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कोबाल्ट ब्लू
सिनेमा

कोबाल्ट ब्लू : प्रेम रंग में डूबी दुखा:त्मक नीलिमा की रचनात्मक कृति

 

समलैंगिक रिश्तों के प्रति एक स्वस्थ समझ विकसित करने की ईमानदार कोशिश के कारण ‘कोबाल्ट ब्लू’ एक उत्कृष्ट फिल्म कही जा सकती है। कथानक केरल के नैसर्गिक सौन्दर्य की पृष्ठभूमि पर रचा गया है जो आपको अहसास करवाता है कि जितना यह नैसर्गिक सौन्दर्य निष्कलंक है, नायक तनय का प्रेम भी उतना की सुंदर मासूम और प्राकृतिक है, किसी भी दैहिक मांग से उपजा-पनपा क्षणिक भावोच्छास नहीं, पूर्णतया समर्पित प्रेम है। 2018 में धारा 377 के तहत जबकि समलैंगिकता को अपराधमुक्त कर दिया गया है।

यह कहानी 1996 के समय की होते हुए भी कहीं न कहीं आज के समलैंगिक सम्बन्धों में प्रेम की तड़प को दर्शाती है, प्रेम जो स्वीकार्य नहीं, आज भी समलैंगिक प्रेमियों की भावनाओं का दैहिक शोषण जारी है, कारण इन सम्बन्धों से जुड़ी नैतिकता जो पितृसत्ता से संचालित है जहाँ समलैंगिक होने का अर्थ आज भी मात्र दैहिक जरूरतों से समझा जाता है। फ़िल्म बहुत सहजता से समलैंगिकता की इसी रूढ़िवादी सोच को तोड़ना चाहती है। समलैंगिक लोगों की भावनाओं को यह फिल्म विशेष ट्रीटमेंट देती है और बड़े ही सावधानी से बिना किसी विकृति के हमारे सामने समलैंगिक दैहिक सम्बन्धों के दृश्यों भी खूबसूरती से प्रस्तुत कर रही है। तब भारती की कविता याद आती है “अगर मैंने किसी के होंठ के पाटल कभी चूमे, अगर मैंने किसी के नैन के बादल कभी चूमे…महज इससे किसी का प्यार मुझ पर पाप कैसे हो… न हो यह वासना तो जिन्दगी की माप कैसे हो”।

नीला रंग सृष्टिकर्ता का प्रिय रंग रहा होगा, अनंत आकाश और अथाह समुद्र इसके प्रमाण है। चुम्बकीय आकर्षण, रहस्य-रोमांच और सौन्दर्य के अथाह भण्डार से भरपूर। ये जानकर भी कि इन्हें सम्पूर्णता में पाना असंभव है, तमाम जोखिमों के बावजूद मनुष्य इन्हें पाना चाहता है। प्रेमपंथ भी तलवार की धार पर चलने के सामान है। कोबाल्ट धातु भी इसी प्रकृति के भीतर नील वर्णक, तीव्र लौह चुंबकत्व का गुण लिए चमकीली सलेटी चांदी रंग का होता है, जो बहुत सुंदर गहरा नीला रंग उत्पन्न करता है।

‘कोबाल्ट ब्लू’ फिल्म का कैनवास केरल के असीम प्राकृतिक सौन्दर्य के बीच, प्रेम में भीगा दुःख की नीलिमा में घुला लेकिन रचनात्मक ऊर्जा के साथ मानवीय प्रेम के अनोखे रंग बिखेरता है, जिनसे हम आज तक भी परहेज़ ही करते हैं। 1730 में रसायन शास्त्री जॉर्ज ब्रांड्स ने कोबाल्ट के महत्व को प्रतिपादित कर, सम्मानित धातु के रूप में स्थापित किया जिसका वह अधिकारी था। लेकिन समलैंगिक सम्बन्ध क़ानूनी मान्यता प्राप्त करने के बाद भी सामाजिक सम्मान और पहचान के लिए संघर्ष कर रहे हैं। कोबाल्ट के प्राकृतिक चुंबकीय गुण की भाँति, समलैंगिकता का भाव सिर्फ दैहिक नहीं अपितु भीतरी गुण है जिसे बनाया या गढ़ा नहीं गया जिस प्रकार पितृसत्ता में पुरुष और स्त्री गढ़े जाते हैं। प्रेम का स्वच्छंद और अनन्य भाव पितृसत्ता के खाँचों में वैसी भी फिट नहीं बैठता उस पर पवित्रता के नाम पर विवाह में स्त्री पुरुषों का गठबंधन किया जाता है ऐसे में समलैगिक सम्बन्ध अभी भी इस दायरे से बाहर है हालाँकि निर्देशक कहीं भी इन दायरों में कैद होना भी नहीं चाहता।

