देश के सबसे बड़े राज्य व प्रमुख सियासी केंद्र के रूप में पहचान रखने वाले उत्तर प्रदेश में अगला विधानसभा चुनाव सात-आठ महीने बाद होगा। चुनाव नजदीक देख भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) में कुछ ज्यादा ही हलचल तेज हुई है। इन दिनों सबसे ज्यादा भाजपा ही मीडिया की सुर्खियों में है। योगी मुख्यमन्त्री कुर्सी से हटेंगे या रहेंगे, अगला चुनाव योगी की अगुवाई में होगा या सारथी बदला जाएगा, योगी दिल्ली तलब किए गये या नीतिगत फैसलों को लेकर वरिष्ठों से बैठक करने खुद गये?
पीएम मोदी, अमित शाह, पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा से मुलाकात और बैठक के समय बॉडी लैंग्वेज सरीखे तमाम अटकलों के बीच तमाम कयास और दावे किए जाते रहे हैं। नया सियासी पैंतरा यूपी को तीन राज्यों के विभाजन का भी जुड़ गया है। कयास और अटकलों के बीच इतना तो तय है कि यूपी को लेकर भाजपा में अंदर ही अंदर जबर्दस्त छटपटाहट है। राज्य से लेकर समूचे देश में यह छटपटाहट महसूस भी की जा रही है। योगी हटेंगे या रहेंगे, असल मसला यह नहीं, बल्कि यह है कि भाजपा यूपी में रिपीट होगी या सन् 2002 की तरह सत्ता से बेदखल होकर चौदह साल से भी ज्यादा का ‘वनवास’ भोगेगी।
याद करें, पीएम अटल बिहारी वाजपेई की सरकार कम लोकप्रिय नहीं थी। भारत उदय और शाइनिंग इंडिया सरीखे नारों का जबर्दस्त बोलबाला रहा, पर जमीनी हकीकत से दूर रहकर चुनाव लड़ी भाजपा बुरी तरह चुनाव हारी। चौदह से भी ज्यादा, पूरे पंद्रह साल राजनीतिक वनवास भोगने के बाद सन् 2017 में भाजपा उत्तर प्रदेश में सरकार बना पाई। राजनीति के गलियारों में चर्चा जोर पकड़ने लगी है कि क्या इस बार विधान सभा चुनाव में भाजपा खुद को कमजोर पा रही है? अगर नहीं तो पार्टी के भीतर इतना उबाल क्यों ?
माना जाता है कि देश की सत्ता का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर ही जाता है। इस राज्य की सियासी नब्ज देश की राजनीतिक दशा और दिशा दोनों तय करती है। अभी हाल में हुए जिला पंचायत सदस्य के चुनाव में पूरे प्रदेश से भाजपा का सूपड़ा साफ हो गया। सपा को चौंकाने की हद तक कामयाबी मिली। खास बात यह कि जिला पंचायत सदस्य के चुनाव को भाजपा ने विधान सभा 2022 का ट्रायल घोषित कर रखा था।
गौरतलब है कि यूपी में विपक्ष अभी पैदल ही है। उसके पास खोने को कुछ ज्यादा नहीं है पर भाजपा के पास खोने को बहुत कुछ है। खुद को विश्व की सबसे बड़ी पार्टी बताने वाली भाजपा, केंद्र से लेकर यूपी समेत कई राज्यों में सत्तासीन है। यूपी के रास्ते होकर देश की सत्ता हासिल करने के लिए यूपी का मिजाज समझना जरूरी होता है। साढ़े चार साल पूरे होने को हैं। कुछ महीने बाद ही राज्य में होने जा रहा विधान सभा चुनाव विपक्ष के लिए अवसर है तो योगीराज के लिए कठिन अग्नि परीक्षा।
मोदी की प्रचंड लहर के चलते भाजपा उत्तर प्रदेश में पंद्रह साल बाद सत्ता में आई। बतौर मुख्यमन्त्री योगी आदित्यनाथ ने राज्य में सत्ता की कमान संभाली। शुरुआत बहुत अच्छी रही। इसका असर दूर दराज के राज्यों तक पड़ा। लिहाजा, योगी समेत योगी के यूपी माडल की चर्चा अन्य प्रांतों के चुनावों में होती रही। वहां योगी आदित्यनाथ स्टार प्रचारक के तौर पर भेजे जाते रहे हैं। उत्तर प्रदेश में भाजपा के भीतर हालात कुछ ऐसे बनते गये कि सरकार मजबूत दिखती रही पर खुद भाजपा खोखली होती गयी।
जरूरत से ज्यादा विरोधी दल के नेताओं की ‘भर्तियों ‘ ने चुनावी फिजां तो बदला पर बतौर पार्टी भाजपा को खोखला भी किया। साठ फीसदी से ज्यादा वही आयातित नेता भाजपा के सांसद-विधायक बन गये जिनके कारनामों और कार्यशैली के खिलाफ कल तक भाजपा जनता के बीच जाकर वोट मांगा करती थी। मोदी के करिश्माई व्यक्तित्व ने चुनाव को इस कदर एकतरफा मोदीमय किया कि ईवीएम तक संदेह के दायरे में आ गया।
