झारखण्ड विडम्बनाओं का राज्य है। विडम्बना है कि यहाँ के पानी मे सबसे ज्यादा आयरन है, लेकिन यहाँ की 67 फीसद ग्रामीण महिलाएँ एनीमिया की शिकार हैं। विडम्बना है कि विश्व के सबसे बड़े कोयले के भण्डार में ही बिजली की सबसे ज्यादा कमी है। विडम्बना है कि जो धरती दुनिया में खनिज के लिए जानी जाती है, वहाँ गरीबी है, भुखमरी है। विडम्बना है कि पर्यटन की असीम सम्भावना लिए यह राज्य पलायन का दंश झेल रहा है। दिलचस्प बात है कि ये विडम्बनाएं इत्तेफाक नहीं हैं। यह नतीजा है सरकारों के नकारेपन का, उनकी नीतियों का और उनकी लापरवाही का।
20 साल पहले जिन उद्देश्यों के साथ झारखण्ड राज्य की स्थापना हुई थी, उनमें से एक भी पूरा होता नजर नहीं आता। शिक्षा, स्वास्थ्य, इन्फ्रास्ट्रक्चर और रोजगार जैसे मूल मुद्दों पर सभी सरकारें विफल रही हैं। इतने सालों में तमाम सम्भावनाओं के बावजूद इस राज्य के पास एक भी बड़ी उपलब्धि नहीं है। कारणों पर जाने से पहले हमें सिलसिलेवार ढंग से सभी महत्वपूर्ण पहलुओं को आंकड़ों के आधार पर समझने की जरूरत है।
झारखण्ड की प्रति व्यक्ति आय पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र जैसे राज्यों की आधी है। यहाँ गरीबी दर 37 के आसपास है, जबकि देश की गरीबी दर इससे कहीं कम 22 है। राज्य के ग्रामीण क्षेत्रों की 41 फीसद आबादी गरीबी रेखा से नीचे हैं। पिछले तीन सालों में 23 से ज्यादा मौतें भूख की वजह से हो चुकी हैं। यह सब तब है, जब झारखण्ड के पास प्रगति के लिए तमाम संसाधन उपलब्ध हैं।
दो दशक बाद भी झारखण्ड के पास रिम्स के अलावा एक भी बड़ा अस्पताल नहीं है। हालांकि देवघर में एम्स का निर्माण चल रहा है। लेकिन वर्तमान में स्थिति यह है कि लगभग सभी जिले से लोगों को हर छोटी और बड़ी बीमारी के लिए रिम्स ही आना पड़ता है। जिलों में सदर अस्पतालों की स्थिति ऐसी है कि जिनके पास कोई दूसरा विकल्प नहीं बचता, वे ही वहाँ जाते हैं। झारखण्ड और बिहार देश में सबसे खराब स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए जाने जाते हैं।
दूसरी ओर कनेक्टविटी को छोड़ दें तो, तो राज्यभर में इन्फ्रास्ट्रक्चर के नाम पर कोई नया काम नहीं हुआ है। ना कोई शहर विकसित हो सका और ना किसी शहर को और विकसित किया जा सका। राज्य के चार शहरों को उपराजधानी बनाने की बस बात की गयी है। कई शहरों में एयरपोर्ट की भी घोषणाएँ हो चुकी हैं, लेकिन उन शहरों की आधारभूत जरूरतें भी पूरी नहीं हो पा रही हैं। राजधानी को राज्य के सबसे बड़े शहर से जोड़ने वाली सड़क रांची-टाटा नेशनल हाई-वे की स्थित इतनी खराब है कि दो साल पहले जापान की सरकार ने झारखण्ड में रह रहे अपने नागरिकों को इस हाई-वे पर सफर नहीं करने के आदेश दिए थे। राजनीति के भेंट चढ़ गयी यह सड़क आज भी वैसी ही है। 2018 तक आठ सालों में कुल 700 से अधिक लोगों ने इस सड़क पर अपनी जान गवां दी थी।
