प्रोफेसर मैनेजर पाण्डेय का नाम पहली बार किरोड़ीमल कॉलेज के अपने मित्र संजय प्रसाद से सुना था। संजय भूगोल का विद्यार्थी था। अभी उत्तर प्रदेश में आईएएस अधिकारी हैं। वह उनमें था जिसे उसके जिले के नाम से से जाना जाता था। छपरा से था इसलिए सब उसे छपरा ही कहते थे। खैर, छपरा के साथ टीवी देखना दिलचस्प होता था। उसकी टिप्पणियाँ दूरदर्शन के जमाने में भी नेटफ्लिक्स का आनन्द देती थीं। उस दिन हम फौजी देख रहे थे। 1989 या 90 की बात है। शाहरूख खान नायक थे। हमारे पड़ोसी हंसराज के प्रोडक्ट। फौजी में उनकी नायिका मंजुला अवतार थीं। सबकी जिज्ञासा थी कि शाहरूख खान की नायिका का पता लगाया जाए। छपरा को मंजुला के बारे में दो बातें मालूम थीं। एक तो ये कि वे जेएनयू में पढ़ती हैं और दूसरी यह कि वे मैनेजर पाण्डेय की शोधार्थी हैं। मैनेजर पाण्डेय और मंजुला अवतार का हिन्दी का होना हमारे लिए उस समय गौरव का विषय था। साथ ही यह बात विचित्र लगी कि हिन्दी के प्रोफेसर का नाम अँग्रेजी का है। मुझे लगा कि छपरा मजाक कर रहा है। लेकिन उसकी यह सूचना तब और भी प्रामाणिक लगी जब उसने यह बताया कि उसके गाँव के पास ही सीवान के हैं।
उसने यह भी कहा था कि नाम का अनुवाद तो नहीं होता लेकिन कोई समस्या हो तो प्रबन्धक पाण्डेय कह सकते हो। बेहद हल्के फुल्के और मजाकिया अन्दाज में पाण्डेय जी का यह प्रारम्भिक परिचय 1992 में जेएनयू आने के बाद बेहद चकित करने वाला था। एम.ए. के प्रथम सत्र की शुरुआत जिस कक्षा से हुई वह उन्हीं की थी। समय सारिणी पर अँग्रेजी में एम.पी. लिखा था। वही एम पी जिन्हें उसके पहले मैं छपरा के मुँह से शाहरूख खान की नायिका के गुरु के रूप में जान पाया था। पाण्डेय जी की पहली क्लास ने ही बता दिया कि जेएनयू आने का हमारा निर्णय इस सच्चाई के बावजूद गलत नहीं है कि नामवर जी अब जानेवाले हैं। नामवर जी ने जिस उम्मीद और विश्वास के साथ उन्हें जोधपुर बुलाया था उसी उम्मीद और उससे भी अधिक विश्वास के साथ अपने आने के बाद जेएनयू भी लाए थे। विश्वविद्यालय में एक भी नियुक्ति भावी पीढ़ियों पर कितना असर डालती है इसकी चिन्ता नामवर जी को थी। उनकी इसी विशिष्टता को रेखांकित करते हुए उनके विदाई समारोह में प्रोफेसर आनन्द कुमार ने जोर देकर कहा था कि वे अपनी भावी पीढ़ियों पर भरोसा करते हुए निश्चिन्त होकर जेएनयू से विदा ले सकते हैं। केदार जी, पाण्डेय जी, तलवार जी और अग्रवाल जी जैसे अध्यापकों को पाकर हमें भी महसूस हुआ कि आनन्द जी कोई मुँह देखी बात नहीं कर रहे थे।
पाण्डेय जी की अध्यापन शैली का ठेठ देशज अन्दाज हमें उनके बेहद करीब ले गया। जो कुछ भी पढ़ाते बेहद तैयारी के साथ। सरल उदाहरणों के जरिए बड़े निष्कर्षों के पास जाने का हुनर। सब पर नजर। कभी उन्होंने किसी को आतंकित नहीं किया बल्कि सूचना और ज्ञान की प्राप्ति में सहज संवाद को प्राथमिकता दी। क्लास के बाद उनके साथ वापस हॉस्टल तक आने का सिलसिला शायद हमारे समय में ही शुरु हुआ था। उनका यह सानिध्य हमारी कई शंकाओं के समाधान का ही मंच ही नहीं था बल्कि उसी समय हमने उन्हें अनौपचारिक रूप से बेहद करीब से जाना। हमारे मित्र प्रमोद सिंह का मानना है कि मैनेजर पाण्डेय और अन्य लोगों में बुनियादी फर्क यही था कि जहाँ दूसरे लोग वह दिखना चाहते थे जो वे थे नहीं। जबकि पाण्डेय जी अपने साथ इस तरह भ्रम का कोई आवरण नहीं ओढ़ना चाहते थे।
