राजनीति

लोकतान्त्रिक दलों से ही मजबूत होगा भारतीय लोकतन्त्र

 

देश में आम चुनाव के बाद जहाँ पूर्ण बहुमत की एक मजबूत सरकार केन्द्र की सत्ता पर काबिज हुई है, वहीं दूसरी और इस चुनाव के बाद एक मजबूत विपक्ष पर अंधेरे के बादल छा गए हैं। लगातार दूसरी बार संसद के निचले सदन में संविधानिक रूप से कोई भी दल विपक्ष का ओहदा हासिल करने में नाकाम रहेगा। भारतीय लोकतन्त्र में जितनी भूमिका सत्ता पक्ष की होती है, उतनी ही विपक्षी दलों और संसद में बैठे विपक्ष के नेता की भी होती है, यह जिम्मेदारी नेता प्रतिपक्ष केवल सत्ता पक्ष से सवाल जवाब करके ही नही पूरी करता बल्कि वह महत्वपूर्ण लोकतांत्रिक प्रणालियों का हिस्सा भी होता है। जैसे निचले सदन से विपक्ष का नेता केंद्रीय सूचना आयोग, पब्लिक अकाउंट्स कमिटी और ऐसे तमाम तरीको से भी लोकतन्त्र में एक जवाबदेही सरकार बनाए रखता है। विपक्ष के इस महत्वपूर्ण भूमिका को संसदीय प्रणली में कभी नकारा नही जा सकता, क्योंकि सत्तारूढ़ दल जब जब अपने बहुमत के ज़ोर पर कुछ फैसले लेता है, तब तब एक मजबूत विपक्ष ऐसे पक्ष की आवाज़ को मजबूती देता है, जिसकी सत्तारूढ़ दल अनदेखी कर देते है।

आखिर क्यों कमजोर हुआ विपक्ष

संसद में विपक्ष के  कमजोर होने का कारण उनका चुनाव न जितना भर ही नही है, बल्कि  भारतीय राजनैतिक दलों का अलोकतांत्रिक रवैया भी है, एक और जहाँ भाजपा ने अपनी पार्टी का लोकतांत्रिक रूप से विस्तार करके नेताओं की एक बड़ी कतार खड़ी कर दी है, वहीं दूसरी ओर क्षेत्रीय और विपक्षी दल तेजी से अपने परिवार में सिमट कर रह गए है।

लोकतन्त्र एक आशावादी व्यवस्था है, जिसमे हर व्यक्ति के ऊपर उठने और किसी राजनैतिक दल का मुखिया होने का भरोसा रहता है, मगर आज हमारे देश में लोक व्यवस्था की इस सत्यता में भारी गिरावट आई है। कोई भी व्यक्ति खासकर गैर भाजपा दलों में कार्यकर्ता या छोटे कद के नेता तो बन सकते हैं, मगर कभी भी संगठन का मुखिया नही हो सकते। आज लगभग उत्तर भारत में जितने भी मत्वपूर्ण विपक्षी दल हैं, उनमें लोकतन्त्र का पहिया लगभग थम चुका है, चाहे वो सपा हो या बसपा, रालोद हो या आम आदमी पार्टी, राजद हो या लोजपा, अकाली हो या नेशनल लोक दल लगभग सभी के सभी राजनैतिक दल चुनिंदा सुप्रीमो के गिरफ्त में है। ना तो यहाँ पार्टी का संविधान मायने रखता है, न कोई और नियम, सुप्रीमो के सामने यहाँ सब कुछ न्योछावर है, ज्यादातर इन दलों में एक प्रकार से ‘सुप्रीमो एकमत’ स्थापित है, या तो कार्यकर्ता और निचले स्तर के नेता सुप्रीमो के पक्ष में हैं या फिर वो हमेशा के लिए उस दल में अपने विचार लिए मूर्छित पड़े रहे।

जहाँ एक और विपक्षी दल भाजपा सरकार पर विपक्ष की उपेक्षा का आरोप लगाते हैं वहीँ दूसरी ओर वह अपने ही दलों में कोई भी विपक्षी स्वर कभी उभरने ही नहीं देते। ऐसे देश में जहाँ राजनैतिक दलों में लोकतन्त्र लगभग ना के बराबर हो, उसमें एक अच्छे लोकतन्त्र की कल्पना करना ही बेईमानी है। एक मजबूत विपक्ष और सुरक्षित लोकतन्त्र, दोनों का रास्ता केवल और केवल लोकतांत्रिक राजनैतिक दलों से होकर जाता है, जिसकी भारत में आज भारी कमी है।

