सिनेमा

केसरी : युद्ध के मुलम्मे में मानवीयता के बाईस पहरेदारों की कहानी

 

हाल के दिनों में इतिहास की कहानियों का पन्नों से उतरकर पर्दे पर चढ़ने का काफी तेजी से चलन बढ़ा है | इसी कड़ी में बॉलीवुड की ताजातरीन सौगात है – “केसरी”| केसरी मोटे तौर पर तो सन 1897 के सारागढ़ी के लड़ाई की कहानी है,लेकिन इस कहानी के भीतर भी कई ऐसी छोटी-मोटी कहानियाँ हैं, जो इस युद्ध  की कहानी से भी अधिक महत्वपूर्ण बन जाती हैं और कहीं न कहीं वो छोटी-मोटी कहानियाँ ही इस लड़ाई की कहानी को दर्शकों के सीधे दिल तक उतरने का रास्ता तैयार करती हैं |

इतिहास में यह विदित है कि 12 सितम्बर 1897 को हुई सारगढ़ी की लड़ाई ब्रिटिश झंडे के तले सिख रेजिमेंट द्वारा बाहरी आक्रमणकारी पठानों से लड़ी गई थी | लेकिन बम्बईया सिनेमा में जिसतरह आजतक अंग्रेजों के विरोध की भावना वाली फ़िल्में बनी हैं, उस ट्रेंड के खिलाफ जाकर उनके लिए लड़ने की बात दर्शाना बॉलीवुड के लिए काफी मुश्किल है | इसीलिए इतिहास से थोड़ी छूट लेते हुए निर्देशक अनुराग सिंह ने यह बताने की कोशिश की है कि यह लड़ाई अंग्रेजों का साम्राज्य बचाने के लिए नहीं बल्कि इक्कीस बहादुर जवानों के द्वारा इतिहास के बलिदानियों के मान के लिए लड़ी गई | इसीलिए केसरी रंग की यहाँ विधिवत परिभाषा भी गढ़ी गई है कि यह रंग मान-अभिमान के साथ-साथ बलिदान और आजादी का रंग है |

यह फिल्म आज के दौर के लिए बड़ी प्रासंगिक है | क्योंकि आज जहाँ सामान्य जन-मानस को अतिवाद से प्रभावित होते देर नहीं लगती वहीँ “केसरी” में किसी भी तरह के अतिरेक से बचा गया है |यह राष्ट्रीयता के भाव से ओत-प्रोत फिल्म है लेकिन उसमें भी संयम है | इसमें दो धर्मानुयायियों को लड़ते हुए दर्शाया गया है लेकिन कहीं भी धर्मांधता की कोई गंध नहीं है | जबकि ऐसी स्थिति में यह सब हो जाना बिलकुल आसान था | निर्देशक ने इन सभी के बीच अद्भुत संतुलन स्थापित किया है | ऐसे में दर्शकों से भी यह सहज अपेक्षा बनती है वे भी बिना किसी अतिरेक से प्रभावित हुए तथा सोशल मीडिया द्वारा तैयार किये गए बदरंगे चश्मों को उतारकर ही यह फिल्म देखें तो लक्षित कथ्य तक पहुँच सकेंगे |

फिल्म के कथानक में जबरदस्त कसावट है | शुरू से अंत तक बिना किसी घुमाव-फिराव के सीधे-सपाट तरीके से पानी की तरह इसकी कहानी बहती जाती है | इसके पहले भाग में एक जघन्यतम समाज में जहाँ नारी-अस्मिता के संघर्ष को दर्शाया गया है, वहीँ शांतिकाल में सैनिकों द्वारा दुश्मन पक्ष के निर्बल वृद्ध, बच्चों और महिलाओं की मदद करते हुए दर्शाया जाना आज के समय के कुछ चर्चित घटनाओं से जुड़ जाता है | आज के उन छद्म राष्ट्रवादियों को यह फिल्म जरुर देखनी चाहिए जो बात-बात में किसी को भी देशद्रोही का सर्टिफिकेट देते हुए “पकिस्तान” भेजने की नसीहत देते रहते हैं | दुश्मन इलाके के युवा जब इन इक्कीस लड़ाकों के खिलाफ लड़ाई करने की तैयारियों में लगे हैं, तब राष्ट्रीयता की भावना से लबालब भरे ये सिख लड़ाके उनकी महिलाओं, बच्चों और बूढों की जिसतरह जरुरी कामों में मदद करते हैं, वह मानवीयता के चरम शीर्ष को दर्शाने वाला दृश्य है |

फिल्म का दूसरा भाग पूरी तरह से हिंसा से भरा हुआ है | हरेक दृश्य मरने-मारने का ही नज़ारा है| जब पठान सेना के सैनिक अपने ही सैनिकों के लाशों को इकट्ठा करके उसके ढेर का सारागढ़ी के किले पर चढ़ने का इस्तेमाल करती है, तो वहाँ युद्ध का खोखलापन पूरी तरह से उजागर हो जाता है | वहीँ जब सारागढ़ी का “बाईसवाँ जवान”, जो कि इन इक्कीस सिख जवानों के सेवा में नियुक्त एक पठान बाबर्ची है, दोनों पक्षों के घायल सैनिकों को बिना किसी भेद-भाव के पानी पिलाने का कर्तव्य निभाता है तो वह युद्धोन्मादी सोच को मानवीय मूल्यों के सामने न केवल “उन्नीस” ठहराता है बल्कि इसपर इक्कीस से भी एक कदम आगे जाकर मानवीयता का “बाईसवें” पहरदार के रूप में खुद को स्थापित करता है | इसतरह यह फिल्म युद्ध के मुलम्मे में मानवीयता के इक्कीस ही नहीं बल्कि बाईस पहरेदारों की कहानी है |

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अमित कुमार सिंह

लेखक शिक्षक हैं और साहित्य की विभिन्न विधाओं में लेखन करते हैं। सम्पर्क- +918249895551, samit4506@gmail.com

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