1930 का समय था। गाँधी जी के नेतृत्व में नमक सत्याग्रह और ऐतिहासिक दाँडी यात्रा की तैयारी हो चुकी थी। महिलाओं को इस आन्दोलन से दूर रखने का निर्णय लिया गया था और उनके लिए सिर्फ चरखा चलाना और शराब बन्दी के लिए शराब की दूकानों का घेराव करने का काम निर्धारित किया गया था। 27 साल की युवती कमलादेवी चट्टोपाध्याय ( 3.4.1903- 29.10.1988) को यह बात गले नहीं उतर रही थी। उन्हें बार-बार लग रहा था कि महिलाओं के साथ काँग्रेस द्वारा की जाने वाली यह उदारता वास्तव में उनकी क्षमता और योग्यता को हीनतर समझे जाने का परिणाम थी। कमलादेवी को लगा कि ‘नमक सत्याग्रह’ में महिलाओं की भागीदारी होनी ही चाहिए और उन्होंने इस सम्बन्ध में सीधे महात्मा गाँधी से बात करने का फ़ैसला किया। महात्मा गाँधी उस वक्त यात्रा कर रहे थे। कमलादेवी उसी ट्रेन में जा पहुँचीं जिसमें गाँधीजी थे और उनसे मिलकर उन्होंने अपना पक्ष रखा। पहले तो महात्मा गाँधी ने उन्हें मनाने की कोशिश की लेकिन कमलादेवी के तर्क सुनने के बाद उन्होंने ‘नमक सत्याग्रह’ में महिलाओं और पुरुषों की बराबर की भागीदारी स्वीकार कर ली। इसके बाद महात्मा गाँधी ने ‘नमक सत्याग्रह’ के लिए दाँडी मार्च किया और बंबई में ‘नमक सत्याग्रह’ का नेतृत्व करने के लिए सात सदस्यों वाली टीम बनाई। इस टीम में कमलादेवी चट्टोपाध्याय और अवंतिकाबाई गोखले भी शामिल थीं। यह ऐतिहासिक घटना थी।
महिलाओं ने भी पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर नमक क़ानून तोड़ा। पुलिस से संघर्ष करके कमलादेवी और उनके साथियों ने नमक बनाया और पैकेट बनाकर बेचना शुरू कर दिया। उन्होंने बॉंम्बे स्टॉक एक्सचेंज से लेकर बॉंम्बे हाई कोर्ट तक में जाकर और अपना ‘फ्रीडम साल्ट’ बेचकर अदम्य साहस का परिचय दिया। नमक कानून तोड़ने के मामले में बॉम्बे प्रेसीडेंसी में गिरफ्तार होने वाली कमलादेवी पहली महिला थीं। उन्हें लगभग एक साल जेल में रहना पड़ा। स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान वे चार बार जेल गयीं और पाँच साल तक सलाखों के पीछे रहीं। उनके इस अभियान का व्यापक असर हुआ और राजनीति के सभी मोर्चों पर महिलाओं की उल्लेखनीय भूमिका देखी जाने लगी।
कमलादेवी चट्टोपाध्याय का जन्म मंगलोर (कर्नाटक) के एक सम्पन्न, सुशिक्षित और सुसंस्कृत परिवार में हुआ था। वे अपने माता-पिता की चौथी और सबसे छोटी संतान थीं। उनके पिता का नाम अनंथ्या धारेश्वर और माँ का नाम गिरिजाबाई था। कमलादेवी के पिता मंगलोर में उच्च पदस्थ प्रशासक थे। महादेव गोविंद रानाडे, गोपाल कृष्ण गोखले तथा एनी बीसेंट जैसी उस समय की महान विभूतियों का उनके परिवार में आना जाना था जिसके कारण कमला देवी से इनका भी अमूमन मिलना हो जाता था। इस सबका गहरा असर कमलादेवी के व्यक्तित्व पर पड़ा।
जब कमला देवी सिर्फ 7 वर्ष की थीं तभी उनके पिता का स्वर्गवास हो गया। माँ यद्यपि प्रगतिशील विचारों की थीं फिर भी पति के न रहने से सामाजिक दबाव के चलते उन्होंने 14 वर्ष की अल्पायु में ही अर्थात 1917 में अपनी बेटी की शादी कर दी। किन्तु शादी के दो वर्ष के भीतर ही कमला देवी के पति का निधन हो गया। उस समय वे स्कूल में पढ़ रही थीं।
