भारत के जिन तीन पूर्वोत्तर राज्यों में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं, आकार में वे राज्य भले ही छोटे हैं लेकिन उनकी राजनीतिक अहमियत को कम नहीं आंका जा सकता. नगालैंड, मेघालय और त्रिपुरा विधानसभा चुनाव की तारीखों की घोषणा हो चुकी है. जहां कांग्रेस के लिए अपने वजूद को कायम रखने की चुनौती दिखाई दे रही है वहीँ भाजपा इन तीनों राज्यों में जीत हासिल करने के मंसूबे बना रही है.
1993 में त्रिपुरा में कांग्रेस को परास्त कर सत्ता में आये वाम मोर्चे को इस बार कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है. वाम मोर्चे में 50 विधायक हैं, जिनमें एक विधायक भाकपा का और 49 विधायक माकपा के हैं. केरल के बाद त्रिपुरा ही देश में ऐसा राज्य है जहां माकपा की सरकार है और इस चुनाव में मुख्यमंत्री मानिक सरकार की लोकप्रियता की भी परीक्षा होने वाली है, जो देश में लम्बे समय तक मुख्यमंत्री के पद पर बने रहने वाले नेताओं में से एक हैं.
वर्ष 2013 के चुनाव में 90 फीसदी मतदाताओं ने मताधिकार का प्रयोग किया था. त्रिपुरा ने सामाजिक क्षेत्र में काफी प्रगति की है. राज्य में लगभग पूरी आबादी साक्षर है और शिशु मृत्यु दर कम है. कृषि आधारित अर्थव्यवस्था होने के बावजूद मानव विकास सूचकांक में राज्य का स्थान ऊपर है. माकपा के लम्बे शासनकाल में जनजातीय उग्रवाद का अंत हो चुका है और सामाजिक क्षेत्र में राज्य ने काफी प्रगति की है. लेकिन चुनाव के दौरान माकपा को जनभावना से जुड़े सरोकारों का सामना करना पडेगा. बेरोजगारी की समस्या को लेकर युवाओं में असंतोष बढ़ता गया है. माकपा को मुख्य विपक्षी दल के तौर पर इस बार कांग्रेस की जगह भाजपा का मुकाबला करना पड़ेगा. भाजपा पूरा ध्यान जनजातीय मतदाताओं को लुभाने पर केन्द्रित कर रही है जिनकी तादाद कुल आबादी में 32 फीसदी है.
आदिवासियों के वोट हासिल करने के लिए भारतीय जनता पार्टी ने इंडिजीनियस पीपल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा (IPFT) के साथ गठजोड़ किया है. भाजपा ने असम के मंत्री हिमंत विश्व शर्मा को चुनाव का प्रभारी बनाया है. पिछले दो सालों में पूर्वोत्तर के तीन राज्य असम, अरुणाचल प्रदेश और मणिपुर में भाजपा की सरकार बनाने में शर्मा ने निर्णायक भूमिका निभाई है.
त्रिपुरा में कांग्रेस को अंदरूनी असंतोष का सामना करना पड़ रहा है. 2013 के चुनाव में कांग्रेस को 10 सीट मिली थी, जो अब सिमटकर तीन रह गई है. उसके छह विधायक पहले तृणमूल कांग्रेस में शामिल हुए और फिर पिछले साल भाजपा में शामिल हो गए. एक और विधायक ने दो महीने पहले भाजपा का दामन थाम लिया.
नगालैंड में चुनाव से पहले नाटकीय मोड़ उस समय आया जब सभी राजनीतिक पार्टियों ने नगा मसले को हल किये बिना चुनाव का बहिष्कार करने की घोषणा कर दी. बाद में भाजपा ने बहिष्कार से खुद को अलग कर लिया. भाजपा ने अपने पुराने राजनीतिक साझीदार एनपीएफ से सीटों को लेकर तालमेल नहीं बैठने पर चुनाव के लिए नेफ्यू रिओ की पार्टी एनडीपीपी के साथ गठबंधन कर लिया है. राज्य में पिछले 15 से भाजपा की साझेदारी नगा पीपुल्स फ्रंट (एनपीएफ) के साथ थी और यह सत्ताधारी डेमोक्रेटिक अलायन्स ऑफ़ नगालैंड का अंग बनी रही थी. मुख्यमंत्री टी आर ज़िलियांग ने हाल ही में राज्य के अनुभवी नेता एस लिजित्सू से सुलह की है, जिनको उन्होंने जुलाई 2017 में हटा दिया था. वर्चस्व की जंग में जिलियांग को नेफ्यू रिओ से पराजित होना पड़ा.रिओ ने 2014 में लोकसभा चुनाव लड़ते समय मुख्यमंत्री का पद जिलियांग को सौंप दिया था. लेकिन पिछले दो सालों में वर्चस्व की जंग शुरू होने पर जिलियांग के साथ उनके रिश्ते बिगड़ते गए, फ़रवरी 2017 में रिओ के इशारे पर जिलियांग को कुर्सी गंवानी पड़ी और लिजित्सू मुख्यमंत्री बनाये गए. फिर पांच महीने बाद समीकरण में बदलाव पर रिओ ने जिलियांग को मुख्यमंत्री बना दिया.
चुनाव से पहले रिओ ने एनपीएफ को छोड़ दिया और नवगठित पार्टी नेशनलिस्ट डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी (एनडीपीपी) में शामिल हो गए. इसी पार्टी के साथ भाजपा ने भी गठबंधन कर लिया है. एनपीएफ से दो बार निलम्बित हो चुके रिओ के साथ नई पार्टी में पूर्व सांसद सी कोनयाक और पूर्व आईएएस अधिकारी ए. जमीर हैं.
एनपीएफ को पिछले कुछ दिनों से अंतर्कलह से जूझना पड़ रहा है. पिछले महीने मुख्यमंत्री जिलियांग ने भाजपा के एम किकोन सहित छह मंत्रियों को निलम्बित कर दिया. एक और मंत्री वाई पेटन इस्तीफ़ा देकर भाजपा में शामिल हो गए हैं.
60 सदस्यीय नगालैंड विधानसभा में एनपीएफ के 48, भाजपा के चार और आठ निर्दलीय विधायक हैं. कांग्रेस के पास एक भी सीट नहीं है.
पूर्वोत्तर में हाल के दिनों में भाजपा का नाटकीय रूप से उत्त्थान हुआ है. मई 2016 में असम में कांग्रेस को सत्ता से हटाने के छह महीने बाद ही अरुणाचल प्रदेश में उसने मुख्यमंत्री पेमा खांडू सहित कांग्रेस के 43 विधायकों को अपने साथ लेकर सरकार बनाई. मार्च 2017 में चुनाव में कांग्रेस भले ही सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी, मगर भाजपा ने ही सरकार बनाई.
लेकिन ईसाई बहुल नगालैंड और मेघालय में भाजपा की राह आसान नहीं है. गौ रक्षा अभियान के नाम पर देश भर में हिंसा, बीफ बैन और चर्चों पर हमले की वजह से उसकी छवि जीत की राह में बाधक बन सकती है. मेघालय में भाजपा ने केन्द्रीय पर्यटन मंत्री के जे अलफोंस को चुनाव का प्रभारी बनाया है, जो अपने गृह राज्य में बीफ समर्थन के लिए जाने जाते हैं. भाजपा को उम्मीद है कि इस तरह लोगों के मन से बीफ बैन के मुद्दे पर नाराजगी को दूर किया जा सकता है.
मेघालय में कोई जनाधार नहीं होने के चलते भाजपा ने नेशनलिस्ट पीपुल्स पार्टी (एनपीपी) के साथ हाथ मिलाकर सत्ताधारी कांग्रेस को परास्त करने की जो रणनीति बनाई थी, उसे उस समय धक्का लगा जब एनपीपी नेता कौनराड संगमा ने भाजपा के साथ गठजोड़ करने से इनकार कर दिया और अपने बूते पर चुनाव लड़ने का फैसला किया. एनपीपी की स्थापना पूर्व लोकसभाध्यक्ष पी.ए. संगमा ने की थी और कौनराड उनके पुत्र हैं. कौनराड को उम्मीद है कि उनकी पार्टी अपने बूते पर ही कांग्रेस को पराजित करने में सफल होगी. इस बीच कांग्रेस के आठ विधायक एनपीपी में शामिल हो चुके हैं. भ्रष्टाचार के आरोपों के बावजूद मुख्यमंत्री मुकुल संगमा कांग्रेस की जीत को लेकर आश्वस्त हैं. उनका दावा है कि उनकी सरकार के आने के बाद राज्य में राजनीतिक अस्थिरता का दौर खत्म हुआ है. पर्यवेक्षकों को लगता है कि विपक्षी पार्टी यूनाइटेड डेमोक्रेटिक पार्टी और निर्दलीय विधायक किंगमेकर की भूमिका निभा सकते हैं.
दिनकर कुमार
लेखक गुवाहाटी के दैनिक अखबार सेण्टाइन के संपादक हैं.
