति को देखते हुए आज की महिला लेखिकाओं का मूल विषय अपने स्वतंत्र अस्तित्व के लिए संघर्ष करती हुई स्त्री है। परंपरागत धारणाओं, संस्कारों एवं नयी मानसिकता के दंद्व में पिसती हुई (मध्यवर्गीय नारी) किस प्रकार झूठे संस्कारों, मान मर्यादाओं, तथा परंपरागत मूल्यों और आदर्शों में जकड़ दी गयी हैं, इन्हें दिखाने की कोशिश समकालीन महिला लेखिकाओं ने की है। यदि इन्हें इस जकड़न से आजाद होना है तो बहुत अधिक संघर्ष का सामना करना होगा। इस प्रकार ‘नारी’ का एक ऐसा वर्ग भी आया है जो पुरुष सत्ता द्वारा अपने हितों में बनाए गए मूल्यों और आदर्शों को तोड़कर अपने अधिकारों के प्रति सजग हो चुका है। यह सजगता और पुरुष वर्चस्व से मुक्ति की कामना ही है कि आज का पुरुष इसे पहले की अपेक्षा ज्यादा अविश्वास की दृष्टि से देखता है।

प्रभा खेतान ने ‘छिन्नमस्ता’ उपन्यास के माध्यम से स्त्री की इस सजगता तथा मुक्ति की कामना को कारगर रूप प्रदान करने वाली प्रिया को समाज के सामने लाने की कोशिश की है। जिस समाज में लड़की की कोई पहचान न थी, उसी समाज में प्रिया एक चमड़ा व्यवसायी के रूप में अपनी पहचान बनाती है। सामाजिक व्यवस्था में बँधकर उसे अपने कलंकित होने तथा जकड़ दिए जाने का एहसास बचपन से लेकर वैवाहिक जीवन में प्रवेश पाने तक होता है और तब उसे लगता है कि इसका विरोध बहुत जरूरी है।

स्वतंत्रता दी नहीं जाती, ली जाती है। उसके लिए संघर्ष करना पड़ता है, अनवरत संघर्ष। यह बात प्रिया के ऊपर पूरी तरह से लागू होती है। सवाल यह है कि नारी स्वतंत्रता का अभिप्राय क्या है? इस संबंध में जो सामान्य धारणा हमारे सामने आयी- वह यह है कि नारी का आर्थिक रूप से स्वतंत्र होना तथा हर प्रकार के सामाजिक बंधनों से मुक्त होकर अपनी अलग पहचान बनाना ही नारी स्वतंत्रता है। यह बात सही भी है पर इसमें एक और बात जोड़ना मुझे ज्यादा जरूरी लग रहा है और, वो यह कि नारी को अपनी आँखें खोलनी होंगी, उसे मजबूत बनना होगा। जागते रहने पर भी यदि आँखें बंद हैं तो दुनियाँ अंधेरी ही दिखती है। उजाले की खुशियों का एहसास तो तब होगा जब वह अपनी आँखें खोल कर दुनियाँ को देखेंगी।

स्त्री की सबसे बड़ी इच्छा अपने आप को स्वतंत्र व्यक्ति के रूप में प्रतिष्ठित करना है। प्रसिद्ध महिला लेखिका मैत्रेयी पुष्पा ने कहा कि “हम न तो देवी हैं, न ही राक्षसी, न साध्वी न कुलटा, हम जो भी हैं, उसी रूप में देखा जाए। पुरुष के नजरिए से नहीं बल्कि मनुष्य के नजरिए से।”3 

‘छिन्नमस्ता’ की नायिका प्रिया ने भारतीय नारी की बनी-बनाई अवधारणाओं एवं मान्यताओं को तोड़ा है तथा परंपरागत विसंगतियों एवं विडंबनाओं से बाहर निकलने का प्रयास किया है। सोने के पिंजड़े में गुलाम बने रहने की नियति को प्रिया ने अपना भाग्य नहीं समझा। प्रिया का विद्रोह समाज को एक नई दिशा प्रदान करने वाला है। पुरातनपंथी मान मर्यादाओं एवं तथाकथित परंपराओं तथा रूढ़ियों के जकड़बंध होने से बाहर निकलने के लिए प्रिया द्वारा किए गए विद्रोह को अरविंद जैन की कलम बर्दाश्त न कर सकी और वे लिख पड़े कि ऐसा कोई विद्रोह तो उपन्यास में दिखाई नहीं देता। सवाल यह है कि अरविंद जैन कैसा विद्रोह चाहते हैं। नारी शोषण के लिए पुरुषों का हथियार ‘अर्थ’ और ‘सेक्स’ को ही माना जाता है।