उधर, नए नवेले भाजपा के सांसद-विधायक साढ़े चार साल बाद भी ‘ गैर-भाजपाई ‘ दिखते रहे। बड़ी तादाद में दूसरे दलों से आकर विधायक, सांसद और मन्त्री बने लोग पार्टी के पुराने प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं के साथ ‘एडजस्ट’ नहीं कर सके। पार्टी फोरम की बैठकों में कई बार पार्टी कार्यकर्ताओं की उपेक्षा का मुद्दा उठाया जाता रहा पर वह नक्कारखाने में तूती साबित हुई। संगठन पर सत्ता पूरी तरह काबिज रही। बड़ी तादाद में भाजपा के पुराने समर्पित कार्यकर्ता और कद्दावर नेता खुद को उपेक्षित महसूस समझ किनारा कसने लगे। मौका देख पार्टी में एक दूसरे को निपटाने का ‘गेम’ भी खेला गया। सत्ता की हनक में कार्यकर्ताओं से पिछला हिसाब-किताब चुकता किया जाने लगा। कई जिलों में पुराने भाजपाइयों पर फर्जी मुकदमें और गिरफ्तारी जैसी शर्मनाक वारदातें हुईं।
बैठक और सभाओं में ‘देव -तुल्य कार्यकर्ता’ के संबोधन की ‘शाब्दिक-जुगाली’ करने वाले इन ‘सत्ताधीशों’ की भूमिका तक संदिग्ध रही। पार्टी समर्थक और कार्यकर्ताओं के बीच बेहद खराब संदेश जाता रहा। इधर, संगठन पदाधिकारियों से लेकर विभिन्न चुनावों में प्रत्याशियों के टिकट भी इन्हीं सांसद-विधायकों के पसंदीदा और खास लोगों को दिए गये। फिलहाल, करीब दो महीने पहले हुए जिला पंचायत सदस्य के चुनाव में पूरे प्रदेश में भाजपा का सूपड़ा साफ हो गया। ज्यादातर जिले में सांसद और विधायक अपने क्षेत्र से एक भी कैंडीडेट नहीं जिता सके।
पूर्वी उत्तर प्रदेश में कई रसूखदार भाजपा मंत्रियों तक की हैसियत वहां के वोटरों ने नाप दी। आयातित भाजपा सांसद-विधायकों के चहेते बड़ी तादाद में प्रत्याशी बनाए गये पर शर्मनाक पराजय ने पार्टी ओहदेदारों की नींद उड़ा दी। गौरतलब है कि भाजपा ने जिला पंचायत का यह चुनाव आगामी विधानसभा चुनाव का ट्रायल उदघोष करके लड़ा था पर रिजल्ट बेहद खराब आया। जिला पंचायत सदस्य के चुनाव में जनता का विपरीत मूड देख भाजपा के दिग्गज हैरान-परेशान हैं। फौरी तौर पर पार्टी के सामने बड़ा चैलेंज जिला पंचायत अध्यक्ष और ब्लॉक प्रमुख की सीट को लेकर है। यहां भी दूसरे दल के नेताओं का मुंह ताकना पड़ रहा है। थैली और पुरानी यारी से लेकर कार्यकर्ताओं की गर्दन रेतने तक के तौर तरीके अख़्तियार किए जा रहे हैं।
भाजपा के पुराने समर्थक व पेशे से वकील रूद्र प्रताप सिंह बैस तर्क देते हैं-मोदी और योगी का असर तो है, पर विधान सभा चुनाव में उन इलाकाई विधायक-सांसदों की कार्यशैली भी मायने रखेगी, जो भाजपा कार्यकर्ताओं को अछूत मानकर लगातार दूरी बनाकर केवल अपने स्वार्थ में जुटे रहे। भाजपा के पुराने समर्थक रमेश चंद्र के शब्दों में-चुनाव में थोड़ा बहुत दल बदल तो होता रहता है, पर दूसरे दल के नेताओं की बेतहाशा इंट्री ने भाजपा को कमजोर करने का कार्य किया है। प्रयागराज जिले के सोरांव के पत्रकार मंगलेश्वर टिप्पणी करते हैं-टिकट व प्रत्याशी बनने की मंशा से दूसरे दलों से आए इन ज्यादातर नेताओं की कार्यशैली भाजपा और पार्टी कार्यकर्ताओं के विपरीत रही है। इनकी रुचि अपने चेलों को सेट कराने और खुद को मजबूत करने में ज्यादा रही है। बहरहाल, सत्ता की फौरी चाहत ने भाजपा को कमजोर किया है।
भारतीय राष्ट्रीय पत्रकार महासंघ के प्रदेश अध्यक्ष मथुरा प्रसाद धुरिया मशविरा देते हैं कि दूसरे दलों के ‘थकैल’ नेताओं की भीड़ जुटाने के बजाय भाजपा अपनी ही पार्टी के उन पुराने प्रतिबद्ध, समर्पित कार्यकर्ताओं की टीम को मजबूती से मैदान में उतारे, जो हताश-निराश होकर घरों में बैठ गये हैं। पत्रकार सुरेश निर्मल कहते हैं-आयाराम-गयाराम के सहारे रहेगी तो भाजपा का तगड़ा नुकसान होगा। सूत्रों की मानें तो कई सांसद-विधायक निजी कुनबा बढ़ाकर हालात का अंदाज लगा रहे हैं, गड़बड़ दशा देख कुनबा समेत दूसरे दल में छलांग लगाने में कतई गुरेज नहीं करेंगे।
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