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पूर्वोत्तर में अपने विजय रथ को आगे बढ़ाते हुए भारतीय जनता पार्टी ने अब त्रिपुरा में वाममोर्चा के किला पर कब्जा करने के लिए पूरी ताकत झोंक दी है। उसने अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए क्षेत्रीय दल आईपीएफटी के साथ हाथ मिला दिया है। यह पार्टी स्थानीय आदिवासियों के वर्चस्व की मांग करती आई है। त्रिपुरा की साठ सदस्यीय विधानसभा के लिए 18 फरवरी को चुनाव होने हैं।
त्रिपुरा में भाजपा के प्रचार का नेतृत्व असम के मंत्री तथा नार्थ ईस्ट डेमोक्रेटिक एलायंस (नेडा) के संयोजक डा. हिमंत विश्व शर्मा रहे हैं। वे सफल रणनीतिकार माने जाते है। असम में भाजपा को विजय दिलाने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इसलिए भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने त्रिपुरा में वाममोर्चा के गढ़ में सेंध लगाने की जिम्मेदारी सौंपी है। यह अलग बात है कि मुख्यमंत्री माणिक सरकार की निजी छवि और व्यक्तित्व भाजपा के प्रयासों पर भारी पड़ रहा है। वह 20 साल से सत्ता संभाले हुए हैं।
यह बात भी ध्यान में रखनी होगी कि असम समेत पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों की तुलना में त्रिपुरा की राजनीति अलग है। वहां पर पिछले 25 वर्षों से वाममोर्चा की सरकार है। मुख्यमंत्री की स्वच्छ छवि की वजह से सरकारी योजनाओं का लाभ पंचायत तक पहुंचा है और मार्क्सवादी कम्यनुस्टि पार्टी का संगठन गांव-गांव तक फैला है। केंद्र की उपेक्षा के बावजूद सरकारी योजनाओं की गुणवत्ता की जांच पंचायत स्तर के पदाधिकारी करते हैं। पंचायतों की बैठकों में योजनाओं की समीक्षा होती है और योग्य व जरूरतमंद लाभार्थियों की सूची तैयार होती है। यही वजह है कि माकपा की जड़ें गहरी हैं। केंद्र सरकार के भेदभाव के बावजूद केंद्रीय योजनाओं को सही क्रियान्वयन माणिक सरकार की सबसे बड़ी उपलिब्ध है। खुद माणिक सरकार की जीवनशैली जनता के लिए उदाहरण है। वे देश के सबसे गरीब मुख्यमंत्री हैं और उनकी निजी संपत्ति लगातार कम होती जा रही है। यही वजह है कि भाजपा मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने से बच रही है। आईपीएफटी के साथ एक गठबंधन को अंतिम रूप देने के बाद नार्थ ईस्ट डेमोक्रेटिक एलायंस (नेडा) के प्रमुख हिमंत विश्व शर्मा ने कहा कि दोनों पार्टियां त्रिपुरा के मूल निवासियों की सामाजिक-आर्थिक, शैक्षणिक, भाषायी और राजनीतिक आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए एक साझा न्यूनतम कार्यक्रम बनाने को लेकर सहमत हुई। उन्होंने कहा कि भाजपा और इंडीजेनियस पीपुल्स फ्रंट आफ त्रिपुरा (आईपीएफटी) के बीच गठबंधन लोगों की मांग के सम्मान में और वाम विरोधी वोटों के बिखराव को रोकने के लिए किया गया है। उन्होंने कहा, ‘हमें इस बारे में संदेह नहीं है कि हम माकपा नेतृत्ववाली वाम मोर्चा से शासन अपने हाथों में ले लेंगे। उनका कहना है कि लोग पिछले 25 साल में माकपा के कुशासन और अत्याचार से तंग आ गए हैं और वे बदलाव चाहते हैं।
आईपीएफटी पर अलगावादी होने का आरोप लगता रहा है। यह एक आदिवासी बहुल पार्टी है। इसका वजूद 1997 से 2001 तक रहा था। 2009 में यह इंडेजेनियस नेशनलिस्ट पार्टी आफ त्रिपुरा (आईएनपीटी) में शामिल हो गई। जिसे उग्रवादी संगठन नेशनल लिबरेशन फ्रंट आफ त्रिपुरा का समर्थन रहा है। सन 2000 के स्थानीय निकायों के चुनाव में उग्रवादी संगठन त्रिपुरा नेशनल वालिंटीयर ने इसका समर्थन किया था। सन 2003 के विधानसभा चुनावों ने आईएनपीटी ने कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ा और छह सीटों पर कब्जा किया था। बाद में इसमें फूट पड़ गई। 2009 के लोकसभा चुनाव के पहले इंडेजेनियस पीपुल्स पार्टी आफ त्रिपुरा का फिर से पुनर्गठन किया गया। जिसकी मुख्य मांग आदिवासी स्वायत्त परिषद को इलाके में अलग त्रिपुरालैंड नामक राज्य की मांग है। लेकिन लोकसभा की दोनों सीटों पर इसे नाममात्र का मत मिला।
यही वजह है कि माकपा महासचिव सीताराम येचुरी ने भाजपा पर दोहरे मापदंड अपनाने का आरोप लगाया है। उनका कहना है कि भाजपा पूरे देश में खुद को राष्ट्रवादी ताकत के तौर पर पेश करती है, लेकिन त्रिपुरा में ‘अतिवादी संगठनों’ के साथ हाथ मिला लिया है। भाजपा वाम विरोधी ताकतों और अतिवादी संगठनों को साथ लाने की कोशिश कर रही है। उसनेआईपीएफटी के साथ गठबंधन भी कर लिया है। इसके जवाब में भाजपा के त्रिपुरा प्रभारी सुनील देवधर ने दावा किया कि आईपीएफटी त्रिपुरालैंड या पृथक राज्य की मांग नहीं उठाएगा। भाजपा ने त्रिपुरा के जनजातीय लोगों की समस्याओं के समाधान का भी आश्वासन दिया है। हम राज्य के सामाजिक-आर्थिक, सामाजिक-सांस्कृतिक और भाषायी चिंताओं के समाधान पर सहमत हुए हैं। इसके विपरीत भाजपा जनजातियों को अधिक स्वायत्तता देना चाहती है जिनका राज्य की आबादी में एक तिहाई हिस्सा है।
माकपा भी समझ रही है कि चुनाव में भाजपा की दिलस्पी की वजह से सही उम्मीदवारों का चयन जरूरी है। जिनकी छवि ठीक नहीं हैं, वैसे उम्मीदवारों को इस बार टिकट नहीं दिया गया है। वाममोर्चा ने इस बार 12 नए चेहरे को मैदान में उतारा है। लेकिन अधिकतर पुराने नेताओं को इसमें जगह दी गयी है। सत्तारूढ़ गठबंधन में शामिल तीन मुख्य दल आरएसपी, भाकपा और फॉरवर्ड ब्लॉक को एक-एक सीट दी गयी। पिछले चुनाव में इन्हें दो-दो सीटें दी गयी थीं।
दिलचस्प बात यह है कि पिछले चुनावों में माकपा को चुनौती देने वाली कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस इस बार हाशिए पर हैं और भाजपा दूसरे नंबर की पार्टी बन गई है। तृणमूल के विधायक भाजपा में शामिल हो गए हैं। जमीनी हकीकत को देखते हुए तृणमूल कांग्रेस प्रमुख और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी इस बार त्रिपुरा चुनाव में ज्यादा दिलचस्पी नहीं ले रही हैं। त्रिपुरा चुनाव में क्या भाजपा का खाता खुल पाएगा, हालांकि भाजपा बहुमत का दावा कर रही है और इसके लिए हर तरह का प्रयास कर रही है।
रविशंकर रवि
लेखक दैनिक पूर्वोदय के संपादक हैं।
वैकल्पिक पत्रकारिता की बात करना आसान है, लेकिन उस प्रतिबद्धता का निर्वाह मुश्किल है। इन तमाम मुश्किलों के बावजूद ‘सबलोग’ पत्रिका ने 9 साल की यात्रा पूरी की है। अगर आप चाहते हैं कि सबलोग ने जो वैचारिक पहल की है वह जारी रहे तो अनुरोध है कि PayTM का QR कोड स्कैन करें और यथासंभव आर्थिक सहयोग करें।
भगत सिंह का जन्म 28 सितम्बर 1907 को बंगा, लायलपुर, पंजाब (अब पाकिस्तान) में हुआ था। देशभक्ति उन्हें विरासत में मिली थी। जिस दिन भगत सिंह का जन्म हुआ था उसी दिन उनके पिता सरदार किशन सिंह, चाचा सरदार अजीत सिंह, सरदार स्वर्ण सिंह जेल से रिहा हुए थे। इसलिए उनकी दादी ने उनका नाम भागोवाला रखा जो आगे चल कर भगत सिंह के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उनके चाचा सरदार अजीत सिंह और सरदार स्वर्ण सिंह का जुड़ाव क्रांतिकारी आन्दोलन से था। पिता सरदार किशन सिंह कांग्रेस के सक्रिय सदस्य थे।
देशभक्ति भगत सिंह में कूट-कूट कर भरी थी। देश के लिए जीना और मरना उनके जीवन का मकसद हो गया था। देश का राजनैतिक माहौल तेजी से बदल रहा था। तिलक के बाद कांग्रेस की कमान गांधी जी ने संभाली थी। असहयोग आन्दोलन ने आजादी की लड़ाई में जान फूंक दी थी। देश उबाल पर था। इस माहौल में भगत सिंह का तरुण मन भला कैसे चुपचाप बैठे रह सकता था। भगत सिंह इस आंदोलन में शरीक हुए। उन्होंने डीएवी कॉलेज छोड़ कर नेशनल स्कूल में दाखिला लिया। लेकिन गांधीजी ने अचानक चौरी चौरा कांड के बाद असहयोग आंदोलन वापस ले लिया। पूरा देश गांधी जी के इस फैसले से अवाक, हतप्रभ रह गया। इसका प्रभाव भगत सिंह के मन पर भी पड़ा। इस अप्रत्याशित घटना ने भगत सिह को क्रांतिकारी आंदोलन की ओर मोड़ दिया।
