एक आदमी है जिसका कोर्ट मार्शल हुआ है। दिमाग चाचा चौधरी से भी तेज बताता है। शेक्सपियर पसंद है उसके जैसे बात करता है। एक आदमी नाखून काटने के बारे में उसे बताता है कि नाखून काटने के साथ दिलों-दिमाग की गंदगी खत्म हो जाती है। लेकिन नाखून तो फिर बढ़ जाते हैं इसलिए उन्हें काटते रहें। इसमें एक राइटर भी है जो उसकी कहानी लिखना चाहता है। एक उसका असिस्टेंट भी है और एक चाय वाला भी है। ये लोग आपस में चर्चा कर रहे हैं। किस्सेबाजी करते हैं और फिर आपस में जूतमपैजार भी करते हैं।
इस आदमी को अपने जन्म के बारे में नहीं मालूम इसलिए 30 जनवरी की तीन पर्ची और 14 नवम्बर की एक पर्ची जेब में रखी और पर्ची निकालकर उसी के हिसाब से 30 जनवरी को अपना जन्मदिन मान लिया। इस दिन गांधी जी भी मारे गए थे। ‘मेरा नाम जोकर’ फ़िल्म ही एकमात्र उसे पसन्द है और एक वही फ़िल्म है जिसमें उसे नाम पसन्द नहीं आया। कारण जीवन में इसके अलावा कोई फ़िल्म ही नहीं देखी। अपने हाथों का तीन बार इस्तेमाल करता है कब? कहां? कैसे? वो सब फ़िल्म देखकर पता चलता है। उम्र के तीन हिस्सों में तीन बार हाथों का इस्तेमाल कैसे किया जानने के लिए फ़िल्म देखें।
इस आदमी को गांधी से नफरत है। बल्कि वो यह नफरत गांधी से नहीं खुद से करता है क्योंकि चाहकर भी इस हिंसक समाज में अहिंसक नहीं रह पाता है। इस फौजी का मन करता है जो वर्दी मैली है उसे फिर से धोए। इस फौजी के स्कूल का नाम भी गांधी के नाम पर है। गांधी वैसे भी पूरे भारत में बचपन से बड़े होते तक हर जगह सुनाई देता है। लेकिन इस फौजी के लिए गांधी दुनिया का सबसे बड़ा कायर है। उसे पॉर्न देखना, टॉम एंड जैरी पढ़ना, देखना पसंद है। गांधी तो हर जगह है। जैसे नक्शे पर कश्मीर है। कागज के नोट पर गांधी है, सिक्कों पर नहीं है इसलिए वह सिक्के रखता है। नेहरू पसन्द है क्योंकि बच्चे पसन्द है। उसके पास बचपन की तस्वीर भी नहीं है, मां भी नहीं है। इसलिए कहता है – जब रूह काफ़िर हो जाए तो जिस्म कब तक के खुदाई पर जीयेगा।
फिल्म की कहानी गांधी, कश्मीर, सेना, नॉर्थ ईस्ट, बाबरी मस्जिद, राम मंदिर से लेकर पॉर्न फिल्मों, सैक्स, पहली बार सेक्स करते हुए नाकाम हो जाना और अपने आपको ही नहीं बल्कि उन सभी के लिए कहना कि पहली बार आप ठीक से न कर पाओ तो जिंदगी भर ज़िल्लत, शर्म उठाना पड़ता है। लेकिन वहीं मरी हुई औरत के साथ सेक्स करना जैसे सेंसिटिव मुद्दों को छूते हुए जब गुजरती है तो इसका स्वाद कसैला हो जाता है। इतना कसैला जिसे चख पाना हर किसी के लिए आसान नहीं है।
‘दादा साहेब फालके फ़िल्म फेस्टिवल’ 2014 में बेस्ट एक्टर, सिनेमेटोग्राफी के लिए अवॉर्ड, ‘लद्दाख फिल्म फेस्टिवल’ में ‘बेस्ट फीचर फिल्म, बेस्ट डेब्यू डायरेक्टर, बेस्ट स्क्रीनप्ले और बेस्ट एक्टर के अवॉर्ड पाने वाली फ़िल्म में यह कहना कि ‘कश्मीर में टेररिस्ट नहीं होते, मिलिटेंट्स होते हैं।’ या गांधी के प्रति नफरत सेंसर बोर्ड को दिखाई दी होगी। सम्भवतः ऐसी बातों से ही सेंसर बोर्ड खफा हुआ होगा इसलिए इस फ़िल्म को कोई भी सर्टिफिकेट देने से मना कर दिया गया और इसे मजबूरन निर्माता, निर्देशक को यूटयूब पर रिलीज़ करना पड़ा।
फिल्म बेहद रचनात्मक है इसमें एक्टिंग, सिनेमेटोग्राफी, फ़िल्म में रंगों-दृश्यों का बेहतरीन समायोजन, कैमरागिरी सब उम्दा नजर आता है। और इन सबको फ़िल्म बेहद करीने से दिखाती है। गीत-संगीत, एनीमेशन , बैकग्राउंड स्कोर, एडिटिंग, कहानी सभी मामलों में यह फ़िल्म दिलों में रच बस जाती है। इस फ़िल्म में एक तरफ़ अमन का संदेश है तो दूसरी तरफ कश्मीर के चमन की प्राकृतिक रंगीनियां। तीसरी तरफ़ दमन यानी सेना तथा देश में चहूँ ओर के दमन की दास्तान भी सुनाती है यह फ़िल्म। साथ ही गांधी से भी प्रश्न करती है। जब गांधी कहते थे कोई तुम्हें एक गाल पर मारे तो अपना दूसरा भी आगे कर दो। लेकिन कोई दूसरे पर भी मार दे तब?
नोट- साल 2016 में यूटयूब पर रिलीज की गई इस फ़िल्म को यूटयूब पर यहाँ क्लिक कर देखा जा सकता है। इस बेहतरीन फ़िल्म को सुझाने के लिए युवा निर्देशक गौरव चौधरी का धन्यवाद।
.