सदियों से जिस क्षेत्र पर पुरुषों ने अपना एकक्षत्र कब्जा कर रखा है, उसमें अपना स्थान बना पाना क्या किसी विद्रोह अथवा क्रांति से कम है? इतने बड़े परिवर्तन की स्वस्थ शुरुआत मानने में पुरुष वर्ग को अभी समय लगेगा। पुरुष कैसा भी संत क्यों न हो, उसका मानस स्त्री को आगे बढ़ता देखकर तिलमिला उठता है। शायद यही वजह थी कि लंदन जा रही प्रिया को तलाक की धमकी देते हुए पति नरेंद्र ने कहा था – “क्या यह अच्छा नहीं होगा कि उसके पहले तुम्हारी कबूतर सी गर्दन मरोड़ दी जाए?”4

आखिर यह अधिकार नरेंद्र को किसने दिया? क्या वजह थी कि नरेंद्र इतना कुछ प्रिया को कह सका? मेरे ख्याल से इस स्थिति की वजह स्त्री के द्वारा गलत को भी स्वीकार कर लेने की विवशता ही है। नरेंद्र के ऐसे अहम से भरे वाक्य सुनकर प्रिया ने उसे जालिम कहा। इस पर नरेंद्र का कहना था कि मैं जालिम हूँ या तुम?तुम बड़ी मासूम? वह प्रिया को परले सिरे की धूर्त्त मानता हुआ कहता है कि अपनी धूर्तता के वजह से ही तो तुम इतना बड़ा व्यापार खड़ा कर ली हो। यानि आज अगर वह सफल है, उसकी अपनी पहचान है तो वह धूर्त हो गयी। सच्चाई का सामना करने की हिम्मत नहीं है नरेंद्र और उस जैसे पुरुषों में यही वजह है कि वह अपने आपको हमेशा श्रेष्ठ साबित करने की कोशिश करते हुए कहता है कि यह मत भूलो कि मैं पुरुष हूँ, इस घर का कर्त्ता, यहाँ मेरी चलेगी, हाँ सिर्फ मेरी।

‘छिन्नमस्ता’ की नायिका प्रिया तमाम विवशता को धकियाते हुए आगे बढ़ती है। सदियों से स्त्री के लिए जो एक नैतिक मानदंड कर दिए गए हैं, प्रिया का व्यक्तित्व उन मानदंडों को छिन्न-भिन्न कर देता है। प्रिया उन मानदंडों को तोड़कर निजी एवं स्वतंत्र व्यक्तित्व की स्वामिनी बनती है। यह उपन्यास की सार्थकता एवं लेखिका की सफलता है।

महादेवी वर्मा ने ‘श्रृंखला की कड़ियाँ’ में लिखा है कि “भारतीय नारी जिस दिन अपने संपूर्ण प्राणप्रवेग से जाग सके उस दिन उसकी गति रोकना किसी के लिए संभव नहीं। उसके अधिकारों के संबंध में यह सत्य है कि वे भिक्षावृत्ति से न मिली हैं, न मिलेगी, क्योंकि उसकी स्थिति आदान-प्रदान योग्य वस्तुओं से भिन्न है।”5

प्रभा खेतान कहीं भी अपने तथ्य से भटकी नहीं हैं । परंपरा में लिपटी स्त्री पराधीनता के खिलाफ प्रिया का संपूर्ण व्यक्तित्व खड़ा है। उपन्यास में प्रिया ही नारी शोषण से मुक्ति की सार्थक पहचान है। स्त्री और पुरुष दोनों ही समाज के संचालक हैं। एक के द्वारा दूसरे का शोषण या एक को महत्वपूर्ण समझना और दूसरे को महत्वहीन मानना सर्वथा अनुचित है। समाज, राष्ट्र और विश्व के कल्याण के लिए इन असमानताओं को दूर करना ही होगा, अपनी मानसिकता विकसित करनी ही पड़ेगी एक स्वस्थ समाज के निर्माण में दोनों की भूमिका समान है, इसे समझते हुए विवेकानंद ने कहा था-

“There is no chance for the welfare of the world unless the condition of women is improved. It is not possible for a bird to fly on only one wing.”

संदर्भ सूची :

(1) खेतान प्रभा – छिन्नमस्ता, 1997, राज कमल पुब्लिकेशन्स; पृष्ठ संख्या:156

(2) प्रीतम अमृता – रशीदी टिकट, 2021 संस्करण, किताब घर पुब्लिकेशन्स; पृष्ठ संख्या: 116

(3) कुमारी पूनम – स्त्री चेतना और मीरा का काव्य, 2009, अनामिका पुब्लिकेशन्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स; पृष्ठ संख्या: 60

(4) खेतान प्रभा – छिन्नमस्ता, 1997, राज कमल पुब्लिकेशन्स; पृष्ठ संख्या:176

(5) वर्मा महादेवी – श्रृंखला की कड़ियाँ (अपनी बात), 2004, लोक भारती प्रकाशन; पृष्ठ संख्या:

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सरिता सिन्हा

लेखिका जगत नारायण लाल कॉलेज, खगौल, पटना में असिस्टेंट प्रोफेसर (हिन्दी) हैं। सम्पर्क saritasinhadec20@gmail.com
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