भगत सिंह की लड़ाई साम्राज्यवाद और साम्प्रदायिकता दोनों के खिलाफ थी। वे एक ऐसे राष्ट्र का निर्माण करना चाहते थे जिसमें व्यक्ति के व्यक्ति का और राष्ट्र के द्वारा राष्ट्र का शोषण नहीं हो। गांधी जी के लिए स्वराज का मतलब समाज के अंतिम व्यक्ति को यह एहसास हो कि वह आजाद है और देश के विकास में उसका महत्वपूर्ण योगदान है। जाहिर है स्वराज प्राप्ति के लक्ष्य को ले कर दोनों में कोई मतभेद नहीं था। भगत सिंह का युवा मन अंग्रेजों के अत्याचार से उद्वेलित हो जाता है। वे उसे सबक सिखाने और बदला लेना अनुचित नहीं मानते हैं। तभी तो लाला लाजपत राय के खिलाफ अभियान चलाने वाले भगत सिंह लाठीचार्ज के कारण लाला जी की मृत्यु का बदला लेने की योजना की अगुवाई करते हैं, जो उनके शहादत का कारण बना। दूसरी तरफ अहिंसा के अनन्य उपासक महात्मा गांधी अहिंसा के माध्यम से स्वराज्य प्राप्त करना चाहते थे जिसे भगत सिंह असंभव सपना मानते थे।
स्वराज्य प्राप्ति के तरीकों में मतभेद के बावजूद भगत सिंह यह मानते थे कि स्वराज के लिए लोगों में जागरण का जितना काम गांधी जी ने किया उतना किसी अन्य ने नहीं किया। इसलिए वे गांधी जी की बहुत इज्जत करते थे। गांधी जी भी भगत सिंह की बहादुरी और देशभक्ति के कायल थे।
इतिहास अतीत से सबक सीखने के लिए है, बदला लेने अथवा महापुरूषों को एक दूसरे के खिलाफ खड़ा करने और लड़ाने के लिए नहीं है। मगर कुछ संक्रीर्ण मानसिकता वाले गांधी बनाम भगत सिंह की नकली विवाद खड़ा कर रहे हैं। खासकर युवाओं को गुमराह कर रहे हैं। जनता का ध्यान मूल सवाल से हटाने के लिए वे लोग फर्जी बहस एवं मुद्दे खड़ा करते हैं। विशेषकर युवाओं में यह भ्रम फैलाया गया है कि अगर गांधी चाहते तो भगत सिंह को बचा सकते थे। जो लोग यह बात कह रहे हैं उन्होंने न तो गांधी को समझा है और न भगत सिंह को। क्या वे समझते हैं कि भगत सिंह जिनका मिशन ब्रिटिश हुकूमत को देश से उखाड़ फेंकने के लिए देश को जगाना था, वह स्वाभिमानी देशभक्त युवा भगत सिंह क्या अंग्रेजों की भीख दी हुई जिंदगी जीना पसंद करते। इस संदर्भ में भगत सिंह का 22 मार्च 1931 को अपने साथियों को लिखा पत्र गौर करने लायक है। उन्होंने लिखा, ‘साथियों, स्वभाविक है कि जीने की इच्छा मुझमें होनी चाहिए, मैं इसे छिपाना नहीं चाहता। लेकिन मैं एक शर्त पर जिन्दा रह सकता हूं कि कैद होकर या पाबंद हो कर जीना नहीं चाहता। मेरा नाम हिन्दुस्तानी क्रांति का प्रतीक बन चुका है और क्रांतिकारी दलों के आदर्शों और कुर्बानियों ने मुझे बहुत ऊँचा उठा दिया है- इतना ऊँचा कि जीवित रहने की स्थिति में इससे ऊँचा हरगिज नहीं हो सकता। आज मेरी कमजोरियां जनता के समने नहीं हैं। अगर मैं फाँसी से बच गया तो वे जाहिर हो जाएंगी और क्रांति का प्रतीक चिह्न मद्धिम पड़ जाएगा या संभवत: मिट ही जाए।
‘दूसरा भगत सिंह को फांसी एसेम्बली बम कांड के लिए नहीं हुई थी, इस कांड में उन्हें आजीवन कारावास हुआ था। उन्हें फांसी दिलवाने में उनके एचएसआरए के क्रांतिकारी साथियों, जय गोपाल और हंसराज वोहरा का हाथ था जो सरकारी गवाह बन गये थे सैण्डर्स हत्याकाण्ड में। इसकी चर्चा प्राय: नहीं होती है, क्यों? इसकी चर्चा करने से तो झूठ और पाखण्ड का भंडाफोड़ हो जायेगा। जरा इस प्रसंग पर गौर कीजिए। “इधर मुकदमें की कार्रवाई प्रारंभ हो गई थी। सामने भगत सिंह ने जय गोपाल को देखा जो अपनी मूंछें ऐंठ रहा था, जब भगत सिंह से उसकी आँख मिली उल्टे उसने भगत सिंह पर गालियों की बौछार की शुरूआत कर दी। …भगत सिंह अचरज से जय गोपाल को देख रहे थे जिनके बारे में कभी भगत सिंह ने कहा था कि वह एच एस आर ए का गहना है।” भगत सिंह ही क्या किसी क्रांतिकारी ने कभी कल्पना में भी नहीं सोचा था कि उनके अपने दल के साथी उन्हें फांसी के फंदा तक पहुंचाने के कारण बनेंगे।
खुद भगत सिंह गांधी के बारे में क्या सोचते थे, अब जरा इस पर गौर करें। भगत सिंह जब जेल में राजनैतिक बंदियों पर राजनैतिक बंदियों जैसा बर्ताव किया जाय के प्रश्न पर अनशन कर रहे थे इस अनशन में क्रांतिकारी जतिन दास की मृत्यु हो गई थी। भगत सिंह की हालत बिगड़ रही थी। देश में चिंताएं बढ़ रही थीं। कांग्रेस ने एक प्रस्ताव पारित कर भगत सिंह से अनशन तोड़ने का आग्रह किया। कांग्रेस का प्रस्ताव लेकर उनके पिता सरदार किशन सिंह भगत सिंह के पास गये। उन्होंने भगत सिंह से कहा “बेटा कांग्रेस पार्टी ने तुमसे आग्रह किया है कि तुम लोग इस अनशन को छोड़ दो।” भगत सिंह ने कहा कि हम सभी क्रांतिकारी इस पार्टी की इज्जत करते हैं, क्योंकि हम सब को पता है कि इसने देश की आजादी के लिए कितने संघर्ष किए है। पर हाँ, यह भी सही है कि महात्मा गांधी के अहिंसापूर्ण तरीके से देश की आजादी प्राप्त करने को मैं असंभव सपना मानता हूँ। …मगर इस बात से कौन इनकार करेगा करेगा कि भारत में किसी ने जागरण लाया है तो यह काम गांधी जी ने किया है। …इस कारण मैं उनकी इज्जत करता हूँ।” स्पष्ट है अंग्रेजों से लड़ाई के तरीकों को लेकर भगत सिंह और गांधी में मतभेद थे। मगर इसके साथ ही भगत सिंह गांधी के काम को सर्वाधिक महत्त्व का मानते थे और इस कारण उनकी बहुत इज्जत करते थे।
इस बारे में सुभाष चंद्र बोस का बयान महत्त्वपूर्ण है।
सुभाष चंद्र बोस कहते हैं कि “जैसे ही मुम्बई की ट्रेन से हम लोग दिल्ली पहुंचे कि महात्माजी को खबर मिली कि सरकार ने लाहौर षड्यंत्र के सरदार भगत सिंह और उनके साथियों को फांसी पर चढ़ाने का फैसला कर लिया है। इन युवकों को बचाने के लिए महात्मा जी से कहा गया और उन्होंने उन्हें बचाने के लिए अधिक से अधिक कोशिश की। वायसराय ने स्वयं गांधीजी से कहा था कि मुझे तीन बंदियों की फांसी की सजा को रद्द करने के बारे में बहुत से लोगों के हस्ताक्षर सहित अर्जी मिली है। फिलहाल मैं इस फांसी की सजा को स्थगित कर दे रहा हूँ और बाद में इस मामले पर गम्भीरता से विचार करूँगा। लेकिन इससे अधिक मुझ पर इस समय और अधिक दबाव न डाला जाय।”
स्वयं गांधीजी ने कांग्रेस के कराची अधिवेशन में, जो भगत सिंह के फांसी के तुरंत बाद में हुई थी, एक प्रश्न के उत्तर में कहा था “मैं वायसराय को जिस तरह से समझा सकता था, उस तरह से समझाया। समझाने की जितनी क्षमता मुझमें थी, सब मैंने उनपर आजमा कर देखी। भगत सिंह के परिवार वालों के साथ निश्चित आखिरी मुलाकात के दिन अर्थात 23 मार्च को सबेरे मैंने वायसराय को एक खानगी खत लिखा। उसमें मैंने अपनी सारी आत्मा उड़ेल दी, सब बेकार गया। आप कहेंगे कि मुझे एक बात और करनी चाहिए थी – सजा को घटाने के लिए समझौते में एक शर्त रखनी चाहिए थी पर फांसी की सजा समझौते के बाद सुनाई गई। अब ऐसा नहीं हो सकता था।” स्पष्ट है जो लोग यह प्रचार कर रहे है कि गांधी जी ने भगत सिंह को बचाने का प्रयास नहीं किया इसका कोई ऐतिहासिक आधार नहीं है, यह पूरी तरह भ्रामक और असत्य है। वे कौन लोग हैं जो सुनियोजित ढंग है गांधी के बारे में झूठ और भ्रम फैलाकर लोगों को गुमराह कर रहे हैं। ये वो लोग हैं जिन्होंने आजादी की लड़ाई में अंग्रेजों का साथ दिया था, अब अपना खोटापन को छिपाने के लिए गांधी के खिलाफ समाज में गहर फैलाने के कुत्सित प्रयास में लगे हैं। इस अभियान में दक्षिणपंथी और वामपंथी दोनो शामिल हैं।
भगत सिंह साम्प्रदायिकता को भी उतनी ही बड़ा दुश्मन मानते थे, जितना साम्राज्यवाद को। भगत सिंह ने जिस नौजवान सभा की संरचना की उसने सर्वसम्मति से यह प्रस्ताव भगत सिंह की अगुआई में पारित किया कि किसी भी धार्मिक संगठन से जुड़े नौजवान को उसमें शामिल नहीं किया जा सकता क्योकि धर्म व्यक्ति का निजी मामला है और साम्प्रदायिकता हमारी दुश्मन है जिसका हर हालत में विरोध किया जाना चाहिए।
