स्त्रीकालहाँ और ना के बीच

माय नेम इज़ मिस/मिसेज़…..

 

     माय नेम इज़ मिस/मिसेज अबस मिस्टर प्रेजिडेंट एंड आई एम नॉट द फेमिनिस्ट। कहने का अंदाज शाहरुख खान से अलग सही पर खुद को स्त्रीवादी समझे जाने की आशंका को नकारने वाली स्त्रियों की संख्या में इजाफा होता जा रहा है। तो लगा कि इस सवाल को उलट-पलट कर देख लिया जाए। स्त्रियों की चेतना में कौन प्रेजीडेंट हरदम छिपा बैठा रहता है जिसे सम्बोधित करके उन्हें अपना ऐसा या वैसा होना साबित करना है? फिलहाल हिन्दी क्षेत्र तक सीमित रखते हुए चरचा को आगे बढ़ाया जाए कि हिन्दी लेखन को स्त्रीवाद ने किस दिशा में और कितना प्रभावित किया। समतामूलक समाज बनाने की राह में अपने क्रियाकलापों कोएक भिन्न अस्मिता के रूप में तय करना सकारात्मक रहा या फिर अस्मिता की चौहद्दी बस प्रवेश को सुगम बनाने की एक रणनीति भर बन कर रह गयी है? जाहिर है सच बीच में कहीं है। 70-80 के दशक में स्त्रीवादी लेखन की व्यापक उपस्थिति हिन्दी साहित्य में मिलने लगती है।

90 के दशक से तो अस्मितावादी लेखन की धारा का पाट काफी चौड़ा होता गया है। मुद्दे सुपरिभाषित और दिशाएँ स्पष्ट होतीं तो शायद वर्चस्ववाद के विरोध में इससे बेहतर माहौल बना होता। व्यापक तौर पर यह समझ बनी होती कि पितृसत्तात्मकता के ढहने में समूचे समाज का हित है।स्त्री विमर्श क्या उस नये  पुरुष को गढ़ पाया जो इस नयी बनती हुई स्त्री का सहचर हो सकता है ? दूसरी ओर से देखें तो सच का यह कोण भी उभरता है कि हर विचारधारा अपने आरम्भिक दौर में असमंजस के जिस पड़ाव से गुजरती हुई डगमग कदमों से चलना सीखते-सीखते सुनिश्चित आत्मविश्वासी चाल तक पहुँचती है। उस मोड़ पर ही उस पर सवालों की और शंकाओं की बौछार कर दी जाए तो? सिखावन की प्रक्रिया की तरलता को विचलन साबित किया जाए तो कोई चीज वांछित रूप भला कैसे ले? उभरती अस्मिताओं के प्रयोगों को पूर्व स्थापित परिणामों के नजरिये  से देख कर असफल या बचकाना कहा जाए तो बड़ा हास्यास्पद लगता है।

मन करता है पूछा जाए कि महाशय अन्तिम सत्य यदि आपकी ही जेब में रखा हुआ है तो हम यहाँ कर क्या रहे हैं? जहाँ तक आप पहुँच गये हो उसी को विकास का चरम मान कर, उसी नजर से समाज की हर धड़कन को तोलोगे तो विकास होगा कैसे? आप भी तो तोड़ें अपने दिमाग के मोटे ढेले। कुछ तो हलचल हो आपकी सोच के ठहरे पानी  में। तभी तो जानोगे कि कौन सा सपना काँप रहा है हमारे भीतर के पानी में।सपने के साकार होने से ही तो  अब तक हो चुके विकास की सीमा दिखेगी। विषमतामूलक समझ को दिमाग में कैद कर चाबी कहीं फेंक आए हो तो हमारा सहयोग लो इन तालों को तोड़ने में। सोच की जड़ता को आप तोड़ें या कोई और आपके लिए यह काम करे। ताले तो टूटने होंगे। जाले तो साफ होने ही होंगे इन मकानों के। ऐसा होना तो है ही, ये तो कम से कम साफ तौर पर स्पष्ट हो ही जाए। इस पर नये सिरे से विचार किया जा सकता है कि कैसे होगा, कौन करेगा, किस तरह से और किस भूमिका में करेगा। सैद्धान्तिक स्तर पर तो इस बात को लेकर तरह-तरह से निरन्तर  विचार-विमर्श जारी है। निरन्तर वाद-विवाद चलता रहे, ये माहौल तो प्रभावी ढंग से अस्मितामूलक विमर्शों ने बनाया ही है। स्थापित विचारधाराओं को भी नये  ढंग से सोचने पर मजबूर कर दिया है। इन बहसों के तर्क-वितर्क के तौर पर जो तमाम बातें कही जाती हैं, जो दावे किए जाते हैं। उनके अक्स परिवेश में खोजने के निमित्त यह कॉलम शुरु किया जा रहा है।घटित घटना के आधार पर चीजों को देखने-समझने से सामाजिक गतिकी का कुछ रुख शायद समझ आए।

