अभी कुछ महीने पहले ही यूपी चुनाव में एक नारा सबके सर चढ़कर बोलता था। नारा था, गुंडाराज ना भ्रष्टाचार, अबकी बार भाजपा सरकार। इस नारे ने जनता के दिल में भाजपा के लिए न सिर्फ भरोसा और विश्वास पैदा किया बल्कि इस नारे से जगी उम्मीद ने यूपी में भाजपा को ऐतिहासिक जीत दिला दी।
पार्टी ने फायर ब्रांड नेता योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बना दिया। योगी के सीएम बनते ही जनता को लगा कि अब यूपी में बदलाव होगा। जनता की आवाज़ सुनी जाएगी। जिसका हक, उसे मिलेगा। लेकिन जो हकीकत सामने आ रही है वो कम से कम इससे अलग है। हालात बताते हैं कि यूपी में ज्यादा कुछ नहीं बदला। बदला है तो सिर्फ मुख्यमंत्री का चेहरा और पार्टी का नाम।
दरअसल, यूपी में सच्चाई और इमानदारी से काम करने वाले अधिकारी भाजपा नेताओं को रास नहीं आ रहे हैं. अब वे नेताओं के जुल्म का शिकार होने लगे हैं। नेता गलत काम करने के लिए अधिकारियों पर दबाव बना रहे हैं। बात नहीं मानने की सूरत में उन अधिकारियों के बारे में गलत और झूठी रिपोर्ट सीएम तक पहुंचा रहे हैं। नतीजा ये है कि बेहतरीन काम करने वाले अधिकारियों का तबादला लगातार जारी है।
हो ये रहा है कि कई मंत्री, सांसद, और विधायक माफिया-भूमाफिया और शिक्षा माफिया के हाथों में खेलने लगे हैं। भाजपा नेताओं की इस करतूत की चर्चा की शुरुआत करते हैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी से। कुछ दिन पहले एक IAS अधिकारी को वाराणसी विकास प्राधिकरण का कमिश्नर बनाया गया। कुर्सी संभालते ही IAS पुलकित खरे ने प्राधिकरण की पुरानी फाइलों को खुलवाया, जहां धांधली दिखी, वहां मोर्चा खोल दिया। सबसे पहले गाज गिरी अवैध कब्जा करने वालों के खिलाफ। कई धनकुबेरों की कोठियों, बहुमंजिला इमारतों को गिराने के लिए मोर्चा खोल दिया। मोर्चा खुलते ही बनारस के कई रइसों की साँस फूलने लगी। प्रदेश के सबसे बड़े शराब व्यापारी के होटल रमाडा पर अतिक्रमण हटाने के लिए बुलडोजर चलवा दिया। भाजपा नेता अजय सिंह के भाई की वरुणा नदी पर बने सूर्या होटल को भी गिराने की तैयारी हो गई थी। फिर क्या था? शहर के भाजपा नेता और मंत्री लामबंद हो गये। दबाव बनाने लगे। लेकिन इमानदार कमिश्नर ने पिछले 2 महीनों से नेताओं का फोन उठाना ही बंद कर दिया। आखिरकार इस बेहतरीन अधिकारी को इन नेताओं के कोपभाजन का शिकार होना पड़ा। कमिश्नर पुलकित खरे का तबादला डीएम हरदोई कर दिया गया।
ऐसे ही जौनपुर के जिलाधिकारी का तबादला जिले के ही मछलीशहर सीट से सांसद राम चरित्तर निषाद ने ये कहकर करवा दिया कि डीएम महोदय गरीबों की बात नहीं सुनते। जिलाधिकारी के तबादले के लिए सांसद ने यूपी के प्रमुख सचिव से मुलाकात की और येन-केन-प्रकारेण इन्हें हटवा कर ही माने। इस बात का जिक्र उन्होंने अपनी फेसबुक वॉल पर भी किया। लेकिन सूत्रों की मानें तो जिलाधिकारी को निकाय चुनाव में भाजपा नेताओं की बात नहीं मानने की सजा भुगतनी पड़ी है. नेता जी के मन की बात नहीं मानने पर उनका तबादला कर दिया गया। जिले की कुल 3 नगर पालिकाओं और 6 नगर पंचायतों के चुनाव में भाजपा को महज 2 सीटों पर ही जीत मिली थी। जिसके बाद भाजपा के नेता डीएम के कामकाज से संतुष्ट नहीं थे।
ऐसे ही प्रदेश के डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य के गृहजनपद कौशाम्बी में एक अधिकारी के खिलाफ भाजपा नेताओं ने मोर्चा खोला हुआ है। बता दें कि जिले के बेसिक शिक्षा अधिकारी एमआर स्वामी ने जिले के 200 सौ से अधिक गैर मान्यता प्राप्त स्कूलों को चिन्हित कर इन पर तालाबंदी शुरू करा दी। इस फैसले के बाद सभी शिक्षा माफ़िया एकजुट हो गये। सत्तारूढ़ भाजपा नेताओं की शरण में जाकर गुहार लगाई। या कहिए कि सेटिंग की। जिसके बाद जिले के तीनों भाजपा विधायक, (संजय गुप्ता (चायल), शीतला प्रसाद (सिराथू) और लालचंद (मंझनपुर)) लखनऊ पहुंच गये। इन तीनों ने माध्यमिक शिक्षामंत्री से मुलाकात की। बेसिक शिक्षा अधिकारी एमआर स्वामी पर बिना वाज़िब नियम के स्कूलों पर तालाबंदी करने का आरोप लगा कर उन्हें हटाने की मांग कर डाली। बुधवार को ये मुलाकात हुई और खबर है कि जल्द ही स्वामी जी का तबादला किया जा सकता है।
ऐसे ही 20 दिसंबर को आज़मगढ़ जिले के मार्टीनगंज तहसील के तहसीलदार शिवसागर दूबे ने मुख्यमंत्री को अपना इस्तीफा भेज दिया है। इनका आरोप है कि भाजपा सांसद और उनके समर्थक अवैध कब्जे रोकने की वजह से उनपर दबाव बनाते हैं। सांसद और समर्थकों की बात नहीं सुनने पर जिलाधिकरी के जरिए भी दबाव बनाने की कोशिश करते हैं।
बस्ती जिले का भी यही हाल है। सांसद हरीश द्विवेदी और भजपा के विधायक संजय लगातार डीएम और एसपी को हटाने का दबाव बनाते रहते हैं। ये दोनों नेता कुछ दिन पहले ही धरने पर भी बैठ गए थे। बाद में भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष ने दोनों तरफ से समझौता कराया तब डीएम अरविंद सिंह का तबादला रूक सका था।
गाज़ीपुर में कैबिनेट मंत्री ओमप्रकाश राजभर और जिलाधकारी संजय खत्री का विवाद तो देश भर में चर्चा में रहा। डीएम को न हटाये जाने पर सरकार से अलग होने तक की चेतावनी दे दी गई थी। आखिरकार डीएम को ही रायबरेली जाना पड़ा।
ऐसे मामले तकरीबन हर जिले के हैं, जहां भाजपा नेता नौकरशाही पर शिकंजा कसने के लिए लगातार धमक दिखा रहे हैं। अब सवाल ये कि गुंडाराज और भ्रष्टाचार मुक्त प्रदेश का नारा देने वाली भाजपा सरकार आखिर प्रदेश की नौकरशाही को किस दिशा में ले जाना चाहती है। क्या मिनीमम गवर्नमेंट, मैक्सीमम गवर्नेंस का नारा ऐसे ही कामयाब होगा?
सबलोग ब्यूरो
वित्तीय समाधान और जमा बीमा विधेयक 2017 (एफआरडीआई) के जमानती खंड को लेकर लोगों की आशंकाओं के मद्देनज़र गुजरात चुनाव पर पड़ने वाले विपरीत असर के कारण वित्त मंत्री अरुण जेटली को इस प्रस्तावित कानून के बारे में जिस तरह सफाई देनी पड़ी है, वह दाल में कुछ काला होने का संकेत है। 14 जून 2017 को केंद्रीय मंत्रिमंडल ने वित्तीय संस्थानों के दिवालिया होने की आशंकाओं से निपटने के लिए इस विधेयक को मंजूरी दी थी और अगस्त में इसे संसद में पेश भी कर दिया था। वर्तमान में यह विधेयक संसद की संयुक्त समिति के पास विचाराधीन है। लेकिन इस विधेयक को लकर मीडिया में जो खबरें आ रही हैं, उससे अपने पसीने की गाढ़ी कमाई बैंकों में जमा करने वाले आम लोगों के पसीने छूट गये हैं। इस घबराहट का कारण इस विधेयक का वह प्रावधान है जो अपने वित्तीय घाटे और दिवालियापन से उबरने के लिए बैंक और बीमा कंपनियों जैसे वित्तीय संस्थानों को जमाकर्ताओं की जमा पूँजी का जमानत (बेल इन) के रूप में इस्तेमाल करने का अधिकार देने वाला है। इस प्रकार की सूचनाओं से करोड़ों बैंक खाता धारकों में आशंका और डर व्याप्त हो गया है। करदाताओं के पैसों से बैंक आदि को घाटे से उबारने की जगह जमाकर्ताओं की जमा पूँजी से संकटग्रस्त बैंक आदि वित्तीय संस्थानों को बचाने की इस कानूनी कवायद की खबरों ने विपक्षी दलों को भी सरकार पर हमला बोलने का एक मौका मुहैया करा दिया है। विपक्ष द्वारा मोदी सरकार पर लगाये जा रहे लोगों की जमा पूँजी हड़पने के आरोपों ने सरकार को रक्षात्मक रुख अपनाने को बाध्य कर दिया है और यही कारण है कि वित्त़मंत्री को गुजरात चुनावों के बीच स्पष्टीकरण के लिए सामने आना पड़ा। जेटली को कहना पड़ा कि विधेयक संसद की संयुक्त समिति के समक्ष विचाराधीन है और इसमें बहुत सारे सुधार हो सकते हैं। सरकार को जमाकर्ताओं के पैसों की सुरक्षा का आश्वासन भी देना पड़ा है।
वैसे तो बकाया उधारी से वित्तीयसंकट के दलदल में फंसने वाले सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को बचाने के लिए सरकार ने इन बैंकों को जमाकर्ताओं के पैसों का इस्तेमाल करने की छूट देने के अतिरिक्त 2.11 लाख करोड़ की राशि वाली पुन: पूंजीकरण की योजना का वायदा किया है। किंतु प्रस्तावित विधेयक ने बैंकों के दिवालिया होने की सूरत में जमाकर्ताओं की धन राशि के डूब जाने का खतरा तो पैदा कर ही दिया है। यह विधेयक दिवालिया हो जाने वाले बैंकों को छूट देता है कि वे अपने जमाकर्ताओं को उनकी जमा पूँजी वापिस लौटाने से इंकार कर दें या उनके नकद धन की जगह उन्हें प्रतिभूतियाँ लिखकर अपनी जबावदेही से कन्नी काट जायें। यह प्रावधान वित्तीय संस्थानों के दिवालिया होने की आशंकाओं और खतरों के निराकरण को ध्यान में रखकर किया गया है। वास्तव में कुछ वित्तीय संस्थायें अर्थव्यवस्था की दृष्टि से इतनी बड़ी और इतनी महत्वपूर्ण होती हैं कि उन्हें संकट की स्थिति में मरने या डूब जाने के लिए नहीं छोड़ा जा सकता। लेकिन सवाल उठता है कि सत्ता से जुड़े जिन राजनेताओं के इशारे पर बड़े कॉरपोरेटों और पूँजीपतियों को गलत ढंग से ऐसे विशालकाय ऋण दिये जाते हैं कि जिनकी अदायगी न होने पर ऋणदाता वित्तीय संस्थान आर्थिक संकट में फंस जाता है, उन राजनेताओं और ऋण लेने वाले पूँजीपतियों और उद्यमियों पर पर क्यों नहीं कार्रवाई की जाती, किंतु कार्रवाई की बात तो दूर रही, बल्कि राजसत्ता तो अपने निकटस्थ पूँजीपतियों और उद्यमियों के इस प्रकार के ऋण तक माफ करती देखी जा सकती हैं।
इस विधेयक में निक्षेप बीमा और प्रत्यय गारंटी निगम को भी समाप्त करने का प्रावधान है। ध्यातव्य है कि दो बैंकों के धराशायी हो जाने पर साठ के दशक के आरंभ में इस निगम की स्थापना की गई थी। यह निगम किसी बैंक के घाटे में जाने और बर्बाद होने की सूरत में जमाकर्ता को उसकी एक लाख तक की पूँजी के पुन: सुरक्षित भुगतान की गारंटी देता है। किंतु अब इस निक्षेप बीमा और प्रत्यय गारंटी निगम के स्थान पर वित्त मंत्रालय के अधीन एक नया समाधान निगम बनाये जाने की योजना है। काँग्रेस सरकारों के दौरान स्थापित संस्थानों को समाप्त करने की यह पूर्वाग्रही नीति किसी भी अर्थ में समझदारी भरा कदम नहीं कही जा सकती। कारण कि यह नया निगम जमाकर्ताओं के स्थान पर वित्तीय संस्थानों की सेहत को लेकर ज्यादा फिक्रमंद नज़र आता है क्योंकि इस निगम को यह अधिकार होगा कि घाटे में जा रहे बैंकों को उनके ग्राहकों के प्रति जबावदेही से मुक्त कर सके। स्पष्टत: यह नया निगत पटरी से उतर चुके वित्तीय संस्थानों को फिर पटरी पर वापिस लाने की कवायद ही होगा। वैसे कुछ किंतु परंतु के साथ इस निगम का यह भी कर्तव्य होगा कि वह जमाकर्ताओं की जमा पूँजी की सुरक्षा भी तय करे। लेकिन किस सीमा तक बैंकों द्वारा ग्राहकों को उनकी जमा पूँजी की वापसी की गारंटी इस नये कानून में दी जाएगी, इस पर छाये अनिश्चितता के बादलों से सब चिंतित हैं। नये कानून के तहत समाधान निगम बैंकों से सलाह-मसविरे के बाद ही यह तय करेगा कि ग्राहकों के जमा पैसे पर किस सीमा तक सुरक्षा की गारंटी दी जाए और किस सीमा तक किस रूप में ग्राहकों को उनकी जमा पूँजी वापिस की जाए। बैंको को यह छूट भी दी जाएगी कि वे लंबे समय तक के लिए अपने यहाँ जमा पैसों को निवेश में लगा दें। ग्राहकों की जमा पूँजी पर छाये इस संकट के बीच आज आवश्यकता तो इस बात की है कि वर्तमान में जमा पूँजी की वापसी की गारंटी वाली जो एक लाख की अधिकतम सीमा है, उसे विस्तारित किया जाए। कारण कि 1993 से इस सीमा में कोई संशोधन किया ही नहीं गया है।