1919 में जालियांवाला बाग हत्याकाण्ड के बाद ब्रिटिश सरकार ने साम्प्रदायिक दंगों का खूब प्रचार शुरू किया। इसके असर से 1924 में कोहाट में बहुत ही अमानवीय ढंग से हिन्दू-मुस्लिम दंगे हुए। उसके बाद राष्ट्रीय राजनीति चेतना में साम्प्रदायिक दंगों पर लम्बी बहस चली। इस मौके पर भगत सिंह ने जो विचार व्यक्त किए वह गौर करने लायक है। “भारतवर्ष की दशा इस समय अत्यन्त दयनीय है। एक धर्म के अनुयायी दूसरे धर्म के अनुयायियों की जान के दुश्मन हैं। …यह मार-काट इसलिए नहीं है कि फलां आदमी दोषी है, वरना इसलिए कि फलां आदमी हिन्दू है या सिख है या मुसलमान है। ऐसी स्थिति में हिन्दुस्तान का भविष्य अंधकारमय नजर आता है। इन दंगों ने संसार की नजर में भारत को बदनाम किया है। इन दंगों के पीछे साम्प्रदायिक नेताओं और अखबार का हाथ है।” भगत सिंह लाला लाजपत राय की बहुत इज्जत करते थे। यह मालूम होते ही कि लाला लाजपत राय का रुझान साम्प्रदायिक होने लगा है तो उन्होंने उनकी विचार धारा के खिलाफ एक मुहिम छेड़ दी। …जिसमें बड़े- बड़े बैनरों पर लाला जी का चित्र बना कर उन्हें मरा हुआ नेता लिख कर लाहौर में बंटवाया।
आज एक बार फिर देश का साम्प्रदायिक माहौल बिगड़ रहा है। जो काम कभी अंग्रेजी हुकूमत करती थी वही काम इस समय देश का शासकवर्ग कर रहा है। देश का साम्प्रदायिक वातावरण बिगाड़ने, लोगों को बांटने और शासन करने की साजिशें परवान चढ़ रही हैं। ऐसे में भगत सिंह का साम्प्रदायिकता पर स्पष्ट विचार इस घने अंधकार में प्रकाशपुंज की तरह हमारा मार्गदर्शन कर सकता है। आजादी के दौर और उसके बाद के वर्षों में जिस दृष्टि, मूल्य, विचार एवं कार्यक्रम पर राष्ट्रीय सहमति थी उसको चुनौती देने वाली और राष्ट्र को विपरीत में ले जाने वाली कटिबद्ध ताकतें आज हाशिए से केन्द्र में आ गई हैं। उग्र राष्ट्रवादी एवं पुनरुत्थानवादी ताकतें आज उभार पर हैं। प्राचीन सभ्यता वाले देशों में भारत ही अकेला है जिसके जीवन में आज भी उसकी पुरानी संस्कृति के उदात्त मानवीय मूल्य एवं समता वाली दृष्टि की छाप मौजूद है। संयम, सह अस्तित्व एवं समन्वय भारतीय संस्कृति की आत्मा है।
भगत सिंह ने साम्राज्यवाद को इस देश से उखाड़ फेंकने तथा इसके लिए देश, विशेषकर युवाओं को जगाने के लिए आपना आत्म बलिदान दिया। आज साम्राज्यवाद पहले से ज्यादा खतरनाक रूप में देश को अपने चपेट में ले चुका है। साम्प्रदायिक एवं फासीवादी शक्तियां देश का साम्प्रदायिक माहौल बिगाड़ने तथा सदियों से कायम गंगा-यमुनी संस्कृति को खत्म करने में लगी हैं। ऐसे में बड़ा सवाल यही है कि भगत सिंह के विचार को मानने वाले, उनसे प्रेरणा लेने वाले युवा क्या आज भगत सिंह की विरासत संभालने के लिए तैयार है? देश को इन्तजार है ऐसे देशभक्त सपूतों का जो भगत सिंह के विचार एवं देशभक्ति की परम्परा को आगे बढ़ाएं।
अशोक भारत
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संदर्भ : 1. गांधी और भगत सिंह , ले. सुजाता, सर्व सेवा संघ प्रकाशन, राजघाट, वाराणसी
तिल का ताड़ कैसे बनता है और किसी बयान को नेतागण किस प्रकार तोड़-मरोड़कर अपने हित में प्रचारित करते हैं- इसका ताजा उदाहरण प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी का हाल ही में दिया गया पकौड़े बेच कर रोजगार पाने वाला बयान है। माननीय प्रधानमंत्री जी ने लोकसभा चुनाव के समय युवाओं को रोजगार देने का बड़ा प्रलोभन दिया था और इसका राजनीतिक लाभ भी उनके दल को मिला किन्तु चुनाव के बाद की स्थितियाँ स्पष्ट करती हैं कि उनका रोजगार सम्बंधी वादा दूर-दूर तक पूरा नहीं हुआ है और इसी की बौखलाहट उनके इस बयान में जाहिर हो रही है।
व्यावहारिक स्तर पर रोजगार के अन्तर्गत सरकारी-गैर सरकारी नौकरियों सहित व्यक्तिगत और सामूहिक स्तर पर किए जाने वाले समस्त व्यवसाय आते हैं, किन्तु आज का युवा रोजगार के रुप में किसी देशी-विदेशी कंपनी की नौकरी अथवा सरकारी-गैरसरकारी संस्था की नौकरी को ही रोजगार समझता है। इसी अर्थ में उसने वर्तमान प्रधानमंत्री के वायदे को ग्रहण किया था किन्तु जब उसे उसकी पूर्व धारणा के विपरीत पकौड़ा व्यवसाय जैसी सस्ती और पारम्परिक व्यवस्था की सलाह दी गई तो बेरोजगार युवा वर्ग का आक्रोशित होना स्वाभाविक ही है।
प्रश्न यह भी है कि मूँगफली, चाट, पकौड़ा, भेलपूरी, खिलौने, फल, मिठाई जैसे व्यवसाय करने के लिए विद्यालयों-विश्वविद्यालयों की बड़ी-बड़ी डिग्रियाँ प्राप्त करने की क्या आवश्यकता है ? ये कार्य तो बिना डिग्रियों के भी भली-भांति किए जा सकते हैं। फिर हमारी सरकारें इन डिग्रियों को प्रोत्साहन क्यों करती हैं ? उच्च शिक्षा के नाम पर करोड़ों रुपये क्यों खर्च किये जाते हैं ? उच्च शिक्षित बेरोजगार डाक्टरों , इंजीनियरों और अन्य डिग्री धारकों को ऐसे व्यवसायों की सलाह दिया जाना कहाँ तक उचित है ? निश्चय ही ऐसा बयान प्रधानमंत्री जी की गरिमा के अनुरुप नहीं कहा जा सकता ।
यह रोचक है कि होटल मैनेजमेंट, कैटरिंग जैसे बड़े व्यवसायों में तो खाने-पीने की चीजें बनाने-बेचने को तो सम्मानजनक समझा जाता है जबकि छोटे स्तर पर स्टाल या ठेले पर यही व्यवसाय तुच्छ माना जा रहा है और विपक्षी दलों के नेता प्रधानमंत्री के बयान को गलत दिशा में व्याख्यायित करके सियासी रोटियाँ सेंकने में लगे हैं। यह दुखद है कि क्योंकि ईमानदारी से रोजी-रोटी कमाने का कोई भी काम कभी छोटा नहीं कहा जा सकता। बड़े-बड़े पदों पर बैठकर भ्रष्टाचार करके मोटी-मोटी रकम डकारने वालों से तो इस देश के ठेले वाले, बूट पॉलिस वाले, रिक्शा चालक और मेहनत कश मजदूर-किसान लाख दर्जा अच्छे हैं। उनके छोटे समझे जाने वाले व्यवसाय निश्चय ही महान हैं क्योंकि उनमें मेहनत का रंग और ईमानदारी की खुशबू है। इसलिए पकौड़े बेचकर उनका उपहास करने की ओछी राजनीति की जितनी निन्दा की जाय कम है।
चुनावी घोषणापत्र में किए गए वायदों को पूरा करना सत्ताधारी दल की नैतिक जिम्मेदारी होती है और इस दृष्टि से रोजगार देने का कार्य वर्तमान सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए। इससे इनकार नहीं किया जा सकता किन्तु कांग्रेस एवं अन्य विपक्षी दल रोजगार के वायदे को लेकर जिस प्रकार सरकार की टाँग खींच रहे हैं वह शर्मनाक है, क्योंकि ऐसे चुनावी वादे इन दलों ने भी सत्ता में आने पर कभी पूरे नहीं किए हैं। जिनके अपने चेहरे पूरी तरह काले हैं वे दूसरों के दाग दिखा रहे हैं। ऐसी ओछी राजनीति से बाज आना चाहिए।
सुयश मिश्र
( माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में अध्ययनरत )
Mob- 8349182988
कुछ दिन पहले टीवी पर एक विज्ञापन देखने को मिला, जिसमें एक औरत अपने छोटे से बेटे को यह कहती हुई नजर आ रही थी कि “बेटा जाओ, जाकर देखो कचरा वाला आया है क्या?” अपनी मां की बातों का जवाब देते हुये वह छोटा सा बच्चा कहता है कि “मां वे तो सफाई वाला है, कचरे वाले तो हम हैं, क्योंकि कचरा तो हम फैलाते हैं. वे तो हमारे फैलाये कचरे को साफ करता है, इसलिए सफाई वाला तो वे हुआ न?” बच्चे के इस जवाब के बाद वह मां स्तब्ध नजरों से अपने बच्चे को देखते हुये, अपनी गलती पर निःशब्द हामी भर देती है.
यह विज्ञापन देश की उस मानसिकता पर करारा प्रहार है, जहां सफाई करने वाले अथवा दूसरों की फैलायी गंदगी को साफ करने वाले अर्थात् सफाई कर्मचारियों की हमेशा अवहेलना की जाती है. उन्हें समाज द्वारा अछूत अथवा घृणित करार दे दिया जाता है. यह उस विकासशील समाज की सोच अथवा मानसिकता है, जहां हम अपने ही द्वारा फैलायी गयी गंदगी को साफ करने वाले लोगों से घृणा करते हैं, जो बहिष्कृत समाज का हिस्सा बनकर, बदहाल जीवन जीने को मजबूर हो जाते हैं. हमारे समाज में प्राचीन समय से ही यह गंदी मानसिकता पूरे जटिलता के साथ अपनी जड़ों को विस्तार दे रहा है, जिसका विस्तार रोकना अब भी बहुत मुश्किल है.
गांधीजी को अस्पृश्यता से घृणा थी. बचपन से ही गांधी जी के मन में मां के प्रति स्नेह, सम्मान होने के बावजूद अपनी मां की उस बात का विरोध किया करते थें, जब उनकी मां सफाई करने वाले कर्मचारी को न छूने और उससे दूर रहने के लिए कहा करती थी. उन्हें दृढ़ विश्वास था कि स्वच्छता और सफाई प्रत्येक व्यक्ति का काम है. वह हाथ से मैला ढोने और किसी एक जाति के लोगों द्वारा ही सफाई करने की प्रथा को भी समाप्त करना चाहते थे, जिसके लिये उन्होंने आजीवन प्रयास भी किया.