भले ही कमलादेवी की माँ ने परिस्थितियों के दबाव में अपनी बेटी की शादी बहुत कम उम्र में ही कर दीं, किन्तु उन्होंने अपनी बेटी के लिए उन सारे रीति- रिवाजों को मानने से इनकार कर दिया जो ब्राह्मण समुदाय में एक विधवा के लिए तय थे। उन्होंने न तो कमलादेवी का सिर मुँडवाया, न सफ़ेद साड़ी पहनाई और न किसी अकेली कोठरी में रहकर पूजा- पाठ करने पर मजबूर किया। माँ गिरजाबाई ने समाज की परवाह किए बग़ैर न केवल कमलादेवी को स्कूल भेजा बल्कि खुलकर आगे बढ़ने का रास्ता भी दिखाया।
गिरजाबाई स्वयं भी महिला एक्टिविस्ट पंडिता रमाबाई और रमाबाई रानाडे की समर्थक थीं। उन्होंने कमलादेवी के सामने एनी बीसेंट को एक रोल मॉडल की तरह पेश किया। कमलादेवी ने भी इन प्रभावशाली महिलाओं से बहुत कुछ सीखा।
इस बीच, चेन्नई के क्वीन्स मैरी कॉलेज में पढ़ाई करने के दौरान कमलादेवी का परिचय सरोजिनी नायडू के छोटे भाई कवि-नाटककार-अभिनेता हरीन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय से हुआ। साहित्य और अभिनय कला में कमलादेवी की भी रुचि थी जिसके कारण दोनों में दोस्ती हुई और अंत में फिर दोनो शादी के बन्धन में बँध गये। उस समय कमला देवी की उम्र 20 साल थी। हालाँकि उनके रिश्तेदारों ने इस शादी का बहुत विरोध किया था।
शादी के कुछ दिन बाद कमलादेवी अपने पति के साथ लन्दन चली गयीं। वहाँ लन्दन यूनिवर्सिटी के बेडफ़ोर्ड कॉलेज से उन्होंने समाजशास्त्र में डिप्लोमा किया। इसके अलावा उन्होंने प्राचीन भारतीय पारम्परिक संस्कृत ड्रामा कुटीयाअट्टम (केरल) का भी अध्ययन किया। इस दौरान इनसे एक पुत्र का जन्म हुआ जिनका नाम रामकृष्ण चट्टोपाध्याय है।
कमलादेवी की रुझान राजनीति में थी। लन्दन में रहते हुए 1923 में ही वे महात्मा गाँधी के असहयोग आन्दोलन से जुड़ गयीं थीं। वे अधिक दिनों तक अपने को रोक नहीं पाईं और गाँधी जी के साथ काम करने के लिए वे लन्दन से भारत लौट आईं। भारत लौटने पर वे दलितों के उत्थान के लिए काम करने के उद्देश्य से काँग्रेस के सेवा दल से जुड़ गयीं। इसी बीच उनकी मुलाकात मार्ग्रेट कजन्स से हुई। मार्ग्रेट कजन्स आयरलैंड की महिलावादी नेता थीं। कमलादेवी उनसे गहरे प्रभावित हुईं। उन्होंने कजन्स की संस्था ‘आल इण्डिया वीमन्स कॉन्फ्रेंस’ के महासचिव पद का दायित्व संभाला। उल्लेखनीय है कि कजन्स की पहल से ही भारत में महिलाओं को वोट देने का अधिकार मिल चुका था, लेकिन चुनाव लड़ने का अधिकार तबतक प्राप्त नहीं था। कमलादेवी ने अमेरिका और यूरोप के कई देशों की यात्राएँ कीं, वहाँ के वरिष्ठ नेताओं से मिली और उनसे महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के लिए प्रयास करने का आग्रह किया।
कमलादेवी ने महिलाओं के चुनाव लड़ने के अधिकार के लिए संघर्ष किया। उनके संघर्ष का परिणाम यह हुआ कि 1926 में जब मद्रास प्रान्तीय विधान परिषद के लिए चुनाव की घोषणा हुई तो उसके ठीक पहले महिलाओं को भी चुनाव लड़ने की इजाज़त मिल गयी और कमलादेवी भारत की पहली महिला बनीं, जिन्होंने राजनीतिक व्यवस्था में चुनाव लड़ा। इस चुनाव में बहुत कम समय में कमलादेवी और उनके पति हरीन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय सहित महिला कार्यकर्ताओं ने नाटकों और गीतों के ज़रिये ज़ोरदार प्रचार किया। हालांकि कमलादेवी चुनाव हार गयीं, लेकिन उनके लिए कई दरवाज़े खुल चुके थे। वे 1927-28 में ऑल इण्डिया काँग्रेस कमेटी की सदस्य बनीं। उन्होंने बाल विवाह के ख़िलाफ़ क़ानून पर काँग्रेस की नीति तय करने में अहम भूमिका अदा की। घर के भीतर महिलाएँ जो काम करती हैं उन कामों को भी मान्यता दिलाने के लिए उन्होंने लगातार संघर्ष किया। उन्होंने बेटों की तरह बेटियों को भी पारिवारिक सम्पत्ति में बराबर का अधिकार दिलाने तथा महिलाओं को भी अपने बच्चों के अभिभावक के रूप में मान्यता दिलाने के लिए लगातार संघर्ष किया।
