चर्चा मेंसाहित्य

अलविदा, चिरयुवा साथी दूधनाथ सिंह!

‘आख़िरी क़लाम’ जैसे अविस्मरणीय महाकाव्यात्मक उपन्यास और ‘रक्तपात’, ‘रीछ’, ‘धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे’, ‘माई का शोकगीत’ जैसी लम्बे समय तक चर्चा में बनी रहने वाली कहानियों के लेखक, जनवादी लेखक संघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष आदरणीय दूधनाथ सिंह नहीं रहे. उनका न रहना हिन्दी की दुनिया के लिए और विशेष रूप से जनवादी लेखक संघ के लिए एक अपूरणीय क्षति है. वे एक साल से प्रोस्ट्रेट कैंसर से पीड़ित थे. लगभग एक हफ़्ते पहले हालत बहुत बिगड़ने पर इलाहाबाद के फिनिक्स अस्पताल के गहन चिकित्सा कक्ष में उन्हें भर्ती कराया गया था. वहीं 11 जनवरी की रात 12 बजे उनका इंतकाल हुआ.

17 अक्टूबर 1936 को उत्तर प्रदेश के बलिया ज़िले के एक गाँव में जन्मे दूधनाथ जी अपनी शुरुआती कहानियों के साथ ही हिन्दी में साठोत्तरी पीढ़ी के प्रमुख हस्ताक्षर के रूप में उभरे थे. सत्तर के दशक की शुरुआत में आलोचना-पुस्तक ‘निराला: आत्महंता आस्था’ के साथ वे आलोचना के क्षेत्र में भी प्रतिष्ठित हुए. सन साठ के आसपास शुरू हुए, तकरीबन साठ वर्षों के अपने रचनात्मक जीवन में उन्होंने कहानी, उपन्यास, कविता, नाटक, संस्मरण और आलोचना—इन सभी क्षेत्रों में महत्वपूर्ण योगदान किया. पूर्वोल्लिखित रचनाओं के अलावा ‘यमगाथा’ नाटक, महादेवी पर लिखी आलोचना-पुस्तक, और संस्मरणों की पुस्तक ‘लौट आ ओ धार’ उनकी यादगार कृतियाँ हैं.

इलाहाबाद विश्वविद्यालय से 1957 में हिन्दी में एम.ए. करने के बाद दूधनाथ जी ने 1959 में कलकत्ता के रुंगटा कॉलेज से अध्यापन की शुरुआत की. कलकत्ता रहते हुए ही उन्होंने ‘चौंतीसवां नरक’ शीर्षक से एक उपन्यास-अंश और ‘बिस्तर’ कहानी लिखी जिसे कमलेश्वर के सम्पादन में निकलनेवाली ‘सारिका’ पत्रिका ने छापा और पुरस्कृत किया. दो साल बाद वे नौकरी छोड़कर इलाहाबाद लौट आये जहां कुछ समय बेरोज़गारी में गुज़ारने के बाद उन्हें इलाहाबाद विश्वविद्यालय में तदर्थ प्राध्यापक के रूप में नौकरी मिली. रचनात्मक कार्य इस बीच लगातार जारी रहा. 1963 में प्रकाशित ‘रक्तपात’ कहानी के साथ कहानीकारों की उस समय उभर रही पीढ़ी के प्रमुख हस्ताक्षर के रूप में उनकी पहचान बनी.

दूधनाथ जी की महत्वपूर्ण पुस्तकों की संख्या बीस से ऊपर है: उपन्यास—‘आख़िरी क़लाम’, ‘निष्कासन’, ‘नमो अन्धकारम’; कहानी-संग्रह—‘सपाट चेहरे वाला आदमी’, ‘सुखान्त’, ‘प्रेमकथा का अंत न कोई’, ‘माई का शोकगीत’, ‘धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे’, ‘तू फू’; कविता-पुस्तकें—‘अगली शताब्दी के नाम’, ‘एक और भी आदमी है’, ‘युवा खुशबू’, ‘सुरंग से लौटते हुए’; नाटक—‘यमगाथा’; संस्मरण—‘लौट आ ओ धार’; आलोचना—‘निराला: आत्महंता आस्था’, ‘महादेवी’, ‘मुक्तिबोध: साहित्य में नई प्रवृत्तियां’; साक्षात्कार—‘कहा-सुनी’. इनके अलावा उन्होंने ‘भुवनेश्वर समग्र’ और शमशेर पर केन्द्रित पुस्तक ‘एक शमशेर भी है’ का सम्पादन किया. उन्हें मिलनेवाले पुरस्कारों और सम्मानों में भारत भारती सम्मान, भारतेंदु हरिश्चंद्र सम्मान, शरद जोशी स्मृति सम्मान और कथाक्रम सम्मान प्रमुख हैं.

सामाजिक-राजनीतिक मसलों पर सजग और पैनी निगाह रखनेवाले दूधनाथ जी का लेखन अपने समय को इतने कोणों से पकड़ता है कि उन्हें पढ़ना एक युग के आरपार गुज़रने की तरह है. आज हमारा मुल्क जिस दौर में है, वहाँ 2003 में प्रकाशित, बाबरी मस्जिद ध्वंस पर केन्द्रित ‘आख़िरी क़लाम’ को बार-बार पढ़े जाने की ज़रूरत है, जिसकी भूमिका के रूप में लिखे शुरुआती हिस्से में आया यह वाक्य जैसे हमारे समय पर एक इल्हामी टिप्पणी है: ‘हमें इस बात का डर नहीं कि लोग कितने बिखर जायेंगे, डर यह है कि लोग नितांत ग़लत कामों के लिए कितने बर्बर ढंग से संगठित हो जायेंगे.’

ऐसे दूधनाथ जी अब हमारे बीच नहीं हैं.  इलाहाबाद के रसूलाबाद घाट पर उन्हें अंतिम विदाई दी गई. राष्ट्रीय सम्मलेन की तैयारियों में जुटे जनवादी लेखक संघ के लिए यह अपार शोक की घड़ी है. वे हमारी स्मृतियों में सदा बसे रहेंगे और अपनी रचनाओं से हमारा मार्गदर्शन करते रहेंगे. हम अपने दिवंगत अध्यक्ष और हिन्दी के अप्रतिम रचनाकार को भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं और उनके दोनों बेटों, एक बेटी, पुत्रवधुओं, प्रपौत्र एवं अन्य परिजनों के प्रति अपनी संवेदनाएं प्रेषित करते हैं.

मुरली मनोहर प्रसाद सिंह (महासचिव)

संजीव कुमार (उप-महासचिव)

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भीमा कोरेगांव: पेशवा पर जीत नहीं, दमन को हराने की कहानी

हाल में भीमा कोरेगांव (महाराष्ट्र) में दलित संगठनों द्वारा 1 जनवरी 2018 को कोरेगांव युद्ध 1818 (जो कि पेशवा बाजीराव द्वितीय और ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच हुआ था) की 200वीं बरसी, ‘शौर्य दिवस’ के रूप में मनाई जा रही थी और उस पर हिंदूवादी संगठनों ने विरोध किया तथा हिंसा भी हुई. अब यह लगभग एक आन्दोलन का रूप ले चुका है. बहरहाल, दलित संगठन एवं समर्थकों का मानना है कि इस युद्ध में कंपनी की तरफ से दलित सैनिकों ने पेशवा के सैनिकों को हराया और इस जीत का जश्न ‘शौर्य दिवस’ के रूप में मनाया जाना चाहिए. हिन्दू संगठनों का का मानना है कि असल में युद्ध पेशवा और अंग्रेजों के बीच था और यह जश्न तो अंग्रेजों की जीत का था और भारत की हार का. ऐसे में कुछ सवाल महत्वपूर्ण हैं.

क्या शौर्य दिवस अंग्रेजों की जीत या फिर पेशवा की हार का है?

मुझे ऐसा कतई नहीं लगता कि शौर्य-दिवस किसी भी रूप में दलित सेना के जीत का जश्न नहीं है बल्कि यह पेशवाई दमन की हार की कहानी है. विदित हो कि महाराष्ट्र में पेशवा के शासनकाल में दलित और पिछड़े जातियों के ऊपर अमानवीय व्यवहार किया जाता था और

ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने जब युद्ध का ऐलान किया तो दलित सैनिक उस जातीय दमन के खिलाफ लड़ रहे थे. ये लड़ाई किसी पेशवा के खिलाफ नहीं बल्कि उस सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ थी जिसमें सैकड़ों साल से रह रहे दलित-पिछड़े अब पेशवाई शासक को ही आक्रान्ता मानती थी. ये होना लाजिमी भी था, जब कोई अपने ‘देस’ का शासक ही जनमानस का उत्पीड़न करे तो उससे किसी भी प्रकार का लगाव होना असंभव है. पेशवा का शासनकाल मानवीय इतिहास के सबसे क्रूरतम काल के तौर पर देखा जा सकता है. इस शासनकाल में शूद्रों अथवा नीची जाति के लोगों को गले में थूकने के लिए हांडी लटकानी पड़ती थी क्योंकि जमीन पर थूकने से जमीन अपवित्र हो जाती थी. उन्हें कमर में झाड़ू लगाकर चलना होता था ताकि वो चलते जाएं और उनके पदचिन्हों पर झाड़ू लगती जाए. उन्हें कमर में घंटी बांधकर चलना होता था ताकि ब्राह्मण पेशवा सचेत हो जाएं और छुप जाएं और इन पर नजर न पड़े, वो अपवित्र होने से बच जाएं. वो चलते हुए ढोल पीटते जाते थे और ‘चंडाल आ गया, चंडाल आ गया’, कहकर चिल्लाते रहते थे. ऐसे उत्पीड़न के खिलाफ महज 500 महार (दलित) सैनिकों ने पेशवा के 50 हजार सैनिकों को धुल चटा दी थी. इस लड़ाई को उस व्यवस्था के खिलाफ रोष के क्यों नहीं देखना चाहिए. इसलिए कोरेगांव की लड़ाई पेशवा साम्राज्य के खिलाफ नहीं बल्कि पेशवा के सामाजिक उत्पीड़न और दमन के खिलाफ थी. ऐसे में ‘शौर्य-दिवस’ को अंग्रेज की जीत की तरह बिलकुल भी देखा नहीं जाना चाहिए.