गांधीजी ने अपने बचपन में ही भारतीयों में स्वच्छता के प्रति उदासीनता की कमी को महसूस कर लिया था। यही कारण है कि गांधीजी के लिए स्वच्छता एक बहुत ही महत्वपूर्ण सामाजिक मुद्दा था। 1895 में जब ब्रिटिश सरकार ने दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों और एशियाई व्यापारियों से उनके स्थानों को गंदा रखने के आधार पर भेदभाव किया था, तब से लेकर अपनी हत्या के एक दिन पहले तक गांधीजी लगातार सफाई रखने और सफाई कर्मियों के हित पर जोर देते रहे.
गांधीजी मानते थे कि नगरपालिका का सबसे महत्वपूर्ण कार्य सफाई रखना है और उन्हें इस कर्तव्य का निष्ठापूर्ण तरीके से पालन करना चाहिए. उन्होंने कांग्रेस के कार्यकर्ताओं को पार्षद बनने के बाद स्वच्छता के काम करने का सुझाव दिया. (कांग्रेस सम्मेलनों के दौरान गांधीजी के भाषण, संपूर्ण गांधी वाङ्मय, भाग-23 पृष्ठ 15, 387/25, 40, 441/भाग 26/भाग 28, पृष्ठ 400, 412, 461, 471)। गांधीजी के लिए अस्वच्छता एक बुराई थी. 25 अगस्त 1925 को कलकत्ता (अब कोलकाता) में दिए गए भाषण में उन्होंने कहा, ‘वह (कार्यकर्ता) गांव के धर्मगुरु या नेता के रूप में लोगों के सामने न आएं बल्कि अपने हाथ में झाड़ू लेकर आएं. गंदगी, गरीबी निठल्लापन जैसी बुराइयों का सामना करना होगा और उससे झाड़ू कुनैन की गोली और अरंडी के तेल के साथ लड़ना होगा।’’ (गांधी वाङ्मय, भाग-28, पृष्ठ 109).
19 नवंबर 1925 के यंग इंडिया के एक अंक में भी गांधीजी ने भारत में स्वच्छता के बारे में अपने विचारों को प्रकट करते हुये कहा था कि- “देश के अपने भ्रमण के दौरान मुझे सबसे ज्यादा तकलीफ गंदगी को देखकर हुई. इस संबंध में अपने आप से समझौता करना मेरी मजबूरी है. (गांधी वाङ्मय, भाग-28, पृष्ठ 461). सन् 1901 में गांधीजी ने कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में स्वयं अपना मैला साफ करने की पहल की थी, जिसका सदैव उन्होंने पालन भी किया। उन्होंने 1918 में साबरमती आश्रम शुरू किया तो उसमें पेशेवर सफाई कर्मी लगाने के बजाय आश्रमवासियों को अपना मैला साफ करने का नियम बनाया।
गांधीजी ने भारतीय समाज में सफाई करने और मैला ढोने वालों द्वारा किए जाने वाले अमानवीय कार्य पर तीखी टिप्पणी करते हुये कहा था, “हरिजनों में गरीब सफाई करने वाला या भंगी, समाज में सबसे नीचे खड़ा है जबकि वह सबसे महत्वपूर्ण है. अपरिहार्य होने के नाते समाज में उसका सम्मान होना चाहिए. भंगी, जो समाज की गंदगी साफ करता है उसका स्थान मां की तरह होता है. जो काम एक भंगी दूसरे लोगों की गंदगी साफ करने के लिए करता है वह काम अगर अन्य लोग भी करते तो यह बुराई कब की समाप्त हो जाती. (गांधी वाङ्मय, भाग-54, पृष्ठ 109) लेकिन गांधी जी की इस सोच को भारतीय समाज ने कभी स्वीकार नहीं किया.
सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय की वर्ष 2016-17 की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार 1992 से लेकर 2005 के बीच देश में कुल 7,70,338 हाथ से मैला उठाने वाले कर्मियों की पहचान हुयी थी, जिनमें से 4,27,870 कर्मियों का पुनर्वास कर लिया गया था. इसके बाद 3,42,468 हाथ से मैला उठाने वाले कार्मिक रह गये थे। हाथ से मैला उठाने वाले कर्मियों की संख्या में उत्तर प्रदेश पहले नम्बर पर तथा मध्यप्रदेश दूसरे, महाराष्ट्र तीसरे और गुजरात चौथे नम्बर पर है.
इन कार्मियों में निजी तौर पर काम करने वाले या नगर निकायों में नियमित या अनियमित तौर पर सीवर लाइनों, सेप्टिक टैंकों पर काम करने वाले कार्मिक शामिल नहीं हैं। अगर महात्मा गांधी के चश्मे से उनकी ही नजर से देखा जाता तो सड़कों पर झाड़ू लेकर फोटो खिंचवाने के बजाय एक मानव को दूसरे मानव का मैला उठाने के कृत्य को सबसे अधिक गंभीरता से लिया जाता.
12 जुलाई, 2011 को सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक आदेश दिया था, जिसमें सिर पर मैला ढोने वाले मज़दूरों और सीवेज कामगारों की दुर्दशा को रेखांकित किया गया था. कोर्ट के द्वारा उनके कल्याण और सुरक्षा को लेकर भी सरकार की भर्त्सना की गयी थी. सफाईकर्मियों की निरंतर हो रही मौत और उनके परिवार को मिलने वाले मुआवजे पर भी सुप्रीम कोर्ट के द्वारा विशेष जोर दिया गया था लेकिन अन्य नियमों की तरह इसे भी ठंडे बस्ते का हिस्सा बना दिया गया. कानूनन प्रतिबंधित होने के बावजूद आज भी देश में लाखों लोग दूसरों का मैला अपने सिर पर ढोने को बाध्य हैं और मौत को गले लगा रहे हैं. अपने देश में सफाईकर्मियों की ऐसी स्थिति को बनाये रखना देश के राष्ट्रपिता और उस महात्मा को हर दिन मारने के बराबर है जो सदैव इस वर्ग के उत्थान की ओर ध्यान देते रहे.
(30 जनवरी पर विशेष)
‘देश में धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ हुए हमलों की भरोसेमंद जांच कराने या उन्हें रोकने में मोदी सरकार पूरी तरह से नाकाम रही है।’अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संस्था ‘ह्यूमन राइट्स वॉच’ने हाल ही में साल 2018 की ‘वर्ल्ड रिपोर्ट’ जारी करते हुए ये बात की है। 643 पन्नों की वर्ल्ड रिपोर्ट के 28वें संस्करण में ‘ह्यूमन राइट्स वॉच’ने 90 से ज्यादा देशों में मानवाधिकारों की स्थिति का जायजा लिया और इस नतीजे पर पहुंचा कि सभी भारतीयों के बुनियादी अधिकारों की कीमत पर सत्तारूढ़ बीजेपी के कुछ नेता हिंदू श्रेष्ठता और कट्टर राष्ट्रवाद को बढ़ावा देते हैं।
सरकार की सरपरस्ती में बीते साल भी कट्टरपंथी हिंदू समूहों ने मुसलमानों और अन्य अल्पसंख्यक समुदायों के खिलाफ कई हमले किए। साल 2017 में कम से कम ऐसे 38 हमले हुए और इनमें दस लोग मारे गए। रिपोर्ट कहती है कि जिन लोगों के ऊपर पीड़ितों को बचाने या उनका संरक्षण करने की जिम्मेदारी है, वे भी अपना कर्तव्य सही ढंग से नहीं निभाते। हमलावरों पर फौरन कानूनी कार्रवाई करने के बजाय पुलिस ने गोहत्या पर पाबंदी लगाने वाले कानून के तहत पीड़ितों के खिलाफ ही शिकायतें दर्ज कीं। इस तरह के उदाहरण यह बतलाते हैं कि पुलिस अधिकारी एवं प्रशासन धार्मिक अल्पसंख्यकों और खतरे का सामना कर रहे अन्य समूहों पर लगातार हो रहे हमलों से उन्हें बचाने में अनिच्छुक है।
‘ह्यूमन राइट्स वॉच’की भारत से संबंधित इस रिपोर्ट में अभिव्यक्ति की स्वंतत्रता के अधिकार के हनन और कानून व्यवस्था लागू करने के नाम पर भारत में इंटरनेट सेवाएं बंद करने का चलन का मुद्दा भी उठाया गया है। राज्य सरकारें हिंसा या सामाजिक तनाव रोकने के नाम पर पूरी तरह से इंटरनेंट बंद करने का सहारा लेती हैं, ताकि कानून व्यवस्था को लागू रखा जा सके। पिछले साल नवंबर तक तकरीबन 60 बार इंटरनेट सेवाएं ठप की गई हैं, जिनमें 27 मामले हिंसा और आतंकवाद से ग्रसित जम्मू और कश्मीर राज्य के हैं। रिपोर्ट इस बात का भी इशारा करती है कि बीते साल अगस्त में सर्वोच्च न्यायालय ने निजता के अधिकार को संविधान के तहत मौलिक अधिकारों का दर्जा दिया था। अदालत ने अपने इस फैसले में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, कानून के शासन और सत्ता के दबंग बर्ताव के खिलाफ गारंटी पर जोर दिया था। बावजूद इसके सरकारी नीतियों या उसकी गतिविधियों की आलोचना करने वाले कार्यकर्ताओं, अकादमिक जगत के लोगों और पत्रकारों के खिलाफ आपराधिक मानहानि और राजद्रोह के मुकदमे दर्ज किए गए। उन्हें बिला वजह परेशान किया गया।