केंद्र सरकार द्वारा लाये गये इस वित्तीय समाधान और जमा बीमा विधेयक 2017 के बचाव में सरकार के लोगों द्वारा अमेरिका समेत विकसित देशों और साइप्रस संकट के समाधान का तर्क दिया जा रहा है। लेहमैनब्रदर्स बैंक के दिवालिया हो जाने से 2008 में अमेरिका और विश्व में छायी वैश्विक मंदी के समय दिवालिया बैंकों को बचाने के लिए दिये जाने वाले बेल आउट के खिलाफ तर्क दिया गया था कि करदाताओं के पैसों का इस्तेमाल दिवालिया हो जाने वाली बैंकों को उबारने के लिए क्यों किया जाए ? राष्ट्रीय सरकारों द्वारा आर्थिक घाटे से जूझती पूँजीवादी बैंकों को दिए जाने वाले बेल आउट के विरोध औरआर्थिक मंदी की आशंकाओं के बीच जी – 7 के देशों ने ग्राहकों की जमा पूँजी से दिवालिया बैंको को बचाने वाले एक नये कानून की आवश्यकता रेखांकित की और 2014 में जी-20 के देशों ने इस प्रकार के कानून पर अपनी सहमति की मुहर भी लगा दी। बैंकों के दिवालिया होने से आये साइप्रस के आर्थिक संकट के समाधान के रूप में भी जमाकर्ताओं की जमा पूँजी का एक बड़ा हिस्सा दिवालिया हो चुके बैंकों को बचाने के काम में लिया गया था। लेकिन अमेरिका हो या साइप्रस का प्रयोग हो, दोनों जगह जमाकर्ताओं के पैसे डूबे थे और दोनों ही जगह इस प्रकार के आम जन विरोधी कानून असफल साबित होते नज़र आते हैं।
2008 के वैश्विक आर्थिक संकट के परिप्रेक्ष्य में आज ध्वस्त होने के कगार पर पहुँच चुके विशालकाय वित्तीय संस्थानों को पुनर्जीवित करने के लिए एक विशिष्ट तंत्र की स्थापना निश्चय ही आज के समय की आवश्यकता कही जा सकती है। और यह भी हम जानते हैं कि वित्तीय घाटे से जूझते वित्तीय संस्थानों को बचाने के लिए सरकारी जमानत के प्रावधान बहस का विषय रहे हैं। लेकिन सच्चाई यह भी है कि तमाम विरोधों के बावजूद वैश्विक स्तर पर इस प्रकार के आपातकालीन जमानती प्रावधान पूँजीवादी अर्थव्यवस्थाओं का भी हिस्सा रहते आये हैं। वित्तीय समाधान और जमा बीमा विधेयक 2017 की रूपरेखा बनाने वाली समिति ने भी टिप्पणी की थी कि जब महत्वपूर्ण समझे जाने वाले किसी वित्तीय संस्थान को बेचना अलाभप्रद हो चुका हो, तो इस विधेयक में उल्लेखित जमानती समाधान का विशेष रूप से उपयोग किया जाना चाहिए। वास्तव में आर्थिक घाटा जब एक सीमा से ज्यादा हो जाता है तो निश्चय ही बैंक आदि किसी वित्तीय संस्थान को बाज़ार में बेचना मुनाफे का विकल्प नहीं रह जाता। लेकिन किसी दिवालिया हो चुकी बैंक को बचाने के लिए ऋण दे रही वित्तीय संस्था को अगर यह अहसास हो जाए कि जमानती उपाय ऐसे बैंक को वित्तीय संकट से उबारने में नाकाफी रहेंगे तो प्रस्तावित कानून का जमानती प्रावधान अपने उद्देश्य में असफल ही साबित होगा। बैंकों के दिवालिया होने पर मचने वाली भगदड़ को ऐसे में नहीं रोका जा सकेगा। यह कानून छोटे बैंको के लिए अलग मुश्किलें लाने वाला है। कारण कि इस कानून के तहत स्थापित होने जा रहा समाधन निगम हर बैंक की जोखिम का आंकलन अलग-अलग करेगा और तद्विषयक सुरक्षा की गारंटी की सीमा भी अलग-अलग तय करेगा। ऐसे में छोटे बैंकों को ग्राहकों को आकर्षित करने में विशेष दिक्कतों का सामना करना होगा।
गाँव-गाँव तक सार्वजनिक क्षेत्र की बैंकों का विस्तार हो जाने से 63 प्रतिशत भारतीयों का पैसा सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में जमा रहता है और आज स्थिति यह है कि जून 2017 में अकेले एसबीआई की गैर-निष्पादित परिसंपत्तियाँ यानी एनपीए (नॉन परफॉर्मिंग एसेट्स) 1 लाख 88 हजार करोड़ से ज्यादा हो चुका है। सार्वजनिक क्षेत्र के अन्य पाँच बैंकों का इतना एनपीए बढ़ चुका है कि रिजर्व बैंक उन्हें तत्काल आपातकालीन कदम उठाने का निर्देश दे चुका है। स्पष्ट है कि इस नये विधेयक-वित्तीय समाधान और जमा बीमा विधेयक 2017 के कानून बन जाने से देश की व्यापक जनता की जेब पर घातक नकारात्मक प्रभाव पड़ने वाला है। यह प्रस्तावित कानून अप्रत्यक्ष तौर पर बैंकों को ग्राहकों का पैसा हड़पने का लाइसेंस देने वाला है। जिस देश के बहुसंख्यक लोग अपनी जमा पूँजी की सुरक्षा के लिए सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों पर विश्वास करते हों और शेयर बाज़ार से उनका कोई सरोकार न हो, वे लोग तो निश्चय ही इस नये कानून से दिवालिया तक हो सकते हैं। जिस तरह से केंद्र सरकार डिजिटल भुगतान पर बल दे रही है, उसे देखते हुए तो घर में पैसा रखने का भी कोई विशेष फायदा नहीं होने वाला है। निजी बैंक भी विकल्प नहीं हो सकते क्योंकि वे भी आवश्यकता पड़ने पर इस नये कानून के चोर रास्ते अपना घाटा दूर करने के लिए ग्राहकों के जमा पैसे हड़प सकते हैं। आज के जिस समय में बैंकों द्वारा प्रदत्त सेवाओं से हर भारतीय व्यक्ति का जीवन जुड़ता जा रहा हो, उस समय में बैंकों का बहिष्कार करके किसी व्यक्ति का काम चल ही नहीं सकता। किंतु ग्राहकों का मजबूरी का फायदा उठा उनकी गर्दन काटने का अधिकार तो बैंकों को नहीं दिया जाना चाहिए। ग्राहकों को यह तो मालूम होना ही चाहिए कि बैंक उनकी जमा पूँजी के कितने अंश की सुरक्षा की गारंटी देंगे।
स्पष्ट है कि यह विधेयक अगर अपने वर्तमान रूप में ही कानून बन जाता है तो औपचारिक बैंक सेवाओं से लोगों को बड़े पैमाने पर जोड़ने के लिए उठाये गये केंद्र सरकार के कदमों जैसे जन धन योजना और विमुद्रीकरण आदि पर पानी फिर सकता है। अगर सरकार बैंक सेवाओं के विस्तार और आम जन को बचत खाते जैसी आधरभूत बैंक सेवाओं से जोड़ने के प्रति ईमानदार है, तो उसे इस प्रस्तावित नये कानून के जमानती प्रावधानों और उन प्रावधानों के पीछे की तार्किकता को पूर्णत: स्पष्ट करना चाहिए। जिन परिस्थितियों में और जिस सीमा तक ग्राहकों की जमा पूँजी का इस्तेमाल जमानती समाधान के रूप में वास्तव में किया जाएगा, उन सबका खुलासा जरूरी है। और सबसे ज्यादा जरूरी है कि नई व्यवस्था के अंतर्गत बैंक खातों में जमा आम जनता की पूँजी पर सुरक्षा की गारंटी की वर्तमान सीमा में बढ़ोतरी की जाए।
डॉ. प्रमोद मीणा
लेखक महात्मा गाँधी केंद्रीय विश्वविद्यालय, मोतिहारी (बिहार) के हिंदी विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर हैं.
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हर विषय की अपनी भाषा होती है. इसी लिहाज से राजनीति की भी एक मर्यादित भाषा होती है. राजनीति में मर्यादित भाषा इसलिए जरूरी होती है ताकि समाज को निर्देशित कर सके. जब हमारे राजनेता प्रतिद्वंदी के लिए ओछी भाषा का प्रयोग नहीं करते हैं तो समाज के किसी भी व्यक्ति को इस तरह की भाषा का प्रयोग नहीं करना चाहिए. राजनीति और राजनेता समाज के लिए अच्छे आदर्श भी स्थापित करते जाते हैं और समाज हर क्षण उस आदर्श को अंगीकृत करता रहता है. लेकिन भारत की राजनीति, इस कालखंड के सबसे निचले स्तर को स्पर्श कर रहा है. वैसे तो भारत की राजनीति और राजनेता बहुत कम ही समय भारत के नागरिक के मुद्दे पर चर्चा करती है. बहरहाल, अब भारतीय राजनीति इस मुद्दे पर रुक गयी है की राजनेता एक दूसरे के लिए किस तरह की भाषा का प्रयोग करेंगे. पहले वो खुद इस दलदल से निकल जाएँ तो शायद समाज में कुछ आदर्श स्थापित कर सकें.
आज भारत की संसद इस बात पर बहस कर रही है कि प्रधानमंत्री ने ओछी भाषा का प्रयोग किया उसके लिए वो माफ़ी मांगे. दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी का भी आरोप है कि प्रधानमंत्री के लिए ओछी भाषा के उपयोग करने के लिए कांग्रेस पार्टी माफ़ी मांगे. इस बीच किसान, बेरोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य, रेलवे, कानून-व्यवस्था, समाज में फैल रहे बहुसंख्यकवाद जैसे मुद्दे संसद में कहीं दूर-दूर तक नहीं हैं. इस आरोप-प्रत्यरोप के बीच प्रधानमंत्री कई जगह भावुक हो जाते हैं और यह भी कहने लगते हैं की मुझे बुरा-भाल कहा जा रहा है. क्या कोई प्रधानमन्त्री के लिए ऐसे शब्दों का प्रयोग कर सकता है? यह बात बिलकुल सही है कि प्रधानमंत्री जैसे मर्यादित पद के लिए किसी भी सूरत में ओछी भाषा का प्रयोग सिर्फ असंसदीय, असंवैधानिक ही नहीं बल्कि असामाजिक भी है. इस तरह की भाषा का प्रयोग से तो हम अपने परिवार, दोस्तों के बीच में भी बचते हैं.
लेकिन क्या प्रधानमंत्री इसके लिए खुद जिम्मेदार नहीं हैं? भारतीय राजनीति जनता की याद न रखने की आदत का खूब फायदा उठाती है. नेता मान कर चलते हैं कि जनता की याददाश्त छोटे समय के लिए होती है. इसलिए हर समय मुद्दे बदल दिए जाते हैं. जनता भी पिछले मुद्दों को भूल जाती है. लेकिन बुद्ध ने कहा था कि समस्या के कारण, जड़ को ढूंढ़ना ही समाधान ढूंढ़ना होता है. प्रधानमंत्री मोदी के लिए जिस तरह की भाषा का प्रयोग आये दिन लोग करते हैं असल में उसकी शुरुआत खुद प्रधानमंत्री ने की थी. जिस प्रधानमंत्री पद की गरिमा की दुहाई देकर जनता के बीच रुआंसा हुआ जा रहा है उस पद की गरीमा को कमतर आंकने का काम भी मोदी जी ने ही शुरू किया था. गुजरात के मुख्यमंत्री रहते नरेंद्र मोदी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के लालकिले की प्राचीर से दिये जाने वाले भाषण के समानान्तर बतौर मुख्यमंत्री जो भाषण दिया था जो की असंवैधानिक भी था और प्रधानमंत्री पद की गरिमा का तिरस्कार भी. पूर्व उप प्रधानमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी ने उसकी निंदा भी की थी. प्रधानमंत्री मोदी ने पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के लिए रेनकोट पहनकर नहाने की बात कही, मौनी बाबा से लेकर ऐसे हजारों शब्द प्रयोग किये, जिसे किसी भी तरीके से सही नहीं कहा जा सकता था. बीजेपी के गुलाबचंद कटारिया ने तो मनमोहन सिंह के लिए ‘“सा…”” गाली तक का प्रयोग किया. प्रधानमंत्री मोदी खुद कांग्रेस के नेता के लिए 50 करोड़ की गर्लफ्रेंड” जैसे शब्दों का प्रयोग कर चुके हैं. प्रधानमंत्री मोदी के लिए मणिशंकर अय्यर ने ‘“नीच’” शब्द का प्रयोग किया जिसको लेकर काफी हंगामा भी हुआ लेकिन इसका खंडन करते हुए यह भी देखना जरुरी है कि इस पद की गरिमा का ख्याल किसी को भी नहीं था, न है. प्रधानमंत्री मोदी ने खुद इस पद की गरिमा का ख्याल नहीं रखा. मोदी के भाषण ने ज्यादातर लोगों के बात करने के तरीके को अपनाया, उससे लोग उनसे कनेक्ट भी हो पाए लेकिन मोदी जी को तो लोगों के लिए आदर्श खड़ा करना था, लोगों के आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक जीवन के साथ-साथ उन्हें जनता के आपसी भाषाई व्यवहार को भी बदलना था. यही नेता का काम होता है.
