लोकसभा चुनाव

ताकि संविधान की कसौटी की ओर लौट सकें

 

मौजूदा दौर की भारतीय राजनीति में नीतियों के स्तर पर सरकार और विपक्ष के बीच अंतर नहीं है| दरअसल, पार्टियों के बीच का अंतर ही लगभग समाप्त हो गया है| लोग अक्सर एक पार्टी से दूसरी पार्टी में आवा-जाही करते रहते हैं| अब इसका बुरा नहीं माना जाता क्योंकि विचारधारा राजनीतिक पार्टियों और नेताओं का आधार नहीं रह गयी है| केन्द्र अथवा राज्यों में कौन सरकार में है और कौन विपक्ष में – यह चुनाव में बाज़ी मारने पर निर्भर करता है| 1991 में जब कांग्रेस ने नई आर्थिक नीतियाँ लागू की थीं, उस समय भाजपा के वरिष्ठ नेता अटलबिहारी वाजपेयी ने कहा था कि कांग्रेस ने अब भाजपा का काम हाथ में ले लिया है| शायद तभी उन्होंने आकलन कर लिया था कि वे निकट भविष्य में देश के प्रधानमन्त्री बन सकते हैं| वर्ना 80 के दशक तक यही सुनने को मिलता था कि आरएसएस/जनसंघ से जुड़े वाजपेयी कभी भी प्रधानमन्त्री नहीं बन सकते|

1991 के बाद से मुख्यधारा राजनीति के लगभग सभी दलों का देश के संविधान के प्रतिकूल नई आर्थिक नीतियों के पक्ष में अनुकूलन होता गया है| लिहाज़ा, पिछले तीन दशकों में परवान चढ़ा निगम पूँजीवाद भारत के राजनीतिक दलों और नेताओं को खुले रूप में निर्देशित करता है| जब संविधान में उल्लिखित राज्य के नीति-निर्देशक तत्वों की जगह निगम पूँजीवाद की वैश्विक संस्थाओं – विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व व्यापार संगठन, विश्व आर्थिक मंच आदि, और देशी-विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों/कारपोरेट घरानों के आदेशों ने ले ली तो संविधान के समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता और लोकतन्त्र जैसे मूलभूत मूल्यों पर संकट आना ही था| इनमें समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता को हम लगभग गवां चुके हैं| इस क्षति का सच्चा अफसोस भी हमें नहीं है| नई पीढ़ियाँ इस पेराडाईम शिफ्ट की अभ्यस्त हो चुकी हैं| लोकतन्त्र का कंकाल अलबत्ता अभी बचा है| यह कंकाल जब तक रहेगा, चुनाव होते रहेंगे|

किसी देश की राजनीति में यह अत्यन्त नकारात्मक स्थिति मानी जायेगी कि वहाँ सरकार और विपक्ष का फैसला केवल चुनाव की जीत-हार पर निर्भर करता हो| होना तो यही चाहिए कि संविधान-सम्मत नीतियों को प्रभावी ढंग से लागू करने और संवैधानिक संस्थाओं के बेहतर उपयोग और संवृद्धि की कसौटी पर सरकार और विपक्ष दोनों को कसा जाए| लेकिन निगम पूँजीवाद से अलग विचारधारा, यहाँ तक कि संविधान की विचारधारा पर भी राजनीतिक पार्टियाँ और उनके नेता आस्था रखने को तैयार नहीं हैं| कांग्रेस और भाजपा निगम पूँजीवाद के तहत नवउदारवादी नीतियों की खुली वकालत करने वाली पार्टियाँ हैं| इन दोनों के अलावा जितनी छोटी-बड़ी राजनीतिक पार्टियाँ, देश के ज्यादतर बुद्धिजीवी, नागरिक समाज संगठन तथा एक्टिविस्ट भी घुमा-फिर कर नवउदारवादी नीतियों का ही समर्थन करते हैं| मुख्यधारा मीडिया इसी माहौल की उपज है और उसे ही दिन-रात लोगों के सामने परोसता है| जिसे ‘गोदी मीडिया’ का प्रतिपक्ष बताया जाता है, वह मीडिया भी ज्यादातर नवउदारवाद के दायरे में ही काम करता नज़र आता है| ऐसी स्थिति में नवउदारवाद, जो नवसाम्राज्यवाद का दूसरा नाम है, से लड़ने वाली राजनीति के लिए चुनाव के रास्ते जगह बनाना दुष्कर है|