‘ह्यूमन राइट्स वॉच’की सालाना रिपोर्ट, उन्हीं चिंताओं की तरफ सरकार का ध्यान खींचती है, जिसका जिक्र बार-बार देश के बुद्धिजीवी, लेखक, कलाकार और विपक्षी पार्टियां सरकार से पिछले कुछ सालों से करते आए हैं। इस बात की तस्दीक, देश के पूर्व नौकरशाहों द्वारा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को हाल ही में लिखा एक पत्र भी करता है। इस पत्र में 67 पूर्व नौकरशाहों जिसमें पूर्व स्वास्थ्य सचिव केशव देसीराजू, के सुजाता राव, सूचना प्रसारण मंत्रालय के पूर्व सचिव भास्कर घोष, पूर्व मुख्य सूचना आयुक्त वजाहत हबीबउल्लाह, पूर्व आईटी सचिव बृजेश कुमार, हर्ष मंदर आदि शामिल हैं, ने अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों पर हो रहे हमलों के प्रति अपनी गहरी चिंता व्यक्त की है। पत्र में बाकायदा अल्पसंख्यकों पर हुई पांच बड़ी हिंसा की घटनाओं का भी हवाला दिया गया है। मीडिया में आई मुसलमान समुदाय को प्रॉपर्टी न बेचने या उन्हें किरायेदार न रखने की खबरों का जिक्र करते हुए इन पूर्व नौकरशाहों ने पत्र में आगे कहा है कि रोजाना ऐसे कई रूपों में मुसलमान ऐसी बातों का सामना करते हैं, जिससे इस धार्मिक समुदाय के माहौल में गुस्सा बढ़ना तय है, जिससे पहले से ही जहर भरा माहौल और खराब होगा। पत्र में मध्य प्रदेश के सतना में हुई एक घटना का भी जिक्र किया गया गया है, जहां एक गायक समूह को ‘कैरोल’(क्रिसमस पर गाए जाने वाला गाना) गाने से रोक दिया गया था।
‘ह्यूमन राइट्स वॉच’और पूर्व नौकरशाहों की यह चिंताएं बेजा नहीं हैं। मोदी हुकूमत के दरमियान देश में ऐसी कई घटनाएं हुई हैं, जिनसे भारत की छवि को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर काफी नुकसान पहुंचा है। तथाकथित गो-रक्षक समूहों ने गोहत्या पर प्रतिबंध लगाने वाले कानूनों के नाम पर धार्मिक अल्पसंख्यकों के ऊपर हिंसा की। बेगुनाह लोगों पर हमला किया और उन्हें परेशान किया गया। मोहम्मद अखलाक से लेकर पहलू खान तक एक लंबी फेहरिस्त है, जो तथाकथित गो-रक्षक समूहों की हिंसा के शिकार हुए। उत्तर प्रदेश में शहरी आबादी से लगे बिसाहड़ा गांव में वहशी भीड़ ने मोहम्मद अखलाक की इसलिए हत्या कर दी कि उन्हें यह शक था कि उसके घर में गौमांस बना था।
मोदी हुकूमत में न तो अल्पसंख्यक महफूज हैं और न ही दलित एवं आदिवासी। इनके साथ अत्याचार का सिलसिला मुसलसल जारी है। मोदी सरकार इन पर हमले रोकने में पूरी तरह से नाकामयाब रही है। कई राज्यों में दलितों को कुछ खास जगहों पर जाने से रोका जाता है। सार्वजनिक जगहों पर भी उनके साथ भेदभाव किया जाता है। ज्ञान के मंदिर विश्वविद्यालयों तक में उनके साथ भेदभाव के मामले सामने आए हैं। एक रिपोर्ट के मुताबिक साल 2015 में अनुसूचित जाति के साथ अपराध के 45,000 और अनुसूचित जातियों के साथ 11,000 मामले दर्ज हुए हैं। यह आंकड़े खुद ही गवाही देते हैं कि देश में अनुसूचित जाति-जनजातियों के हालात ठीक नहीं। इनके साथ बड़े पैमाने पर भेदभाव और उत्पीड़न होता है।
मोदी हुकूमत में सबसे ज्यादा हमले अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हुए हैं। न सिर्फ मानव अधिकार संगठन और कार्यकर्ताओं को उत्पीड़न का सामना करना पड़ा है, बल्कि कॉलेज के विद्यार्थी भी उत्पीड़न और हमलों से नहीं बच पाए हैं। जेएनयू मामला हो या फिर रामजस कॉलेज का मामला मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, विद्यार्थियों, प्राध्यपकों, वकीलों और पत्रकारों को सरकारी और सत्ताधारी पार्टी से जुड़े संगठनों से हमले और धमकियों का सामना करना पड़ा है। उनके साथ सरे आम मारपीट की गई और पुलिस मूकदर्शक बनकर तमाशाई बनी रही। इस दौरान एक बार नहीं, बल्कि कई बार ऐसा हुआ जब अपने आलोचकों को चुप कराने के लिए सरकार ने देशद्रोह कानून का गलत इस्तेमाल किया। बीते चार साल में लोकतंत्र के पहरुए पत्रकारों पर भी हमले बढ़े हैं। उन्हें अपने काम से रोका जा रहा है। रिपोर्टिंग पर दवाब या पाबंदी लगाई जा रही है। देश के पूर्वोत्तर राज्यों और जम्मू-कश्मीर में मानवाधिकारों की स्थिति खासी खराब है। साल 2016 में कश्मीर के अंदर महीनों कर्फ्यू लगा रहा, जिसकी वजह से जाने-अनजाने यहां के निवासियों के मानवाधिकारों का उल्लंघन हुआ। इस दौरान निजी कंपनियों की संचार सेवाएं ठप कर दी गईं। कर्फ्यू से लोगों को जरूरी चीजें भी नहीं मिल पाईं। सुरक्षा बलों द्वारा पैलेट गन के इस्तेमाल से कई बार बेकसूर लोगों को नुकसान पहुंचा और उनमें से कई की आंखें चली गईं। मणिपुर में भी महीनों चली आर्थिक नाकाबंदी से यहां के निवासियों की जिंदगी दुश्वार हो गई।
‘ह्यूमन राइट्स वॉच’ने अपनी हालिया रिपोर्ट में भारत में धार्मिक अल्पसंख्यकों की जो तस्वीर पेश की है, वह हकीकत के काफी करीब है। देश में आज वाकई धार्मिक अल्पसंख्यकों के हालात ठीक नहीं है। समाज में उन्हें शक की निगाह से देखा जाता है। उन्हें चाहे जब पूर्वाग्रह और साम्प्रदायिक हिंसा का सामना करना पड़ता है। वे हर दम उग्र हिंदूवादी समूहों के निशाने पर रहते हैं। भारतीय संविधान में हर आधुनिक संविधान की तरह संप्रभु व्यवस्था की इकाई व्यक्ति को माना गया है। देश की आजादी का मतलब हर व्यक्ति की आजादी है। इस आजादी पर हमला, चाहे सरकार की तरफ से हो, या पुलिस-प्रशासन या फिर किसी चरमपंथी उग्रवादी समूह की तरफ से कुल मिलाकर वह समान रूप से संविधान की मूल भावना का उल्लंघन है।
जब धर्माधं या चरमपंथी संगठन इस स्वतंत्रता का हनन करते हैं, तो सरकार से यह उम्मीद होती है कि वह अपने नागरिकों के बुनियादी हुकूकों की हिफाजत करे। लेकिन जब राज्य और उसका पूरा तंत्र ही अपने नागरिकों में धर्म या क्षेत्र के आधार पर फर्क करे तो, निश्चित रूप से यह खतरनाक स्थिति है। एक चुनी हुई लोकतांत्रिक सरकार का संवैधानिक दायित्व होता है कि वह अपने सभी नागरिकों के साथ समानता का व्यवहार करे। खास तौर से अपने धार्मिक अल्पसंख्यकों के मानवाधिकारों का बिना किसी भेदभाव और पूर्वाग्रह के संरक्षण करे। उनके मानवाधिकारों का जब उल्लंघन हो, तो कसूरवारों को समय पर सजा के दायरे में लाया जाए। अफसोस ! मोदी सरकार अपने इस संवैधानिक दायित्व से ही सबसे ज्यादा विमुख है।
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वे अस्पताल से अपना दिमाग चेक करवा घर सकुशल लौटे तो उनके घर उनके हालचाल पूछने आने वालों का तांता लग गया. उस वक्त जो भी उनके हालचाल पूछता रोते हुए उनके गले लगता तो ऐसे गले लगता मानों दुनिया के आठवें अजूबे के गले लग रहा हो. जो भी उनसे उनके हालचाल पूछने के बहाने उनसे मिलने आता, जलता भुनता उनके पांव छूता, उनके गले लगता और दबी जुबान में मन ही मन यही कहता,‘ हद है यार! बड़ा तकदीर वाला है ये, अस्पताल से जिंदा लौट आया?’
उनके बगल वाले वर्मा जी ये सब देख हैरान थे कि आखिर ये सब जो हो रहा है वह आखिर हो हो क्या रहा है? साल भर पहले जब उनकी माता जी स्वर्ग सिधारी थीं तो इतने लोग तो तब भी उनके यहां नहीं आए थे जितने इनके अस्पताल से जिंदा लौट आने पर आ रहे हैं. भीतर ही भीतर तब उन्हें उनके अस्पताल से जिंदा लौट आने से ईर्ष्या होने लगी थी.
बंदे के सकुशल अस्पताल से लौट आने पर न चाहते हुए भी बची इंसानियत के नाते थोड़ा सा तो मेरा भी फर्ज बनता था कि उन्हें अस्पताल से जीवित लौट आने पर हार्दिक नहीं तो कम से कम बधाई देने उनके घर जा आऊं, भले ही मेरा और उनका छत्तीस का आंकड़ा रहा हो. इस कमबख्त छत्तीस के आंकड़े के चलते हमारा मन एक-दूसरे के साथ खड़ा होने को तो छोड़िए, एक-दूसरे का चेहरा देखने तक को मन न भी करे तो भी अवसर की गैर जरूरी मांग को ध्यान में रखते हुए सगर्व साथ-साथ खड़े होने का अभिनय तो करना ही पड़ता है. अभिनय जितना कुशल हो जाए सोने पर उतना ही सुहागा.
जब वे मिलने वालों से कुछ फ्री हुए तो मैं लटके मुंह को जैसे कैसे सजाए उनके घर उन्हें बधाई देने जा पहुंचा, ‘ बधाई वर्मा जी! पिछले जनम में आपने जरूर कोई अच्छे कर्म किए होंगे जो अस्पताल से सकुशल लौट आए। वरना आज की तारीख में बंदा यमराज के पास से सकुशल लौट कर आ सकता है पर अस्पताल से नहीं। आखिर ऐसा क्या हो गया था आपको जो…?’