बहरहाल, जिस भाषा को लेकर इतना हंगामा है, उसकी शुरुआत मोदी जी ने ही की और उसकी फसल भी अब मोदी जी काट रहे हैं. मणिशंकर अय्यर के साथ कोई भी खड़ा नहीं हुआ, होना भी नहीं चाहिए लेकिन मोदी जी के साथ भी इस तरह की भाषा के प्रयोग पर, खड़ा होना संभव नहीं. इस देश को सभ्यता के रास्ते पर आगे बढ़ना है, लेकिन हमारी राजनीति या तो हमें पीछे ले जा रही है या फिर हमें एक जगह स्थिर कर रही है. राजनीति में सभ्यता नहीं, एक-दूसरे के लिए सौहार्द-सम्मान नहीं तो इस देश की जनता इस राजनीति से किस बदलाव की अपेक्षा रख सकती है. यह तय हो गया है कि इस देश की राजनीति से कुछ भी अच्छा करने की अपेक्षा ही बेमानी है.
डॉ. दीपक भास्कर
दिल्ली विश्वविद्यालय के दौलतराम कॉलेज में राजनीतिशास्त्र के सहायक प्रोफ़ेसर हैं.
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गुजरात के चुनाव परिणामों ने जहां भारतीय जनता पार्टी के कान खड़े कर दिए हैं, वहीं बर्फीले प्रदेश हिमाचल में कांग्रेस को बहुत बड़ा सबक दिया है। इन दोनों चुनावों के परिणामों के नेपथ्य से कुल मिलाकर यह संदेश तो प्रवाहित हो रहा है कि कांग्रेस धीरे-धीरे ही सही, परंतु सत्ता मुक्त पार्टी की ओर कदम बढ़ा रही है। वर्तमान में कांग्रेस के पास देश के चार ही राज्य ऐसे हैं, जहां उसकी सरकार है। इतना बड़ा देश और केवल चार राज्य। यह कांग्रेस के लिए आत्म मंथन का विषय हो सकता है। वैसे कांग्रेस गुजरात में अपनी बढ़ती हुई ताकत को देखकर आत्म मुग्ध हो रही है। वह अपनी हार को भी जीत मानने की भूल कर रही है। हालांकि यह सत्य है कि जो हारकर भी जीत जाए, उसे बाजीगर कहते हैं, लेकिन लोकतंत्र में यह कहानी अतिरेक की श्रेणी में आती है। लोकतंत्र में केवल सीटों की संख्या का गणित ही लगाया जाता है, पहले से कितनी सीट ज्यादा आई, इसका कोई महत्व नहीं है। गुजरात चुनाव के परिणामों ने यह बात तो जाहिर कर दी है कि भाजपा जैसी जीत चाहती थी, वैसी नहीं मिली। इसके विपरीत कांग्रेस को भी जैसे प्रदर्शन की उम्मीद थी, वैसा भी नहीं हुआ। भाजपा की पहले के मुकाबले कमजोर सरकार और कांग्रेस की प्रभावशाली हार ने दोनों ही दलों के कार्यकर्ताओं को उछलने कूदने का अवसर प्रदान किया है। गुजरात के परिणाम भाजपा के लिए खतरों भरा आमंत्रण है, वहीं कांग्रेस के लिए एक बहुत बड़ा सबक है। सबक इसलिए माना जा सकता है कि क्योंकि यह सिद्ध हो चुका है कि आज की राहुल गांधी वाली कांग्रेस में उतनी ताकत नहीं है, जो अकेले रहकर भाजपा का मुकाबला कर सके। इसलिए यह कहा जा सकता है कि कांग्रेस अपाहिज जैसी अवस्था को प्राप्त करने की ओर हो रही है। आगे कांग्रेस की अवसथ क्या होगी, इसका अनुमान लगाया जा सकता है, लेकिन बाहरी राजनीतिक जगत और अंदरखाने में कांग्रेस की इतिश्री की अवस्था को प्राप्त करने जैसी खबरें भी सुनाई देने लगी हैं। अभी हाल ही में वरिष्ठ राजनीतिज्ञ अमर सिंह ने कहा भी है कि नरेन्द्र मोदी न तो कभी हारे हैं और न ही हारेंगे। उनका आशय संभवत: यही निकाला जा सकता है कि कांग्रेस में अब उतनी ताकत नहीं है कि वह भाजपा को पराजित कर सकें। इसी प्रकार कांग्रेस तो चुनाव से पूर्व ही निराशा के स्वर प्रस्फुटित हो चुके हैं। गुजरात के चुनाव परिणामों ने भाजपा को गहरे सबक से साक्षात्कार कराया है। गुजरात की जनता ने भाजपा का भय से सामना कराया है। एक ऐसा भय जो आगामी चुनावों के लिए आत्म मंथन के लिए विवश करेगा। दूसरी सबसे बड़ी बात यह भी है कि जिस कांग्रेस के पास अपने कार्यालय में काम करने वाले कर्मचारियों को देने के लिए पैसे नहीं थे, उसके पास चुनावों के लिए धन कहां से आ गया। हम यह भी जानते हैं कि देश ही नहीं, बल्कि विदेश में कई संस्थाएं ऐसी हैं जो नरेन्द्र मोदी के राजनीतिक प्रभाव को कमजोर करने का प्रयास कर रही हैं। हो सकता है कि कांग्रेस को ऐसे ही लोगों ने धन उपलब्ध कराया हो, लेकिन हम तो यही कहेंगे कि यह सारा मामला जांच ऐजेंसियों का विषय है, इसका गणित भी जांच एजेंसियां ही लगा तो अच्छा रहेगा। परंतु जांच का विषय तो है ही। दोनों राज्यों के चुनाव परिणाम कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी के लिए अपशकुन ही कहे जा सकते हैं, क्योंकि उनके अध्यक्ष बनने के तुरंत बाद ही उनकी ऐसी परीक्षा हुई कि दोनों राज्यों में असफल हो गए। शुरुआत में ही पराजय मिलना अध्यक्षी की मीठी खुशी में कड़वाहट पैदा कर गई।
गुजरात और हिमाचल प्रदेश में चुनावों के जो परिणाम आए हैं, उससे भारतीय जनता पार्टी को सत्ता मिल गई है। इन चुनाव परिणामों में खास बात यह है कि गुजरात में सत्ता विरोधी लहर बिलकुल भी दिखाई नहीं दी, इसके अलावा हिमाचल में सत्ता विरोधी लहर के चलते कांग्रेस को सत्ता छोड़नी पड़ी है। इससे यह साफ हो जाता है कि दोनों राज्यों में भाजपा की ही लहर दिखाई दी। गुजरात के चुनाव परिणाम का अध्ययन करने से यह प्रमाणित होता है कि वहां वास्तव में कांग्रेस के नाम पर कोई जादू नहीं था, कांग्रेस को जो भी सफलता मिली है, उसमें उन तीन नए नेताओं का व्यापक प्रभाव दिखाई देता है, जिन्होंने कांग्रेस का साथ दिया था। अब विचार किया जाए कि इन तीन नेताओं का साथ कांग्रेस को नहीं मिला होता तो कांग्रेस की स्थिति क्या होती। इसी प्रकार भाजपा की बात की जाए तो यह स्वाभाविक रुप से दिखाई देता है कि गुजरात में भाजपा और कांग्रेस के बीच वोट प्रतिशत का अंतर भी कम हुआ है। जो प्रतिशत पिछले चुनाव लगभग नौ था, अब वह मात्र सात प्रतिशत के आसपास दिखाई देता है। इससे स्वाभाविक रुप से यह सवाल आता है कि भाजपा की व्यापक लोकप्रियता में गिरावट भी आई है। भाजपा की सीटों की संख्या पिछले चुनाव परिणाम की तुलना में कम हुई हैं। राजनीतिक विश्लेषकों के गणित के हिसाब से देखा जाए तो यही सामने आता है कि अगर कांग्रेस की ओर से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को नीच नहीं कहा जाता तब भाजपा की क्या स्थिति होती, इतना ही नहीं कांग्रेस के कपिल सिब्बल ने भी कांग्रेस के वोट कम करने में अपना योगदान दिया है। इसलिए यह भी कहा जाने लगा है कि गुजरात चुनाव प्रचार के दौरान इस प्रकार की बयानबाजी ने ही कांग्रेस को कमजोर किया है। अगर ऐसा नहीं होता तो हो सकता था कि गुजरात में कांग्रेस और ज्यादा अच्छी स्थिति में होती। दोनों राज्यों के वुनाव परिणाम की समीक्षा की जाए तो यह स्वाभाविक रुप से दिखाई देता है कि कांग्रेस अपनी ओर से किसी प्रकार का प्रभाव नहीं छोड़ पाई है। दूसरी तरफ कांग्रेस के नए नवेले राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी के खाते में यह दो असफलताएं और जुड़ गर्इं। गुजरात में कांग्रेस की अच्छी स्थिति की दुहाई देकर भले ही कांग्रेस अपना बचाव करे, लेकिन लोकतंत्र में सीटों की संख्या और बहुमत का खेल होता है, जो आज कांग्रेस के पास नहीं है। इसी प्रकार हम यह भी जानते हैं कि गुजरात में भाजपा को हराने के लिए चारों तरफ से अभिमन्यु जैसा चक्रव्यूह बनाने का प्रयास किया गया। ऐसे प्रयासों के बाद भी भाजपा ने सत्ता बचाने में सफलता प्राप्त की है। इस चुनाव में एक और खास बात यह दिखाई दी, वह यह है कि कांग्रेस की ओर से जातिवाद का खेल खेला गया। इस जातिवाद के सहारे ही कांग्रेस की सीटों में बढ़ोत्तरी हुई है। खैर जो भी हो, परिणाम आ चुके हैं और दोनों राज्यों में भाजपा की सत्ता आ चुकी है। यहां सबसे बड़ा सवाल यह भी है कि जो सत्ता विरोधी रुख हिमाचल में दिखाई दिया, वह गुजरात में नहीं था। सवाल यह भी है कि जिस प्रकार के कांग्रेस के राजनीतिक प्रभाव बढ़ने के बयान आ रहे हैं, वह सही नहीं कहे जा सकते, क्योंकि अगर कांग्रेस का राजनीतिक प्रभाव बढ़ा है तो फिर कांग्रेस हिमाचल में क्यों हार गई। कांगे्रस को सच्चाई का भी सामना करना चाहिए।
सुरेश हिन्दुस्थानी
लेखक वरिष्ठ स्तंभकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं
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सैद्धांतिक तौर पर, लोकतंत्र में चुनाव नागरिक को सरकार को चुनने और मार्गदर्शन करने में मदद करता है. ऐसा ही एक चुनाव, अभी-अभी भारत के एक राज्य गुजरात में हुआ है और यह चुनाव हाल के वर्षों में सबसे महत्वपूर्ण चुनाव रहा है. दो मुख्य पार्टियाँ भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस एवं भारतीय जनता पार्टी आमने-सामने थी. भारतीय जनता पार्टी गुजरात में पिछले 22 साल से शासन में चुनी जाती रही है. एक बार फिर भारतीय जनता पार्टी को सरकार चलाने का जनादेश दिया है. इस जनादेश में इस बार भाजपा को 22 साल में सबसे कम 99 सीट मिली हैं और कांग्रेस को 22 साल में सबसे अधिक 81 सीटें. चुनाव के परिणाम के बाद जो सबसे महत्वपूर्ण चीज देखने को मिली है वो यह है कि भाजपा और कांग्रेस दोनों ही जश्न मना रहे हैं. भाजपा जहाँ जीत का जश्न मना रही है, वही कांग्रेस इसे नैतिक जीत तथा भाजपा को 100 सीटों के अन्दर रखते हुए, खुद अधिक सीट पाने का जश्न मना रही है.
बहरहाल, इसे कई तरीके से देखा जा रहा है. लेकिन इस बात को इस तरह देखना भी जरूरी है कि यह चुनाव कांग्रेस हार चुकी है जहाँ हारने की कोई ख़ास वजह दिखती नहीं थी. पिछले 22 साल की सरकार की विरोधी-लहर(anti-incumbe), तीन महत्वपूर्ण सामाजिक आन्दोलन (हार्दिक पटेल, जिग्नेश मेवानी, अल्पेश ठाकोर के नेतृत्व में), मोदी सरकार की आर्थिक नीतियाँ (जीएसटी, विमुद्रीकरण), किसान का कर्ज, उत्पादन के सही दाम न मिलना, ऐसे तमाम फैक्टर भाजपा के खिलाफ थे. लेकिन फिर भी भाजपा गुजरात में चुनाव जीत गयी. कांग्रेस की हार की वजहों में, उसके गुजरात में कमजोर संगठन को भी माना जा रहा है. यह कुछ हद तक सही भी है लेकिन इन सब कारणों के परे, कांग्रेस के नेताओं का जनता से संपर्क टूटना सबसे महत्वपूर्ण है.