पुरुष का पुरुष से सम्बन्ध यानी ‘गे रिलेशनशिप’ पर एक अद्भुत व मार्मिक प्रेम कहानी जो आपको भीतर तक पिघला देगी। प्रेम के विविध रंग-रूपों को बहुत ही सलीके से पर्दे पर बिखेरा गया है, नीले रंग की भव्यता के बावजूद यह ‘ब्लू फिल्म’ जिसकी बहुत संभावना थी, नहीं हो पाई यही इसकी कलात्मक विशेषता भी है। एक दृश्य में नायक अपने अनाम प्रेमी की शर्ट सूंघता है तो एक अन्य दृश्य में माँ का आँचल पकड़कर सूंघता है दोनों ही दृश्य बताना चाहतें हैं कि तनय का प्रेम नैतिक-अनैतिकता से परे निस्वार्थ है। 2006 में फिल्म निर्देशक सचिन कुन्दलकर का मराठी उपन्यास आया जिसका अंग्रेजी संस्करण 2013 में आया इसी उपन्यास पर फिल्म आधारित है।

केरल की हरियाली और  मसालों की सुगंध, अंग्रेजी कवियों की कविताओं, विविध फ़िल्मी पोस्टरों के बीच नायक की मासूमियत और उनके जैसे रचनात्मक व्यक्तित्व के रूप में अपनी पहचान निर्मित करने की ललक विषय को विस्तार देती है। जो कहना चाहती है सिर्फ समलैंगिकता किसी की पहचान नहीं हो सकती। नायक तनय की आँखों में पेइंग गेस्ट अनाम लड़के यानी प्रतीक बब्बर के प्रति आकर्षण, रहस्य, रोमांच, प्रेम, समर्पण उसकी मासूम हँसी- रुदन उसका हावभाव सभी को आप महसूस कर पाते हैं, आपकी संवेदनीयता को सोचने समझने के नए आयाम मिलते हैं।

हम एक ऐसे समाज में रहते हैं जहाँ हम समानता की बात तो करते हैं लेकिन जब विवाह और प्रेम की बात आती है तो हम विषम लिंगी सम्बन्धों को ही मान्यता देते हैं और इसी विडम्बना को इस फिल्म ने अपने ढंग से प्रस्तुत करने की कोशिश की है। जहाँ एक समलैंगिक के रूप में एक शिक्षक (नील भूपालम) अपने लिए सम्मान भरी जिन्दगी की खोज करना चाह रहा है, एलजीबीटीक्यू समुदाय के लोग जिस तरह से अपने अकेलेपन के दर्द से गुजरते हैं और अपना दर्द किसी से बयां नहीं कर पाते। अगर बताते हैं तो किस तरह उनका लाभ उठाया जाता है। तनय का प्यार इतना शुद्ध और समर्पित है कि उसने कभी किसी चीज पर सवाल नहीं उठाया कभी संदेह नहीं किया वह हर बात पर विश्वास करता है पर तरुण-सा तनय जो अभी पूरी तरह युवा भी नहीं हुआ समझ नहीं पाता कि उसका प्रेमी बिना बताये उसे छोड़कर क्यों गया उसका दुख और मायूसी आपको रुला देगी।