पाण्डेय जी ने नेहरू की प्रतिमा को देखकर एक बेहद दिलचस्प बात बतायी थी। उन्होंने बताया था कि प्रधानमंत्री बनने के बाद जवाहरलाल नेहरू जब पहली बार लंदन गये तब उनके एक ब्रिटिश सहपाठी रहे पत्रकार ने प्रेस कांफ्रेंस में एक विचित्र सवाल पूछा। सवाल यह था कि नेहरू के अनुसार सबसे बड़ा पाप क्या है? यह सवाल जिस वजह से पूछा गया था उसके कारण तो वे दो पुराने मित्र जानते रहे होंगे लेकिन पाण्डेय जी के अनुसार इस सवाल का जवाब “भय” दिया जाना उनके लिए आश्चर्य का विषय था। उन्होंने कहा कि नेहरू जैसे थे उनसे इस तरह के जवाब की उम्मीद नहीं थी लेकिन यह गाँधी के लंबे संग साथ का प्रभाव था जिसकी वजह से उस अप्रत्याशित प्रश्न का अप्रत्याशित जवाब सम्भव हो पाया। अप्रत्याशित स्वरों का भी समाजशास्त्र होता है और इसे कुछ राजनीतिक रूपकों के सहारे समझा जा सकता है।
रेणु के मैला आंचल पर विचार करते हुए उन्हें गाँधी चेथ रिया पीर की तरह नजर आए थे तो उसके पीछे भी यही दृष्टि काम कर रही थी। जो लोग पाण्डेय जी को मार्क्सवादी आलोचना के रूपकों में समझना चाहते हैं उन्हें वे कई बार यह कह कर झटका दे चुके हैं कि भारत में वामपन्थ के नष्ट होने का कारण वामपन्थी बुद्धिजीवियों का पाखण्ड है। वह पाखण्ड जो सिर्फ जनता को सीखाने में यकीन रखता है, जनता से सीखने में नहीं। पाण्डेय जी की आलोचना दृष्टि में प्रतिरोध की जिस परम्परा का विवेचन और विश्लेषण हुआ है उसके ठेठ देशज आधारों को पहचाने बगैर उन्हें समझना मुश्किल होगा। प्रसिद्ध समाजशास्त्री योगेंद्र सिंह की तरह वे भी इस खतरे से परिचित और सावधान हैं कि पश्चिम के सिद्धान्तों के आधार पर भारतीय साहित्य की व्याख्या उचित नहीं है।
एक बार नामवर जी के एक शोधार्थी की मौखिकी थी। कमला प्रसाद जी आए थे। जयशंकर प्रसाद पर काम था। उनसे पूछा गया कि शुक्ल जी ने प्रसाद जी के सन्दर्भ में साम्यवाद की दबी हुई गून्ज का प्रश्न उठाया था उसका आशय क्या है? जो भी कारण रहा हो हमारे सीनियर किसी स्मृतिभ्रंश के कारण जवाब नहीं दे पा रहे थे। मैंने और मेरे किसी भी मित्र ने नामवर जी को तब तक उतने गुस्से में नहीं देखा था। शोधार्थी की खामोशी नामवर जी के आक्रोश के तापमान को बढ़ा रही थी। हम सब किसी अनर्थ की आशंका में धंसे जा रहे थे कि अचानक दूर जलती मशाल की तरह पाण्डेय जी की आवाज़ सुनाई पड़ी। बोले कि अरे जाने भी दीजिए। सीधे स्टेशन से आ रहा है। नर्वस हो गया होगा। नहीं तो यह बात तो सेंटर के कुत्ते बिल्ली को भी मालूम है कि शुक्ल जी को कामायनी में साम्यवाद की दबी हुई गून्ज सुनाई पड़ी थी।
सबकी रुकी हुई सांसें फिर से शुरू हुईं क्योंकि तब तक नामवर जी भी पान निकालकर खाने की जुगत में लग गये थे।