कांग्रेस की तरफ से चुनाव जीतने के लिए कर्मण्यता का भी अभाव था. जहाँ भाजपा की तरफ से हर छोटे-बड़े नेता गुजरात की गलियों में धूल फांक रहे थे वहीं कांग्रेस के अधिकतर नेता दिल्ली के ऐशो-आराम से निकलने को तैयार भी नहीं थे. वह इसलिए भी की कांग्रेस में ज्यादातर नेता, वकीलों की जमात से हैं जिनका जनता से कोई सम्पर्क नहीं, हाँ सरकार बनने पर ये लोग मंत्री पद की होड़ में सबसे आगे होते हैं. प्रधानमंत्री मोदी तमाम व्यस्तताओं के वावजूद गुजरात में अकेले 34 बड़ी रैली करते हैं वहीं दूसरी तरफ कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी महज 30 रैली ही कर पाते हैं. मोदी हिमाचल के चुनाव में भी खूब सारी रैली करते हैं लेकिन राहुल गाँधी हिमाचल में चुनाव से पहले ही हार शायद स्वीकार कर लेते हैं. ऐसे कई इलाके गुजरात में रहे हैं जहाँ लोगों ने कांग्रेस को ढूंढ़ा पर कांग्रेस के नेता वहां तक पहुँच नहीं पाए.
भाजपा एक तरफ अपनी सरकार बचाने के लिए सर्वस्व दे रही थी तो दूसरी तरफ कांग्रेस सरकार बनाने के लिए उतनी मेहनत करती दीख नहीं रही थी. राहुल गाँधी को अखिलेश यादव के मुख्यमंत्री बनने से पहले की मेहनत को देखना चाहिए था. अखिलेश यादव ने साइकिल से लगभग हर गाँव-कसबे में जाकर लोगों से सीधा संपर्क बनाया, लोगों में विश्वास पैदा किया. बिहार में तेजस्वी यादव ने भी जन-संपर्क से अपनी साख बनाने में कामयाबी हासिल की है.
राहुल गाँधी को अपने बड़े नेता की छवि से निकलकर जननेता बनने की कवायद शुरू करनी चाहिए. शायद वो भूल गए हैं कि उनकी दादी इंदिरा गाँधी आपातकाल के बाद हाथी पर बैठकर बिहार के बाढ़ प्रभावित बेलछी गाँव पहुँच गयी थी और उस घटना ने इंदिरा को फिर से इंदिरा बना दिया था. राहुल गाँधी की कांग्रेस को दिल्ली से निकलना होगा, लोक-जीवन में रमना होगा, जनता के साथ जुड़ना होगा, मेहनत करनी होगी, बार-बार पहुँचने से जनता में विश्वास पैदा होगा और जनता राहुल गाँधी और कांग्रेस को अपने आस-पास महसूस करने लगेगी. राज्यों के, कस्बों के, गांवों के स्थानीय मुद्दे समझने होंगे. अभी उनके भाषणों में राष्ट्रीय मुद्दे ज्यादा झलकते हैं. दूसरी महत्वपूर्ण बात, कांग्रेस की राजनीति है. भाजपा की राजनीति के उलट कांग्रेस की राजनीति गुजरात में अलग नहीं हो पायी. हिंदुत्व के मुद्दे पर कांग्रेस डिफेंसिव दीख रही थी. चाहे कुछ भी हो कांग्रेस को समग्र, सहिष्णु, धर्म-निरपेक्ष राजनीति के साथ ही आगे बढ़ना चाहिए. गुजरात में मंदिर जाकर आशीर्वाद पाना सही भी था तो राहुल गाँधी को मस्जिद या मजारों पर भी जाना चाहिए था. सांप्रदायिक राजनीति का तोड़ सांप्रदायिक राजनीति के द्वारा कतई संभव नहीं है. भ्रम को भ्रम से तोड़ा ही नहीं जा सकता.
भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के लिए हिन्दुत्व की राजनीति करना सबसे आसान था वो भी तब, जब यह देश हिन्दू-मुसलमान के आधार पर बाँट चुका था. लेकिन नेहरू ने उस राजनीति के बदले भारत को संवैधानिक गणतंत्र और धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बनाया. राहुल गाँधी को कांग्रेस की मूल विचारधारा के साथ खड़े रहना चाहिए. इस देश को इस राजनीति ने खड़ा किया है. गुजरात चुनाव राहुल गाँधी और कांग्रेस के लिए एक सबक है. उन्हें जनता के बीच चुनाव में नहीं बल्कि हर हमेशा उपलब्ध रहना होगा, संपर्क साधना होगा यह काम वकीलों से नहीं बल्कि जननेता से ही हो सकता है. बहरहाल, कांग्रेस चुनाव हार चुकी है, नैतिक जीत तब होती जब कांग्रेस अपने मूल विचार के साथ समझौता नहीं करती.
डॉ. दीपक भास्कर
लेखक दौलतराम कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीतिशास्त्र के सहायक प्रोफ़ेसर हैं.
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ये लेखक के निजी विचार हैं.
प्रसिद्ध पर्यावरणविद अनुपम मिश्र की आज पुण्यतिथि है। अनुपम मिश्र स्वयं संस्थावादी नहीं थे, यह कहना बेहतर होगा कि वे एनजीओ संस्कृति के खिलाफ थे। लेकिन उनके व्यक्तित्व का ही यह जादू था कि उनसे प्रभावित और दीक्षित होकर कई लोग अपने आप में संस्था बन गए। संस्था बनाने से ज्यादा विश्वास उन्हें लोग बनाने में था। उनके पत्रों और उनके विचारों ने बहुत लोगों को पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता बनाया। आश्चर्य तो यह कि डॉक्टर, इंजीनियर, शिक्षक और वकील भी उनके विचारों से प्रभावित रहे हैं।
अपने विचारों को जीने वाले अनुपम खुद तो सादगी पसन्द थे ही, सीधे सादे लोगों को वे ज्यादा पसन्द करते थे। वैभव और रसूख वाले ऐसे लोग ही अनुपम की दुनिया में जगह बना पाए जो अपने अनावश्यक अभिमान और गरूर को बाहर ही रखकर उनके पास आये। उनकी सादगी उनके व्यक्तित्व का सबसे बड़ा सौन्दर्य था।
सैडेड ने अनुपम जी का एक व्याख्यान कराया था। वह व्याख्यान सिर्फ इसलिये महत्त्वपूर्ण नहीं है कि वह उनके जीवन का अन्तिम व्याख्यान था बल्कि इसलिए भी कि इसमें जीवन जीने के गुर निहित हैं। सच्चे अर्थों में जीने के लिये यह व्याख्यान सचमुच एक जीवन कुंजी है।
(संपादक किशन कालजयी की कलम से)
जीवन का अर्थ: अर्थमय जीवन
-अनुपम मिश्र
आजकल अक्सर ऐसी बैठकों में, सभा सम्मेलनों के प्रारंभ में एक दीपक जलाया जाता है। यह शायद प्रतीक है, अंधेरा दूर करने का। दीया जला कर प्रकाश करने का। इसका एक अर्थ यह भी है कि अंधेरा कुछ ज्यादा ही होगा, हम सबके आसपास। यह अंधेरा बाकी समय उतना नहीं दिखता, जितना वह तब दिखता है जब हम अपने मित्रों के साथ ऐसी सभाओं में बैठते हैं। तो दीये से कुछ अंधेरा दूर होता होगा और शायद आपस में इस तरह से बैठने से, कुछ अच्छी बातचीत से, विचार-विमर्श से भी अंधेरा कुछ छंटता ही होगा। शायद साथ चाय, कॉफी पीने से भी। ऐसा कहना थोड़ा हल्का लगे तो इसमें संस्कृत का वजन भी डाला जा सकता है: ओम सहना ववतु, सहनौ भुनक्तु आदि। दीया जलाने का यह चलन कब शुरू हुआ होगा, ठीक कहा नहीं जा सकता। इससे मिलती-जुलती प्रथा ऐसी थी कि जब ऐसी कोई सभा-गोष्ठी होती, अतिथियों के स्वागत में मंच के सामने पहले से ही एक दीया जला कर रख दिया जाता था।
विनोबा किसी जगह गए थे। वहां उन्हें कुछ बोलना भी था। उनके स्वागत में मंच पर एक दीया जला कर रखा गया था। हवा भी चल रही थी। आयोजक बाती की लौ को टिकाए रखने की खूब कोशिश कर रहे थे। आसपास खड़े रह कर अपनी हथेलियों की आड़ से दीये को जलाए रखने की कोशिश में लगे रहे। सबका ध्यान उसी तरफ। अंधेरा जो भगाना था। पर दीया टिक नहीं पाया। वह बुझ ही गया।
विनोबा ने अपनी बातचीत इसी से शुरू की थी। उन्होंने कहा कि आसपास की हवा जब शांत हो, तभी दीया जलता है। अगर हवा प्रतिकूल रही, हवा जोरों से बहती रहे तो दीपक टिकता नहीं। फिर वे हवा से दीपक पर आए। उन्होंने कहा कि हवा शांत हो पर यदि दीपक में तेल कम पड़ा है तो भी वह टिक नहीं पाता। हवा से दीपक और फिर विनोबा दीपक से मनुष्य पर आते हैं। तेल यानी चिकनाई। स्नेह भी इसी अर्थ में बना शब्द है। वे आगे कहते हैं कि जैसे दीपक में तेल की, स्नेह की जरूरत है, वैसे ही मनुष्य में भी, हम सबके भीतर भी स्नेह की जरूरत है। दीपक जलते रहने के लिए बाहर की हवा भी शांत होनी चाहिए और तेल भी होना चाहिए। उसी तरह समाज की रचना भी शांतिमय होनी चाहिए और हम सब में भी स्नेह की मात्रा भरपूर होनी चाहिए। तब जलता रह पाता है हमारा यह दीया। जीवन का दीया भी।
आज हम जीवन का अर्थ जानने मिल बैठे हैं। जीवन तो हम सबका है ही। और इस जीवन का अर्थ बताने की जिम्मेदारी विजयजी ने मुझ अकेले पर छोड़ दी है ! इसलिए सबसे पहले तो मुझे खुद अपनी पोल आप सबके सामने खोल देनी चाहिए: मुझे खुद जीवन का अर्थ नहीं मालूम। सैडिड संस्था में दास साहब, हमारे दफ्तर में, गांधी शांति प्रतिष्ठान में अमृता बहन जैसे दो-चार गवाह भी हैं जो आपको बताएंगे कि मैं इसके लिए लगातार मना करता रहा हूं। पर यह विजय जी की एक तरह की तानाशाही है कि वे कोई एक बात ठान लें तो उसे पूरा करवा कर ही छोड़ते हैं। तो उनकी इच्छा, उनका हुक्म पूरा करना ही पड़ेगा। इसलिए सबसे पहले यह डिस्क्लेमर !
सामने बैठे हैं कुछ मुझसे कम उमर के साथी। कुछ मुझसे ज्यादा उमर के साथी। पर आज के विषय में, जीवन का अर्थ जानने की कोशिश में हमारी यह उमर कोई काम नहीं आती। वह शायद अनुभव है जो ऐसी बातें सोचने में काम आता होगा। जो जीवन मैंने जी लिया है, मेरे हिसाब से ऐसा अनुभव मेरे पास है नहीं। पिछले हफ्ते मैं पूरे अड़सठ वर्ष का हुआ हूं। कितना बचा होगा शेष जीवन, वह तो पता नहीं। पर आप में से कई लोगों को अभी एक लंबी पारी खेलनी है। इसलिए आज की यह बातचीत आपके किसी काम आ सके- ऐसी विजय जी की इच्छा है। हरि इच्छा, भगवान की इच्छा क्या है, पता नहीं। तो चलिए जिसे खुद तैरना नहीं आता, उससे तैरना सीखते हैं ! मेरा जीवन, मेरा अनुभव कोई गहरा तो है नहीं, इसलिए इतने उथले पानी में तैरना सीखने-सिखाने में यों भी कोई खास डर की बात नहीं होगी !