चुनाव लोकतन्त्र का सबसे अहम पक्ष है और लोकतन्त्र के रहते चुनाव संभव होते हैं| चुनाव से ही सरकारों का बदलाव संभव होता है जो लोकतन्त्र के लिए ज़रूरी है| जब तक देश में चुनाव हो रहे हैं, चुनावी राजनीति पर इस ध्येय से विचार करने की जरूरत है कि भविष्य में राजनीति के लिए संविधान की कसौटी लौटाई जा सके| लिहाज़ा, लोकसभा चुनाव 2019 में विपक्षी पार्टियों की चुनावी एकता का सवाल अहम हो जाता है| सत्ताधारी भाजपा ने छोटे-बड़े 35 से ऊपर दलों के साथ तालमेल बनाया हुआ है| विपक्ष को भी राष्ट्रीय स्तर पर यह तालमेल करना चाहिए था| कांग्रेस के साथ तालमेल नहीं बन पाने की स्थिति में राजनीति की तीसरी शक्ति कहे जाने वाले दलों को राष्ट्रीय स्तर का एक अलग गठबंधन बनाना चाहिए था| मैंने पिछले साल जून में यह सब लिखते हुए सुझाव रखा था था कि भाजपा और कांग्रेस से इतर गठबंधन को सामाजिक न्यायवादी राष्ट्रीय मोर्चा (नेशनल फ्रंट फॉर सोशल जस्टिस) नाम दिया जा सकता है| इसमें कम्युनिस्ट पार्टियों सहित वे सभी दल शामिल हो सकते थे जो भाजपा और कांग्रेस के साथ मिल कर लोकसभा चुनाव नहीं लड़ना चाहते| लेकिन ऐसा नहीं हो पाया और 17वीं लोकसभा के चुनाव घोषित हो चुके हैं|

कांग्रेस अपनी भविष्य की राजनीति के मद्देनज़र अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग गठबंधन बना रही है| कांग्रेस और भाजपा दोनों दो-दलीय संसदीय लोकतन्त्र के पक्ष में हैं| मनमोहन सिंह और लालकृष्ण अडवाणी कह चुके हैं कि देश में दो ही पार्टियाँ होनी चाहिए| बाकी दलों को इन्हीं दो पार्टियों में विलय कर लेना चाहिए| भाजपा अमेरिका के पैटर्न पर अध्यक्षीय प्रणाली के भी पक्ष में है| दरअसल, कारपोरेट पॉलिटिक्स की यही ज़रुरत है कि भारत में अमेरिका की तरह केवल दो पार्टियाँ हों| दरअसल, कारपोरेट के अभी तक के सबसे बड़े ताबेदार प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी कितना भी कांग्रेस-मुक्त भारत की बात करते हों, वे कांग्रेस को ही अपना विपक्ष मानते हैं| इसका मायना है कि वे कांग्रेसेतर विपक्ष की अवधारणा को ख़त्म कर देना चाहते हैं| ऐसा होगा तो आरएसएस/भाजपा का भारत के संविधान को बदलने का काम आसान होगा| और भारत की राजनीति फिर कभी भी संविधान की कसौटी की ओर नहीं लौट पाएगी|

ऐसी स्थिति में तीसरी शक्ति की पार्टियाँ ही कारपोरेट से अलग संविधान के कुछ काम की सिद्ध हो सकती हैं| इन पार्टियों का अपना अलग गठबंधन बनता तो बहु-दलीय संसदीय लोकतन्त्र की संविधान-सम्मत प्रणाली को वैधता और मज़बूती मिलती और उसके दूरगामी सकारात्मक नतीजे निकलते| संविधान भारतीय राज्य के संघीय ढांचे को स्वीकृति देता है| लेकिन आज़ादी के बाद से ही केन्द्रवादी प्रवृत्तियों को बढ़ावा मिलता रहा है, जिसे वर्तमान सरकार ने चरम पर पहुँचा दिया है| राज्य के संघीय ढांचे का सत्ता, संसाधन और गवर्नेंस के विकेन्द्रीकरण से अविभाज्य संबंध है| राष्ट्रीय मोर्चा बनने पर संघीय ढांचे और विकेन्द्रीकरण का थोड़ा-बहुत बचाव ज़रूर होता|