एक दृश्य में उसका शिक्षक जब उससे कहता है कि ‘कपड़े पहन लो और घर जाओ’ उस समय उस शिक्षक का अभिनय जीवंत हो उठता है, बिना कपड़ों में बैठे तनय की मुद्रा किसी भी कलाकृति की तरह आपको भिगो जाती है, पर आप भीतर तक से हिल जाते हैं और ये जानकर भी कि आप समाज के अनुरूप ढले हैं आप संतुष्ट नहीं हो पाते। जब शिक्षक कहता है ‘हम अकेले हैं हमें दोस्त की तलाश है लेकिन हमारे दोस्त हमसे दूर हो जाते हैं… और तनय आज तुम जिस स्थिति से गुजर रहे हो उस से मैं गुजर चुका हूं और गुजर रहा हूं। जिन्हें हम प्यार करते हैं, महिलाओं ने उन पुरुषों को हमसे चुरा लिया। जाहिर है कि वे पुरुष या तो इनका शोषण कर रहे थे अथवा समाज से संघर्ष न कर सके।   

समलैंगिक प्रेम जिसे चॉकलेटी प्रेम कहकर बहुत छोटा बना दिया जाता है, ‘कोबाल्ट ब्लू’ फ़िल्म यहाँ प्रेम को नया लैंगिक आयाम प्रदान करती है जो परंपरागत प्रेम के सभी दायरे तोड़ना चाहता है। प्रेम का अंत विवाह है और विवाह के मायने स्त्री-पुरुष प्रेम सम्बन्ध जो कितने प्रेम में पगे होते हैं इसे आरम्भ में ही बता दिया गया है आरम्भ में जब तनय के पिता अपनी पत्नी से फोन पर कहते हैं कि ‘अब और बर्दाश्त नहीं कर सकता… मैं अपनी भूख किसी और तरीके से मिटा सकता हूं और सिर्फ मैं खाने की बात नहीं कर रहा हूँ’ यहाँ से पितृसत्ता का वह पक्ष हमें दिखाई पड़ जाता है जहाँ पत्नी सिर्फ और सिर्फ पुरुष की भूख मिटाने का जरिया मात्र है बाकि सभी संस्कार रीति-रिवाज़ खोखले आवरण है जिन्हें पितृसत्ता ने बहुत सोच समझ कर गढ़ा है।

बाद में जब एक ही दिन तनय के दादाजी और दादजी की मृत्यु पर अनुजा पूछती है कि ‘दादी तो दादा को पसंद नहीं करती थी फिर दोनों एक ही दिन कैसे?’ (इसके पहले तनय ने कहा था कि दादाजी बहुत क्रूर थे दादी को पीटते भी थे) तनय कहता है “प्यार एक आदत है आदत खत्म तो आप भी खत्म” विवाह संस्था में इस आदत को विकसित किया जाता है जो सहज स्फूर्त नहीं होता। तब हम सोचते हैं कि विवाह संस्था में बंधकर जिसके साथ हम ताउम्र रह लेते हैं क्या वह प्रेम ही है या आदत… अथवा वास्तविक प्रेम वह है जो कुछ खास क्षणों में महसूस किया जाता है और अलग होने पर भी शर्ट की सुगंध की तरह आपके भीतर बाहर आच्छादित रहता है, वह प्रेम आप को कमजोर नहीं मजबूत बनाता है जबकि वैवाहिक सम्बन्ध यदि प्रेम नदारद है वह आपको हमेशा कमजोर ही बनाता है।

तनय की बहन अनुजा जब कहती है कि ‘उसने मुझे मेरे शरीर से परिचित कराया’ तो कहीं ना कहीं हमें यहाँ मान लेना चाहिए कि उस पेइंग गेस्ट ने उसे किन अर्थों में समझाया होगा, उसका शोषण किया होगा, क्योंकि एक ऐसा व्यक्ति जो उसके भाई के साथ सम्बन्ध बना चुका है, वह अब अनुजा को पितृसत्तात्मक साँचे में ढालने की कोशिश कर रहा है क्योंकि अनुजा परंपरागत लड़कियों की तरह नहीं है उसके बाल कटे हुए हैं, हॉकी खेलती है, और शादी नहीं करना चाहती उसका शादी ना करने का कारण खेल के प्रति उसका रुझान है।