जहां से हमने बात शुरू की थी, एक बार वापस वहीं लौटें। पिछले कोई 200-300 बरसों से पूरी दुनिया में तेज हवा चल रही है। पहले भी हवा चलती रही होगी पर तब पूरी दुनिया एक दूसरे से बहुत दूर थी और कटी हुई भी थी। उस दुनिया में हवाएं भी टुकड़ों में बंटी रही होंगी। जीवन तब भी कोई आसान न रहा होगा – एक बड़ी आबादी के लिए। फिर भी उतना कठिन और निरुद्देश्य भी नहीं रहा होगा, जितना कि वह आज बना दिखता है। इस दुनिया में हम कितने भी बड़े उद्देश्य को लेकर, लक्ष्य को लेकर दीया जलाते हैं, तेज हवा उसे टिकने नहीं देती। हम तरह-तरह से कोशिश करते हैं उसे अपनी हथेलियों से बचाने की, पर यह हवा है कि हमारी सारी कोशिशों पर पानी फेरती है। शायद हमारे जीवन के दीए में पानी ही ज्यादा होता है, तेल नहीं। स्नेह की कमी होगी इसलिए जीवन बाती चिड़चिड़-तिड़तिड़ ज्यादा करती है, एक-सी संयत होकर जल नहीं पाती। न हम अपना अंधेरा दूर कर पाते हैं, न दूसरे का।
हम पढ़-लिख गए कुछ लोगों को ही जीवन का अर्थ जानने की इच्छा है। हम ही कुछ हैं जो मानते हैं कि अर्थमय जीवन कैसे जीएं। लेकिन हम थोड़ा अपने भीतर झांकें तो हममें से ज्यादातर का जीवन एक तरह से कोल्हू के बैल जैसा ही बना दिया गया है। इसमें कितना हमारा हाथ है, कितना हाथ परिस्थितियों का है, मालूम नहीं। पर हम गोल-गोल घूमते रहते हैं। आंखों पर पट्टी बांधे। कोल्हू के बैल की पट्टी तो कोई और बांधता है, यहां तो हम खुद अपनी पट्टी बांधते हैं। फिर एक-सा जीवन जीते-जीते थकने लगते हैं। दिल्ली की गाड़ियों को तो सम-विषम, आॅड-ईवन नंबर के ताजे नियम से कुछ आराम भी मिलने लगा है। पर हमारे जीवन की गाड़ी का कोई नंबर नहीं होता। आधार कार्ड बन गया होगा, पैन कार्ड, मतदाता पहचान पत्र होगा। तब भी हमारे जीवन का कोई नंबर नहीं होता है। इसलिए इसे रोज कोल्हू में, एक न दिखने वाले कोल्हू में, अदृश्य कोल्हू में जुतना ही है।
तो एक-सा जीवन जीते जाने की थकान से ही हमें नई-नई बातें सूझती हैं। कोल्हू का बैल अपनी तरक्की, अपने लिए नए अवसर, अपने लिए नए सार्थक अवसर की खोज करता है। नया पैकेज खोजता है। विजयजी चाबुक मार दें तो बैल कोल्हू में घूमते-घूमते अपने जीवन का अर्थ भी खोजने लगता है ! कोल्हू का बैल। वह इस विषय पर भाषण भी देने लगे तो आप अचरज न करें।
कोल्हू कई तरह के हैं, महंगे हैं, कम घेरे के हैं, बड़े-बड़े घेरों के हैं। कई तरह के विचारों के हैं तो कई तरह के धर्मों के हैं। इनमें से हरेक अपने को बाकी बचों से श्रेष्ठ मानता है। सर्वोत्तम। और उसी में अपना जीवन सफल सार्थक हो सकता- ऐसा दावा करता है।
समाज का तना कमजोर होता जाता है पर शाखाओं की संख्या बढ़ती जाती है। पेड़ वाली शाखाएं नहीं। संगठन वाली, संघ वाली शाखाएं। हर विचार, हर धर्म अपना झंडा लहराता है और दूसरे झंडों से ऊपर उठना चाहता है। हम कुछ विचारों को अच्छा मानते हैं, कुछ को घटिया। तो हमें लगता है हमारा विचार कैसे फैले। जीवन की सारी सार्थकता हमें अपने ही विचार को फैलाने में दिखने लगती। हिंसा को परिवर्तन का साधन बनाने वाले भी अपनी शाखाएं बढ़ाते चलते हैं और यही प्रवृत्ति अहिंसा को मानने वालों में भी मिलती है। सबको अपना संगठन बढ़ाना है, बड़ा करना है। बजट बढ़ाना है, कार्यकर्ता बढ़ाना है। कार्यक्रम, गतिविधियां बढ़ानी है। दिन दूनी, रात चैगुनी उन्नति करनी है- इसी में हमें जीवन सफल होता दिखने लगता है।
हमें अपने विचार की कमियां नहीं दिखती। आंख में पट्टी बंधी रहती है। पर दूसरे विचारों की कमियां हमें एक्सरे की तरह बेहद साफ दिखने लगती हैं। सारा जहान देखा हो या न देखा हो हम कविता लिख जाते हैं, गीत गाते जाते हैं कि सारे जहां से अच्छा…
विनोबा इस गीत में थोड़ा कुछ और जोड़ कर एक बड़ी बात की तरफ इशारा कर देते हैं : सारे जहां से अच्छा ‘क्योंकि’ हिंदोस्ता हमारा। इस क्योंकि को अपने जीवन से अलग करना बहुत ही कठिन काम है। क्योंकि मेरा विचार, मेरा धर्म, मेरी संस्था, मेरा संगठन, मेरा समाज, मेरा देश, मेरा बेटा-बेटी। कहीं दामाद भी। न जाने कितने सौ बरस पहले लिखे गए संस्कृत नाटक ‘मृच्छकटिकम’ में एक ऐसा ही रिश्ता राजा के साले का भी सामने आ गया था। संक्षेप में कहें तो क्योंकि मेरा कोल्हू। गोल-गोल घूमते रहने से कुछ परिणाम तो आते ही हैं। कुछ तेल निकल आता है। थोड़ी-बहुत खली भी मिलती है। बैल को अगले दिन घूमते रहने के लिए प्रायः ठीक-ठाक चारा मिल जाता है। ठीक न हो तो फिर असंतोष भी।
मैं खोज तो नहीं पाया हूं, पर कहीं विनोबा ने कहा है कि वेदों में युद्ध का एक नाम ‘मम सत्य’ भी है। मेरा सच, बस मेरा सत्य। इसमें युद्ध के न सही, विवादों के बीज तो छिपे रहते ही हैं। पिछले वर्ष इन्हीं दिनों में अफ्रीका के एक भाग में एक भयानक वायरस फैला था- ई बोला। न जाने कितनी जानें गई थीं। तब हमारे मित्र दिलीप चिंचालकर ने ई बोला वायरस के साथ आई बोला वायरस भी कहा था, यानी मैं बोला वायरस।
फिर और न जाने कब हमें हमारा यह इतना प्रिय सत्य अचानक अर्धसत्य लगने लग जाता है। तब उसे छोड़ हम एकदम उससे उल्टे किसी सत्य से जुड़ जाते हैं। अपने आसपास टटोल कर देखें। छोटे से लेकर कई बड़े नाम विचारों की अदला-बदली में यहां से वहां घूमते मिल जाएंगे। यों यह कोई गलत बात भी नहीं है। जीवन यात्रा में एक विचार यात्रा भी चलती है। इसे अच्छे अर्थों में देखें तो यह मन का, दिमाग का खुलापन भी लगेगा। कल तक हम एक विचार को मानते थे, आज हमें उसकी कुछ सीमाएं दिख गईं तो हमने उसे बिना मोह के छोड़ दिया। यह तो गुण ही कहलाएगा। कुछ बड़े अच्छे लोगों का जीवन बम बनाने से शुरू होता है पर बाद में उन्हें अध्यात्मिक ऊर्जा भी दिखाई देती है। लेकिन यदि यह गुण है तो दूसरे को भी ऐसी छूट, ऐसा अवसर देना होगा। वह तो हम देना नहीं चाहते। पहले किसी एक विचार से मित्रता और फिर उससे भिन्नता, उससे अलग होना हमें बस षड्यंत्र ही दिखता है।
इसलिए जीवन का अर्थ जानने के लिए यदि हम किसी एक विचार, एक धर्म, एक समाज, एक परंपरा में रहस्य खोजते रहे तो हम खुद तो कुछ संतोष शायद पा बैठें, पर इससे सबको अर्थमय जीवन जीने का रास्ता नहीं मिलने वाला। अच्छा जीवन, अगर अपने आप में साध्य या मंजिल बन जाए तो शायद हम उस तक पहुंच भी न पाएं। इसमें भटकाव की बहुत गुंजाइश बनी रहेगी।
पिछले दौर में एक खास तरह की नई पढ़ाई से पढ़ कर दो पीढ़ियां तो निकल ही चुकी हैं। इस पीढ़ी के ज्यादातर सदस्य बैंगलोर, हैदराबाद, पुणे और बाहर संयुक्त राष्ट्र अमेरिका आदि में जा बसे हैं। यदि सार्थक जीवन का अर्थ बस केवल अर्थ, यानी रुपया-पैसा है तो समाज के इस हिस्से के पास उसकी कोई कमी नहीं है। लेकिन जीवन का अर्थ उनके हाथ भी आसानी से नहीं लग पाता। उनके पैसे का एक भाग जीवन जीने की कला सीखने पर भी खर्च हो चला है। इस कला को सिखाने वाले भी कोई एक नहीं अनेक लोग हैं। इनके कपड़ों के रंग भी शुद्ध सफेद से लेकर गेरुआ, भगवा सब हैं। हजारों नहीं लाखों लोग कहीं योग या योगा करते हैं, ध्यान लगाते हैं, जाप या चांटिंग करते हैं। यह धर्म की नई दुनिया भी है, धर्म का नया बाजार भी और धर्म का नया मॉल भी। इसमें दोसा, परांठा कब से नहीं खाया- पूछने वाले गुरु भी हैं। समाज के काम से जुड़े लोगों को ‘चेंज’, बदलाव, परिवर्तन जैसे शब्दों में विशेष आकर्षण मिलता है। धर्म के इस बाजार में भी चेंज शब्द आ गया है- ‘यस आई कैन चेंज’ भी यहां चला है और अब ‘न्यू’ भी लग गया है इसमें।
और इसमें भी कोई संदेह नहीं कि इन सब कामों से हजारों लोगों को कुछ न कुछ लाभ भी हुआ ही है। उनका भटकता हुआ मन कुछ शांत हुआ होगा। तो कलियुग में धर्मयुग का यह अवतरण अच्छा ही मान लेते हैं। लेकिन धर्मयुग से मिलता-जुलता एक और शब्द है- युगधर्म। इस युग का मुख्य धर्म है, इस समय का मुख्य विचार है- विकास। हर चीज का विकास। संगठन का, देश का, शहरों का विकास, गांवों का विकास, बाल विकास, महिला विकास। सब तरह के विचारों के झंडे इस विकास के झंडे में आकर समा जाते हैं। इस युगधर्म ने जीवन के अर्थ को भी प्रभावित किया है। हम सब चाहे जो भी काम करते हों, हम सब पर जाने-अनजाने इस विकास की छाया पड़ती ही है। यह अनायास, अकारण नहीं है कि एक बाबा हरिद्वार में ‘फूड पार्क’ बनाते हैं और दूसरे बाबा अमेठी में इसी नाम से, मिलते-जुलते नाम से नहीं, इसी नाम से फूड पार्क बनाते हैं। एक बाबा का फूड पार्क बन जाता है पर अमेठी का फूड पार्क राजनैतिक पचड़ेबाजी में फंस जाता है। पर दोनों का मन एक ही है। विकास की इस दौड़ में हम सबको दौड़ना ही पड़ता है। इस चूहा-दौड़ में दौड़ना ही है। पीछे रहें या आगे, यह विचित्र दौड़ हमें चूहा तो बनाती ही है।
अर्थमय जीवन की चर्चा तो काफी गंभीर होनी चाहिए। हमारी यह चर्चा कोल्हू, बैल और चूहे जैसी घटिया हो गई है तो आप सबसे क्षमा मांगते हुए मैं थोड़ा-सा लिफ्ट कर देता हूं। इसे थोड़ा ऊपर उठाता हूं। अभी तीन दिन पहले ही ‘लिफ्ट करा दे के’ गायक को भारत की नागरिकता मिली है। उन्होंने बयान में कहा है कि यह उनके जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है। अदनान सामी का जीवन सफल हो गया है, अर्थमय बन गया है उनका जीवन।
क्या सचमुच ऐसा है ? अर्थमय जीवन की ये हमारी अपनी छोटी-छोटी परिभाषाएं हैं। भारत की इस मिली-मिलाई नागरिकता को तो कई लोग छोड़ यूरोप, अमेरिका, कैनेडा की नागरिकता पाने आतुर हैं। फिर आज दुनिया में ऐसे लोगों की संख्या भी सबसे ज्यादा हो गई है, जिनकी कोई नागरिकता ही नहीं बच पाई है। युद्ध, गृह युद्ध और बहुत दूर के दादा देशों की दखलंदाजी से कुछ लाख लोग शरणार्थी बने इधर से उधर भटक रहे हैं। उन पर आज क्या बीत रही होगी, हम सोच भी नहीं सकते। ऐसी दुनिया में सिर पर छत तो दूर की बात है, सिर पर एक आड़ और भरपेट नहीं, मुट्ठी भर अगला भोजन मिल जाए उतना ही अर्थ रह जाता है उनके जीवन का। गांधीजी ने तो आजादी की लड़ाई के बीच में भी भूखे के भगवान की कल्पना कर दिखाई थी। उसके सामने भगवान भी रोटी के रूप में आने के अलावा कोई और रूप धारण कर ही नहीं सकता। हिम्मत भी नहीं कर सकता।
अर्थमय जीवन के इस रोटी-रूप को लेकर भी दुनिया भर में अनेक विचारकों, चिंतकों, क्रांतिकारियों ने कई तरह के शास्त्र रचे हैं, उन्हें अमल में उतारने के संगठन भी बनाए हैं। पर उन समाजों में भी जीवन का अर्थ एकदम साफ समझ में आ गया हो- इसका कोई पक्का रूप दिखता नहीं।
आज से कोई 25-30 बरस पहले हम लोग पानी, तालाब आदि पर कुछ काम कर रहे थे। उस विषय को समझने के लिए इधर-उधर जिज्ञासा में भटकते थे। हमारे कारण कुछ और साथी भी इसमें चीजें जुटाने में हमारे साथ हो लिए। राकेश दीवान तालाबों को समझने मध्यप्रदेष, महाराष्ट्र की सीमा पर बैतूल इलाके में घूम रहे थे। वहां उन्होंने एक राजा का किस्सा सुना। तालाब तो इस किस्से में आएगा ही, पर इसमें पहले तो जीवन के अर्थ की खोज ही थी।
राजाओं का, प्रायः शासन करने वालों का स्वभाव जरा अलग ही रहता है। सांसारिक राजा को न जाने क्या हुआ कि उन्हें अपने जीवन का अर्थ जानने की इच्छा हो गई। किसी सलाहकार ने उन्हें बता दिया कि बस ब्रह्म जान लो, सब अर्थ पता चल जाएगा। “तो तुम बता दो ब्रह्म के बारे में,“ राजा ने उससे कहा था। यह तो बड़ा काम है राजा, हमें तो पता नहीं ब्रह्म का। पर इतना तो पक्का है कि ब्रह्म जान लो तो सब पता चल जाएगा।” कौन बताएगा फिर ब्रह्म नाम की बला ? सलाह मिली कि राज्य के सारे ज्ञानियों को, संतों को, साधुओं को जमा करो। सम्मेलन करो उस समय के किसी विज्ञान भवन में। उनमें से कोई न कोई तो ज्ञान दे ही देगा, ब्रह्म बता ही देगा !