जेएनयू में उस समय भी ऐसे लोगों की कमी नहीं थी जो इधर से उधर बात फैलाने की कला में निष्णात होते हैं। केदार जी और नामवर जी के सामने तो यह स्पेस सम्भव नहीं था लेकिन पाण्डेय जी का लोकतांत्रिक स्वभाव उन्हें ऐसे तत्वों का शिकार बना देता। पाण्डेय जी स्वयं मानते थे कि हर अच्छी चीजों की विडम्बनाजनक परिणति के लिए भी तैयार रहना चाहिए। जैसे कि लोकतन्त्र। अच्छा है लेकिन इसके खतरे भी हैं। नामवर जी के बारे में बताते थे कि उनका एक ही दुर्गुण था कि कोई किताब जो उन्हें अच्छी लगी वे जल्दी लौटाते नहीं थे। एक बार हम सबने उनके घर बदलने के क्रम में किताबों को सजाया था। उन्होंने अच्छी किताबों को अन्दर और गैर उपयोगी किताबों को ड्राइंग रूम में रखने की सलाह दी। कारण यह बताया कि वे नामवर जी की पसंद से परिचित हैं। बाहर ऐसी किताबों को देखकर वे उन्हें मांगने की क्या देखने की जहमत भी नहीं उठाएंगे।
केदार जी के प्रति उनके मन में गहरा सम्मान देखा है। सिर्फ बात में ही नहीं अपनी आलोचना में भी उन्होंने सर्वाधिक सन्दर्भ केदारजी की कविताओं से लिया है। केदार जी के निधन के बाद बहुत विचलित थे। मैं जब मिलने पहुंचा तो कहने लगे कि,” देखो बीमार पहले मैं पड़ा और केदार जी पहले निकल गये।” केदार जी की मृत्यु से वे इतने आहत थे कि पहली बार मैंने उनकी आंखें नम देखी। सुवास जी की मृत्यु पर चर्चा होने लगी। मैंने जब यह कहा कि उनका पटना जाने का निर्णय गलत था क्योंकि उससे ज्यादा मुश्किल परिस्थिति में वे कई बार हैदराबाद में स्वस्थ होकर लौट आए थे जबकि पटना में अस्पताल भी नहीं पहुंच पाए। पाण्डेय जी ने जो जवाब दिया उससे मैं चकित हो गया। उन्होंने जीवन में पहली बार मुझसे भवितव्यता और नियति की बात की। कहा कि जो होना होता है वह होकर रहता है। फिर अपने बेटे की हत्या की चर्चा की। कहा कि देखो उसका तो दो दिन बाद ही दिल्ली आने का टिकट था। लेकिन नियति ने तो उसका पहले से ही आखिरी सफर का आरक्षण करा रखा था। फिर उन्होंने एक पौराणिक कथा भी सुनाई जिसमें एक पक्षी मृत्यु से दूर निकलने की होड़ में अन्ततः उसका शिकार हो जाता है। मैं निशब्द था।
गुरुवर केदारनाथ सिंह से बलिया में आखिरी मुलाकात में मैंने नामवर जी द्वारा बनारस के एक आयोजन में विवेचित निराला जी की आखिरी कविता की चर्चा की थी। केदार जी ने गालिब को याद किया: “हूं वो सब्जा कि जहराब उगाता है मुझे।” उन्होंने बताया था कि निराला पर यह गालिब का असर है। आज पाण्डेय जी से बात करते हुए मुझे लग रहा था कि गालिब ने यह नज़्म पाण्डेय जी जैसे लोगों को देखकर ही रची होगी। बड़े दुख जिसे हम छिपाने की कोशिश करते हैं वे भीतर नासूर पैदा करते हैं। हम जीवन भर कुछ नासूरों को दबाने के लिए जिन जहरीले रसायनों से चमकते दिखते हैं वही रसायन और औषधियाँ थोड़ी देर के लिए भले ही चमक बन कर उभरें लेकिन कौन नहीं जानता कि यह चमक एक बड़े अँधेरे को छिपाने का एक रचनात्मक उपक्रम भर है। अभी परसों फेसबुक पर उन्हें मुक्तिबोध पर बोलते हुए सुना। मुझे पहली बार लगा कि मुक्तिबोध होने की पीड़ा निराला और गालिब होने की यन्त्रणा से जुड़ी है। मुझे पहली बार यह भी महसूस हुआ कि मुक्तिबोध को समझने के लिए हिन्दी में न्यूनतम अर्हता मैनेजर पाण्डेय होना है।
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साहित्य की दुनिया से शुरुआती परिचय के दिनों से ही समकालीन हिन्दी आलोचना...
आज तुलसीदास का भी जन्म दिन है और नामवर जी का भी। नामवर जी ने अपनी जिन्दगी का...