काँग्रेस की कुछ नीतियों से मतभेद होने के कारण 1934 में जब जयप्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया, आचार्य नरेन्द्र देव और मीनू मसानी आदि ने काँग्रेस सोशलिस्ट पार्टी बनाई तो कमला देवी उनके साथ हो गयीं। 1936 में कमलादेवी को काँग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का अध्यक्ष बनाया गया।
कमला देवी ने कई फिल्मों में अभिनय भी किया। उल्लेखनीय है कि उन दिनों फ़िल्मों में काम करना महिलाओं के लिए अच्छा नहीं माना जाता था। ऐसे समय कमलादेवी ने कन्नड़ भाषा की पहली मूक फिल्म ‘मृच्छकटिका’ में बतौर अभिनेत्री काम किया। इसके अलावा 1943 में हिन्दी फ़िल्म ‘तानसेन’ तथा ‘शंकर पार्वती’ और 1945 में फिल्म ‘धन्ना भगत’ में भी उन्होंने महत्वपूर्ण किरदार निभाया।
कमलादेवी के पति हरीन्द्रनाथ की रुचि भी कला, संगीत और साहित्य में थी लेकिन दोनों की विचारधाराओं में मेल नहीं था। कमलादेवी सामाजिक कार्यों और राजनीतिक गतिविधियों में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रही थीं। इन्हीं सब कारणों से हरीन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय से उनका सम्बन्ध आगे नहीं चल सका और 32 वर्ष के वैवाहिक जीवन के बाद 1955 में उन्होंने शांतिपूर्ण तरीके से अपने रास्ते बाँट लिए और हरीन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय से उनका तलाक हो गया।
कमलादेवी चट्टोपाध्याय सच्चे अर्थों में सामाजिक कार्यकर्ता थीं और नारी के अधिकारों के लिए खासतौर पर समर्पित थी। पद लोभ उन्हें तनिक भी नहीं था। आज़ादी के बाद उन्होंने कोई भी राजनीतिक पद लेने से साफ़ इनकार कर दिया था। उस समय के मद्रास प्रांत के मुख्यमन्त्री के. कामराज उन्हें राज्यपाल बनाना चाहते थे। जब उन्होंने यह प्रस्ताव जवाहर लाल नेहरू के सामने रखा तो पं. नेहरू ने कहा कि वे ख़ुद कमलादेवी से पूछ लें। यदि उनकी स्वीकृति मिलती है तो उन्हें कोई आपत्ति नहीं होगी। कामराज समझ गये कि कमलादेवी कभी किसी सरकारी पद पर बैठने के लिए तैयार नहीं होंगी।
आज़ादी के साथ देश के बँटवारे से उन्हें बहुत आघात लगा था। उन्होंने आजादी के बाद अपना पूरा ध्यान शरणार्थियों के पुनर्वास पर लगाया। सहकारिता आन्दोलन में उनका गहरा विश्वास था। उन्होंने इंडियन कोऑपरेटिव यूनियन का गठन किया और लोगों की सहभागिता के सहारे शरणार्थियों के लिए शहर बसाने का प्लान प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू के सामने रखा। पं. नेहरू ने उनके इस प्रस्ताव को इस शर्त के साथ स्वीकार कर लिया कि इसके लिए वे सरकार से किसी भी तरह की आर्थिक सहायता की उम्मीद न रखें। कमलादेवी ने इंडियन को-ऑपरेटिव यूनियन की मदद से, देश के बँटवारे के बाद नार्थ-ईस्ट फ्रंटियर प्रोविंस से आए लगभग पचास हजार शरणार्थियों को दिल्ली के नजदीक बसाया। उसे ही आज फ़रीदाबाद के नाम से जाना जाता है।