 

क्या दलित सैनिक की जयचंद से तुलना की जा सकती है?

असल में यह सवाल ही नहीं है. जयचंद ने मुहम्मद गौरी का साथ पृथ्वीराज चौहान को हराने के लिए दिया था. जयचंद में साम्राज्य अथवा सत्ता पाने की लालसा और बदले की भावना थी. लेकिन कोरेगांव युद्ध में दलित सैनिकों का ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की तरफ से पेशवा के खिलाफ लड़ना साम्राज्य या सत्ता के लिए नहीं, बल्कि सामाजिक दमन को खत्म करने और हराने के लिए था. यह युद्ध आत्मसम्मान और मानवीय गौरव को बचाने के लिए भी कहा जा सकता है. जयचंद और दलित सैनिकों की तुलना ही अतुलनीय है.

आजाद भारत में इस “शौर्य-दिवस” को मनाना उचित है?

यह सवाल दलित सैनिकों पर होने से पहले होलकर और सिंधिया साम्राज्य पर जाना चाहिए. होलकर और सिंधिया ने तो 1857 के विद्रोह में (जिसे सावरकर द्वारा भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम भी कहा गया है) अंग्रेजों का साथ दिया था और आज इस राजवंश के लोग समाज में सम्मानित जिंदगी जी रहे हैं. असल में आजादी से पहले भारत को एक राष्ट्र के रूप में देखा नहीं जा सकता. कई साम्राज्यों में बंटा हुआ था और एक साम्राज्य लगभग एक देश जैसा था. इसीलिए उस समय हर लड़ाई एक देश की दूसरे देश के साथ होती थी. असल में हम इतिहास के कुछ पन्ने अपने सहूलियत के साथ पलट रहे हैं. अब मगध साम्राज्य तो कई साम्राज्यों को जीत कर वहां शौर्य स्तम्भ बनवा दिया करते थे और जीत का जश्न भी मनाते थे. दिल्ली में इंडिया गेट भी प्रथम विश्व-युद्ध में ब्रिटिश सेना में काम कर रहे 70,000 भारतीय सैनिक के बलिदान एवं शौर्य की ही याद है.

असल में, कोरेगांव युद्ध को जब तक हम साम्राज्य या सत्ता के सन्दर्भ में देखेंगे हमें इसी तरह की समस्या का सामना करना पड़ेगा. इसे पेशवा के सामाजिक उत्पीड़न और दमन की नजर से देखना चाहिए. उस दमन की हार तो इस पूरे देश का शौर्य है. अपने लोगों के द्वारा अपने ही लोगों का दमन और उत्पीडन के खिलाफ एक सशक्त आवाज का नाम है कोरेगांव युद्ध. इसमें कोई दो राय नहीं की अंग्रेजों के दमन का इतिहास किसी पेशवा से कम नहीं, लेकिन इतिहास की हर घटना का विश्लेषण एक सन्दर्भ में होता है. कोरेगांव युद्ध का सन्दर्भ बिलकुल अलग था. बहरहाल, मुझे तो युद्ध में ही कोई शौर्य कभी नहीं 
दीखता, किसी की जीत नहीं दिखती बल्कि सब तरफ हार ही दिखती है. परन्तु, सामाजिक उत्पीड़न और दमन के खिलाफ लड़ना और इसे हराना भी तो मानवता के लिए जरुरी है. ऐसे हजारों युद्ध हमारे पूर्वजों ने युद्ध के मैदान से बाहर भी लड़ा है.

भीमा कोरेगांव को सिर्फ एक नजर से देखना चाहिए कि यह मानव का मानव के द्वारा शोषण के खिलाफ संघर्ष था. ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी भले ही सत्ता के लिए लड़ रही हो, परन्तु दलित सैनिक यह युद्ध अपने आत्म-सम्मान के लिए ही लड़ रहे थे.

डॉ. दीपक भास्कर

लेखक दौलतराम कॉलेज (दिल्ली विश्वविद्यालय) में राजनीति पढ़ाते हैं.

deepakbhaskar85@gmail.com

केजरीवाल
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केजरीवाल : यथार्थ के आगे चकनाचूर आदर्श!

 

एक पुरानी कहावत है- ‘दूध का जला, छाछ भी फूंक-फूंक कर पीता है’. ऐसी कहावतें हमेशा मुश्किल फैसलों की घड़ी में सार्थक साबित होती हैं. दिल्ली से जब राज्यसभा सांसद चुनने का मौका आम आदमी पार्टी को मिला तो उन्होंने ऐसे दो नामों की घोषणा की जो किसी भी तरह से पार्टी के चेहरे नहीं कहे जा सकते. फिर क्यों केजरीवाल और उनके बाकी साथियों ने पार्टी में बड़े चेहरे और प्रखर नेताओं को दरकिनार किया? आम आदमी पार्टी ने इसके पीछे जो तर्क दिया वो असल मायने में हमारी आज की राजनैतिक हकीकत को बयां करता है. पार्टी का मानना है कि इन दोनों व्यक्तियों के आने से पार्टी का विस्तार हो सकेगा. ऐसे लोग जो आम आदमी पार्टी की राजनीति को विकल्प की राजनीति मानते थे इस बात से नाखुश हैं. दरअसल, राज्यसभा सांसदों का चुनाव हमें लोकतंत्र के अंतर्द्वंद से अवगत कराता है. यह अंतर्द्वंद लोकतंत्र की परिभाषा में ही निहित है.

केजरीवाल

लोकतंत्र सत्ता का ऐसा मॉडल है जिसमें आदर्शवाद और यथार्थ की जंग लगातार बनी रहती है. मिसाल के तौर पर देखें कि लोकतंत्र को ‘जनता के द्वारा शाषन’ की तरह परिभाषित किया जाता है. मगर हकीकत में आज तक कोई देश या राज्य ऐसा नहीं है जिसमें राजनैतिक वर्ग द्वारा शासन न किया जाता हो. लोकतंत्र आज एक ऐसा आदर्शवाद है जिसके नाम पर दुनिया के सारे राजनैतिक दाल और वर्ग शाषन कर रहे हैं. शायद, इसीलिए फ्रांसिस फुकुयामा ने अपनी किताब ‘द एंड ऑफ़ हिस्ट्री’ में लोकतंत्र को ही आखिरी और विजयी आदर्श बताया है. मगर लोकतंत्र के भीतर ही शासन के यथार्थ और लोकतंत्र के उद्देश्यों में द्वन्द्व रहता है. आदर्श और यथार्थ की यही जंग हमेशा सामाजिक आंदोलन भी झेलते हैं और अक्सर देखा गया है कि शासन रुपी यथार्थ सामाजिक आंदोलनों को लील जाता है.

आदर्श उद्देश्यों और शासन के यथार्थ की यह जंग अन्ना हज़ारे के आंदोलन को भी लील गयी और जिसका पहला शिकार भी खुद अन्ना हज़ारे ही हुए. केजरीवाल के यथार्थवादी पौरुष ने आदर्शवादी बुजुर्ग को ‘आम आदमी पार्टी’ का गठन करके दरकिनार कर दिया. मगर बात सिर्फ यहीं ख़त्म नहीं हुई. योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण जैसे लोगों ने पार्टी के अंदर आदर्शवाद का स्थान ग्रहण किया और आम आदमी पार्टी आदर्शों पर चलकर लोकसभा का चुनाव बुरी तरह हार गई. यथार्थ आदर्श के आगे झुकने की गलती अब समझ चुका था.

दिल्ली विधानसभा के पहले चुनाव में भी आदर्श यथार्थ पर हावी रहा और केजरीवाल ने अपनी माइनॉरिटी गवर्नमेंट से इस्तीफा देकर पुनः चुनाव की मांग की. केजरीवाल के इस फैसले ने उन्हें यथार्थ के मजबूत पक्ष से रूबरू कराया और केजरीवाल ने जनता रुपी यथार्थ के माफ़ी मांगी. आगे से आदर्श के आगे न झुकने की कसम खाई.

यथार्थ अब आदर्श पर हावी हो चुका था. कभी साफ़ सुथरी राजनीति का दावा करने वाली आम आदमी पार्टी ने आदर्शों को ताक पर रखा और यथार्थ रुपी घोड़े पर सवार होकर ऐसे लोगों को टिकट बांटे जो अपने बल और आम आदमी पार्टी की लहर के सहयोग से चुनाव जीत सकते थे. चुनाव जीतने और बदलाव के लिए शाषन करने के यथार्थ ने आम आदमी पार्टी के भीतर साफ़ सुथरी राजनीति वाले आदर्शों को मौत के घाट उतार दिया.

आदर्शों की मौत की पुष्टि पर मोहर तब लगी जब पार्टी ने योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण जैसे आदर्शवादी लोगों को बहार का रास्ता दिखाया. इसके बाद लम्बे समय तक पार्टी में शांति रही. मगर कुमार विश्वास का कवि मन आदर्शों पर मोहित था. यादव और भूषण के जाने के बाद आदर्शों की आखिरी मशाल कुमार ने अपने हाथों में ली. ‘जे.एन.यू. वाले कांड’ में उन्होंने राष्ट्रवाद के आदर्श को ऊँचा उठाए रखा, जबकि केजरीवाल ने केंद्र सरकार पर प्रताड़ित करने का यथार्थ रुपी आरोप मढ़ा. कुमार के सर पर आदर्शों का खुमार कुछ ऐसा था कि कुछ दिनों बाद ही उन्होंने पार्टी के विधायक के बयानों पर खुलकर प्रतिक्रियाएं दीं. आदर्शों को मजबूत होते देख यथार्थ ने फिर से एक बार हुंकार ली और आदर्शों को सबक सिखाने का फैसला ले ही लिया.

