राजनीति

देश सचमुच बदल गया है – अजय वर्मा

 

  • अजय वर्मा

                                               

एक बार फिर प्रधानमन्त्री चुने जाने के बाद मोदी जी ने सेंट्रल हॉल में जो भाषण दिया, उसमें उन्होंने बड़ी महत्वपूर्ण बात कही कि इस चुनाव में कोई विपक्ष नहीं था, मोदी ही मोदी से लड़ रहा था। यह सत्य है। कम्युनिस्ट पार्टियों को छोड़ दें (जो अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है) तो पूरा विपक्ष मोदी जी के ही वैचारिक हथियारों से मोदी जी से लड़ रहा था, जनेऊ दिखाना, मंदिर-मंदिर जाना। यह लड़ाई उग्र हिन्दूत्व और सॉफ्ट हिन्दूत्व की भी नहीं रही, कम हिन्दू और ज्यादा हिन्दू की बन गयी और यह बिलकुल अहमकाना सोच थी कि जब हिन्दूत्व की बात होगी तो मोदी जी को छोड़कर लोग राहुल गाँधी को ज्यादा हिन्दू मान लेंगे। जो तार्किक वोटर थे, उनके लिए भी यह एक बड़ा राजनीतिक कन्फ्यूजन बन गया कि कांग्रेस की जो भी जीर्ण-शीर्ण विचारधारा रह गयी है, वह कहाँ गायब हो गयी। मोदी जी जनता को यह बताने में कामयाब रहे कि विपक्ष का उद्देश्य सिर्फ चुनाव जीतना है जबकि वे इस देश में ऐतिहासिक क्रान्ति करने आये हैं। इसके उलट विपक्ष में हर आदमी अपने पार्टी दफ्तर में बैठकर प्रधानमन्त्री बनने की योजना बनाता रहा, बजाय इसके कि एक नेता के तौर पर इनकी छवि क्या है। विपक्ष पुलवामा अटैक को सरकार की नाकामयाबी का विमर्श नहीं बना सका और  उसकी प्रतिक्रिया में बालाकोट में हुए सर्जिकल स्ट्राइक पर सवाल उठाने में व्यस्त हो गया और मोदी जी ने पुलवामा अटैक से उपजे सवालों को सर्जिकल स्ट्राइक होने या न होने की बहस में उलझा दिया और जनता के बीच प्रचारित करने में सफल हो गए कि इस पर प्रश्न उठाने वाले सेना पर संदेह कर रहे हैं और सेना पर संदेह करने का अर्थ है पाकिस्तान में आतंकियों के मारे जाने से विपक्ष दुखी है, क्योंकि वह पाकिस्तानी आतंकवादियों  का समर्थक है, अमित शाह चुनावी सभाओं में जाकर चीख – चीख कर इशारों में राहुल गाँधी के बारे में कहने लगे कि वे ऐसे रो रहे हैं जैसे उनका भाई मर गया है। यह एक विचित्र नैरेटिव था कि सेना के एक्शन का श्रेय तो मोदी जी खुद ले रहे थे, बादलों में राडार के नहीं काम करने के अपने अजीबोगरीब ज्ञान पर प्रसन्न हो रहे थे मगर सवाल उठाने को सेना पर सवाल उठाना कह रहे थे और इस देश की जनता ने मान लिया। जनता यह मानने के लिए पहले से तैयार थी, विपक्ष शब्दों की इस कीमियागिरी में उलझ गया और जनता को नहीं समझा सका कि सर्जिकल स्ट्राइक और उस पर उठे सवालों को लेकर मोदी जी के विरोधाभाषी पैंतरे को जनता तक कैसे पहुँचाया जाय। नतीजा यह हुआ कि पुलवामा अटैक से जो सवाल सरकार पर उठने चाहिए थे वे बिलकुल गौण हो गया और पूरा देश उसकी प्रतिक्रिया में की गयी कार्रवाई को लेकर जोश में भर उठा मानो जवानों की शहादत राष्ट्रवाद के विमर्श का जरुरी हिस्सा नहीं है, जरुरी यह है कि उसके बदले में कितने पाकिस्तानी आतंकी मारे गए। पूरे चुनाव में जनता को यही याद रहा, पुलवामा अटैक को लोग भूल गए, यह भी भूल गए कि अटैक हुआ तो मोदी जी शूटिंग में व्यस्त थे और सरकार की ओर से लचर तर्क दिया गया था कि नेटवर्क की खराबी के कारण उन्हें खबर नहीं दी जा सकी।

