शख्सियत

सबको हासिल नहीं होती यह नामवरी

 

  • सत्येन्द्र पाण्डेय ‘सत्यम’

डॉ. नामवर सिंह नहीं रहे. जिस बात को मुहावरे के रूप में युग का अंत कहा जाता है, वह नामवर जी के निधन पर सच में ही साबित होती है. वे उस दूसरी परम्परा के प्रतिनिधि थे जो साहित्य में आमोद-प्रमोद और ऐश्वर्य के इतर जनपक्षीय मूल्यों की बात करती थी. वे न केवल हिंदी की प्रगतिशील आलोचना के हिमालयी प्रतीक थे बल्कि पूरे उपमहाद्वीप में मानवीय मूल्यों के साथ सजगता से खड़े साहित्य के कस्टोडियन भी थे. लिखना उन्होंने दशकों पहले छोड़ दिया था और वे मौखिक साहित्य की प्राचीन भारतीय परम्परा के महर्षि हो गए थे. चाहे यह जानबूझकर हुआ हो या अनजाने, या संयोग से ही. उनका कहा हुआ एक वाक्य लोगों को साहित्य की दुनिया में प्रतिष्ठित कर देने के लिए पर्याप्त होता था. वे जिस पुरुस्कार और सम्मान की निर्णायक समिति में होते, उसका महत्त्व बढ़ जाता था. वे जिस पत्रिका में लेख लिखते थे, उसका दायरा बढ़ जाता जाता था. उन्होंने परंपरागत साहित्य के मठों का विध्वंश किया और देखते-देखते वे हिंदी साहित्य के सबसे प्रमुख आचार्य बन गए. वे जिस मंच पर बैठते उसकी गरिमा बढ़ जाती थी, लेकिन उनकी सादगी भी उतनी ही अतुलनीय थी. वास्तव में यह नामवरी सबको हासिल नहीं होती.

नामवर सिंह का जन्म 28 जुलाई 1926 ई० को बनारस (वर्तमान में चंदौली ज़िलाके जीयनपुर गाँव) में हुआ था। एक किसान परिवार के उम्मीदों के चिराग, पढने बनारस आये तो साहित्य के संस्कार हासिल हुए. महाकवि त्रिलोचन शाष्त्री और शिवदान सिंह चौहान जैसे लोगों का सानिध्य हासिल हुआ और अपने आरंभिक जीवन में नामवर जी ने कविताओं में हाथ आजमाया. लेकिन जल्दी ही उन्होंने आलोचना की राह पकड़ ली और हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग और पृथ्वीराज रासो की भाषा जैसे शोध अध्ययन सामने आये. उनकी पहचान बनी 1954 में प्रकाशित पुस्तक ‘आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियाँ’ और अगले ही साल आई किताब ‘ छायावाद’ के साथ. फिर तो जल्दी ही इतिहास और आलोचना, कहानी : नयी कहानी और कविता के नए प्रतिमान ने उनको नामवरी की राह पर ला दिया. एक और महत्वपूर्ण पुस्तक दूसरी परम्परा की खोज अपेक्षाकृत बाद में प्रकाशित हुई.

उन्होंने हिन्दी साहित्य में एम०ए० व पी-एच०डी० करने के पश्चात् काशी हिंदू विश्वविद्यालय में अध्यापन किया लेकिन 1959 में चकिया चन्दौली के लोकसभा चुनाव में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार रूप में चुनाव लड़ने तथा असफल होने के बाद उन्हें बी.एच.यू छोड़ना पड़ा। बी.एच.यू के बाद डॉ० नामवर सिंह ने क्रमश: सागर विश्वविद्यालय और जोधपुर विश्वविद्यालय में भी अध्यापन किया। लेकिन बाद में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में उन्होंने काफी समय तक अध्यापन कार्य किया। अवकाश प्राप्त करने के बाद भी वे उसी विश्वविद्यालय के भारतीय भाषा केन्द्र में इमेरिट्स प्रोफेसर रहे। वह हिन्दी के अतिरिक्त उर्दू, बांग्ला एवं संस्कृत भाषा भी जानते थे।