ब्रह्म जानने, जीवन का अर्थ जानने, राजा का जीवन अर्थमय बनाने के लिए विराट आयोजन की तैयारियां षुरू हुईं। राज्य के ही नहीं राज्य से बाहर के भी ज्ञानियों का न्यौता भेजा गया। अब ये शासन करने वालों की भी तो कुछ सनक होती है। ब्रह्म ज्ञान बताने का नहीं, ब्रह्म ज्ञान सुनने का तरीका क्या होगा- यह तय किया राजा ने। गोलमेज, राउंडटेबल कांफ्रेंस नहीं। राजा ने कहा कि सम्मेलन स्थल पर मैं अपने भव्य सफेद घोड़े के साथ खड़ा रहूंगा। एक-एक कर ज्ञानी आएंगे। मैं रकाब पर एक पैर रखूंगा और घोड़े पर चढ़ूंगा। दूसरा पैर दूसरी तरफ की रकाब में जाएगा ही बस इतनी ही देर में ज्ञानी को ब्रह्म के बारे में बताना होगा। नहीं बता पाया तो मैं अपनी एड़ी से घोड़े को इशारा करूंगा। घोड़ा फुर्र से उड़ जाएगा। जो इतने क्षणों में , इतने सेकिंड में ब्रह्म ज्ञान दे दे- उसे भारी इनाम। जो न बता पाए इतनी-सी देर में, उसे कुछ सजा भी देने की बात थी। पर उस विस्तार में जाना जरूरी नहीं। रकाब में पांव, ब्रह्म दिखांव- यह था नारा राजा का।
लंबा किस्सा थोड़े में समेटना हो तो यही बताया जा सकता है कि राजा का पांव रकाब में जाता और घोड़ा फुर्र से उड़ जाता। राजा का जीवन अर्थमय कैसे बने, इस चक्कर में कई लोगों को कोड़े खाने पड़े। लेकिन फिर एक ज्ञानी आया। राजा ने पैर उठाया ही था कि उसने जोर से कहा, “अकाल पड़ा है, तुझे ब्रह्म की पड़ी।” बस। राजा घोड़ा नहीं दौड़ा पाया। उतर गया नीचे। क्या पता उसे ब्रह्म दिख गया होगा। फिर उस इलाके में राजा-प्रजा ने, इन ज्ञानियों ने, कोड़े खाने वालों ने भी मिल कर इतने सारे तालाब बनाए कि फिर वहां कभी ऐसा अकाल पड़ा नहीं।
इस तरह के किस्से जीवन का अर्थ जानने की अलग-अलग खिड़कियां खोलते हैं। इससे यह भी प्रश्न उठता है कि खुद अकेले ही जीवन का अर्थ जान लेना है या और भी कई को साथ लेकर इसे पाना है। अकेले किसी गुफा में अर्थमय जीवन का लड्डू खा लेना है यानी एकवचन या बहुवचन में, सबके साथ दावत देकर। अकेला ऊपर उठ जाना है या बहुतों के साथ थोड़ा-सा ऊपर उठना है। फिर इस किस्से में एक परत समय की, काल की भी है। इस मीठे रहस्य को कुछ समय के लिए पाना है या बड़े लंबे समय के लिए।
अर्थ की खोज आप लगभग हर समाज में कुछ हजार साल पुराने शास्त्र के तरीके से करते हैं। शास्त्री के तरीके से करते हैं या एक मिस्त्री के तरीके से- यह भी सोचना पड़ेगा। फिर एक तरीका है सोचने का। सोचना शब्द सरल लगे तो इसे कठिन बना लें- चिंतन करने का भी एक तरीका है। चिंतन से बात जीवन पर आती है।
यह जीवन अपने आप में क्या बला है। हमें कब पता चलता है कि हम जीवन जी रहे हैं ? सांस तो हम जन्म से पहले ही लेने लगते हैं। हमारा प्राण, हमारा हृदय तो न जाने कब बन जाता है। जीव विज्ञान या शरीर विज्ञान की भी समझ जरूरी नहीं। जन्म के बाद एक दौर तो अबोध बने रहने का ही होता है। पर अबोध का ‘अ’ तो हट जाता है, बचपन में ही, बोध तो हाथ नहीं आता। लगता है तीन अक्षर के इस शब्द अबोध का ‘अ’ हटते ही पूरे तीनों अक्षर हमारे हाथ से छूट जाते हैं।
न हम अबोध रहते हैं न हमें बोध हो पाता है कि हम कौन हैं, कहां से आए हैं, कहां जाएंगे। हम भटकते रह जाते हैं। मंजिल का तो पता नहीं रहता पर हम उस मंजिल तक की यात्रा का भी मजा नहीं ले पाते, आनंद नहीं ले पाते। शिकायत करते रह जाते हैं, खुद अपने से, अपने दुश्मनों से तो छोड़िए, अपने मित्रों से, अपने समाज से और जिसे जालिम जमाना कहते हैं उससे तो न जाने कितनी शिकायतें करते ही चले जाते हैं। हमारी पूरी जीवन यात्रा, लगता है शिकायतों के ईंधन से चल पाती है। और फिर हमारी जीवन की यह गाड़ी इतना काला धुंआ छोड़ती है कि दूसरों के फेफड़े तो खराब होते ही हैं, खुद हमारे फेफड़े भी उससे बच नहीं पाते। जो पहले कहा है वैसे कोल्हू के बैल हम बन जाते हैं। वही किस्सा पुराना है। फिर भी सजन झूठ बोलते रहते हैं, लड़कपन खेल में खोते रहते हैं, जवानी नींद भर सोते रहते हैं और बुढ़ापा देख रोते रहते हैं। कवि शैलेन्द्र के ये बोल निकले तो बंबईया फिल्म से हैं। पर इनमें आपको दर्शन की एक लंबी परंपरा का निचोड़ दिखेगा।
पता नहीं कितने हजार बरस पहले एक ऋषि ने एक खास तरह की चटनी बनाई थी। उन दिनों ब्रांडनेम का जमाना नहीं था, फिर भी इस चटनी को, प्राश को उस ऋषि का ब्रांडनेम, ठप्पा मिल गया। आज उसे भले ही कोई भी बनाए, नाम तो उसे यही देना पड़ता है- च्यवनप्राश। पर हम यहां इस चटनी की चर्चा स्वास्थ्य वाले प्रसंग में नहीं कर रहे हैं। आयुर्वेद बताता है कि इस चटनी में पूरी 45 तरह की चीजें, जड़ी-बूटियां, अत्ते-पत्ते, गुड़, आंवला, फल-फूल आदि डाले जाते हैं।
मामूली किस्म की सर्दी-खांसी आदि से बचने, षरीर की थोड़ी प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने वाली इस चटनी में 45 चीजें पड़ती हैं तो जरा सोचिए, हिसाब तो लगाइए कि एक भरा-पूरा जीवन अर्थमय बनाने में कितनी सारी चीजों की जरूरत पड़ती होगी। इसमें भी हम शरीर षास्त्र की तरफ नहीं जाएं, वह हमारा काम नहीं, योग्यता तो बिलकुल नहीं। पर एक जीवन कैसे सार्थक बनता है, इसमें कितनी बातें जुड़ती हैं, घटती हैं, गुणा होती हैं, भाग होती हैं- सब जरा सोचें तो। सिर्फ अच्छी परिस्थितियां, अच्छी राय, संगतियां, अच्छा परिवेश, अच्छे अवसर ही नहीं, एक भरे-पूरे जीवन में विरोधी परिस्थितियां, विसंगतियां, जय-पराजय, मन की षांति और आसपास का कोलाहल, हल्ला-गुल्ला यानी नई भाषा में कहें तो जिंदाबाद-मुर्दाबाद सबका मिला-जुला रूप, आकार लेकर बनता है- हमारा जीवन।
कुछ हजार साल का इतिहास उठा कर देखें। महाभारत में एक पक्ष जीत जाता है। पर उस जय का परिणाम क्या है ? युधिष्ठिर को उस जय से क्या मिलता है ? वे कहते हैं, यह जय तो उस पराजय से भी बुरी है। जय-पराजय तो छोड़िए, मृत्यु तक से जीवन बनता है। अपना जीवन भी और आने वाले दौर का जीवन भी। ऐसे कई उदाहरण हैं, यहां उन्हें दोहराने की जरूरत नहीं। पर आज से 67 बरस पहले यानी सन् 1948 को इसी महीने की तीस तारीख को एक जीवन अपनी मृत्यु से कितना अर्थमय बन गया था।
तो 45 चीजों से बनी एक साधारण चटनी, प्राश और यह हमारा जीवन। उस तराजू पर हम जीवन तोलें तो एक अंदाज लगेगा कि अपने जीवन को पौष्टिक, स्वादिष्ट या कहें सार्थक, अर्थमय बनाने में लाखों, करोड़ों चीजों को छानना, भूनना, कूटना, उबालना, घोंटना पड़ेगा। और कुछ नहीं तो पंचमहाभूतों की जरूरत पड़ेगी ही। पर यह प्रकृति बड़ी ही मजेदार चीज है। उसने जीवन को बड़ा सरल बनाया है। जीवन तक जाने से पहले प्रकृति की बनाई एक और चीज देखें। बरगद का पेड़। और उसका बीज ? राई के दाने से भी छोटा। इतने से बीज से ऐसा विषाल बरगद। वह भी और पेड़ों की तरह एक तने वाला नहीं। यहां तो तने भी अनगिनत हैं। उमर भी ऐसी सार्थक, इतनी अर्थमय कि 5-10 पीढ़ियां उस बरगद के नीचे छाया पा लें। उसकी षाखाओं में पक्षियों की अनगिनत जातियां घोंसला बना लें और लाखों चिड़ियां खाना खा लें। कपड़ा उन्हें चाहिए नहीं, रोटी और मकान का इंतजाम पक्का। हमारा तो एक नेता इतना करने- रोटी, कपड़ा और मकान जुटाने के नाम पर क्या-क्या नहीं करता। फिर भी कुछ नहीं कर पाता।
वापस लौटें अर्थमय जीवन जीने के लिए। ऐसा जीवन बनाने के लिए कितनी चीजें चाहिए। च्यवनप्राश में तो 45 चीजें लगेंगी ही। तो उस गुणा-भाग से यहां तो लाखों करोड़ों चीजें चाहिए। कहां मिलेंगी, कैसे मिलेंगी, कितने दाम में मिलेंगी सबको। जीवन जी रहे सारे जीवों को यह सब एक दाम पर मिल पाएगी ? यह सब मिल गया तो सार्थक जीवन यात्रा की प्रामाणिकता क्या होगी। मामूली रेल-यात्रा, हवाई जहाज की यात्रा भी आज तो बिना आई.डी.प्रूफ, आधार कार्ड के आप कर नहीं सकते तो फिर एक सार्थक लंबी जीवन यात्रा क्या बिना आई.डी. के हो पाएगी ?