खुले दिमाग और खुली आँखों से अपने चारों ओर के परिवेश की गतिविधियों को, चहल-पहल को, उठापटक को देखती-सुनती-दर्ज करती जाऊँगी। कभी घटनाएँ इस चौंकाऊँ अंदाज में घटती हैं कि मानो शान्त पानी में पत्थर पड़ा हो। इधर घटना घटी और उधर तरंगें उठीं तो कभी इतने गुप-चुप तरीके से आकार लेती हैं कि पता ही नहीं चलता। जैसे अचार के जार के भीतर छुटकी सीपानी की बूँद धीरे से सरक जाती है और धीरे-धीरे अचार को फफूँद बन कर बिगाड़ डालती है। कभी पता नहीं चलता कि हुआ क्या था आखिर। तो कभी सच की कोई रंगत किरकिरी की तरह आँखों में जलन पैदा करती है पर कुछ समय बाद भीतर बसी गन्दगी को आँसुओं के जरिए धो-पोंछ कर आँखों को और उजली कर देती है।….

सच कितने-कितने रूपों में सामने आता है, कितनी-कितनी तहों में लिपटा हुआ। मौजूदा यथार्थ तो और भी जटिल है, परतदार है। एक कोण से आती रोशनी कैसे सब सतहों को रौशन कर सकेगी?  शुभेच्छा तो हमसे भी पूछती है कि रौशनी चाहे एक कोण से आए पर सच के सभी वाहक बन जाएँ तो? हर शह शीशा हो तो? जहाँ किरण पड़े वह खुद रौशन हो कर उसे भेज दे दूसरी शह को आलोकित करने के लिए।यही तो नहीं हो पाया अब तक तभी तो अब सत्य को, यथार्थ को अलग-अलग कोण से देखे जाने की जरूरत आन पड़ी। वही काम मिल-जुल कर सहज आपसदारी से अब भी करने के लिए हम प्रवृत्त हों जाएँ तो पहुँच ही जाएँगे कभी न कभी सरल, सुन्दर, स्वस्थ समाज की ओर। जहाँ हर दिल दर्पण हो और रोशनी की किरणें सभी दिलों की ठाठ से सवारी करती हों। अँधेरा जहाँ पुनर्जीवन का नाम हो।…. ये ख्वाब अभी दूर है तो चलें वर्तमान की ही ओर मन की परतों में कहीं इस सपने को बचाए हुए।

कृष्णा सोबती, मन्नू भंडारी, निर्मला जैन इत्यादि कई नाम हैं जो स्त्री-विमर्श के बिल्कुल पक्ष में नहीं हैं। इनके समूचे संघर्ष और चुनौतियों के दौरान स्त्री-विमर्श की कोई आहट थी भी नहीं। विमर्शों ने जब आकार लेना शुरू किया वे अपने दम पर सफलता के ऊँचे मुकाम हासिल कर चुकी थीं। अपनी उपलब्धि को समाज के पूरे विकास के दशा-दिशा से वे जोड़ कर देखती हैं जिसमें इनका स्त्री होना अलग से कुछ जोड़ता-घटाता नहीं है। किंतु स्त्री हो कर इनके लिखने ने साहित्य को स्त्री-अनुभवों की उन अनजानी-अनपहचानी-अनछुई अनेकानेक रंगतों से भर दिया जो पुरुष की लेखनी कभी नहीं कर सकती थी। मैं अपने अनुभव की बात करूँ तो बहुत गहराई से महसूस करती हूँ कि जीवन के उठान के दिनों में जब प्रेमचन्द, जयशंकर प्रसाद, रवीन्द्रनाथ टैगोर, शरतचन्द्र  चट्टोपाध्याय, टॉलस्टाय, मक्सिम गोर्की समेत अन्य अनेक लेखकों को पढ़ा करती थी।