‘होना क्या था शर्मा जी! कई दिनों से बस यों ही कुछ ऐसा फील कर रहा था कि ज्यों मेरा दिमाग खराब सा हो रहा है।’
‘तो आपको कैसे पता लगा कि आपका दिमाग खराब हो रहा है? मैंने तो मुहल्ले में कई ऐसे भी देखे कि जिनका सबको पता है कि उनका दिमाग खराब है,पर बावजूद उसके वे सीना तान कर अपने दिमाग को बिल्कुल स्वस्थ घोषित करते नहीं अघाते।’
‘लगना क्या था यार! मुझे लगा कि जैसे मेरे दिमाग के पेच ढीले हो रहे हैं?’ उन्होंने चिंतक होते कहा।
‘दिमाग के पेच भी होते हैं क्या?’
‘ होते हैं। पहले तो उन्हें खुद ही कसने की सोची पर जब नहीं कसे गए तो ….’
‘ तो आपको कैसे पता चला कि आपके दिमाग के पेच ढीले हो रहे हैं?’
‘ असल में मुझे लगने लगा कि मैं ज्यों घोर स्वार्थी से परमार्थी सा होता जा रहा हूं। चौबीसों घंटे निगेटिव विचारों से ओतप्रोत रहने वाला मेरा दिमाग पॉजिटिव होता जा रहा हो जैसे। ज्यों मैं अपने बारे में सोचना छोड़ समाज के बारे में सोचने लगा हूं। मुझमें चिड़चिड़ेपन के बदले संतोष आ रहा हो जैसे। शुरू-शुरू में तो मैंने सोचा कि ये ऐसे ही गलती से कुछ शुद्ध खाने से हो रहा होगा। पर दिन प्रतिदिन जब मेरा दिमाग और खराब होने लगा तो मुझे लगा कि बेटा संभल! जरूर तेरे दिमाग के पेच ढीलिया रहे हैं। इन्हें वक्त रहते चेक करवा लेना चाहिए, इससे पहले की दिमाग और खराब हो जाए। खराब दिमाग लेकर जीने से बेहतर तो मरना भला। यों ही लापरवाही में कल को जो दिमाग के पेच कसने लायक ही न रहे तो… दिमाग और ज्यादा खराब हो गया तो… आखिर आड़े वक्त में एकबार फिर भगवान को अस्पताल से सकुशल आने की मन्नत की. हे भगवान! जो अस्पताल से दिमाग का इलाज करवा सकुशल घर लौट आऊं तो तेरे नाम का सवा किलो हलवा जनता में बंटवाऊं। ’
‘फिर??’
‘फिर क्या! भगवान का नाम ले सिक्का उछाला। हेड मांगा था सो वही आने पर अस्पताल सभय जीव कूच कर गया,’ कहते उन्होंने ठंडी सांस ली।
‘फिर??’
‘फिर क्या? डॉक्टर को डरते-डरते समस्या बताई।’
‘फिर??’
‘फिर क्या? पहले तो उसने कहा कि हो सकता है दिमाग के सारे ड्राइव स्कैन न करने पड़ें। अगर इसमें ज्यादा वायरस न हुआ तो तो ठीक, नहीं तो हो सकता है इसे फॉरमेट ही करना पड़े। उसके बाद दोबारा इसमें बेसिक समाज विरोधी प्रोग्राम डाल देंगे। बाद में उनके अपडेट्स सोसाइटी से लेते रहना।’
‘फिर?’
‘उन्होंने मेरे दिमाग को ठोका बजाया तो मैं घबराया, हहराया। पर शुक्र खुदा का, उसमें जो वायरस अचानक कहीं से आ गया था वह अभी इतना खतरनाक नहीं हुआ था कि दिमाग को फॉरमेट करना पड़ता। उन्होंने उसे डिलीट कर मेरा दिमाग ठीक कर दिया।’
‘फिर??’
‘फिर क्या? देखो तो, अब पहले वाले तंदुरूस्त दिमाग से भी अधिक फिट दिमाग के साथ तुम्हारे सामने हूं दोस्त! शायद मेरे हाथों से अभी और समाज में ऊट पटांग करना शेष बचा होगा तभी तो अस्पताल से सकुशल लौट आया, वरना यहां तो भले चंगे भी जो अस्पताल जाते हैं वे बोरे में पैक होकर ही घर वापस आते हैं, ‘मुस्कुराते हुए रूंधे गले से कहते वे उठे और ऐसे मेरे गले लगे, ऐसे गले लगे कि बरसों से मेरी रीढ़ की हड्डी तोड़ने की मुराद पाले ज्यों आज मेरी बची रीढ़ की हड्डी तोड़ कर ही दम लेंगे।
अशोक गौतम
गौतम निवास, अप्पर सेरी रोड़
नजदीक मेन वाटर टैंक, सोलन-173212 हि.प्र
मो. 9418070089
भारत वह देश है जो अपनी सभ्यता और संस्कृति के नाम पर पूरी दुनिया में एक अमिट छाप छोड़ता है. यह अपनी समृद्धि के कारण सोने की चिड़िया कहलाता आया है. इसे शांति और अहिंसा के लिए जाना जाता रहा है. लेकिन अब परिदृश्य बिल्कुल विपरित धारा में बह रहा है। पिछले कुछ दिनों से देश में जिस तरह की हिंसा फैल रही है, वह भारत के इतिहास को धूमिल करने में कोई कसर नहीं छोड़ रही. ‘पद्मावत’ फिल्म के निर्माण से लेकर रिलीज होने तक अनवरत हिंसा का दौर जारी रहा. लेकिन इस हिंसा को मात देते हुये, संजय लीला भंसाली के निरंतर प्रयासों के कारण फिल्म ‘पद्मावत’ 25 जनवरी को पर्दे पर आ ही गई. इस फिल्म को लेकर विभिन्न स्थानों पर जिस तरह से प्रदर्शन हुआ, खासतौर पर राजपूत समाज की ओर से विशेषकर करणी सेना ने फिल्म का बहुत ही हिंसक तरीके से विरोध किया है, वह देश और देशवासियों दोनों के लिए खतरा तथा चिंता का विषय है.
राजस्थान, हरियाणा, बिहार, जम्मू-कश्मीर जैसे राज्यों में थियेटर्स के भीतर तो तोड़फोड़ की ही गई, सड़कों पर भी हिंसक प्रदर्शन हुआ। हद तो तब हो गयी जब गुरुग्राम के सोहना रोड पर प्रदर्शनकारियों ने बस फूंक दी और पत्थरबाजी की। हरियाणा के मंत्री राम बिलास शर्मा ने गुरुगाम में स्कूली बस पर पथराव की घटना को ‘चिंताजनक’ बताया है। उन्होंने कहा कि ‘हमें ऐसी घटना का अंदेशा नहीं था.’
हरियाणा के मंत्री ने जो अंदेशा व्यक्त किया, वह अंदेशा कमोवेश सभी के मन में आ रहा होगा कि ऐसी दरिंदगी कोई कैसे कर सकता है? लेकिन ये बिल्कुल सच है कि ऐसी दरिंदगी का सामना हमें लगातार करना पड़ रहा है। ‘पद्मावत’ एक ऐसी गाथा है, जिसे कई रूपों में व्याख्यायित किया गया है. कुछ लोगों ने तो इस कहानी को पूरी तरीके से नकार भी दिया है। रानी पद्मावति की इतिहास में मौजूदगी और गैर-मौजूदगी पर लगातार कई तरह की बातें होती रही है, मैं यहां उसपर बात नहीं करूंगी। मेरे मन में देश में हो रही इन हिंसक झड़पों से जो बात उभर रही है, वह सिर्फ यह है कि मासूम बच्चों और इंसान की जिंदगी से बढ़कर है, किसी देश का इतिहास और गौरव गाथा?
धर्म, आस्था के नाम पर देश में चल रहे खौफनाक खूनी खेल ने लोगों को अंदर तक झकझोर दिया है. कहीं गौ हत्या के नाम पर इंसानों को मौत के घाट उतार दिया जा रहा है, तो कहीं धर्म, आस्था और संस्कृति के नाम पर. एक तरफ जहां ‘पद्मावत’ को रिलीज होने से इसलिए रोका जा रहा था क्योंकि लोगों का, खासतौर पर राजपूत समुदाय के लोगों का यह मानना था कि इसमें रानी पद्मावती का गलत तरीके से प्रस्तुतीकरण किया जा रहा है, जो इतिहास से खिलवाड़ है और राजपूतों की गरिमा पर प्रहार है.
‘पद्मावत’ जैसी फिल्मों पर तो धर्म, आस्था और परंपरा के नाम पर सेंसरशिप की कैंची खूब चलती है लेकिन बॉलीवुड की कई ऐसी फिल्में हैं जिसे देखकर हॉलीवुड की फिल्में भी पीछे छूट जाये। अभी हाल ही में रिलीज हुई ‘जुड़वा’ फिल्म की ही बात कर लें तो इस फिल्म में अभिनेता अपनी प्रेमिका की मां को ही चुंबन देता है और कहता है कि यह सब पता ही नहीं मुझसे कैसे हो गया। अपनी प्रेमिका की मां को चुंबन देना एक बहुत ही आपत्तिजनक दृश्य था, जो हमारी भारतीय संस्कृति के दायरे के बाहर था.
हमारे देश की सभ्यता-संस्कृति ने औरतों की पूजा करना, रिश्तों के दायरे को बनाये रखना और बड़े-छोटे की इज्जत करना मुख्य रूप से सिखाती है. ऐसे में जुड़वा जैसी अनवरत फिल्मों का बनना जिसमें सभ्यता-संस्कृति के तमाम बंधनों को तोड़कर बेहद ही फूहड़ तरीके से पेश किया जा रहा है. महिलाओं का बेहद अश्लील चित्रण किया जा रहा है, लेकिन अफसोस पद्मावती का विरोध करने वाले लोगों को ऐसी चीजों और दृश्यों से कोई फर्क नहीं पड़ता। उनके लिये ऐसे दृश्य सभ्यता-संस्कृति को नुकसान नहीं पहुंचाती। इससे न तो देशवासियों की गरिमा को ठेस पहुंचती है और ना हीं किसी खास समुदाय की भावना को। सिर्फ इतना ही नहीं सेंसरशिप की कैंची भी जुड़वा और रागिनी एमएमएस जैसी फिल्मों को हरी झंडी दिखा देती है.