राष्ट्रीय मोर्चा की भाजपा और कांग्रेस के ऊपर जीत की संभावनाएँ निर्णायक रूप से बढ़ सकती थीं, अगर साझा न्यूनतम कार्यक्रम इस वायदे के साथ बनाया जाता कि नयी सरकार किसानों, मज़दूरों, छोटे-मंझोले व्यापारियों/उद्यमियों, बेरोजगारों के पक्ष में नवउदारवादी आर्थिक नीतियों की समीक्षा करेगी| भाजपा और कांग्रेस यह वादा कभी नहीं कर सकतीं| इसके अलावा, राष्ट्रीय मोर्चा का नेतृत्व अपने सामाजिक आधार के चलते विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व व्यापार संगठन, विश्व आर्थिक मंच आदि के आदेशों को कांग्रेस और भाजपा जैसी तत्परता और तेज़ी से लागू नहीं कर सकता| ऐसा होने से कारपोरेट घरानों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की लूट में कुछ न कुछ कमी आती| राष्ट्रीय मोर्चा की जीत से सरकारों द्वारा संविधान में उल्लिखित ‘राज्य के नीति निर्देशक तत्वों’ के अनुसार आर्थिक नीतियाँ बनाने की पुनर्संभावना को बल मिलता|

इस बार के लोकसभा चुनाव में यह नहीं हो पाया| इसके लिए केवल राजनैतिक नेतृत्व ही जिम्मेदार नहीं है, बौद्धिक नेतृत्व भी जिम्मेदार है| लेकिन आगे के चुनावों में इस दिशा में प्रयास जारी रखा जाना चाहिए| इसी रास्ते से सरकारों और विपक्ष की राजनीति को संविधान की कसौटी की तरफ लौटाया जा सकता है| राजनीति की तरह चुनाव भी संभावनाओं का खेल है| इस चुनाव में यह देखना रोचक होगा कि कारपोरेट-साम्प्रदायिक गठजोड़ की सारी जकड़बंदी और उसमें मीडिया की सहभागिता के बावजूद मतदाता मौजूदा संविधान-विरोधी सरकार को उखाड़ फेंके| यह भी हो सकता है कि सरकार की पराजय का प्रतिफल कांग्रेस को न मिल कर तीसरी शक्ति को मिले| वैसी स्थिति में अगले पाँच साल के लिए देश की सत्ता की बागडोर सम्हालने की ऐतिहासिक भूमिका के बारे में तीसरी शक्ति के नेताओं को ध्यान करना चाहिए|

यह सब कहने का अर्थ यह नहीं है कि नवउदारवाद/नवसाम्राज्यवाद से सीधे टकराने वाली राजनीति का काम बन्द हो जाना चाहिए| वह समस्त बाधाओं के बावजूद चलते रहना चाहिए| बल्कि वह चलेगा ही, जैसे स्वाधीनता का संघर्ष उपनिवेशवादियों के समस्त दमन और कुछ देशवासियों की समस्त दगाबाजियों के बावजूद अपरिहार्य रूप से चला और सफल हुआ|

.

कमेंट बॉक्स में इस लेख पर आप राय अवश्य दें। आप हमारे महत्वपूर्ण पाठक हैं। आप की राय हमारे लिए मायने रखती है। आप शेयर करेंगे तो हमें अच्छा लगेगा।
Show More

प्रेम सिंह

लेखक समाजवादी आन्दोलन से जुड़े  हैं और दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व शिक्षक तथा भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला के पूर्व फेलो हैं।  सम्पर्क- +918826275067, drpremsingh8@gmail.com
0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments
0
Would love your thoughts, please comment.x
()
x