उसका पिता उसको लालच देता है कि यदि यहाँ शादी करोगी तो सारी जिन्दगी पूरी सुख सुविधा के साथ रहोगे लेकिन अंत में वह इन सुख-सुविधाओं को छोड़कर अपने बूते पर कुछ आगे करने के लिए हॉकी टीम के कोच बनने के लिए तैयार हो जाती है, उसके लिए हॉकी मात्र खेल नहीं बल्कि उसकी जिन्दगी का अभिन्न हिस्सा है जिससे वह अलग नहीं होना चाहती। तनय भी एक लेखक बनना चाहता है और निर्देशक बताना चाहता है कि सिर्फ समलैंगिक होना ही किसी की पहचान नहीं है, व्यक्तित्व के और भी बहुत बेहतरीन हिस्से होते हैं जिन पर हमारा समाज नजर नहीं डालता।   

मनोविज्ञान में जिस नील वर्ण को पौरुष और वीर भाव का भी प्रतीक मानते हैं, उसके सन्दर्भ में एक बहुत आकर्षक पेंटिग है जो पुरुष के सभी लक्षण लिए है, लेकिन आँखों से बहते आँसू भी पुरुष के व्यक्तित्व का खूबसूरत हिस्सा हो सकते हैं यह पेंटिंग फिल्म के कथानक को स्पष्ट करती है। विजुअल सिनेमैटोग्राफी कमाल की है, तभी कोबाल्ट ब्लू एक क्लासिक कलाकृति बन पाई है जिसमें मांसलता होते हुए भी वह पॉर्नोग्राफी की ओर नहीं गई है जैसा कि समलैंगिक फिल्मों में मसाला छौंक दिया जाता है, अथवा हास्य के नाम पर फूहड़ता। इस फिल्म का यदि परम्परागत तरीके से प्रचार प्रसार नहीं हुआ तो उसका भी कारण यही है कि निर्देशक चाहता है कि समलैंगिक प्रेम के प्रति सीमित सोच को सहज ढंग से उदार बनाया जाए, किसी तरह का बनावटीपन न झलके। ‘गहराइयाँ’ फिल्म के ट्रेलर याद कीजिये जिसमें दैहिक आवरण के भीतर कितने ही महत्त्वपूर्ण मुद्दें हाशिये पर चले गए।

निलय मेहंदले, अंजलि शिवरमन, प्रतीक बब्बर तीनों ने बेहतरीन अदाकारी दिखाई है। पृष्ठभूमि का संगीत बहुत अनूठा और अद्भुत है। अंत में जब तनय एक किसान का भोजन चुराकर खाता है और फिर लिखने बैठता तो समझ आता है हर चीज का अपना महत्व है तन और मन दोनों की भूख का अपना महत्व है। कुछ कमियों को नजरअंदाज कर दिया जाए तो यह एक अच्छी फिल्म है यद्यपि संवेदनशील विषय पर बनी इस फिल्म को समझने के लिए जिस संवेदनशीलता की जरूरत है, हमारे समाज में वह कम ही नजर आती है। जिन प्रेम सम्बन्धों को हम हेय दृष्टि से देखते हैं और उसे वीभत्स मानते हैं उस यथार्थ को बहुत ही कलात्मक पेंटिग की तरह प्रस्तुत किया है। जितनी उदारता से समलैंगिकता के विषय को उभारा गया है, हमारा दर्शक अभी उतना उदार नहीं है उसका दृष्टिकोण सीमित है इसलिए यह उत्कृष्ट कृति किसी भी कलात्मक कृति की तरह शोकेस में सज कर रह जाए तो कोई आश्चर्य नहीं   

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