   खैर, विपक्ष नकारा साबित हुआ और बुरी तरह हारा, मगर मोदी जी को जो इतनी भारी जीत मिली, इसके पीछे के कारणों की पड़ताल अब होनी चाहिए। विपक्ष का यह कहना कि ईवीएम में गड़बड़ी करके ऐसा बहुमत हासिल हुआ, सत्य से, अपनी काहिली और अहमन्यता से मुँह चुराना है और विपक्ष की यही सुविधाभोगी दलीलें इस चुनाव में उसकी दुर्दशा के कारण हैं। और भी कारण हैं, जैसे उनके बीच एकता का अभाव, पीएम पद के कई इच्छाधारी जीवों का बिलबिलाना, आदि-आदि। मगर ये कारण न होते तो क्या विपक्ष जीत हासिल कर लेता? मुझे नहीं लगता। मेरी समझ में मोदी जी की जीत के बुनियादी कारण हैं फर्जी राष्ट्रवाद और पाकिस्तान-चीन से खतरे का छद्म भय रचना और राष्ट्रवाद का पूरा विमर्श इसी पर केन्द्रित हो गया। ऐसा माहौल बना जैसे देश पर विदेशी हमले हो गए हैं या किसी अमूर्त विदेशी शासन से मुक्ति-युद्ध चल रहा है। इसमें मीडिया, चुनाव आयोग और कारपोरेट पूँजी ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। मीडिया ने मोदी जी को सुपरमैन की तरह फ़ैन्टेसाइज किया और जनता की आँखों में यही छवि बार-बार दिखाकर अयथार्थ को यथार्थ के रूप में प्रस्तुत किया, गढ़े गए फर्जी नारों को लोगों के कानों में इस तरह पिघले सीसे की तरह भरा गया  कि लोग और कुछ भी सुनने के लायक ही नहीं रहे। सवाल उठने चाहिए कि ये कौन लोग हैं, कौन सी पीढ़ी है?

यह वह पीढ़ी है जिसका जन्म, शारीरिक और मानसिक विकास उस दौर में हुआ जब बाबरी मस्जिद तोड़कर एक फर्जी हिन्दू शौर्य का वातावरण बनाया गया, घर – घर  में ” गर्व से कहो, हम हिन्दू हैं”, “इतिहास का बदला ले लिया, यह तो सिर्फ झांकी है, मथुरा-काशी बाकी है” के नारे गूंज रहे थे। पूरे देश में एक ऐसा वातावरण बना कि अब जाकर हिन्दू जागा है। इसे बाकायदा आन्दोलन का रूप दिया गया, इसकी तुलना में अगर 1974 के छात्र आन्दोलन को देखें तो उसकी कोई विरासत इस आन्दोलन में नहीं दिखलाई देती। उस समय जो हम जैसे युवा थे उनके सामने मुद्दे भिन्न थे, न तो हिन्दू शौर्य की बात थी, न हिन्दूत्व खतरे में दिखाई पड़ा था और न चार-पाँच सौ साल पहले के इतिहास का बदला लेने का उत्साह था। उस पीढ़ी का आन्दोलन आगे देखने के लिए था, (परिणाम क्या हुआ इस पर अलग से चर्चा की जरूरत है) इस पीढ़ी का उन्माद पीछे जाने के लिए है। यह मुसलमानों को लेकर ऐतिहासिक घृणा से भरी पीढ़ी है जो मानसिक रूप से हजार साल पहले के धर्मयुद्ध के उन्माद से भरी, फुफकारती, हिंसक और गालीबाज पीढ़ी है, जींस पहनकर गले में भगवा गमछा लपेटते ही हजार साल पीछे चली जाती है जिसे हिन्दी साहित्य का वीरगाथा काल कहा गया है। इनके कानों में तलवारों की झंकारें और इतिहास के प्रेतों की किलकारियां गूंजने लगती हैं। बड़ी चालाकी से देशभक्ति को अतीत के महाख्यानों में पारिभाषित कर दिया गया। इस पीढ़ी का उदय बाबरी विध्वंस के साथ हुआ और मानसिक निर्मिति गोधरा-गुजरात के दंगे के दौरान। यही वह पीढ़ी है जिसने सबसे आगे बढ़कर पहले भाजपा को, फिर मोदी जी को राष्ट्रवाद का एकमात्र प्रतीक मान लिया। इसके दिमाग में दलाल मीडिया,  भाजपा के आई टी सेल और प्रचार के अन्य तंत्रों ने कूट-कूट कर भर दिया है कि अगर मोदी जी पी एम नहीं बने तो पाकिस्तान, चीन देश पर कब्ज़ा कर लेंगे और यहाँ के मुसलमान हिन्दुओं पर हावी हो जायेंगे। स्वयं मोदी जी ने अपने भाषणों के द्वारा इसी फैंटेसी को यथार्थ के रूप में स्थापित किया। उन्होंने एक लोकतान्त्रिक देश का पी एम होते हुए पूरे विपक्ष को पाकिस्तानी करार दिया और गोएबल्स की राह पर चलते हुए स्थापित कर दिया कि एक झूठ को कैसे बार-बार बोलकर सच बनाया जाय। उदार, वामपंथी और वैज्ञानिक सोच वाले बुद्धिजीवियों को टुकड़े-टुकड़े गैंग, खान मार्किट गैंग की उपाधि से नवाजा और उन्माद की घुट्टी में झूमती जनता खुश हुई, इसमें भले ही नई पीढ़ी के लोगों की भूमिका सबसे ज्यादा रही, लेकिन जिस पीढ़ी ने जे पी आन्दोलन को देखा, वह भी यह मानने को मानो तैयार बैठी थी कि “मोदी है तो मुमकिन है” और मुमकिन के छोटे से दायरे में जीवन से जुड़े मुद्दे के बजाय पडोसी मुल्कों को सबक सिखाने का भाव अधिक था।

