जनसंस्कृति की दुर्गम यात्रा – अनिल कुमार यादव
- अनिल कुमार यादव
आजमगढ़ जिले से महज 8 किलोमीटर दूर पर एक गाँव है – बभनौली। यादवों और दलितों का गाँव है, नाम सिर्फ बभनौली है गाँव मे ब्राह्मण बिल्कुल नही है। गाँव के बाहर ऊँचे चबूतरे पर करीब तीन फ़ीट की मूर्ति है, जिसको लोग भैंसासुर बोलते हैं। बचपन मे मैंने देखा था कि आसपास के गाँव से हर रविवार को लोग भूसा-दाना लेकर उस चबूतरे पर चढ़ाने जाते थे। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान प्रतापगढ़ के कुंडा विधानसभा में भी भैंसासुर का थान दिखा। मैं भैसासुर की जन के बीच उपस्थिति के कारणों पर सोच ही रहा था कि ठीक उसी समय फारवर्ड प्रेस से प्रमोद रंजन द्वारा संपादित ‘महिषासुर मिथक और परंपराएं’ किताब आई। यह किताब 360 पेज का एक शोधपूर्ण और प्रमाणिक दस्तावेज है।
इसका पहला पाठ है ‘महोबा में महिषासुर’। प्रमोद रंजन ने बड़ी ही बारीकी से सिर्फ महिषासुर की खोज की कहानी ही नहीं सुनाई है बल्कि ‘फॉरवर्ड प्रेस’ फारवर्ड प्रेस कैसे बनता है इसकी भी तस्दीक की है कि कितनी मेहनत और प्रतिबद्धताऔं से फारवर्ड प्रेस खड़ा हुआ है। महोबा में महिषासुर-मैकासुर से लेकर खजुराहो तक प्रमोद महिषासुर की खोज करते हैं। सिर्फ इतना ही नहीं इसके पीछे की कहानियों, तथ्यों, इतिहास और लोक कथाओं में से एक कुशल शोधकर्ता के तौर पर सिर्फ महिषासुर की कहानी ही नही बताते हैं बल्कि महिषासुर से जुड़े सामाजिक-सांस्कृतिक धरातल भी तैयार करते हैं, जिसपर किताब की बुनियाद रखी गई है। दूसरे पाठ ‘छोटानागपुर के असुर’ में नवल किशोर कुमार ने आदिवासी इलाकों के भैंसासुर की ना सिर्फ कहानी लिखी है है बल्कि आदिवासी संस्कृति, त्योहारों और जनजीवन पर संक्षेप में सारगर्भित ढंग से लिखा है। खंड का आखरी पाठ- ‘राजस्थान से कर्नाटक वाया महाराष्ट्ररु तलाश महिषासुर की’ में अनिल वर्गीज ने नई दिल्ली के इंडिया गेट से शुरू कर कन्याकुमारी तक की यात्रा के बारे में विस्तार से लिखा है, जिससे हमें महिषासुर और बलिराजा से संबंधित जगहों की जानकारी मिलती है।
किताब का दूसरा खंड दृ मिथक और परंपराएं हैं। जिसमें 9 लेख हैं जो तत्वों और वैचारिक बहसों से कसे हुए हैं। खासतौर से शहीद गौरी लंकेश, नवल किशोर कुमार, हरेराम सिंह, डी.एन. झा और डॉक्टर सिद्धार्थ का लेख आंबेडकर और असुर बेहद महत्वपूर्ण है।