1907 में टाटा स्टील और 1964 में बोकारो स्टील प्लाण्ट के बाद कोई बड़ा उद्योग राज्य नहीं पहुंचा। पिछली सरकार के तमाम प्रयासों के बावजूद बात सिर्फ एमओयू तक ही रह गयी। हाँ, इस बीच दर्जनों की संख्या में छोटे और मध्यम उद्योग दूसरे राज्य जाते रहे क्योंकि यहाँ उन्हें बिजली की कमी से जूझना पड़ता था। हालाँकि इसके और भी कई कारण रहे हैं। झारखण्ड स्मॉल स्केल इन्डस्ट्रीज एसोसिएशन पिछले कई सालों से सराकर को यह कह रहा है कि राज्य में उद्योग के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ नहीं है।
राज्य की शिक्षा नीति का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि करीब दो साल पहले राज्य सरकार ने 4600 स्कूल सिर्फ इसलिए बन्द कर दिए क्योंकि उनमें बच्चों की संख्या कम थी। ये स्कूल राज्य के गठन के बाद शुरुआती सालों में खुले थे। जिस समय ये स्कूल बंद हुए, उस समय झारखण्ड एडुकेशनल डेवलपमेंट इंडेक्स में देशभर में सबसे पीछे था और आज भी है। इसके बावजूद 6,466 अन्य स्कूलों को बंद करने की योजना बन चुकी है। इस प्रक्रिया को सरकार ने विलय (मर्जिंग) का नाम दिया है। गौर करने वाली बात यह भी है कि 20 सालों में राज्य की आबादी एक करोड़ से ज्यादा बढ़ी है, लेकिन उस अनुपात में स्कूल नहीं खुले। इतने सालों में राज्य को कोई बड़ा शैक्षणिक संस्थान भी नहीं मिला।
रोजगार का नाम आते ही जेपीएससी और सचिवालय आदि की परीक्षाएँ मुँह चिढ़ाती हुई दिखती हैं। 20 सालों में सिर्फ 6 जेपीएससी की परीक्षाएँ हुईं और उनमें से चार विवादित। एक और चीज जो रोजगार के साथ आती है, वह है पलायन। झारखण्ड के लगभग 5 लाख से ज्यादा लोग दूसरे राज्यों में मजदूरी करते हैं। उन्हें उन राज्यों में जितने पैसे मिलते हैं, उससे आधी रकम पर वे अपने राज्य, अपने घर में काम करना चाहते हैं। लेकिन इतने सालों में उन पांच लाख लोगों के बारे में किसी ने नहीं सोचा। पलायन की समस्या से मानव तस्करी जैसे अपराध को भी हवा मिलती है। देश भर में मानव तस्करी के शिकार बच्चों में से 15-18 फीसद झारखण्ड के होते हैं। भुखमरी में भी झारखण्ड अन्य राज्यों से आगे है, यहाँ औसतन हर साल 8 लोगों की मौत भूख से हो जाती है जबकि सरकार का सारा प्रयास रहता है कि इन मौतों को अन्य कारणों से जोड़ दिया जाय।
इनमें से किसी भी क्षेत्र में सराकारों ने काम किया होता तो यह राज्य के लिए बड़ी उपलब्धि होती।
आज से लगभग 150 साल पहले साहित्यकार संजीब चटोपाध्याय पलामू भ्रमण के लिए आए थे। उन्होंने अपने यात्रा वृतान्त में यहाँ बन्धुआ मजदूरी का जिक्र किया था। पलामू सहित झारखण्ड के कई जिलों से आज भी बन्धुआ मजदूरों की खबरें आती रहती हैं। हम 150 सालों में भी इस कलंक को राज्य के माथे से हटा नहीं सके।
राजधानी के कई वरिष्ठ पत्रकार यह बताते हैं कि हर सरकार की नजर कोयले पर होती है, जितना हो सके कोयला बेचना चाहती हैं सरकारें। इस राज्य में कोयले की ही लूट है, वही सबकी कमाई का जरिया है। यह भी माना जाता है कि कोयले पर ही इस राज्य की अर्थव्यवस्था टिकी है, जबकि यह राजनीतिक पार्टियों द्वारा अपने फायदे के लिए सेट किया गया नैरेटिव है।