महादेवी वर्मा

स्त्रियों में सिर्फ महादेवी वर्मा की कविताएँ भर पढ़ी थीं। उस समय तक इनका क्रान्तिकारी, अग्रगामी गद्य कहाँ पढ़ पायी थी। उन दिनों इन लेखिकाओं का लिखा पढ़ा होता, वास्तविक स्त्री-अस्तित्व जनित रचनाओं से गुजरी होती तो मैं इससे बेहतर इंसान होती। पुरुषों की दुनिया में रहते हुए अपने होने को, अपने ऐसी होने को, जैसी हूँ वैसी होने को चाहना-सँवारना-निखारना और निखरे हुए दीप को समाज को दे दिए जाने की आकांक्षा को पोषण तो दिया स्त्री लेखन ने ही। वर्ना हमेशा एक अनजाना बोध मन की परतों में धँसा सा रहता था कि कुछ तो कमी है अपने होने मात्र में कि सब कुछ हो कर भी, पात्रता अर्जित करके भी कहीं पहुँच नहीं पाते। निःसन्देह इन लेखिकाओं ने समाज में इस अनिवार्य अभाव को दूर किया कि सभी सामान्यीकरण पुरुषों के हिसाब से तय हों। यह इनका ऐतिहासिक योगदान रहा। मगर हर समय की एक सीमा भी होती है। जहाँ तक एक निश्चित भावबोध ले कर जा सकता है उससे आगे की यात्रा आने वाली पीढ़ी को करनी होती है।

मन्नू भंडारी

उदाहरण के लिए मन्नू भंडारी की नायिकाएँ स्त्री की रूढ़ छवियों की केंचुल उतारती हुईं क्रमशः विकसित होती हुईं जहाँ तक पहुँचती हैं। उनकी कामना में स्वयं अपने आप में पूर्ण होने का बोध नहीं है। उन्हें अपने आप में पूरा चाँद रास नहीं आता बल्कि उन्हें किसी को बाँहों में लेने को आतुर लगता सा अधूरा चाँद भाता है। ये स्त्री-पात्र पुरुष के अवलम्बन की बाट जाने-अनजाने जोहती रहती हैं। अँधेरे के तमाम आवरणों से मथ कर बाहर लाना और अधूरे चाँद तक पहुँचाना भी कम बड़ी बात नहीं। सवाल यह है कि उसके बाद के स्त्री-लेखन में इस यात्रा से आगे की राहें मिलती हैं या नहीं? वह वहाँ से आगे बढ़ा या स्त्रियों ने इसी बिन्दु पर डेरा जमा कर एक हाथ से परम्परा ओर दूसरे हाथ से आधुनिकता के हित/अहित को दोहना शुरू कर दिया? अपनी पारम्परिक भूमिका से पल्ला छुड़ा कर आधुनिकता को भी नहीं अपनाया।और चन्द मामलों में दोनों को ही अपनाने से दोहरी मार झेलनी पड़ी। पितृसत्तात्मक दाँव-पेंचों को अपना औजार बना कर आगे की यात्रा को तो खण्डित नहीं कर रही हैं वर्तमान नायिकाएँ?

कॉलम के आगामी लेखों में सजीव घटनाओं के आईने में इन सवालों के जबाब खोजने की कोशिश रहेगी। ये घटनाएँ जाति, लिंग, धर्म, वर्ग, क्षेत्र….व्यक्ति के किसी भी पहलू से सम्बंधित हो सकती हैं।‘स्व’हर यात्रा का प्रस्थान बिन्दु होता है। इसलिए पहचान के उस रूप के साथ कॉलम का आगाज हुआ जिसका खामियाजा इस पितृसत्तात्मक समाज में सबसे अधिक झेला है किन्तु  आगे की यात्रा किसी भी दिशा में, किसी भी रूप में हो सकती है। खुदी में बन्द रहना चाहता भी कौन है? लेकिन साथ ही यह भी समझने की बात है कि खुद के नकारे जाने से यात्रा सम्भव हो भी कैसे?

.

Show More

रश्मि रावत

लेखिका दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में अध्यापन और प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में नियमित लेखन करती हैं। सम्पर्क- +918383029438, rasatsaagar@gmail.com
0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Related Articles

Back to top button
0
Would love your thoughts, please comment.x
()
x