क्या यह सोचने की बात नहीं है कि 2014 का चुनाव भाजपा ने भ्रष्टाचार, काले धन और रोजगार के मुद्दे पर लड़ा था और तत्कालीन सरकार के भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाया था लेकिन इस चुनाव में भाजपा गौण हो गयी (प्रज्ञा ठाकुर और साक्षी महाराज जैसे लोगों की अमृत वाणी को भूल जाये तो किसी भी मन्त्री या नेता की इस चुनाव में कोई भूमिका नहीं रही), मोदी जी रह गए और वर्तमान कांग्रेस के भ्रष्टाचार के बजाय तीस-बत्तीस साल पहले शहीद हुए स्व. राजीव गाँधी के समय के भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाया। उन्होंने कथित रूप से जो विकास के काम किये, उनपर उन्हें भरोसा नहीं रहा। नॉन-इश्यू को इश्यू बनाना उनकी रणनीति थी और इसमें वे सफल रहे। इस सफलता के पीछे मीडिया और अज्ञात स्रोतों से आने वाले पार्टी फंड की बहुत बड़ी भूमिका रही। इलेक्टोरल बांड के नाम पर अकूत धनराशि भाजपा को मिली और इसका उपयोग पंचायत स्तर तक लकदक दफ्तर बनाने, बेरोजगार और दिशाहीन पेड कार्यकर्ताओं की उन्मादी भीड़ खड़ी करने में किया गया। एक रिपोर्ट से पता चला कि 2018-19 के बीच भाजपा को 1090 करोड़ का और कांग्रेस को 5 करोड़ का इलेक्टोरल बांड मिला। यह पैसा कौन देता है इसका पता नहीं। इस क्रम में खतरनाक यह घटित हुआ कि मीडिया ने पूरे चुनाव को भाजपा बनाम अन्य विपक्षी दल के बजाय मोदी और अन्य विपक्षी दल के बीच का बना दिया स्वयं मोदी जी ने अलग-अलग पोशाक धारण करके खुद को कभी सैनिक के रुप में, कभी गुजरात-राजस्थान के प्राचीन राजाओं के रूप में तो कभी ऋषियों जैसे साधक के रूप में बहुरंगी छवि में प्रस्तुत किया और मीडिया ने उनकी हर छवि को विभिन्न कोणों से इस तरह प्रस्तुत किया कि इनके जैसा नेता हजारों साल बाद पैदा हुआ है। इस काल्पनिक विमर्श ने न सिर्फ नई पीढ़ी, बल्कि पुरानी पीढ़ी के लोगों को भी जबरदस्त तरीके से प्रभावित किया। मोदी जी के सामने भाजपा की भी कोई अहमियत नहीं रह गयी। दो-चार उम्मीदवारों को छोड़ दें तो बाकी सिर्फ मोदी के नाम पर जीते, उनका न कोई व्यक्तित्व दिखा, न साख।  इस बीच मोदी जी ने कुछ चैनलों को और अक्षय कुमार को इन्टरव्यू दिए जो अभूतपूर्व प्रश्नों पर आधारित थे, जैसे “आम खाने, रोटी बेलने, कविता लिखते हैं या नहीं, इतना काम कैसे कर लेते हैं, थकते नहीं?” वगैरह-वगैरह और मीडिया ने इन्हें ऐसे प्रचारित किया जैसे ये इतिहास में दर्ज होने वाले इन्टरव्यूज हों। मीडिया खुद ही मेसेज तो पहले ही बन गया, अब वह मोदी जी के प्रचारक की भूमिका में आ गया, बाकायदा चुनाव के पहले नमो टीवी नाम से एक चैनल आया और चुनाव के बाद गायब हो गया।