सबक सिखाने का मौका यथार्थ को राज्यसभा चुनाव में मिला, जहाँ उसने पार्टी के ही जन्मे आदर्श को बाहर के आदर्शवादी लोगों से ढकने की कोशिश की. क्योंकि शायद कुमार विश्वास रुपी आदर्श केजरीवाल को व्यक्तिगत रूप से प्यारा था और वह इसको यथार्थ के हथियार से नहीं मारना चाहता था.

मगर बाहरी आदर्शवादी समझदार थे. उन्होंने केजरीवाल को ही उनकी जंग लड़ने और यथार्थ रुपी हथियार चलाने पर मजबूर कर दिया. केजरीवाल चूँकि यथार्थ और आदर्श दोनों से ही मात खाकर देख चुके हैं, इसीलिए उन्होंने पार्टी के विस्तार और आने वाले चुनाव में धन बल की जरुरत वाले यथार्थ को ध्यान में रखते हुए अपने प्यारे और आखिरी आदर्शवादी की भी बलि ले ली.

लोकतंत्र का ये द्वन्द्व, जिसमें आदर्श और यथार्थ की जंग हमेशा बनी रहती, है उसने आम आदमी के आदर्शवादी आंदोलन को यथार्थवादी पार्टी में तब्दील कर दिया है. यानी जो लोग ये मान रहे हैं कि केजरीवाल ने गलत किया, वे सब उसी आदर्शवाद की छांव में है जिसकी अब आम आदमी पार्टी को शायद जरुरत नहीं रह गई है.

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काले धन का सबसे बड़ा डॉन- इलेक्टोरल बांड

सरकार के लिए पारदर्शिता नया पर्दा है। इस पर्दे का रंग तो दिखेगा मगर पीछे का खेल नहीं। चुनावी चंदे के लिए सरकार ने बांड ख़रीदने का नया कानून पेश किया है। यह जानते हुए कि मदहोश जनता कभी ख़्याल ही नहीं करेगी कि कोई पर्दे को पारदर्शिता कैसे बता रहा है।

पहले किसी राजनीतिक दल को 20,000 या उससे अधिक चंदा देने पर दाता का नाम ज़ाहिर करना होता था। राजनीतिक दलों ने एक खेल खेला। सारे चंदे को 20,000 से कम का बता दिया। चुनाव आयोग उनके झूठे दस्तावेज़ों के कबाड़ को पारदर्शिता और जवाबदेही के नाम पर ढोता रहा। हम सभी तो आज तक ढो ही रहे हैं।

20,000 चंदा देने वाले कानून से किसी राजनीतिक दल को कोई दिक्कत नहीं थी। राजनीतिक दल पहले भी करप्शन का पैसा पार्क करने या जमा करने का अड्डा थे, एक नए कानून के पास अगर आपके पास काला धन है तो चुपचाप किसी दल के खजाने में जमा कर दीजिए। बोझ हल्का हो जाएगा।

 

इसके लिए आपको बस स्टेट बैंक आफ इंडिया की 52 शाखाओं से 1000, 10,000, 1,00000, 1,0000000 का बांड ख़रीदना होगा। आपके ख़रीदते ही आपका काला धन गुप्त हो
जाएगा। अब कोई नहीं जान सकेगा। बैंक आपसे नहीं पूछेगा कि आप किस पैसे से बांड ख़रीद रहे हैं और इतना बांड क्यों ख़रीद रहे हैं। आप उस बांड के ज़रिए किसी पार्टी को चंदा दे देंगे और पार्टी उस बांड को बैंक से भंजा लेगी।

आप पाठकों में से कुछ तो दसवीं पास होंगे ही, इतना तो समझ ही गए होंगे कि यह पारदर्शिता नहीं उसके नाम पर काला धन पर पर्दा है। पार्टी के नाम पर भीड़ बनाकर गाली देने, मार पीट करने पर तो रोक नहीं है फिर किसी को चंदा देने के नाम पर इतनी पर्दादारी क्यों हैं। आप मैट्रिक का सर्टिफिकेट ज़रूर चेक करें।

वित्त मंत्रालय ने पिछले हफ्ते इस योजना की घोषणा की है। बताया है कि व्यक्ति, व्यक्तियों का समूह, एनजीओ, धार्मिक और अन्य ट्रस्ट हिन्दू अविभाजित परिवार और कानून के द्वारा मान्य सभी इकाइयां बिना अपनी पहचान ज़ाहिर किए चंदा दे सकती हैं।

इस कानून के बाद 20,000 से ऊपर चंदा देने पर नाम बताने के कानून का क्या होगा? उसके रहते सरकार कोई नियम कैसे बना सकती है कि आप बांड ख़रीद लेंगे तो 1 लाख या 1 करोड़ तक के चंदा देने पर किसी को न नाम न सोर्स बताने की ज़रूरत होगी। खेल समझ आया? हंसी आ रही है, भारत की नियति यही है। जो सबसे भ्रष्ट है वह भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ लड़ने का आश्वासन देता है और हम आश्वस्त हो जाते हैं। चुनाव आयोग ने कुछ हल्ला किया है?

क्या आपको पता है कि एन जी ओ, धार्मिक ट्रस्ट या किसी व्यक्ति को अपना सालाना रिटर्न पब्लिक में ज़ाहिर नहीं करना पड़ता है। सरकार के पास जमा होता है और वो आप नहीं जान सकते। तो ये एन जी ओ किसको चंदा देंगे पता नहीं। एक समय तक एक राजनीतिक दल लगातार आरोप लगाता था कि ईसाई मिशनरी या बाहर के संगठन विदेशों से पैसा ला रहे हैं और एन जी ओ में डाल रहे हैं। भारत के लोकतंत्र को प्रभावित करने के लिए चंदा दे रहे हैं। फिर वही राजनीतिक दल एन जी ओ किसे पैसा दे रहे हैं, इस बात को गुप्त रखने का कानून कैसे ला सकता है।

कंपनियों को अपना हिसाब किताब सार्वजनिक करना होता है मगर स्क्रोल डॉट इन पर नितिन सेठी ने लिखा है कि उन्हें ये नहीं बताना पड़ेगा कि साल में कितना बांड ख़रीदा। अब गेम समझिए। फर्ज़ी पार्टी बनाइये। किसी से चंदा लीजिए, उसका काला धन बैंक से भंजा लीजिए और फिर ऐश कीजिए। मेले में जाकर नाचिए कि पारदर्शिता आ गई, काला धन मिट आ गआ। राग मालकौस बजा लीजिएगा।

सरकार आपकी हर जानकारी जान सके इसलिए आधार आधार कर रही है, वही सरकार राजनीतिक दलों के लिए ऐसा कानून लाती है कि चंदा देने वाला का नाम किसी को पता ही न चले। क्या आप अब भी इसे पारदर्शिता कहेंगे ?

वेंकटेश नायक का कहना है कि इस बांड के ज़रिए सरकार एक नई प्रकार की मुद्रा पैदा कर रही है जिसके ज़रिए सिर्फ किसी व्यक्ति और राजनीतिक दल के बीच लेनदेन हो सकेगा। वेंकटेश नायक Access to Information at Commonwealth Human Rights Initiative के प्रोग्राम कोर्डिनेटर हैं। राजनीतिक दलों को भी इस काम से मुक्ति दे दिया गया है कि वे इस बात को रिकार्ड करें कि उन्हें चंदा देने वाला कौन है। इसका मतलब है कि कोई माफिया, अपराधी जो चाहे किसी भी दल को लूट का माल आंख मूंद कर दे सकता है। उसे सिर्फ बांड ख़रीदना होगा।

कांग्रेस सहित कुछ राजनीतिक दलों ने इस इलेक्टोरल बांड का विरोध किया है। कांग्रेस के राजीव गौड़ा का कहना है कि यह योजना सफेद पैसा, पारदर्शिता और तटस्थता तीनों पैमाने पर फेल है।

आप इस इलेक्टोरल बांड के बारे में ख़ुद से भी पढ़ें। सिर्फ एक सवाल करें कि क्या नाम पहचान गुप्त रख कर करोड़ों का बांड ख़रीद कर कोई राजनीतिक दल को चंदा देता है और राजनीतिक दल उस चंदे के बारे में किसी को बताने के लिए बाध्य नहीं है तो यह किस हिसाब से पारदर्शिता हुई। इस बारे में महान चुनाव आयोग के महान चुनाव आयुक्तों ने क्या कहा है, इसके बारे में भी गूगल सर्च कर लें।

नोट- अब चूंकि मैंने ये समीक्षा पेश की है तो ज़रा कमेंट करने के बाद बाकी कमेंट भी देख लें। आई टी सेल की शिफ्ट शुरू हो गई है। कमेंट के नाम पर कचरा ठेला जा रहा है। जिस विषय पर पोस्ट किया है उस पर कोई कमेंट नहीं, बाकी सब अनाप शनाप ठेल रहे हैं भाई लोग।

 

रवीश कुमार

लेखक एनडीटीवी से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार हैं.

लेख रवीश कुमार के फेसबुक पेज पर उपलब्ध है. (https://www.facebook.com/RavishKaPage/ )

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साईं बाबा से शुरुआत क्यों?

कई सारे मित्र सुबह-सुबह किसी देवी-देवता, तीर्थस्थान, किसी धर्म गुरु या अवतार का फोटो ग्रुप में डालकर या उनकी वंदना करके अन्य मित्रों को शुभकामना सन्देश भेजते हैं. कई दिनों से सोच रहा था कि इसको देखकर मेरे मन में जो भी भाव उठते हैं, उसको मित्रों के साथ साझा करूं.

मेरी समझ से धर्म और ईश्वर की जो अवधारणा हमारे परिवार और समाज ने हमें सिखा रखा है, वो एक ऐसा झूठ है जो हम लोग पीढ़ियों से ढोते आ रहे हैं और वंश-परंपरा में उसे अपनी संततियों को उनके जन्म से ही पारिवारिक धरोहर और संस्कृति के रूप में ढोते रहने के लिए प्रेरित करते रहे हैं. छोटी उम्र से ही हम जिस धर्म और ईश्वर के नाम के झूठ की घुट्टी पीते रहते हैं, वह हमारे मन में इस तरह रच-बस जाता है कि सामान्यतः इसकी ओर हम कभी भी शंका की नज़र से नहीं देख पाते. लेकिन अगर अपनी बुद्धि और निर्लिप्त भाव से सोचने-समझने की शक्ति पर पड़े संस्कार के ताले को हटाकर देखा जाए तो यह बिना किसी भ्रम के स्पष्ट हो उठता है कि धर्म और ईश्वर, कम से कम जिस रूप में हमें उसे बताया-समझाया गया है, एक झूठ और केवल झूठ है और झूठ के अलावा और कुछ भी नहीं है.