भारत के राजनैतिक दलों का आप आज मूल्यांकन करें तो पाएंगे की बड़े बड़े राजनैतिक दल बनिये की दुकान के समान किसी एक परिवार या कुछ खास नेताओं के राजनैतिक संरक्षण में चलते है, ये मानिए की बिना इन राजनैतिक सुप्रीमों के इन पार्टियों में पत्ता भी नही हिल सकता। ज्यादातर राजनैतिक दल उद्देश्य और विचारधारा पर केंद्रित होने के बजाए अपने शीर्ष नेता के उदघोष और उसके मुख से निकले ब्रह सत्य का अनुपालन करने पर केंद्रित रहते है, इन राजनैतिक दलों में नेतृत्व पूजा इस कदर हावी है कि पार्टियों का ढांचा पूरी तरह चरमराया हुआ है, हालात ऐसे हैं कि अगर किसी युवा नेता को अपना राजनैतिक जीवन आगे बढ़ाना है तो उसका काम केवल इतना है कि वह अपने शीर्ष नेतृत्व के इशारे को बखूबी समझना सिख ले, अगर नेता कहे बैठ जाओ तो बैठे, अगर नेता छींक दे तो ये रूमाल लेकर दौड़े, ऐसे युवा कार्यकर्ता हैं, जो नेता के इशारे को समझने और उनकी जी हजूरी करने को ही राजनैतिक अनुशाशन मानते है। अर्थार्त नेतओं की बजाए राजनैतिक दल बड़े पैमाने पर चमचों की फौज पैदा करते है।

इसका बुरा असर कई बार राजनैतिक सुप्रीमों पर भी देखने को मिलता है, जो कभी भी समय रहते अपनी गलतियां देख नहीं पाता है। अपने नजदीक इतने अनुयायी देख कर सही मानिए कोई भी व्यक्ति नेता नही बल्कि राजा और भगवान की तरह महसूस करेगा, इस तरह की महिमामंडन का दूसरा सबसे बड़ा नुकसान यह है कि संगठन के भीतर जवाबदेही खत्म हो जाती है, और हमेशा ही हार का जिम्मा किसी छोटे कद के नेताओं पर फोड़ा जाता है, जबकि गलती शीर्ष नेतृत्व कर रहा होता है।

तीसरी महत्वपूर्ण बात है कि चापलूस और महिमामंडन करने वाले लोग कभी भी अपने शिर्ष नेतृत्व को परिपक्व नही होने देते, उलटा उसको कमजोर बना देते है। आज के सुप्रीमों अगर किन्ही कारणों से सुप्रीमों बने रहते हैं तो भी मेरा मानना है कि उनको अपनेआप को परिपक्व बनाने के लिए अपने राजनैतिक दलों में एक आलोचना मंच स्थापित करना चाहिए, यह आलोचना मंच स्वतन्त्र रूप से सुप्रीमों को उसकी कमी या गलितयों से अवगत कराएं जिससे कि दलों में एक साफगोई बनी रहे और सुप्रीमों भी कमजोर न हो। हालांकि यह एक अस्थायी व्यवस्था ही होगी, मगर फिर भी यह सभी सुप्रीमों के कानों को मजबूती देगी।

हालांकि लोकतन्त्र में प्रासंगिक बने रहने के लिए विपक्षी दल और उनके नेताओं के पास स्वयं लोकतन्त्र में परिवर्तित होने के अलावा दूसरा कोई अच्छा उपाय नही है। सभी शीर्ष नेतृत्व को यह याद रखना चाहिए कि लोकतन्त्र की व्यवस्था जिस प्रकार ढांचों पर टिकी है बिल्कुल उसी प्रकार राजनैतिक दल भी ढांचों पर ही टिक कर आगे बढ़ सकते हैं, क्योंकि व्यक्ति चला जाता है, मगर ढांचा स्तापित रहता है, नियम और कानून आने वालों पीढ़ियों को ये बताते हैं कि किस प्रकार इस ढांचे का इस्तेमाल करके इस संगठन या इस देश को आगे बढ़ाना है। क्योंकि कोई भी लोकतन्त्र विपक्ष के बिना महत्वहीन है, इसलिए अपनी इस बड़ी जिम्मेदारी को समझते हुए सभी राजनैतिक दलों को अपने लोकतांत्रिक ढांचों को मजबूत करके आने वाली पीढ़ी के लिए सहायक बनना चाहिएI

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विशेष प्रताप गुर्जर

लेखक आईआईटी दिल्ली में शोधार्थी एंव स्वतंत्र राजनैतिक विश्लेषक हैं। सम्पर्क- +918527584666, visheshgurjar@gmail.com
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