यह दस्तावेजी किताब अपने तीसरे खंड में जाकर वैचारिक तौर पर और तीखी हो जाती है और सदियों से चली आ रही है झूठ और लूट की ब्राह्मणवादी व्यवस्था से ना सिर्फ मुठभेड़ करती है बल्कि उसे कड़ी चुनौती देती है। खंड का पहला शोध आलेख ‘दृ महिषासुर आंदोलन की सैद्धान्तिकीरु एक संरचनात्मक विश्लेषण’ में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से पीएचडी अनिल कुमार ने महिषासुर विमर्श से लेकर पहचान की राजनीति तक बहुजनों के इस सांस्कृतिक आंदोलन की तस्दीक की है। सिर्फ इतना ही नहीं यह लेख ऐतिहासिकता से राष्ट्रीयता तक के गंभीर संवाद से गुजरता है और यह बताता है कि महिषासुर परिघटना का जन्म सांस्कृतिक उपनिवेशवाद और हिंसात्मक सांस्कृतिक प्रदर्शन के खिलाफ हुआ है। दूसरे पाठ में ओमप्रकाश कश्यप ने न सिर्फ असुर संस्कृति के उत्थान-पतन की कहानी लिखी है बल्कि इस आंदोलन को बेहद महत्वपूर्ण और बारीक चुनौती से आगाह किया है। वह आगे एक महत्वपूर्ण बात कहते हैं कि मिथकों को लोकतांत्रिक परिवेश में ढालने की भी जरूरत है। इस खंड में निवेदिता मेनन, नूर जहीर के महत्वपूर्ण लेख है।
किताब के चौथे खंड-असुररु संस्कृति व समकाल के पहले पाठ असुरों का जीवनोत्सव में सुरेश जगन्नाथम ने झारखंड के सबसे प्राचीन व अल्पसंख्यक आदिवासी समुदाय में से एक असुरों के जन जीवन पर विस्तार से लिखा है, खास करके उनके लोकगीतों पर। दूसरे पाठ शापित असुर रूशोषण का राजनीतिक अर्थशास्त्र में विकास दुबे ने असुरों के साथ हो रहे अन्याय की मार्मिक कहानी लिखी है कि कैसे रोजगार आदि के नाम पर उनका शोषण हो रहा है।
किताब का पांचवा खंड साहित्य का है जिसमें ब्राह्मणवादी संस्कृति के खिलाफ बहुजनों के प्रतिरोध का स्वर है। खंड के अंत में संजीव चन्दन का बहुचर्चित नाटक ‘असुरप्रिया’ है। अंतिम खंड महिषासुर दिवस से सम्बंधित तथ्य और लेखकों के परिचय का है।
आज के दौर में जब बहुजन समाज के ऊपर हमले और तेज हुए हैं, उनके नौजवानों को फर्जी मुठभेड़ों में मारा जा रहा, कहीं उनको नक्सली तो कहीं अपराधी करार देकर यह बात स्थापित करने की कोशिश हो रही है कि यह सब देशहित में हो रहा है और ‘असभ्य’ लोगों के साथ यही होना चाहिए। तो जरूरी है कि इस ब्राह्मणवादी चक्रव्यूह को तोड़ा जाए और देश पर अपनी दावेदारी पेश की जाए तो सबसे जरूरी है कि हम अपने नायकों को उनके खिलाफ खड़ा करें। यह दस्तावेजी किताब इसी कोशिश की कड़ी है। किताब के कई लेखों में किताबों में साफ-साफ दर्ज है कि महिषासुर बहुजनों का देवता नहीं नायक है। मिथकों का प्रयोग भारतीय राजनीति में जन गोलबंदी का एक महत्वपूर्ण औजार रहा है। कई बहुजन मिथक/नायक जैसे सुहेलदेव, बिजली पासी, दयाराम, लोरिक आदि वर्चस्व कारी संस्कृति के लपेट में आ गए हैं, या यह कहा जाए तो शायद ज्यादा बेहतर होगा कि वे उनका हिस्सा बन गए हैं। जिसका कारण यह रहा है कि यह सारे नायक वैचारिक धरातल पर नहीं खड़े किए जा सके परंतु महिषासुर के साथ एक उपजाऊ जमीन तैयार हुई है, जिसमें आने वाले दिनों के लिए यह किताब बहुत महत्वपूर्ण साबित होगी।
लेखक स्वतन्त्र पत्रकार हैं |
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