तो क्या-क्या चाहिए की लंबी सूची बनाने के पहले एक और बाजारू उत्पादन पर लौटें। च्यवनप्राश से यह जरा अलग चीज है। फ्रांस में सुगंध का बड़ा कारोबार करने वाली एक कंपनी है शनेल। बनाने को तो ये न जाने कितनी चीजें बनाती है, शायद एकाध करोड़ में बिकने वाली हाथ घड़ियां भी। पर इसकी सबसे ज्यादा प्रसिद्धि ‘शनेल-5’ नाम की एक सुगंध से हुई है। कोई तीन अंगुल की छोटी-सी खुबसूरत शीशी का दाम होता होगा पांच हजार रुपया।
दुनिया भर में शौकीन लोगों के बीच नाम कमाने वाली इस महंगी सुगंध में च्यवनप्राश की तरह ही एक निश्चित मात्रा में निश्चित चीजें शामिल हैं। जैसे गुलाब की पंखुड़ियां कितने टन-मन आदि। यह सब सामग्री फ्रांस के खेतों से लेकर दुनिया भर के वर्षा वनों, घने जंगलों से ली जाती है। लेकिन यदि किसी एक वर्ष इस सूची में से एक भी चीज उस मात्रा में न मिल पाए, उस गुणवत्ता की न हो तो उस बार शनैल-5 का उत्पादन रोक दिया जाता है। इतनी महंगी सुगंध की सार्थकता उस कंपनी को दिखती नहीं। पर जीवन की सुगंध? प्रकृति जीवन की सार्थक सुगंध के साथ शनैल-5 जैसा काम करे तो शायद जीवन चले ही नहीं। किसी का भी जीवन ठप्प हो जाए।
जीवन को सार्थक बनाने में तो क्या-क्या चाहिए के बदले क्या-क्या नहीं चाहिए वाली सूची भी काम दे जाती है। आंखें नहीं, कान नहीं, मुंह नहीं- यानी अंधी, बहरी और गूंगी होने के बाद भी अमेरिका की हेलेन केलर ने न सिर्फ अपने जीवन को भरपूर अर्थ दिया, उन्होंने आने वाले ऐसे लाखों लोगों को रास्ता भी दिखाया। उनकी जीवनी दुनिया भर में पढ़ी जाती है, उनकी सूक्तियां न जाने कितनों को कठिन दौर में, घोर निराशा में संबल और सहारा देती हैं। इसी तरह का एक और उदाहरण। लुई ब्रेल ने अपने बचपन में इस दुनिया को, उसके सब तरह के रंगों को, पूरे इंद्रधनुष को अच्छी तरह से देखा था। पर फिर आंखों की रोशनी चली गई। घुप्प अंधेरा छा गया। उजाला देख लेने के बाद तो अंधेरा और भी ज्यादा काला हो जाता है।
लुई ब्रेल ने अपने अंधेरे में खुद उजाला बनाया। एक ऐसी लिपि, स्क्रिप्ट खोजी, जिसमें लिखी गई भाषा नेत्रहीन भी पढ़ सकें। इतने बड़े काम के बाद भी उन्हें अपने जीते जी कोई बहुत वाहवाही नहीं, कहीं कोई प्यार नहीं मिला। लेकिन उनके सार्थक जीवन का महत्त्व उनकी मृत्यु के बाद फ्रांस को भी दिखा और फिर पूरी दुनिया को भी। आज न जाने कितनी भाषाएं लुई ब्रेल की बनाई लिपि में लिखी जाती हैं, नेत्रहीनों द्वारा पढ़ी जाती हैं। हिंदी भी।
हेलन केलर, लुई ब्रेल और ऐसी न जाने कितनी विभूतियां हमें बताती हैं कि हमारे जीवन में चाहे जितनी चीजें कम हों- पैसा, प्यार, मान-सम्मान, अवसर, तरक्की- कोई भी चीज कम हो, न हो तो भी जीवन नहीं रुकता, जीवन रुकना नहीं चाहिए। आपद यानी संकट। तो ऐसा कोई जीवन नहीं, जिसमें कल या आज आपद, आफत न आई हो, या कल न आए। आपातकाल लगाने की हैसियत तक पहुंची इंदिरा गांधी का जीवन भी बिना आपद का था नहीं।
मेरे पिताजी कवि थे। उनकी एक बहुत छोटी-सी कविता है जिसमें वे बताते हैं कि निरापद कोई नहीं है। न तुम, न वे, न मैं। किसी की भी जिंदगी दूध की धोई नहीं है। फिर अंत में वे लिखते हैं: दूध किसी का धोबी नहीं है ! हम को खुद अपना धोबी बनना पड़ेगा, खुद अपनी जिंदगी खुद धोनी पड़ेगी-अगर हमें उस पर लगे दाग दिखने लगें। दूसरों के दाग तो हमें बराबर दिखेंगे ही। खैर, इस नई कविता से एक पुरानी कविता भजन तक चलें।
कबीर का एक सुंदर भजन है- ‘वा घर सबसे न्यारा।’ कुमार गंधर्वजी ने इसे और भी सुंदर बना दिया है अपने स्वर से। इस घर से उस घर का परिचय है भजन में। बहुत-सी ऐसी बातें जो यहां इस जीवन में भरी पड़ी हैं, उस न्यारे घर में वे हैं नहीं। कबीर अपनी विशिष्ट शैली में बताते जाते हैं कि उस न्यारे घर में वेद भी नहीं है। इस जीवन में इस घर में तो वेद, गीता, गुरुग्रंथ, कुरान, बाइबिल सब कुछ है। और इसी सब को लेकर तरह-तरह के झगड़े भी हैं जो होने नहीं चाहिए, फिर भी होते ही रहते हैं। बंद ही नहीं हो पाते। उस न्यारे घर में न मूल है, न फूल, न बेल है न बीज। धर नहीं, अधर नहीं। न बाहर भीतर जैसा कुछ है। न ज्ञान है न ध्यान है। वहां पाप भी नहीं है और सबसे बड़ी बात तो कबीर यह कह जाते हैं कि वहां पुण्य का पसारा भी नहीं है। हमारे जीवन में पुण्य का सचमुच बड़ा पसारा हो जाता है। यह दिखता तो बड़ा सार्थक है पर प्रायः इसका पसारा इतना हो जाता है कि फिर हमें अपने पुण्य के आगे बाकी सब लोग पापी ही दिखते हैं। अपने जीवन की सार्थकता और शेष सारे जीवन की निरर्थकता। इस वृत्ति से मंत्रियों के मुखिया और देश के प्रधान भी नहीं बच पाते।
तो उस न्यारे घर में यह सब नहीं है। वहां हम कब जाएंगे, जाएंगे भी कि नहीं, पता नहीं। पर इस घर में तो हम सब रह ही रहे हैं। थोड़ी-थोड़ी कोशिश करें तो कबीर के इस न्यारे घर के छप्पर से दो-चार तिनके तो हम अपने इस जीवन में ला ही सकते हैं। इसी भजन की एक पंक्ति में कबीर बताते हैं कि उस न्यारे घर में बिन ज्योति उजियारा है।
प्रारंभ में हमने ऐसी सभाओं में एक दीया जलाने की कुछ बातें की थीं। जहां जलाया जा सके, वहां लोग दीया जलाएं ही। पर न जल पाए आज की तरह तो कबीर के उस न्यारे घर की याद करें। मुझे पूरा भरोसा है कि अर्थमय जीवन में, जीवन के अर्थ को समझने की इस छोटी-सी कोशिश में आप सबकी उपस्थिति बिन ज्योति उजियारा कर देगी।
स्व. अनुपम मिश्र प्रसिद्ध पर्यावरणविद और ‘गांधी मार्ग’ के संपादक थे. सेडिड आयोजित व्याख्यान माला में 4 जनवरी, 2016 को उन्होंने यह व्याख्यान दिया था. ‘सबलोग’ के मार्च 2016 के अंक में प्रकाशित।
सरसों के फूलों से पटे खेतों के बीच बनी पगडंडी से गुजरते कहार डोली लेकर दूसरे गांव जा रहे थे। कल उसकी शादी हुई और आज विदाई। डोली के परदे को पीछे हटाकर तिरछी नजरों से पीछे छूटते बाबुल का आंगन और खेतों की दूर तक फैले छोर को देखकर वो भावुक भी थी। साथ के लोग कुछ आगे जा रहे थे, अब नई बहुरिया के साथ जाना अच्छा भी नहीं। लेकिन निगरानी भी जरुरी तो कदम दर कदम पीछे भी बराबर नजर। खेतों में मवेशियों के लिए चारा काट रहीं महिलाएं डोली देखकर चौकस हो जाती हैं और दुल्हनिया को देखने की जुगत लगाती हैं। वो लजाई और झट से पर्दा बंदा कर देती है। महिलाएं हारकर काम में जुट जाती हैं और गीत गाने लगती हैं :
“सखी री प्रेम नगर छूटा जाए री,
मोरा जियरा बड़ा धड़काए री
चलले चार गो कहार,
डोली साजन के द्वार
सखी री मुंहवा में जियरा आए री”….
गीत का बोल दूरी के साथ धीमे हो रहे हैं। इसी बीच वो पुरानी यादों को फिर से जीने लगती है। वहीं पिया के बारे में सोचकर वो खुश होती है,
धत्… अभी तो वहां गई भी नहीं और…
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मारे शर्म के उसने अपना चेहरा लाल जोड़े में छिपा लिया। फिर पीछे छूटते बाबुल को भरी नजर से देखने की कोशिश। बाबुल जिसकी गलियों में वो चहकती थी, मां, बाबूजी, भाई, पड़ोसी सब कितना लाड-प्यार करते थे। अब जाने पिया के घर में कैसे लोग मिलें, इनको भी तो नहीं जानती वो। नाम-वाम भी उनका क्या है, हे भगवान उनका नाम कैसे लूं, छि… छि… छि…
श्राप लगेगा बूढ़े बरगद बाबा का मुझे। उसे याद आता है कि आम के बगीचे में टिकोले तोडऩे जाते तो चाचा का सख्त पहरा भी रहता। वो नहीं चाहते थे कि लाडो को चोट लगे। जब मैट्रिक पास की तो वो भी तो उसी बगीचे में पहली बार मिला। पेड़ के पीछे से चोरी-चोरी मुझे निहारने में लगा रहता। शुरू में तो हम लड़कियां डांट कर उसे भगाती, बाद में उसकी हरकत अच्छी लगने लगी। आम तोडऩा बहाना बन गया था, बस उसे देखना चाहते थे। शायद सहेलियां समझने लगी थी कि मेरे दिल में क्या है, पर वो भी खुश होती कि चलो कोई तो सीमा से पार जा रहा है।
मैट्रिक के बाद वो शहर गया, इधर उसका स्कूल छूट गया। घर, द्वार, चूल्हा, चौका में जिंदगी सिमट गई। वो पर्व में शहर से गांव आता तो कुछ न कुछ जरूर लाता और वो भी गांव के सीमा पर लगे बगीचे में जाती और घंटों बात करती। दोनों ने आने वाले कल के सपने भी बना लिए। मिट्टी के घरौंदे और न जाने क्या-क्या।
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हे भगवान… ये सब मैं क्यों सोच रही, डोली में बैठी वो खुद को कोसने लगी, लेकिन फिर सीमा पर बने बगीचे के नजदीक आते ही यादों में खोने लगी। उधर इंटर की परीक्षा टॉप करके वो भी विदाई के दिन गांव आया और सीधे मिलने की जगह पहुंच गया। इस बार कोई नहीं था, थोड़ी कोशिश की तो सहेलियां मिली जो डोली को देखकर सुबक रही थीं। पूछने पर पता चला कि वो डोली में दूसरे गांव जा रही है। डोली बगीचे के करीब आती हैं और सहेलियां दौड़ती हैं।
वो कुछ पल के लिए बुत बनकर खड़ा रहता है। दूसरी तरफ वो परदा हटाकर एक बार सबको देखती है, उसे कुछ पल ज्यादा देखकर परदा लगाती है। आंसू के सैलाब में खुद में सिमटती जा रही वो अब बाबुल की तरफ देखना नहीं चाहती। जो बात उसने उनसे छिपा कर रखी आज आंखें उसकी गवाही दे रही थी। डोली आगे बढ़ जाती है, सहेलियां घर लौटने लगती हैं…
और वो साइकिल लेकर पैदल ही निकल पड़ता है बिना मंजिल के… आज उसका घर लौटने का मन नहीं। कुर्ते की जेब में रखे बूंदों को छूता है जो कबके पत्थर बन गए थे। गीत की आवाज भी कम होने लगती है। महिलाएं घास की गठरी बनाकर घर जाने की तैयारी में हैं। अचानक चारों तरफ अजीब खामोशी छा जाती है और वो पहली बार समझता है कि खामोशी के असली मायने क्या होते हैं।
लेखक पत्रकार हैं।
सम्पर्क- +9193344 44050
अफसरों के साथ चिंतन के बहाने दिशा तलाश रही हरियाणा सरकार के लंच पर एक दर्जन से ज्यादा विधायक नहीं पहुंचे.