1950 के बाद कमला देवी ने भारतीय लोक-परम्पराओं और शास्त्रीय कलाओं को पुनर्जीवित करने और बढ़ाने के काम में अपने को समर्पित कर दिया। उन्होंने सेंट्रल कॉटेज इंडस्ट्रीज़ एंपोरियम और क्राफ्ट्स काउंसिल ऑफ़ इण्डिया का गठन किया। इन संगठनो के माध्यम से उन्होंने भारत की शिल्प-कलाओं को बचाए रखने के लिए हर सम्भव प्रयास किए। उन्होंने देश के विभिन्न हिस्सों में बिखरी समृद्ध हस्तशिल्प तथा हथकरघा कलाओं की खोज की और ग्रामीण इलाकों में घूम-घूम कर उन कलाओं का संग्रह किया। वे पहली भारतीय महिला थीं, जिन्होंने हथकरघा और हस्तशिल्प को न केवल राष्ट्रीय बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई।
1952 में कमलादेवी चट्टोपाध्याय को ‘आल इण्डिया हेंडीक्राफ्ट’ का प्रमुख नियुक्त किया गया। उन्होंने देश के बुनकरों के लिए जिस शिद्दत के साथ काम किया, उसका असर यह था कि जब वे गाँवों में जाती थीं, तो हस्तशिल्पी, बुनकर, जुलाहे आदि अपने सिर से पगड़ी उतार कर उनके कदमों में रख देते थे। इन लोगों ने एक माँ की तरह कमला देवी के अथक और निःस्वार्थ सेवा भाव से प्रेरित होकर इन्हें ‘हथकरघा माँ’ का नाम दिया था।
इस क्षेत्र में लगातार काम करते हुए कमला देवी इस तथ्य को भली- भाँति समझ चुकी थीं कि इस क्षेत्र में बाजार का यदि वर्चस्व कायम हो गया तो शिल्प कलाओं का बच पाना कठिन हो जाएगा। उनकी दृष्टि में बाजार को हमेशा सहायक की भूमिका में रखना होगा। उनकी आशंका आज सच साबित हो चुकी है। आज जब सब कुछ बाजार के हवाले किया जा चुका है तो शिल्प कलाएँ भी अन्तिम साँसें गिन रही हैं।
भारतीय नाट्य परम्परा और दूसरी परफॉर्मिंग आर्ट्स को बढ़ावा देने के लिए कमलादेवी ने इंडियन नेशनल थिएटर की स्थापना की। आगे चलकर यही संस्था ‘नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा’ के नाम से प्रसिद्ध हुई। इतना ही नहीं, कमलादेवी की कोशिशों से ही संगीत नाटक अकादमी की भी स्थापना हुई जो भारतीय गायन एवं नृत्य परम्पराओं को आगे बढ़ाने वाली संस्थाओं में अग्रणी है।
इस तरह आज नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा, नाट्य इंस्टूट्यूट ऑफ कत्थक एंड कोरियोग्राफी, बेंगलौर, संगीत नाटक अकेडमी जैसी सांस्कृतिक संस्थाएँ तथा सेन्ट्रल कॉटेज इंडस्ट्रीज एंपोरियम, आल इण्डिया हैंडीक्राफ्ट बोर्ड, थियेटर क्रॉफ्ट्स म्यूजियम जैसी हस्त शिल्प से जुड़ी संस्थाएँ कमला देवी चट्टोपाध्याय की दूरदृष्टि और उद्यम की परिणाम हैं। उन्होंने हस्तशिल्प तथा को-ओपरेटिव आन्दोलनों को बढ़ावा देकर भारतीय जनता को सामाजिक और आर्थिक रूप से समृद्ध करने में महान योगदान दिया।
कमलादेवी चट्टोपाध्याय एक प्रतिष्ठित लेखिका भी हैं। ‘द अवेकिंग ऑफ इंडियन वीमेन’, ‘जापान इट्स वीकनेस एंड स्ट्रेन्थ’, ‘अंकल सैम्स एम्पायर’, ‘सोशलिज्म एंड सोसाइटी’, ‘ट्राइबलिज्म इन इण्डिया’, ‘इण्डियाज क्रॉफ्ट ट्रेडीशन’, ‘ट्रेडीशंस ऑफ इण्डिया फोक डाँस’, ‘इन वार-टर्न चाइना’, ‘टुवर्ड्स ए नेशनल थिएटर’ आदि उनकी मशहूर पुस्तकें हैं।
कमला देवी को भारत सरकार ने ‘पद्म भूषण’ और ‘पद्म विभूषण’ से सम्मानित किया। शान्तिनिकेतन ने उन्हें अपना सर्वोच्च सम्मान ‘देशिकोत्तम’ दिया। उन्हें सामाजिक कार्यों के लिए ‘रेमन मैग्सेसे पुरस्कार’ से भी नवाजा गया। 29 अक्टूबर 1988 को 85 वर्ष की आयु में इस महान कर्मठ और जुझारू महिला का निधन हो गया।
गूगल ने भी कमलादेवी चट्टोपाध्याय के सम्मान में डूडल बनाया है। हम कमला देवी चट्टोपाध्याय के जन्मदिन पर उनके द्वारा समाज के कल्याण के लिए और खास तौर पर महिलाओं के अधिकार के लिए किए गये प्रयासों का स्मरण करते हैं और उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं।
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