सच्चाई यह है कि झारखण्ड को कोयले और अन्य खनिज के साथ प्राकृतिक सौन्दर्य का वरदान भी मिला है। पत्रकार और साहित्यकार संजय कृष्ण कहते हैं कि यदि झारखण्ड में पर्यटन पर ध्यान दिया जाए तो यह अकेले इतना राजस्व दे सकता है, जितना सभी विभाग मिलकर देते हैं। राजस्थान और गुजरात के मुकाबले झारखण्ड में देखने, घूमने लायक जगहों के साथ ऐतिहासिक विरासत कम नहीं है। इसी तरह झारखण्ड में फिल्म की संभावनाएं भी असीम है। सत्यजीत रे ने अपनी पहली फिल्म पथेर पंचाली की शूटिंग पलामू के जंगल में की थी। पर्यटन और फिल्म बड़े स्तर पर रोजगार सृजन भी करते हैं।
दरअसल झारखण्ड में जितने अवसर हैं उन्हें जन सामान्य के हित में बदलने के लिए जिम्मेवारी की भी जरूरत है। वरना विकास के नाम पर संसाधनों का दोहन चलता रहेगा और कुछ लोगों की तिजोरियाँ भरती रहेंगी। सभी आधारभूत पहलुओं की कसौटी पर झारखण्ड आज भी वहीं खड़ा नजर आता है जहाँ 20 साल पहले था। एक ओर शहर अंधाधुंध और बेतरतीब बढ़ते जा रहे हैं। तालाब, डैम, खेत औऱ नदियों की लाशों पर इमारतें खड़ी हो रही हैं। दूसरी तरफ सरकार की प्राथमिकताओं से दूर गांव खाली हो रहे हैं। इस संतुलन को बरकरार रखना बड़ी चुनौती है। ऊंची इमारतों और भाग-दौड़ की जिन्दगी से इतर झारखण्ड के लोगों ने विकास की नयी अवधारणा तय की है। इसे कायम रखना जरूरी है।
झारखण्ड के साथ जिन दो राज्यों का गठन हुआ था, वे तुलनात्मक रूप से काफी आगे हैं। जबकि उनमें से एक छत्तीसगढ़ के साथ लगभग समान चुनौतियाँ थीं। झारखण्ड ने इतने सालों में नक्सलवाद पर जरूर काबू पाया है, लेकिन इसका श्रेय सरकारों को नहीं दिया जाना चाहिए। नक्सल आन्दोलन अपने कारणों से खत्म होने की कगार पर है।
20 सालों में राजनीतिक कसौटी पर भी झारखण्ड को कुछ हासिल नहीं हो सका। सीएनटी, पत्थलगढ़ी, स्थानीय नीति, लैंड बैंक आदि तमाम मुद्दे आज भी गले की फाँस बने हुए हैं। पांचवीं अनुसूची को पूर्ण रूपेण लागू करने के नाम पर सरकारों के मुंह पर ताला लटका मिलता है। लैंड बैंक की योजना का सबसे बड़ा नुकसान आदिवासियों का है। यानी लोगों के जीवन से जुड़ी महत्वपूर्ण समस्याओं के समाधान पर इस राज्य की जो स्थिति है, वही स्थिति उन मुद्दों पर भी है जो विशुद्ध रूप से झारखण्ड के हैं। आदिवासी खेमे में सभी सरकारों के प्रति नाराजगी है, क्योंकि आदिवासी हितों के आधार पर बनी सरकार ने भी आदिवासियों के साथ विश्वासघात किया है।
झारखण्ड की उन्नति का वास्तविक पैमाना यहाँ की अस्मिता के साथ यहाँ के लोगों की खुशहाल जिन्दगी है। और यह तय होती है शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार जैसे मुद्दों से। एक राज्य के तौर पर हम तभी आगे बढ़ सकते हैं, जब सभी वर्ग, समुदाय के लोगों की आधारभूत जरूरतों को पूरा कर सकें। यही किसी भी सरकार का पहला और सबसे बड़ा दायित्व भी है।