मैं एक-एक करके सभी तथाकथित धर्म और देवी-देवताओं पर बात करना चाहूँगा लेकिन आज का विचार श्रीमान साईं बाबा के नाम करता हूं. ऐसा इसलिए कि आज सुबह-सुबह कई मित्रों ने इन महाशय की न केवल तस्वीर भेजी बल्कि आज का दिन, गुरुवार या बृहस्पतिवार को इनके नाम समर्पित करने के लिए प्रेरित किया. वैसे भी आजकल इनके नाम की दुकानें काफी बढ़िया कमाई कर रही हैं.

मुझे लगता है कि साईं बाबा एक निकम्मे और कामचोर व्यक्ति थे जिन्हें गांजा पीने और अन्य बुरी लतों के कारण अपने घर से निकाल दिया गया था और ये भटकते, भीख मांगते शिरडी आ पहुंचे थे| शिरडी में इन्हें कुछ अन्य गंजेड़ियों ने सहारा दिया ताकि उनलोगों को अपने घर से बाहर गांजा पीने का माहौल ढूँढने में आसानी हो. इन लोगों ने इनकी प्रतिष्ठा कायम करने के लिए और धनादि की व्यवस्था के लिए इनके चमत्कारों की झूठी कहानियां फैलाई ताकि लोग इस गंज़ेड़ी और उनकी सोहबत में रहने वालों को हिकारत की नज़र से नहीं देखें और और इनके लिए भोजन-पानी की व्यवस्था बिना कोई काम किये होती रहे. वैसे अगर अभी भी कोई व्यक्ति किसी धार्मिक या दैविक चमत्कार में विश्वास, आस्था या श्रद्धा रखता है तो मेरी नज़र में वह अभी तक जाहिल-मूर्ख और अविवेकी है. धर्म, ईश्वर और चमत्कार के नाम पर अभिभूत और परलोक की चिंता और भय से ग्रस्त समाज ने इस अकर्मण्य गंजेड़ी को भगवान की जगह बिठा दिया. जाहिर है कि इससे कई लोगों की आर्थिक और सामजिक समस्याओं का समाधान हो गया और इसलिए इन लोगों ने इस शख्स को भगवान बना देने में ही अपना हित देखा. शराब-गांजे के नशे में कई बार अनपढ़ों, जाहिलों के मुंह से भी ऐसी बातें निकल आती हैं जो बड़ी गूढ़ और दार्शनिक प्रतीत होती हैं. मेरा अनुमान है कि गांजे के नशे में साईं बाबा ने कभी श्रद्धा और सबुरी जैसा कुछ कह दिया होगा जिसे उनके गुर्गों ने सराहा होगा और उसे अपना तकियाकलाम की तरह उपयोग करने की सलाह दी होगी. वैसे भी श्रद्धा और आस्था रखने की सलाह ठगी करने वाले सभी दुकानदारों के प्रिय हथियार रहे हैं और आज भी हैं|

मेरी सलाह है कि अगर कोई आपको श्रद्धा करने या आस्था रखने की सलाह देता है तो पहले से सचेत हो जाइए कि वो आपकी लेनेवाला है. इस हथियार के माध्यम से लिए जाने की खासियत यह होती है कि जिसकी ली जाती है उसे अपनी लिवाते जाने में बड़ा मजा आता है. अपनी लिवाते जाने में जिनको मजा आता है उन्हें क्या कहते हैं ये आप सभी जानते ही हैं. खैर, साईं बाबा पर वापस आते हैं. आज के समय में इसके नाम से खोली जाने वाली दुकानों में केवल एक बार ईंट-सीमेंट, मूर्ति-पत्थर, रंग-रोगन आदि का खर्च करना होता है और ये दुकान किसी भी व्यावसायिक प्रतिष्ठान की तुलना में लागत पर मिलने वाले लाभ के हिसाब से एक बहुत ही अच्छा धंधा साबित होता है. लेकिन क्या हमारा मानव समाज इस तरह की झूठ की बुनियाद पर खड़े व्यापर के माध्यम से सही दिशा में बढ़ सकेगा और प्रगति कर पाएगा? क्या कहते हैं आपलोग?

ये लेखक के निजी विचार हैं.

मिथिलेश झा

लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं.

mithilesh.jha@kaizenprofessional.com

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ललित बाबू और लालू संग नियति का खेल ही तो जीवन का संदेश है

बिहार की राजनीति में ललित बाबू के बाद आज तक लालू यादव से बड़ा कोई जननेता नहीं हुआ। अपने दौर में दोनों ने जो चाहा वही किया। नियति और वक्त ने एक को जिंदा रहते, दूसरे को मौत के बाद “मैं” होने का एहसास कराया। नियति का खेल देखिए, आज ललित बाबू की पुण्यतिथि को ही लालू को अदालत ने हैसियत बताई। अभी दो दिन उन्हें अदालत दौड़ाएगी। फिर जेल भेजेगी। उस लालू को जिन्हें किंगमेकर होने का गुमान था। जी! यही गुमान कभी ललित बाबू को भी था कि पार्टी के लिए पैसा वही इकट्ठा करते हैं तो सबसे बड़े वही हुए न।

कभी जब बहुत अहंकार हो जाए कि आप बहुत बड़े हो गये, अदालत की दहलीज पर जिंदा या मुर्दा अवस्था में पहुंचे, अपने दौर के महानायक की हकीकत से रुबरु होईएगा। एक दौर में भारतीय राजनीति में ललित बाबू से कद्दावर सिर्फ इंदिरा और उनके पुत्र संजय थे। बम विस्फोट में घायल ललित बाबू जिंदगी की भीख भी नहीं मांग पाये। समस्तीपुर से पटना तक पहुंचने में देश के घायल रेलमंत्री को 18 घंटे का वक्त लग गया। फिर रेलवे अस्पताल में उनकी मौत हो गई।

सिर्फ निचली अदालत में 44 साल तक ललित बाबू के मामले की सुनवाई हुई। केस पटना से दिल्ली तक घूमता रहा। 10 साल तक इन पंक्तियों के लेखक ने इस केस की रिपोर्टिंग की। सिर्फ निचली अदालत में देश के रेलमंत्री का केस साढ़े 10 साल तक चला। इस केस के 44 साल के अदालती सफर के दौरान दो दर्जन से ज्यादा जजों के कार्यकाल बदले। 8 जजों की मौत हो गई। वकालत करने वाले चार वकील स्वर्ग सिधार गये। हद तो ये कि जिन्हें सजा दी गई उसे दुनिया ही निर्दोष नहीं मानती, ललित बाबू के भाई और बिहार में अपने दौर के सबसे प्रभावशाली मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र और ललित बाबू के बेटे विजय मिश्र भी। सोचिए आपकी हैसियत क्या है?

दूसरी ओर, जब लालू यादव को अदालत में दर-दर की ठोकरें खाते देखता हूं तो सोचता हूं ये 90 के दौर के वही लालू हैं जिनकी तूती बोलती थी। जो खुद को किंगमेकर कहते थे। कहते थे एक दिन तो वे प्रधानमंत्री जरुर बनेंगे। जिनकी एक आवाज पर गांधी मैदान में लाठी में तेल पिलाने लाखों लाख लोग इकट्ठा हो जाते थे। देखिए, नियति ने इस जन्म में ही उनसे विधायक बनने की हैसियत भी छीन ली। एक न्यायिक अधिकारी अभी कई दिन उन्हें दौड़ाएगा। अदालत तब जाकर सजा सुना देगी। कम से कम 3 साल की।

अभी कई और केस में उन्हें सजा होनी है। एक में 5 साल की सजा हुई है। जिसमें 4 साल का वक्त उन्हें जेल में बिताना बाकी है। 70 पार लालू का बाकी जीवन अब जेल में ही कटने वाला है। उस लालू का, जिस कद का नेता बिहार में ललित बाबू के बाद कोई नहीं हुआ।

मनीष ठाकुर

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.

Mob- 88606 09109

सावित्री बाई फुले
महाराष्ट्रशख्सियतसमाज

सावित्रीबाई फुले कैसे बनीं प्रथम महि‍ला शिक्षिका

 

आपने सुना होगा कि पुरुष की सफलता के पीछे स्त्री का हाथ होता है, लेकिन क्या आप जानते हैं कि सावित्री बाई फूले की सफलता और समाजसेवा के पीछे महात्मा ज्योतिबा फुले का अमूल्य योगदान रहा। आज जब देश सावित्री बाई फुले को याद कर रहा है, तो ऐसे में महात्मा ज्योतिबा फुले के जिक्र के बिना उनकी उपलब्धि की चर्चा अधूरी रह जाएगी।

लड़कियों और महिलाओं के उत्थान के लिए ज्योतिबा फुले ने करीब डेढ़ सौ साल पहले ही काम शुरू कर दिया था। उनके काम इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं। वे जितने बड़े विचारक थे, उतने बड़े ही समाजसेवी, लेखक, दार्शनिक और क्रांतिकारी भी थे। ज्योतिबा फुले समाज के सभी वर्गो को शिक्षा प्रदान करने के बहुत बड़े हिमायती थे। खुद वे ज्यादा नहीं लिख पढ़ पाए, लेकिन उनका दृष्टिकोण, उनकी सोच, उनके विचार समाजहित के लिए थे। उन्होंने दलित समाज के लिए, खासकर महिलाओं के लिए खूब काम किया।  उस समय समाज में कितनी ही बुराइयां थीं। छुआछूत का भाव, अस्पृश्यता, मंदिरों में महिलाओं और पिछड़ी जाति के लोगों के प्रवेश पर पाबंदी। महात्मा ज्योतिबा फुले ने जाति आधारित विभाजन और भेदभाव के खिलाफ जमकर आवाज उठाई।