कल्पना करें कि पूर्व अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा भारत में पीएम होते और ओसामा बिन लादेन को खोजकर मरवाया होता तो कलियुग से लेकर वापस फिर सतयुग और सतयुग से फिर कलियुग तक के लिए पीएम नहीं चुन लिए गए होते?

मोदी जी ने प्रचण्ड बहुमत मिलने के बाद पार्टी को दिए जाने वाले भोज के समय के भाषण में दो गम्भीर बातें कहीं – एक तो यह कि इस पूरे चुनाव में किसी को भी सेक्यूलरिज्म का नाम लेने कि हिम्मत नहीं पड़ी (जाहिर है कि यह बात उन्होंने सेक्यूलरिज्म पर बात करने वाले हर आदमी को छद्म सेक्यूलर मानकर कही) दूसरी बात कि जाति राजनीति से गायब हो गयी है और पूरे समाज में एकरूपता आ गयी है। उनकी बात ठीक है कि सेक्यूलरिज्म को राजनीतिक दलों ने वोट बैंक बना दिया, यह छद्म सेक्यूलरिज्म है, तो क्या उसे अब  भारत की विविधता में विश्वास करने वाले लोगों की जुबान बन्द करके सच्चा बनाया जायगा? कलबुर्गी, दाभोलकर, गौरी लंकेश को छद्म सेक्यूलरिज्म की सजा मिली? वामपंथी, उदारवादी, तार्किक सब के सब छद्म सेक्यूलर, देश विरोधी, अर्बन नक्सली, टुकड़े-टुकड़े गैंग और खान मार्किट गैंग के लोग हैं? सच्चे सेक्यूलर कौन हैं, सरकार से सवाल करने वाले को पाकिस्तान भेजने वाले? हिन्दुओं के हिसाब से न खाने-पहनने वाले लोगों को पीट-पीट कर मार डालने वाले लोग? और एकरूपता का क्या अर्थ है? सारी अस्मिताओं (identities) को ख़त्म करके एक हिन्दू राष्ट्र की स्थापना, जिसमें स्मृतियों, संहिताओं और ब्राह्मण ग्रंथों के आधार पर सबके कर्तव होंगे और सीढ़ी के ऊपर बैठे समुदायों को विशेषाधिकार देकर राम-राज्य की स्थापना? क्या भारत अब आधुनिक राष्ट्र से पुरातन धार्मिक राज्य में बदल जायगा? मगर बकौल श्यामाचरण दुबे – भारत राष्ट्र के रूप में विभिन्न सामाजिक समूहों, जातियों, भाषायी, क्षेत्रीय और धार्मिक अस्मिताओं के संघटन से उदित हुआ है, इन सबको मिटाकर कैसे एकरूपता कायम होगी? सबका साथ, सबका विकास का नारा क्या भूमण्डलीकरण के उस छलावे जैसा नहीं है जिसकी शुरुआत में कहा गया था कि यह ऐसी विश्व व्यवस्था होगी जिसमें सभी देश अपनी राष्ट्रीयता के साथ एक बड़ी वैश्विक व्यवस्था के झण्डे तले आ जायेंगे और विकास करेंगे, सारी असमानताएँ ख़त्म हो जाएँगी, तीन दुनियाओं का भेद मिट जायगा। भेद तो मिट गया, पर असमानताएँ ख़त्म हो गयीं? मोदी जी के भाषण में कही गयी बातें क्या उपर्युक्त वैचारिक डिज्नीलैंड से भिन्न साबित होंगी? अभी इनके उत्तर आने में शायद कुछ देर लगे।

लेखक अन्नदा कॉलेज हजारीबाग,झारखण्ड में प्रोफेसर हैं|

सम्पर्क- +919431955249, ajaypdverma7890@gmail.com

 

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सबलोग

लोक चेतना का राष्ट्रीय मासिक सम्पादक- किशन कालजयी
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