दीपकमल सहारण
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं
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हम सब जानते हैं कि विश्व संवाद केंद्र, भोपाल पत्रकारिता के क्षेत्र में भारतीय मूल्यों को लेकर सक्रिय है। विश्व संवाद केंद्र का प्रयास है कि पत्रकारिता में मूल्य बचे रहें। प्रबुद्ध वर्ग में चलने वाले विमर्शों को आधार माने तब पत्रकारों के दृष्टिकोण में बदलाव की आवश्यकता प्रतीत होती है। व्यावसायिक प्रतिस्पद्र्धा ने उनके मन में कुछ बातें बैठा दी हैं। आज विशेष जोर देकर पत्रकारों को यह सिखाया जा रहा है कि ‘समाचार सबसे पहले’ और ‘समाचार किसी भी कीमत पर’ ही किसी पत्रकार का धर्म है। परंतु,क्या प्रत्येक परिस्थिति में पत्रकार के लिए इस धर्म का निर्वहन आवश्यक है? एक प्रश्न यह भी कि क्या वास्तव में यही पत्रकार का धर्म है? इन दोनों प्रश्नों का विचार करते समय जरा हमें पत्रकारिता के पुरोधाओं के जीवन को देखना चाहिए। उनकी कलम से बहकर निकलने वाली पत्रकारिता की दिशा को समझना चाहिए।
यदि हम पूरी निष्ठा के साथ कलमयोद्धाओं के पत्रकारीय जीवन का अध्ययन करेंगे तो हम पाएंगे कि एक पत्रकार के लिए उसका धर्म ‘समाचार सबसे पहले’नहीं, अपितु ‘राष्ट्र सबसे पहले’ होना चाहिए। क्योंकि, हम सबने अनुभव किया है कि समाचार सबसे पहले के चक्कर में हम कई बार अपने समाज और राष्ट्र को हानि पहुंचा बैठते हैं। मुंबई के प्रसिद्ध ताज होटल पर हुए आतंकवादी हमले के दौरान सबसे पहले और सबसे तेज की होड़ में हमने अपने दुश्मनों की सहायता की। हमारे मीडिया कवरेज को देखकर पाकिस्तान में बैठे आतंकियों के आकाओं ने उन्हें निर्देशित किया, जिसके कारण हमें बहुत अधिक जनहानि उठानी पड़ी। कारगिल युद्ध के समय सीधे प्रसारण पर भी आज प्रश्न उठते हैं। विश्लेषक मानते हैं कि उस समय भी हमारी दिग्भ्रमित पत्रकारिता का लाभ दुश्मनों ने उठाया।
अमेरिका में 9/11 का आतंकी हमला हम सबके ध्यान में आज भी है। आतंकियों ने वर्ल्ड ट्रेड सेंटर की गगनचुंबी इमारत में यात्री विमान घुसेड़कर दुनिया को दहला दिया था। अमेरिका पर यह सबसे बड़ा हमला था। इस हमले की घटना के साथ हमें यह भी ध्यान आता है कि हमले के बाद अमेरिका में अफरा-तफरी और बर्बादी के समाचार किसी पत्रकार ने नहीं लिखे। वीभत्स चित्रों को किसी मीडिया ने नहीं दिखाया। अमेरिकी मीडिया के जरिए सारी दुनिया ने दो ही दृश्य देखे, पहला हवाई हमले का और दूसरा मृतकों को श्रद्धांजलि देने का। किंतु, वहीं सारी दुनिया ने उसी अमेरिकी मीडिया के जरिए मई-2011 के उस ऑपरेशन को जरूर देखा, जिसमें वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमले के जिम्मेदार ओसामा बिन लादेन को मौत के घाट उतारा गया। स्वयं अमेरिकी राष्ट्रपति ने इस ऑपरेशन को संचालित किया, यह बात भी अमेरिकी मीडिया ने पूरे गर्व से बताई। यह अंतर हमें समझना होगा।
पत्रकारिता की लक्ष्मण रेखा पर ध्यान देने की आवश्यकता है। यहाँ यह कहने का अभिप्राय कदापि नहीं है कि भारत का मीडिया अमेरिका के मीडिया से कम राष्ट्रभक्त है। स्वतंत्रता आंदोलन में भारतीय पत्रकारिता की महत्वपूर्ण भूमिका है। इतिहास के पृष्ठों पर उसका योगदान स्वर्ण अक्षरों में अंकित है। किंतु, हमें अपने दिल को टटोलना होगा कि उन स्वर्णिम पृष्ठों को कब से हमने नहीं पलटा है? उनको पढ़ कर सीखने का अभ्यास कब से हमने छोड़ दिया है? इसके अलावा अनेक अवसर पर पत्रकारबंधु सबसे तेज के चक्कर में समाचार की प्रामाणिकता का परीक्षण भी नहीं करते हैं। इसका परिणाम कई बार निर्दोष व्यक्तियों, संस्थाओं और समाज को भुगतना पड़ता है। अनेक अवसरों पर मीडिया की रिपोर्टिंग से समाज का सौहार्द भी गड़बड़ाया है। एकतरफा और पक्षधर रिपोर्टिंग के कारण समाज को सच से दूर रखने का भी प्रयास आज कई पत्रकार बंधु करते हैं।
बहरहाल, इन सब बातों को ध्यान में रखकर ही विश्व संवाद केंद्र, भोपाल ने अपने वार्षिक विशेषांक का विषय ‘अनथक कलमयोद्धा’ तय किया। इस विषय के चयन के पीछे हम सबके मार्गदर्शक एवं क्षेत्रीय प्रचार प्रमुख श्री नरेन्द्र जी जैन की प्रेरणा थी। विश्व संवाद केन्द्र के न्यासी मंडल एवं हमसे संबद्ध प्रबुद्ध वर्ग ने ‘अनथक कलमयोद्धाओं’ के नाम सुझाए। उनके सुझाव के आधार पर इस विशेषांक में मध्यप्रदेश के ऐसे पत्रकारों पर आलेख शामिल किए गए हैं, जिन्होंने 1920 से 2000 तक के कालखण्ड में समाजहितैषी पत्रकारिता की। इनमें मामा माणिक चंद वाजपेयी, रामशंकर अग्निहोत्री, माखनलाल चतुर्वेदी, लाला बलदेव सिंह, माधवराव सप्रे, सिद्धनाथ माधव आगरकर, कन्हैया लाल वैद्य, भाई अब्दुल गनी, मिस्टर ताजुद्दीन, मास्टर बल्देव प्रसाद, ओमप्रकाश कुंद्रा, पंडित भगवतीधर वाजपेयी, बबन प्रसाद मिश्र, डॉ. ओम नागपाल,बनवारी लाल बजाज एवं काशीनाथ चतुर्वेदी जैसे नाम शामिल हैं। निश्चित ही इस विशेषांक के माध्यम से आज के पत्रकार पत्रकारिता के उक्त पुरोधाओं के जीवन दर्शन एवं उनकी कलम की दिशा से परिचित हो सकेंगे। पत्रकारिता से सम्बंधित अनेक प्रकार के प्रश्नों के उत्तर और पत्रकार के वास्तविक धर्म, इन कलमयोद्धाओं की पत्रकारिता से प्राप्त होगा। इस महत्वपूर्ण विशेषांक का संपादन करने की महती जिम्मेदारी का निर्वहन ऊर्जावान पत्रकार एवं बहुभाषी हिन्दुस्थान समाचार एजेंसी के मध्यप्रदेश ब्यूरो प्रमुख डॉ. मंयक चतुर्वेदी ने किया है।
लोकेन्द्र सिंह
लेखक विश्व संवाद केंद्र के कार्यकारी निदेशक हैं।
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देश के दो राज्यों के चुनाव बाद सर्वेक्षण में भले ही कांग्रेस को हार की संभावना के समीप रखा गया है, लेकिन कांग्रेस मुख्यालय पर कार्यकर्ताओं का जो जोश दिखाई दिया, उससे यह तो कहा जा सकता है कि कांग्रेस कार्यकर्ता चुनाव बाद के सर्वेक्षणों से मायूस नहीं हैं। कांग्रेस के केन्द्रीय मुख्यालय में कार्यकर्ताओं का जोश देखने लायक था। ऐसे ही वातावरण में कांग्रेस के राहुल गांधी की ताजपोशी हो गई। खास बात यह थी कि इस दौरान राहुल गांधी के परिवार के सभी सदस्य मौजूद रहे। सभी नेताओं ने राहुल गांधी के नेतृत्व पर मुहर लगाई और शुभकामनाएं भी दीं।
कांग्रेस में पूर्व निर्धारित संभावनाओं पर अब मुहर लग गई है। जिसके अनुसार एकाएक राष्ट्रीय राजनीति में पदार्पित हुए विरासती नेता राहुल गांधी को कांग्रेस का नया मुखिया चुन लिया गया है। हालांकि इस बात की संभावना पहले से ही थी कि आगामी दिनों में राहुल गांधी ही कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनेंगे। इसलिए इसे कांग्रेस के लिए नवीन अध्याय कहना तर्कसंगत नहीं होगा, क्योंकि जबसे राहुल गांधी कांग्रेस के उपाध्यक्ष बने थे, तभी से कांग्रेस में केवल राहुल की ही चल रही थी। सारे निर्णय राहुल गांधी के संकेत पर ही होते थे। अभी हाल ही में मणिशंकर अय्यर को नीच शब्द के प्रयोग करने पर राहुल गांधी ने ही पार्टी ने निकाला था। इसलिए यह आसानी से कहा जा सकता है कि राहुल भले ही पहले कांग्रेस प्रमुख के पद पर नहीं थे, लेकिन वह प्रमुख जैसे ही थे।
शनिवार से कांग्रेस के भीतर राहुल राज का प्रारंभ हो गया है, इसलिए कांग्रेस में ऐसी संभावनाओं को काफी बल मिलने लगा है कि राहुल राज में कांग्रेस का विकास हो सकेगा। राहुल गांधी की मां सोनिया गांधी के खराब स्वास्थ्य के चलते कांग्रेस में नेतृत्व परिवर्तन की मांग धीमे स्वर में उठने लगी थी। इन स्वरों के बाद राहुल गांधी को अध्यक्ष पद के लिए तैयार किया गया। देश के सबसे पुराने राजनीतिक दल में आज एक नए युग की शुरूआत हो गई है सोनिया गांधी के बाद अब कांग्रेस राहुल राज में आगे बढ़ेगी। राहुल गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष का पद भले ही आसानी से मिल गया हो, लेकिन भविष्य की राह आसान नहीं कही जा सकती। क्योंकि कांग्रेस की वर्तमान स्थिति का अध्ययन किया जाए तो यह दिखाई देता है कि आज कांग्रेस लोकसभा में तो कमजोर है ही साथ ही कई राज्यों में सत्ता विहीन है। ऐसे में कहा जा सकता है कि आगामी समय में राहुल के समक्ष बहुत बड़ी चुनौतियां खड़ी होने को बेताब हैं। राहुल इन राजनीतिक चुनौतियों का सामना कैसे और किस प्रकार से करेंगे?
राहुल गांधी के पिछले राजनीतिक प्रदर्शन का विश्लेषण करेंगे तो यही परिलक्षित होता है कि पिछला समय राहुल गांधी के लिए किसी भी प्रकार से सकारात्मक नहीं रहा। उनके नेतृत्व में कांग्रेस सिमटती ही गई, जिसके फिलहाल उबरने के संकेत भी नहीं दिख रहे। हां, यह जरुर कहा जा सकता है कि राहुल गांधी के सामने आने से पार्टी के निराश कार्यकर्ताओं में एक नई आशा का संचार होगा, जिसकी कांग्रेस को लम्बे समय से आवश्यकता भी थी। राहुल के लिए शनिवार का दिन जितना बड़ा है उसे और विशाल बनाने के लिए पार्टी कार्यकर्ताओं ने भरपूर तैयारियां की हैं। 47 साल के राहुल 132 साल पुरानी कांग्रेस पार्टी के 49वें अध्यक्ष के रूप में जिम्मेदारी संभालने को तैयार हो गए हैं। कांग्रेस कार्यालय नई दिल्ली में राहुल गांधी की ताजपोशी की जा रही थी, उस समय कांग्रेस के कार्यकर्ताओं का मनोबल और चेहरे की भवभंगिमा ऐसा प्रदर्शित कर रही थीं कि राहुल गांधी कांग्रेस अध्यक्ष नहीं, बल्कि देश की सत्ता संभालने जा रहे हों। कार्यकर्ताओं का यह जोश आगामी लोकसभा चुनाव के समय तक जारी रहा तो कांग्रेस के लिए उत्थान की राह का निर्माण कर सकते हैं। राहुल गांधी ने देश के तमाम चुनावों में प्रमुख प्रचारक की भूमिका का निर्वाह भी किया है, इसलिए अब राहुल गांधी को अपरिपक्व कहा जाए, यह ठीक नहीं है। उन्हें अब राजनीति का लम्बा अनुभव भी है। पिछले चुनावों की तुलना में गुजरात विधानसभा के प्रचार में भी राहुल गांधी एक नई भूमिका में दिखाई दिए। चुनाव प्रचार के दौरान ही कांग्रेस कांटे की लड़ाई की भूमिका में आती हुई दिखाई दी।
विरासती पृष्ठभूमि के आधार पर राजनेता बने राहुल गांधी के बारे में अब यह कहना ठीक नहीं माना जा सकता कि कांग्रेस अब वंशवाद को बढ़ावा दे रही है। क्योंकि वास्तविकता यही है कि राहुल के पास एक लम्बा राजनीतिक अनुभव है। उन्होंने राष्ट्रीय राजनीति में कई महत्वपूर्ण पदों पर भूमिका निभाई है। हां, यह जरुर कहा जा सकता हे कि राहुल गांधी से पूर्व इस परिवार के जो सदस्य राष्ट्रीय राजनीति में आए, उनमें से सभी ने एकाएक राजनीतिक प्रवेश किया। उनके पास पहले से कोई राजनीतिक अनुभव नहीं था। इन्हें वास्तव में वंशवाद का उदाहरण कहा जा सकता है, लेकिन राहुल गांधी को नहीं। राहुल गांधी जनप्रतिनिधि भी रहे तो संगठन में भी रहे। आज राहुल गांधी एक परिपक्व राजनेता की भूमिका में कांग्रेस के मुखिया बने हैं। इसलिए यह भी संभवनाएं बनती हुई दिखाई दे रही हैं कि अब राहुल गांधी का परिपक्व चेहरा देश को दिखाई देगा। राहुल के बारे में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कर्ण सिंह ने कहा कि मैंने गांधी परिवार की पांच पीढ़ियां देखी है वंशवाद में कुछ भी गलत नहीं है। मैं खुद एक परिवार का प्रतिनिधित्व करता हूं राहुल के पास एक नेता के सभी गुण विद्यमान हैं।
राहुल गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष का पदभार संभाल लिया। उनकी ताजपोशी के लिए पार्टी मुख्यालय में भव्य समारोह का आयोजन किया गया। स्वागत समारोह की तस्वीरों में दिखाया गया कि कांग्रेस दफ्तर के बाहर भारी संख्या में पार्टी कार्यकर्ता एकजुट थे। वहां तरह-तरह का नाच-गाना और नारेबाजी हो रही थी। ताजपोशी के बाद जब सोनिया का भाषण शुरू हुआ तो आतिशबाजी होने लगी। आवाज इतनी तेज थी कि सोनिया को अपना भाषण बीच में रोककर पटाखों को शांत करने के लिए कहना पड़ा था।
सुरेश हिन्दुस्थानी
लेखक वरिष्ठ स्तंभकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं
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