तब का समय और आज के समय में जमीन और आसमान का अंतर है। तब समाज में महिलाओं का जीवन बहुत ही मुश्किल भरा होता था, खासकर विधवाओं की स्थिति तो और भी दयनीय थी। महात्मा फुले ने उनके कल्याण के लिए काफी काम किया। जब समाज में कोई लड़की को पढ़ाना नहीं चाहता था, तब उन्होंने स्त्रियों की दशा सुधारने और उनकी शिक्षा के लिए 1848 में एक स्कूल खोला। ये स्त्रियों की शिक्षा के लिए खोला गया देश का पहला स्कूल था। उनकी जीवटता ऐसी थी कि जब लड़कियों को पढ़ाने के लिए कोई टीचर नहीं मिली तो अपनी पत्नी सावित्री जी को ही पढ़ा-लिखा कर इतना योग्य बना दिया कि वे स्त्रियों को पढ़ा सकें। कुछ लोगों ने उनके इस नेक काम में बाधा डालने की कोशिश की, लेकिन संघर्ष करने वालों की हार नहीं होती। पुणे के भिडेवाडा में पहले स्कूल की कामयाबी के बाद फुले दंपत्ति ने एक के बाद एक, लड़कियों के लिए तीन स्कूल खोल दिये।

दकियानूसी, रूढ़िवादी और पुरोगामी ब्राह्मणवादी ताकतों से उन दोनों ने सीधा वैर मोल ले लिया था। उन दिनों देश में दलित और स्त्रियों को शिक्षा का हक नहीं था. वे वंचित रखे जाते थे. ज्योतिबा-सावित्रीबाई ने इसी कारण वंचितों की शिक्षा के लिए गम्भीर प्रयास शुरू किये।

मनुस्मृति के अघोषित शिक्षाबन्दी कानून के विरूद्ध ये जोरदार विद्रोह था। इस संघर्ष के दौरान उन पर पत्थर, गोबर, मिट्टी तक फेंके गये पर सावित्रीबाई ने शिक्षा का महत्वपूर्ण कार्य बिना रुके निरन्तर जारी रखा। फ़ातिमा शेख़ और उनके परिवार ने इस काम में फुले दम्पत्ति का पूरा साथ और सक्रिय सहयोग दिया।

सावित्रीबाई फुले का जन्म 3 जनवरी 1831 को हुआ था। शिक्षा के क्षेत्र में इतना क्रान्तिकारी काम करने वाली सावित्रीबाई का जन्मदिवस ही शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाना चाहिए. अंग्रेजों के समय में जैसी औपचारिक शिक्षा थी, उसका मकसद “शरीर से भारतीय पर मन से अंग्रेज” क्लर्क बनाना था। इसलिए उन लोगों ने ना तो शिक्षा का व्यापक प्रसार किया और ना ही तार्किक और वैज्ञानिक शिक्षा पर जोर दिया।आज सावित्रीबाई फुले का स्मृति दिवस - Maharashtra Today

ज्योतिबा-सावित्रीबाई ने सिर्फ़ शिक्षा के प्रसार पर ही नहीं बल्कि प्राइमरी लेवल पर ही शिक्षा में तर्क और वैज्ञानिक शिक्षा पर जोर दिया. दोनों ने अन्धविश्वासों के विरुद्ध जनता को जागरूक किया। आज जब ज्योतिषशास्त्र जैसे विषयों को शिक्षा का अंग बनाने के प्रयास हो रहे हैं, तमाम सारी अतार्किक चीज़ें पाठ्यक्रमों में घोली जा रही हैं तो ऐसे में ज्योतिबा-सावित्री के संघर्ष को याद करना बेहद जरूरी है।

उन्होंने शिक्षा का अपना ‘प्रोजेक्ट’, चाहे वो लड़कियों की पाठशाला हो या प्रौढ़ साक्षरता पाठशाला, सिर्फ़ जनबल के दम पर खड़ा किया और आगे बढ़ाया। अड़चनों और तमाम संकटों का सामना बहुत ही बहादुरी से किया।

सावित्रीबाई के समय भी ज़्यादातर ग़रीबों को शिक्षा नहीं मिलती थी. दलितों को भी पढ़ाई लिखाई से दूर रखा गया था. आज शिक्षा का पहले के ज़्यादा प्रसार है। फ़िर भी बड़ी संख्या में ग़रीब आबादी इससे वंचित है. दलितों के लिए पढ़ना अब भी आसान नहीं हैं।

आजादी के बाद सत्ता ने धीरे-धीरे शिक्षा क्षेत्र से हाथ खींच लिए. 1991 की निजीकरण, उदारीकरण की नीतियों के बाद तो शिक्षा पूरी तरह बाज़ार के हवाले कर दी गई। सरकारी स्कूलों की दुर्गति,  प्राइवेट स्कूलों और यूनिवर्सिटी के मनमाने नियमों और खर्चीली शिक्षा की वजह से दलितों, पिछड़ों और गरीबों की पहुंच से शिक्षा और दूर होती जा रही है. आज एक आम इंसान बच्चों को डॉक्टर-इंजीनियर बनाने के सपने भी नहीं देख सकता।

 

अनिवार्य शिक्षा, छात्रवृत्तियाँ और आरक्षण ‘खेत में खड़े (बिजूके)’ की तरह हो गये हैं जिसका फ़ायदा मेहनतकश तबके को नहीं या बहुत ही कम मिल पाता है।

सावित्रीबाई को याद करते हुए विचार करने की जरूरत है कि उनके शुरू किये संघर्ष की आज क्या प्रासंगिकता है? नयी शिक्षाबन्दी तोड़ने के लिए गरीब-मेहनतकशों की एकजुटता का आह्वान करें और सबके लिए मुफ्त शिक्षा का संघर्ष आगे बढ़ाने की जरूरत है। सावित्रीबाई की मृत्यु प्लेगग्रस्त लोगों की सेवा करते हुए 10 मार्च 1897 हुई थी। अपना सम्पूर्ण जीवन मेहनतकशों, दलितों और महिलाओं के लिए कुर्बान करने वाली ऐसी जुझारू महिला को नमन। (03 जनवरी 1831 – 10 मार्च 1897)

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चर्चा मेंदेशपुस्तक-समीक्षामध्यप्रदेशसामयिकसाहित्य

‘संघ और समाज’ के आत्मीय संबंध पर मीडिया विमर्श के दो विशेषांक

लेखक एवं राजनीतिक विचारक प्रो. संजय द्विवेदी के संपादकत्व में प्रकाशित होने वाली जनसंचार एवं सामाजिक सरोकारों पर केंद्रित पत्रिका ‘मीडिया विमर्श’ का प्रत्येक अंक किसी एक महत्वपूर्ण विषय पर समग्र सामग्री लेकर आता है। ग्यारह वर्ष की अपनी यात्रा में मीडिया विमर्श के अनेक अंक उल्लेखनीय हैं- हिंदी मीडिया के हीरो, बचपन और मीडिया, उर्दू पत्रकारिता का भविष्य, नये समय का मीडिया, भारतीयता का संचारक : पंडित दीनदयाल उपाध्याय स्मृति अंक, राष्ट्रवाद और मीडिया इत्यादि। मीडिया विमर्श का पिछला (सितम्बर) और नया (दिसम्बर) अंक ‘संघ और समाज विशेषांक-1 और 2’ के शीर्षक से हमारे सामने है। यूँ तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (संघ) सदैव से जनमानस की जिज्ञासा का विषय बना हुआ है। क्योंकि,संघ के संबंध में संघ स्वयं कम बोलता है, उसके विरोधी एवं मित्र अधिक बहस करते हैं। इस कारण संघ के संबंध में अनेक प्रकार के भ्रम समाज में हैं। विरोधियों ने सदैव संघ को किसी ‘खलनायक’ की तरह प्रस्तुत किया है। जबकि समाज को संघ ‘नायक’ की तरह ही नजर आया है। यही कारण है कि पिछले 92 वर्ष में संघ ‘छोटे से बीज से वटवृक्ष’ बन गया। अनेक प्रकार षड्यंत्रों और दुष्प्रचारों की आंधी में भी संघ अपने मजबूत कदमों के साथ आगे बढ़ता रहा।

दरअसल, सत्ता एवं सत्तापोषित बुद्धिजीवियों, इतिहासकारों, संचारकों इत्यादि के प्रोपेगंडा से लडऩे के लिए संघ के साथ समाज का वह अटूट भरोसा था, जो उसके हजारों कार्यकर्ताओं ने अपने जीवन की आहूति देकर कमाया था। समाज को समरस, स्वावलंबी, समर्थ, संगठित बनाने के लिए संघ समाजजीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उतर गया। जहाँ विरोधी अपनी हवेलियों के छज्जे पर बैठकर संघ पर धूल उछाल रहे थे, वहीं संघ के कार्यकर्ता अपने राष्ट्र को ‘गुरु’ स्थान पर पुनर्स्थापित करने के लिए पवित्र भाव से समाजसेवा को यज्ञ मानकर स्वयं को ‘समिधा’ की भाँति जला रहे थे- ‘सेवा है यज्ञ कुंड समिधा सम हम जलें।’

संघ मानता है कि वह समाज में संगठन नहीं है, बल्कि समाज का संगठन है। संघ का यह विचार ही उसके विस्तार की आधारभूमि है। समाज में सब आते हैं, इसलिए संघ सबका है। यहाँ तक कि मुसलमान और ईसाई भी संघ के समाज में समाहित हैं। मैं अनुमान ही लगा सकता हूँ कि मीडिया विमर्श के संपादक प्रो. संजय द्विवेदी ने समाज जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में संघ की सशक्त उपस्थिति को देखकर ही पत्रिका के इन विशेषांकों का शीर्षक ‘संघ और समाज’ रखा होगा। दोनों विशेषांक की सामग्री का अध्ययन करने के बाद यह कह सकता हूँ कि शीर्षक उपयुक्त है। मीडिया विमर्श के यह दोनों विशेषांक संघ और समाज के आत्मीय संबंधों को समझाने में बहुत हद तक सफल रहे हैं।