मेरा उनसे पहला परिचय तब हुआ जब वे सागर विश्वविद्यालय से अपनी दुखांत विदाई के दशकों बाद पहली बार सागर आये थे और प्रगतिशील लेखक संघ की स्थानीय इकाई द्वारा आयोजित गोष्ठी में मुख्य अतिथि के रूप में मौजूद थे. उस गोष्ठी की अध्यक्षता हिंदी के मिथकीय कवि त्रिलोचन कर रहे थे जो उन दिनों सागर विवि की मुक्तिबोध श्रजन पीठ के अध्यक्ष थे. तब उन्होंने बताया था कि वामपंथी  राजनीति का समर्थक होने के कारण उन्हें सागर विश्विद्यालय छोड़ने के लिए बाध्य होना पड़ा था. हालाँकि शहर बदलने और अचानक से बेरोजगार हो जाने के बावजूद उनके तेवरों पर कोई असर नहीं पड़ा और हम जानते हैं कि नामवर जी ने बाद में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के मुखपत्र जनयुग के संपादन की जिम्मेवारी भी संभाली.

जब हम जबलपुर में विभिन्न श्रमिक संगठनों और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के प्रयासों से विख्यात व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई की स्मृति में परसाई भवन का निर्माण किया गया तो उसका उद्घाटन करने के लिए नामवर जी और ए.बी. बर्धन को आमंत्रित किया गया था. इस अवसर पर बोलते हुए नामवर जी ने कहा था कि मुझे याद नहीं आता कि हिंदी भाषी राज्यों में कहीं और भी किसी राजनैतिक पार्टी ने किसी लेखक की ऐसी यादगार तैयार की हो. उन्होंने देश में इसके सामान एक और उदाहरण बताया और वह हैदराबाद का मखदूम भवन है जो सीपीआई ने ही तेलंगाना आन्दोलन के क्रांतिकारी नेता और महान शायर मखदूम मोयुद्दीन के नाम पर तामीर किया है.

नामवर जी से ही जुडी एक और घटना अक्सर याद आती है. प्रगतिशील लेखकों का अखिल भारतीय अधिवेशन हैदराबाद में आयोजित हो रहा था. हम कुछ युवा साथी नेतृत्व की किसी बात से असहमत थे और जोर-शोर से अपनी आवाज उठा रहे थे. जाहिर है, नेतृत्व के लिए यह स्थिति असहज होती है पर राष्ट्रीय अध्यक्ष की हैसियत से नामवर जी उठकर खड़े हुए और अपनी जगजाहिर अदा के साथ उन्होंने कहा कि नौजवानों की यह ऊर्जा देखकर आज मेरा सीना चौड़ा हो गया. ऐसा कहकर उन्होंने हमारी बात भी रख ली और हमें पानी-पानी भी कर दिया. ऐसा नामवर जी ही कर सकते थे.

वैसे देखा जाये तो नामवर जी की नामवरी इस बात में नहीं थी कि वे समकालीन हिंदी साहित्य का सबसे उज्जवल सितारा थे बल्कि इस बात में थी कि वे यह उज्जवल सितारा बने कैसे. इस सवाल का जवाब मिलता है उनके बड़प्पन और उनकी सादगी में. जिस व्यक्ति का बोला हुआ या लिखा हुआ शब्द मौजूदा साहित्य में फतवे की तरह महत्वपूर्ण हो वह शहर- शहर फिरता हुआ, नौकरियां खोता हुआ- हासिल करता हुआ दिल्लीवासी होता है तो फिर तमाम जिन्दगी एक छोटे से फ्लेट में बहुत कम आवश्यकताओं के साथ गुजार देता है और हरेक से मिलने के लिए उपलब्ध रहता है. संगठन से मतभेद होने पर संगठन की सामूहिक राय को अपने व्यक्तिगत आभामंडल से अधिक महत्त्व देता है. यही बातें उन्हें नामवर बनाती हैं. क्योंकि बेशक वे कबीर से लेकर प्रेमचंद तक की उस दूसरी परंपरा के असली शिखर पुरुष थे जो सत्ता की सारथी होने का विकल्प त्यागकर साहित्य में शोषित और वंजित जनता के जीवन की तकलीक को अपना स्वर देना अपनी जिम्मेवारी समझती है.

लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं और मप्र प्रगतिशील लेखक संघ के सचिवमंडल के सदस्य हैं

सम्पर्क- nam.jbp@gmail.com

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लोक चेतना का राष्ट्रीय मासिक सम्पादक- किशन कालजयी
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