यूँ तो संघ को पढ़कर, सुनकर और देखकर, समझना बहुत कठिन कार्य है। संघ के पदाधिकारी कहते भी हैं-‘संघ को दूर से नहीं समझा जा सकता। संघ को समझना है तो संघ में आना पड़ेगा। संघ को भीतर से ही समझा जा सकता है।’ बहरहाल, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे विशाल संगठन के संबंध में उसके पदाधिकारियों का यह कहना उचित ही है। परंतु, मीडिया विमर्श के यह दोनों विशेषांक संघ और उसकी यात्रा को समझने में हमारी बहुत मदद कर सकते हैं। समाज में संघ की उपस्थिति का विहंगम दृश्य हमारे सामने मीडिया विमर्श के यह अंक उपस्थिति करते हैं। दोनों विशेषांक की सामग्री में संघ के विराट स्वरूप के एक बहुत बड़े हिस्से को देखने और समझने का अवसर हमें उपलब्ध होता है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) पर व्यवस्थित सामग्री प्रकाशित करने का संपादक प्रो. संजय द्विवेदी का यह प्रयास स्वागत योग्य है। उसके दो प्रमुख कारण हैं। एक, जब संघ के बारे में देश-दुनिया में जिज्ञासा है, तब उन्होंने समृद्ध सामग्री प्रस्तुत की है। जो लोग संघ और उसकी कार्य-व्यवहार को जानना चाहते हैं, उनके लिए यह दोनों विशेषांक बहुत उपयोगी सिद्ध होंगे। सामान्य लोगों के अनेक प्रश्नों को उत्तर और जिज्ञासाओं का समाधान देने का प्रयास किया गया है। दो, संघ के बारे में सकारात्मक लिखने का अपना खतरा पत्रकारिता एवं लेखन के जगत में रहता है। तथाकथित प्रगतिशील खेमा संघ के प्रति अच्छा भाव रखने वाले व्यक्ति को हेयदृष्टि से देखता है और उसे हतोत्साहित करने का प्रयास करता है। जहाँ संघ को गाली देना, उसका मानमर्दन करना, उसके संबंध में झूठ फैलाना ही प्रगतिशीलता, निर्भीकता एवं ईमानदार लेखन का पर्याय बना दिया गया हो, वहाँ संघ पर दो विशेषांक निकालने का साहस संपादक ने दिखाया है। संघ का आकार एवं कार्य वृहद है। इसलिए निश्चित ही बहुत कुछ छूटा होगा, उम्मीद है कि प्रो. संजय द्विवेदी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर और शोधपूर्ण सामग्री भविष्य में प्रकाशित करेंगे। यह भी उम्मीद है कि उनके इस प्रयास से शेष संपादक, पत्रकार एवं लेखक भी प्रेरित होंगे और अपना पुराना चश्मा हटाकर संघ को देखने का प्रयत्न करेंगे।

लोकेन्द्र सिंह

लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय में सहायक प्राध्यापक हैं.

पत्रिकाः मीडिया विमर्श (त्रैमासिक)

संपादकः डॉ. श्रीकांत सिंह

कार्यकारी संपादकः संजय द्विवेदी

संपर्कः 428- रोहित नगर, फेज-1,

ई-8 एक्सटेंशन, भोपाल-462039

मूल्यः50 रूपए प्रति अंक

 

व्यंग्य

फिर झांसे में होरी

 

  • अशोक गौतम

 

होरी पिछले एक हफ्ते से टूटी रस्सियों की झोली चारपाई पर झोला हुआ मृत्यु के इंतजार में लेटा था। सुना है, उसे वरदान मिला है कि जब तक उसका बेटा गोबर उसे मुखाग्नि देने शहर से नहीं आ जाता, उसे मृत्यु नहीं मिलेगी। चाहे कोई कितनी ही उसके विनाश की योजनाएं क्यों न बना ले।

धनिया ने उसके मरने का दो-चार दिन तक बहुत इंतजार किया। महाजन के घर झाड़ू पोंछा करने भी नहीं गई। जब वह नहीं मरा तो वह महाजन के घर उसे अकेला मरते छोड़ काम करने चली गई। महाजन के घर झाड़ू पोंछा हो तो रात को घर में गीली लकड़ियों वाले चूल्हे पर तवा जले। उसे पता है कि वह उसकी सेवा करे या न ,पर अगले जन्म में भी उसे वही मिलेगा।

होरी की बगल में टाट पर बैठा पुराना अखबार बार-बार पढ़ता, उसके वही पन्ने बार-बार बदलता, विज्ञापनों में एक से एक खूबसूरत चेहरों को गौर से बार-बार निहारता, उनको देख लार टपकाता, उसे लेने आया यमदूत परेशान है कि आखिर होरी के प्राण अटके हैं तो कहां अटके हैं? शुक्र है वह दिल्ली से यों ही अपने साथ उस दिन होरी को लेने आते-आते अखबार ले आया था। वरना पागल हो जाता।

साले ये गरीब आदमी होते बहुत जालिम हैं। जो आसानी से जीते नहीं, तो आसानी से मरते भी नहीं। मरते-मरते भी यमदूत तक को महीना अपनी बगल में इंतजार में बिठाए रखते हैं। इसकी जगह कोई मोटा आदमी होता तो करोड़ों होने के बाद भी, दिन में चार-चार आईसीयू बदलने के बाद भी समय न आने पर भी मुझे देखते ही दोनों हाथ जोड़े आत्मा मेरे हवाले कर देता। मुझे देखते ही डॉक्टरों का हार्ट गद् गद् तो उसका हार्ट फेल हो जाता। अब साला ये होरी पता नहीं अभी और कितना इंतजार करवाएगा मरने में?

मरने वाले की बगल में बैठना उसके घरवालों की मजबूरी हो य न पर अपनी तो मजबूरी है भाई साहब! हमें तो पगार मिलती ही इसकी है। बंदे को अपने सामने तिल-तिल मरते देखते रहो और जब मर जाए तो उसे अपनी पीठ पर उठा कर चल पड़ो। चाहे कोई चोर हो या साध। कई बार तो मरे हुए को उठाते हुए इतनी घिन्न आती है कि… पर पापी पेट का सवाल है भैया! सरकार ने देश को शौच मुक्त तो कर दिया, पर पता नहीं हम यमदूत शौच युक्त आत्माओं को ढोने से कब मुक्त होंगे?

‘रे होरी, अब आखिर तेरे प्राण कब तक निकलेंगे? तू तो बड़ा जरड़ा है रे होरी! न चैन से जीता है न मरता, ‘जब होरी की बगल में एक टांग पर उसे लेने आया बैठा यमदूत परेशान हो गया तो उसने होरी से दोनों हाथ जोडे़ कहा, ‘अब तो मर जा मेरे बाप! बीवी की बहुत याद आ रही है।’

पर होरी ने जवाब में कुछ कहने के बदले अपना दड़ैला मुंह खोला तो यमदूत ने होरी की चारपाई के पाए के साथ मिट्टी की डीबड़ी में रखे गंगाजल की दो बूंदें चम्मच से उसके मुंह में राम-राम करते डाल दीं। जैसे ही गंगा जल की बूंदों ने उसकी जीभ का स्पर्श किया तो होरी को  फील हुआ कि अब वह स्वर्ग के द्वार के बिलकुल नजदीक पहुंच गया है। होरी ने स्वर्ग का आनंद मिलने वाली सांस ली तो यमदूत चौंका। यार! ये बंदा किस मिट्टी का बना है? पानी के सहारे भी मजे से चल रहा है? इधर एक सरकार की गाड़ियां हैं कि जमकर पेट्रोल डीजल डालने के बाद भी टस से मस नहीं होतीं।

‘होरी गीता का कौन सा पाठ सुनाऊं? यमदूत ने एक दांव और चला ताकि होरी की आत्मा गीता के रहस्यों को सुन परेशान हो उसके साथ जाने को एकदम तैयार हो जाए।

‘मैंने गीता को सुना तो नहीं, पर आजतक गीता को जीया जरूर है सरकार! मुझे गीता सुनाने की जरूरत नहीं। मुझ होरी को कहां गीता से काम? ये तो बड़े बड़े पंडितों की थाती है, ‘पता नहीं, होरी उस वक्त कैसे यह सब कह गया! मरता मरता जीव भी इतनी गुणी होता है, यमदूत ने पहली बार देखा तो हैरान हो गया।

होरी ने पुनः सूखे मुंह में जीभ फेरने के बाद यमदूत से पूछा, ‘गीता के बदले आज की कोई ताजा खबर ही सुना दो तो मन को शांति मिले, ‘यह सुन यमदूत बहुत खुश हुआ। होरी की आत्मा आखिर शांति मांगने ही लग गई। उसे लगा कि वह जैसे ही होरी को देश के ताजा हालात के बारे में बताएगा, होरी डर के मारे प्राण त्याग देगा। उसे जीने से नफरत नहीं, सख्त नफरत हो जाएगी। तब एक तरफ होरी को जीवन से मुक्ति मिलेगी तो दूसरी ओर उसे। होरी की झुग्गी में हफ्ते से बैठे-बैठे उसमें गांव की कितनी बुरी बास आ गई है। बाहर नहाने जाता है तो नल में जल नहीं।

मार्निंग वॉक पर जाने की सोचता है तो गांव के रास्तों पर आवारा गाय बैलों के सिवाय और कोई नहीं दिखता। रात को जो हवा खाकर घूमने जाने की सोचता है तो कुत्ते हाथ मुंह धोकर पीछे पड़ जाते हैं। गांव में जैसे कोई और बचा ही नहीं है अब।

यमदूत ने देखते ही देखते जादूगर की तरह हवा में हाथ लहराया और आज के ताजा अखबार का ग्रामीण संस्करण उसके हाथ में। हाथ में अखबार आते ही वह अखबार होरी की काले मोतिया से ग्रसित आंखों के आगे लहराते बोला, ‘ले होरी! आज का ताजा अखबार!’  जनता भी अजीब है! उसे ताजा रोटी मिले या न, पर अखबार ताजा जरूर मांगती है।

‘तो पढ़कर सुना दो। आज की ताजा खबर क्या है?’ अपनी ओर से मरते हुए होरी की अंतिम इच्छा पूरी करने के इरादे से यमदूत ने हिंगलिश में होरी के आगे अखबार बांचना शुरू किया, ‘तो सुन होरी! सरकार ने कहा है कि आने वाले पांच सालों में तू… तू नहीं, पूरा देश गरीबी और भ्रष्टाचार से मुक्त हो जाएगा। सरकार ने विजन दस्तावेज फाइनल कर दिया है। भूख का इंडेक्स जीरो हो जाएगा। भ्रष्टाचार का इडेंक्स गिर कर जनता के चरणों में लोट रहा होगा।

उसके बाद देश में कोई भ्रष्टाचारी नहीं होगा। देश की हवा में ईमानदारी गोते लगा रही होगी। कोई भूख से नहीं मरेगा। सरकारी कीड़े से लेकर कुंजर तक सब खाते खाते प्रसन्नचित्त स्वर्ग सिधारेंगे।  तब… तब… अब तो चल मेरे बाप! पांच साल बाद पुनः जन्म ले जब तू इस देश में  बहती नाक पोंछ रहा होगा तो न कहीं गरीबी होगी, न कहीं भ्रष्टाचार। सरकार सुखिया सब संसार।’

‘तो एक काम नहीं हो सकता?’ होरी की आवाज कुछ जिंदा होती लगी तो यमदूत चौंका।

‘बोल! एक क्या सौ हो जाएंगे। पर अब तू बस चल। इस गांव में अब और नहीं रहा जाता। एक दिन और भी जो इस गांव में टिक गया न तो पता नहीं मुझे क्या-क्या बीमारियां हो जाएंगी? देश के अखबारों में कल को यह खबर मेन होगी कि होरी को लेने आया यमदूत होरी के घर किसी अज्ञात बीमारी से मरा पाया गया। क्यों फजीहत करवाने पर तुला है मेरी मेरे बाप?’ यमदूत को लगा होरी मरने का इरादा बदल रहा हो जैसे।

‘सुनो सरकार! मैं बाप तुम्हारा नहीं, गोबर का हूं। मैंने तो इस गांव में हर जन्म काटा है। तुम बाहर के लोग भी न! चार दिन गांव में रहना पड़े तो… शहर में पसरे हवा में हमारे लिए योजनाएं कागजों में ऐसी ऐसी बनाते रहते हो कि… कहीं गलती से जो स्वर्ग के देवताओं के हाथ योजनाओं के वे दस्तावेज लग जाएं तो वे भी स्वर्ग छोड़ तुम्हारे कागजों में चकाचक इन गांवों में बसने की सोचने लगें।’

‘अच्छा जल्दी बोल, क्या चाहता है तू? हेड ऑफिस से फोन आ रहा है। एक तुझे ही तो नहीं ले जाना है। बीसियों व्यवस्था से परेशान बीमार हो जाने को तैयार लेटे हैं।’

‘मैं यही चाहता हूं कि मुझे पांच साल की मोहलत नहीं मिल सकती क्या?’

‘हद है होरी! सारी उम्र पल-पल मरता रहा! और अब जब चैन से मरने का सौभाग्य बड़ी मुश्किल से हाथ लगा तो पांच साल और? देख होरी, इस नश्वर देह से कुर्सी सा मोह अच्छा नहीं।  मोह के परिणाम बहुत बुरे होते हैं। बड़े लोगों का मरते मरते जीने के लिए छटपटाना वाजिब लगता है, पर पल-पल मरने वाले भी मरते हुए जीने के लिए हाथ जोड़ने लगेंगे तो… लगता है, अब घोर कलियुग शुरू हो रहा है होरी!’ यमदूत उपदेशक हुआ।

तब होरी ने भूखे पेट में कुछ देर तक जीभ घुमाने के बाद यमदूत को निहारते सस्नेह कहा, ‘ सरकार! अगला जन्म क्या पता हो या न हो। जो हो भी तो क्या पता मानुस देह मिले भी या नहीं। सुना है, जिस तरह से पार्टी में देशसेवा करने के लिए चुनाव में उम्मीदवारी हेतु टिकट के लिए नोट चलते हैं उसी तरह से अब ऊपर मानुस देह के लिए भी नोट चलने लगे हैं।’ साला होरी! अनपढ़ है, पर खबर ऊपर तक की रखता है। सुन यमदूत बकबकाया।

‘मतलब??’

‘सोच रहा हूं… गरीबी मुक्त, भ्रष्टाचार मुक्त देश में कुछ दिन जी कर ही जाऊं। फिर क्या पता मानुस देह मिले न मिले,’ होरी ने पूरे दमखम के साथ कहा तो यमदूत हफ्ते भर से न धोए अपने सिर के बाल होरी के हाथों से पगलाया नुचवाने लगा।

 

अशोक गौतम

सह आचार्य, एससीईआरटी, सोलन

ashokgautam001@gmail.com

9418070089

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अंतरराष्ट्रीयचर्चा मेंदेशपर्यावरण

ब्रह्मपुत्र को चीन से बचाओ

ब्रह्मपुत्र मूल के तिब्बती हिस्से में अपने हिस्से में अपनी हरकतों को लेकर चीन एक बार फिर विवाद में है। हालंकि यह पहली बार नहीं है कि तिब्बती हिस्से वाले ब्रह्मपुत्र नद पर चीन की अनैतिक हरकतों को लेकर विवाद खड़ा हुआ हो। चीन पर इससे पहले भी बांध निर्माण के अलावा भारत आने वाले तिब्बती प्रवाहों में परमाणु कचरा डालने का आरोप भी लग चुका है। इस बार लगा आरोप ज्यादा संगीन इसलिए है कि इस बार मामला बांध निर्माण का न होकर, प्रवाह के मार्ग को ही चीन की ओर मोड़ लेने हेतु 1000 किलोमीटर लंबी सुंरग बनाने को लेकर है। चर्चा है कि यह सुरंग तिब्बत से लेकर चीन के ज़िगजियांग क्षेत्र के तकलीमाकन रेगिस्तान तक जायेगी। पूर्वी अरुणाचल के पालीघाट से चुने गये लोकसभा सांसद श्री निनांग एरिंग का आरोप है कि ब्रह्मपुत्र के चीनी हिस्से में जलदोहन का कार्य पहले ही आरम्भ किया जा चुका है।उन्होने आंशका जताई है कि नवंबर के महीने में सियांग के जल के कीचड़युक्त और सीमेंट मिश्रित होने का कारण सुरंग का निर्माण हो सकता है। यह पहली बार है कि सियांग का पानी पिछले दो माह से मटमैला बना हुआ है। भारत के जन स्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग ने श्री निनांग एरिंग की आशंका की पुष्टि की है। विभाग द्वारा पेश तथ्यों के मुताबिक प्रयोगशाला में उच्च तकनीकी फोटोमीटर के जरिए जांचे गये नमूनों मंे निनांग का गंदलापन 0 से 5 के मान्य स्तर की तुलना में 425 पाया गया। जांच के लिए और नमूने भेजे जाने की जानकारी देते हुए विभाग ने आशंका व्यक्त की कि यदि सियांग नदी और ब्रह्मपुत्र नद में गंदलेपन का यह स्तर कायम रहा, तो जलीय जीव व वनस्पतियों की भारी मात्रा में क्षति हो सकती है। ज़िला आयुक्त ने चेतावनी जारी की कि यह स्थिति बनी रही तो सियांग का जल उपयोग लायक ही नहीं बचेगा।

हालांकि अपनी प्रारम्भिक जांच के मुताबिक, भारत सरकार का केन्द्रीय जल संसाधन व नदी विकास मंत्रालय सियांग और ब्रह्मपुत्र में आये कीचड़ व नदी मार्ग में पैदा हुई बाधा का कारण 17 नवंबर को तिब्बत में आये भूकंप को बतासर था; किंतु असम सरकार के जलसंसाधन मंत्री केशव गोगोई द्वारा ब्रह्मपुत्र के पानी को ‘पीने लायक नहीं’ घोषित किए जाने के बाद केन्द्र ने जांच के लिए विशेषज्ञ दल भेजने की बात की है और विदेश मंत्रालय द्वारा इस मसले को चीनी पक्ष के समक्ष उठाने के संकेत दिए गये हैं। मसले को लेकर कूटनीति चाहे जो हो, हक़ीकत यही है कि ब्रह्मपुत्र को भारत आने से पूर्व ही चीनी भू-भाग की ओर से मोड़ लेने का ख्याल अपने आप में काफी चिंताजनक और खतरनाक है। इसकी अनदेखी अनुचित होगी।

क्यों अति महत्वपूर्ण ब्रह्मपुत्र ?

गौरतलब है कि ब्रह्मपुत्र का मूल स्रोत, तिब्बत के आंगसी ग्लेशियर में स्थित है। ब्रह्मपुत्र को इसके तिब्बती भू-भाग में ‘सांगपो’ के संबोधन से जाना जाता है।तिब्बत और भारत के हिस्से में कई प्रवाह ब्रह्मपुत्र से मिलते हैं। सियांग उनमें से एक है। प्रवाह की लंबाई के मामले में ब्रह्मपुत्र का विशाल प्रवाह भारत में 918 किलोमीटर और बांग्ला देश में  363 किलोमीटर की तुलना में यह प्रवाह तिब्बत में ज्यादा लंबाई (1625 किलोमीटर) तय करता है। एक विशाल और वेगवान प्रवाह होने के कारण ही ब्रह्मपुत्र  को नदी न कहकर, नद कहा जाता है। खासियत यह कि ब्रह्मपुत्र, चार हज़ार फीट की ऊंचाई पर बहने वाला दुनिया का एकमात्र प्रवाह है। जल की मात्रा के आधार पर देखें, तो भारत में सबसे बड़ा प्रवाह ही है। वेग की तीव्रता (19,800 क्युबिक मीटर प्रति सेकेण्ड) के आधार पर देखें, तो ब्रह्मपुत्र दुनिया का पांचवां सबसे शक्तिशाली जलप्रवाह है। बाढ़ की स्थिति में यह ब्रह्मपुत्र के वेग की तीव्रता एक लाख क्युबिक मीटर प्रति सेकेण्ड तक जाते देखा गया है। यह वेग की तीव्रता ही है कि ब्रह्मपुत्र एक ऐसे अनोखे प्रवाह के रूप में भी चिन्हित है, जो धारा के विपरीत ज्वार पैदा करने की शक्ति रखता है। ब्रह्मपुत्र की औसत गहराई 124 फीट और अधिकतम गहराई 380 फीट आंकी गई है। 2906 किलोमीटर लंबी यात्रा करने के कारण ब्रह्मपुत्र, दुनिया के सबसे लंबे प्रवाहों में से एक माना गया है। ब्रह्मपुत्र, जहां एक ओर दुनिया के सबसे बडे़ बसावटयुक्त नदद्वीप – माजुली की रचना करने का गौरव रखता है, वहीं एशिया के सबसे छोटे बसवाटयुक्त नदद्वीप उमानंद की रचना का गौरव भी ब्रह्मपुत्र के हिस्से में ही है। सुंदरबन, दुनिया का सबसे बड़ा डेल्टा क्षेत्र है। सच्ची बात यह है कि इतना बड़ा डेल्टा क्षेत्र निर्मित करना अकेले गंगा के बस का भी नहीं था। ब्रह्मपुत्र ने गंगा के साथ मिलकर सुंदरबन का निर्माण किया।

सांस्कृतिक महत्व 

पूर्वोत्तर भारत के लिए ब्रह्मपुत्र का सांस्कृतिक महत्व भी कुछ कम नहीं। चरक संहिता के एक सूक्त पर गौर कीजिए :

रिमण्डलेर्मध्ये मेरुरुत्तम पर्वतः। 

ततः सर्वः समुत्पन्ना वृत्तयो द्विजसत्तमः।। 

हिमालयाधरनोऽम ख्यातो लोकेषु पावकः। 

अर्धयोजन विस्तारः पंच योजन मायतः।।

              यह सूत्र, मेरु पर्वत स्थित आधा योजन यानी चार मील चौड़े और पांच योजन यानी चालीस मील लंबे क्षेत्र को आदिमानव की उत्पत्ति का क्षेत्र मानती है। महर्षि दयानंद रचित ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के आठवें समुल्लास में सृष्टि की रचना ‘त्रिविष्टप’ यानी तिब्बत पर्वत बताया गया है। महाभारत कथा भी देविका नदी के पश्चिम मानसरोवर क्षेत्र को मानव जीवन की नर्सरी मानती है। इस क्षेत्र में देविका के अलावा ऐरावती, वितस्ता, विशाला आदि नदियों का उल्लेख किया गया है। वैज्ञानिक, जिस समशीतोष्ण जलवायु को मानव उत्पत्ति का क्षेत्र मानते हैं, तिब्बत के दक्षिण-पश्चिमी हिस्से में स्थित मानसरोवर ऐसा ही क्षेत्र है। अभी तक मिले साक्ष्यों के आधार पर सृष्टि में मानव उत्पत्ति का मूल स्थान तिब्बत ही है। मान्यता है कि सृष्टि की रचना ब्रह्म ने की। इस नाते मानव, ब्रह्म का पुत्र ही तो हुआ। संभवतः इसी नाते हमारे ज्ञानी पूर्वजों ने मानव उत्पत्ति के मूल स्थान से निकलने वाले प्रवाह का नाम ’ब्रह्मपुत्र’ रखा। वैसे कथानक यह है कि अमोघा ने जिस संतान को जन्म दिया, उसे ब्रह्मपुत्र कहा गया। दूसरे कथानक के अनुसार ऋषि शान्तनु आश्रम के निकट कुण्ड का नाम ब्रह्मकुण्ड था। उससे संबंध होने के कारण इसका नाम ब्रह्मपुत्र हुआ।

              असलियत यह है  कि ब्रह्मपुत्र, पूर्वोत्तर भारत की संस्कृति भी है, सभ्यता भी और अस्मिता भी। ब्रह्मपुत्र, पूर्वोत्तर भारत की लोकास्थाओं में भी है, लोकगीतों में भी और लोकगाथाओं में भी। ब्रह्मपुत्र, भूपेन दा का संगीत भी है और प्रकृति का स्वर प्रतिनिधि भी। पूर्वोत्तर की रमणियों का सौंदर्य भी ब्रह्मपुत्र में प्रतिबिम्बित होता है और आदिवासियों का प्रकृति प्रेम भी और गौरवनाद् भी। आस्थावानों के लिए ब्रह्मपुत्र, ब्रह्म का पुत्र भी है और बूढ़ा लुइत भी। लुइत यानी लोहित यानी रक्तिम। भारत में ब्रह्म के प्रति आस्था का प्रतीक मंदिर भी एकमेव है और  ब्रह्म का पुत्र कहाने वाला प्रवाह भी एकमेव। गंगा नदी, ब्रह्मपुत्र के साथ मिलकर ही सुंदरबन का निर्माण करती है।भौतिक विकास की धारा बहाने वालों की योजना में भी ब्रह्मपुत्र एक ज़रूरत की तरह विद्यमान है, चूंकि एक नद के रूप में ब्रह्मपुत्र एक भौतिकी भी है, भूगोल भी, जैविकी भी, रोज़गार भी, जीवन भी, आजीविका भी, संस्कृति और सभ्यता भी। ब्रह्मपुत्र का यात्रा मार्ग इसका जीता-जागता प्रमाण है।

क्यों उचित नहीं अनदेखी ?

कुल मिलाकर हम ब्रह्मपुत्र नद को पूर्वोत्तर भारत की एक ऐसा नियंता कह सकते हैं, जिसके बगैर पूर्वोत्तर भारत की समृद्धि की कल्पना का चित्र अधूरा ही रहने वाला है। अतः ब्रह्मपुत्र मूल पर चीन की अनैतिक हरकतों की अनदेखी एक ऐसी भूल होगी; जिसकी भरपाई पूवोत्तर भारत के लिए केन्द्र सरकार का भेजा समूचा बजट और योजनायें भी मिलकर न कर सकेंगी।

इस सावधानी की ज़रूरत इसलिए भी है, चूंकि पूर्व में की गई अपनी हरकतों की वजह से चीन भारत का एक ऐसा ताकतवर और षडयंत्रकारी पड़ोसी सिद्ध हो रहा है, जिस पर विश्वास करना भारत को हमेशा मंहगा पड़ा है। पंचशील समझौते के बावजूद आक्रमण, भारतीय सीमा में आये दिन घुसपैठ, अरुणाचल प्रदेश को अपना हिस्सा बताने का दावा, एक ओर प्रधानमंत्री श्री मोदी से गलबंहिया तो दूसरी ओर अंतराष्ट्रीय मंचों में भारतीय दावेदारी का विरोध, नेपाल को भारत की दोस्ती से दूर करने हेतु आर्थिक प्रलोभन, आतंकवादी संगठन जैस-ए-मोहम्मद प्रमुख मसूद अज़हर को प्रतिबंधित करने हेतु संयुक्त राष्ट्र से लगाई भारतीय गुहार को कमजोर करने की चीनी कोशिश तथा सस्ते, किंतु घटिया गुणवत्ता वाले बिना ब्रांड वाले दैनिक उपयोग के सामानों से भारतीय बाज़ार को पाटकर भारत के छोटे कुटीर उद्योगों को मृतप्राय कर देने की चीनी कूटनीति इसकी मिसाल है।

गौर करने की बात है कि चीन की तमाम भारत विरोधी हरकतों के बावजूद, भारत की पूववर्ती केन्द्र सरकारों ने कभी खुलकर विरोध नहीं किया। तिब्बत की निर्वासित सरकार का मुख्यालय भारत में ज़रूर है; भारत में तिब्बतियों को पूरा संरक्षण और सम्मान भी सुलभ है, लेकिन भारत की किसी केन्द्र सरकार ने तिब्बतियों की एक स्वतंत्र राष्ट्र की मांग को किसी उचित अंतर्राष्ट्रीय फोरम पर आगे बढ़ाने का अधिकारिक प्रयास नहीं किया। यह सब स्थिति इस सच की जानकारी के बावजूद रही कि कांटा तो कांटे से ही निकलता है।

इधर पूर्वोत्तर भारत के राज्यों में सत्ता हासिल करने की भारतीय जनता पार्टी की सांगठनिक रणनीति और केन्द्र सरकार द्वारा पूर्वोत्तर के विकास में बजट व एक के बाद एक परियोजना झोंक देने की सोची-समझी नीति ने चीन को भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री व केन्द्रीय शासन की मंशा समझा दी है। अरुणाचल प्रदेश-तिब्बत सीमा के अंतिम नगर तवांग तक रेलवे लाइन, ब्रह्मपुत्र पर पुल, किनारे-किनारे लंबे राजमार्ग, दूरदर्शन के पूर्वोत्तर विशेष चैनल – अरुणप्रभा, सिंगापुर आदि के साथ भारत के सामरिक समझौता, भारत द्वारा खुद की फौजी तैयारी तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रतिनिधियों द्वारा प्रतिवर्ष आयोजित की जाने वाली तवांग तीर्थयात्रा और स्वदेशी जागरण मंच द्वारा चीनी सामानों की होली जलाकर विरोध दर्ज कराने जैसे बाड़बंदी कदमों देखते हुए चीन ने अपनी भारत विरोधी हरकतें तेज कर दी है। ऐसे में ब्रह्मपुत्र मूल में चीनी हरकत की अनदेखी, अपने चीन को उसकी हद में अनुशासित करने के भारतीय प्रयासों के प्रभाव को कमज़ोर करने जैसा आत्मघाती कदम साबित होगा। क्या यह उचित होगा ?

अरुण तिवारी

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