अगर पद्मावती जैसी फिल्में देश की गरिमा पर चोट है तो फिर कंडोम के विज्ञापन में औरतों का अर्धनग्न प्रदर्शन क्या है?
पैडमन के रूप में प्रदर्शित होने वाली फिल्म तो औरतों के उस चीज को उजागर करने के तरफ पुरजोर कदम है, जिसे भारतीय संस्कृति के अनुसार सदियों से छुपाया जाता रहा है, जिसपर सार्वजनिक रूप से बात करना नामुमकिन सा रहा है, जिसे सीधे-सीधे तोड़ा जा रहा है.
महिलाओं को हिंदी फिल्मों में सेक्सी, माल और आयटम कहकर संबोधित किया जाता है और इसे आधुनिकता की संज्ञा दी जाती है, लेकिन इससे भी हमारी सभ्यता-संस्कृति को कोई नुकसान नहीं पहुंचता है। सिर्फ यही नहीं हिंदी सिनेमा में बेडरूम के दृश्य का प्रदर्शन तो आम बात हो गयी है और रही-सही कसर तो इमरान हाशमी की फिल्मों के चुंबन दृश्य पूरा कर देता है, पर इससे भी कोई प्रहार नहीं होता देश की सभ्यता-संस्कृति और गरिमा पर.
हमारे देश की उस परंपरा की ओर लोग क्यों ध्यान नहीं देते, जहां एक तरफ तो बौद्ध, महावीर जैसे लोगों का समावेश है, जिन्होंने अहिंसा का संदेश देकर पूरी दुनिया में एक मिसाल पेश की. वहीं दूसरी ओर गांधी जी की मौजूदगी भी है, जिन्होंने अहिंसा के बल पर पूरे देश को आजादी दिलायी. खूनी खेल की हिंसात्मक गरिमा अहिंसात्मक देश की संस्कृति का हिस्सा कभी हो ही नहीं सकता है. गौरव गाथा और इतिहास के नाम पर मासूम बच्चों की जिंदगी से खेलना और चारों ओर हिंसात्मक तनाव पैदा करना हमारे देश की सभ्यता-संस्कृति को पतन की ओर धकेलने के बराबर है.
हमारे देश में कई ऐसी कुरीतियां मौजूद हैं, कई ऐसे ज्वलंत मुद्दे हैं, गरीबी, भ्रष्टाचार, शोषण आदि जड़ जमायी हई है लेकिन गौरक्षा और पद्मावती जैसे मुद्दे के नाम पर हिंसा और प्रदर्शन करने वाले लोग ऐसे मुद्दों पर कभी न तो प्रदर्शन करते दिखते हैं और ना ही अपना मौन तोड़ते हैं. हमारे देश की शिक्षा व्यवस्था लगातार शर्मसार हो रही है। बेरोजगारी इतनी बढ़ गई है कि पीएच.डी. करने के बाद भी लोग सफाईकर्मी की नौकरी करने के लिए तैयार हैं. हर तरफ अपराध का जन्म हो रहा है. बच्चियों के साथ दरिंदगी हो रही है. छोटे-छोटे बच्चे खून-खराबे पर उतारू हो गये हैं लेकिन इस ओर ध्यान देने वाला हमारे बीच में बहुत कम हैं. अगर वास्तव में हमे देश की सभ्यता-संस्कृति और गरिमा को बचाना है तो पद्मावती और गौरक्षा जैसे मुद्दों से निकलकर देश में व्याप्त ऐसे मुद्दों पर सोचना होगा, जिससे सबके साथ, सब का विकास संभव हो सके.
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पिछड़ों-दबे-कुचलों के उन्नायक, बिहार के शिक्षा मंत्री, एक बार उपमुख्यमंत्री (5.3.67 से 31.1.68) और दो बार मुख्यमंत्री (दिसंबर 70 – जून 71 एवं जून 77- अप्रैल 79) रहे जननायक कर्पूरी ठाकुर (24.1.1924 – 17.2.88) के जन्मदिन की आज 94वीं वर्षगांठ है। आज़ादी की लड़ाई में वे 26 महीने जेल में रहे, फिर आपातकाल के दौरान रामविलास पासवान और रामजीवन सिंह के साथ नेपाल में रहे। 1952 में बिहार विधानसभा के सदस्य बने। शोषितों को चेतनाशील बनाने के लिए वो अक़्सर अपने भाषण में कहते थे –
उठ जाग मुसाफिर भोर भई
अब रैन कहां जो सोवत है।
बिहार में 1978 में हाशिये पर धकेल दिये वर्ग के लिए सरकारी रोज़गार में 26 प्रतिशत आरक्षण लागू करने पर उन्हें क्या-क्या न कहा गया, मां-बहन-बेटी-बहू कोभद्दी गालियों से नवाज़ा गया। अभिजात्य वर्ग के लोग उन पर तंज कसते हुए ये भी बोलते थे –
कर कर्पूरी कर पूरा
छोड़ गद्दी, धर उस्तुरा।
ये आरक्षण कहां से आई
कर्पूरिया की माई बियाई।
MA-BA पास करेंगे
कर्पूरिया को बांस करेंगे।
दिल्ली से चमड़ा भेजा संदेश
कर्पूरी बार (केश) बनावे
भैंस चरावे रामनरेश।
उन पर तो मीडियानिर्मित किसी जंगलराज के संस्थापक होने का भी आरोप नहीं था, न ही किसी घोटाले में संलिप्तता का मामला। बावजूद इसके, उनकी फ़जीहत की गई। इसका समाजशास्त्रीय विश्लेषण तो होना चाहिए। आख़िर कहाँ से यह नफ़रत और वैमनस्य आता है? आज़ादी के 70 बरस बीत जाने और संविधान लागू होने के 68 बरस के बाद भी मानसिकता में अगर तब्दीली नहीं आई, तो इस पाखंड से भरे खंड-खंड समाज के मुल्क को अखंड कहके गर्वोन्मत्त होने का कोई मतलब नहीं।
निधन से ठीक तीन महीने पहले लोकदल के तत्कालीन ज़िला महासचिव हलधर प्रसाद के बुलावे पर एक कार्यक्रम में शिरकत करने कर्पूरी जी अलौली (खगड़िया) आये थे। वहां मंच से वो बोफोर्स पर बोलते हुए राजीव गांधी के स्विस बैंक के खाते का उल्लेख कर रहे थे। कर्पूरी जी ने भाषण के दौरान ही धीरे से एक पुर्जे ((रेल टिकट) पर लिखकर ‘कमल’ की अंग्रेज़ी जानना चाहा। मंच पर बैठे लोगों ने कर्पूरी जी की किताब- कितना सच, कितना झूठ बंटवा रहे श्री प्रसाद को ज़ल्दी से ऊपर बुलवाया। फिर उसी स्लिप पर उन्होंने ‘लोटस’ लिख कर कर्पूरी जी की ओर बढ़ाया। और, कर्पूरी जी राजीव गांधी को लपेटते रहे कि राजीव मने कमल, और कमल को अंग्रेजी में लोटस बोलते हैं। इसी नाम से स्विस बैंक में खाता है श्री गांधी का। अपना ही अनोखा अंदाज़ था कर्पूरी जी का।
कर्पूरी जी के निधन के बाद जब लालू प्रसाद बिहार विधानसभा में नेता, प्रतिपक्ष बने, तो उनके सामने एक बड़े जननेता के क़द की लाज रखना सबसे बड़ी चुनौती थी जिसमें वे बहुत हद तक क़ामयाब भी रहे। पर, 1989 का लोकसभा चुनाव जब आया, तो उन्होंने बिहार विधानसभा से इस्तीफ़ा देकर दिल्ली का रुख़ करना उचित समझा। और फिर वहाँ अपने लिए लामबंदी करके, जब कुछ ही महीनों बाद 90 में विधानसभा चुनाव हुए, तो देवीलाल और चंद्रशेखर का दिल जीत कर वे शरद जी को यह भरोसा दिलाने में क़ामयाब रहे कि बिहार को कोई कर्पूरी के पदचिह्नों पर चलने वाला जमीनी नेता ही चला सकता है। अजित सिंह और वीपी सिंह के लाख नहीं चाहने के बावजूद लालू प्रसाद कर्पूरी जी की विरासत संभालने में क़ामयाब हो गए, जिसमें हाल ही में गुज़रे रघुनाथ झा की भूमिका निर्णायक रही जो एक रणनीति के तहत ऐन वक़्त पर श्री चंद्रशेखर के उम्मीदवार बन गए। 122 सीटें जीतने वाले जनता दल के अंदर विधायक दल का नेता चुनने के ल्ए वोटिंग हुई। त्रिकोणीय मुक़ाबले में वीपी सिंह के उम्मीदवार व पूर्व मुख्यमंत्री रामसुंदर दास को लालू प्रसाद ने मामूली अंतर से हरा दिया।
1990 में अलौली में लालू जी का पहला कार्यक्रम था मिश्री सदा कालिज में। कर्पूरी जी को निराले ढंग से याद करते हुए उन्होंने कहा, “जब कर्पूरी जी आरक्षण की बात करते थे, तो लोग उन्हें मां-बहन-बेटी की गाली देते थे। और, जब मैं रेज़रवेशन की बात करता हूं, तो लोग गाली देने के पहले अगल-बगल देख लेते हैं कि कहीं कोई पिछड़ा-दलित-आदिवासी सुन तो नहीं रहा है। ये बदलाव इसलिए संभव हुआ कि कर्पूरी जी ने जो ताक़त हमको दी, उस पर आप सबने भरोसा किया है।” किसी दलित-पिछड़े मुख्यमंत्री को बिहार में कार्यकाल पूरा करने नहीं दिया जाता था। श्रीकृष्ण सिंह के बाद सफलतापूर्वक अपना कार्यकाल पूरा करने वाले लालू प्रसाद पहले मुख्यमंत्री थे। सच तो ये है कि लालू प्रसाद ने कर्पूरी ठाकुर के ही अधूरे कामों को अभी आगे बढ़ाना शुरू ही किया था कि कुछ लोगों को मिर्ची लगनी शुरू हो गई। लालू प्रसाद की अद्भुत संवाद-कला के लिए ग़ालिब से माज़रत के साथ कहना है:
हैं और भी दुनिया में सियासतदां बहुत अच्छे
कहते हैं कि लालू का है अंदाज़े-बयां और।
70 के दशक के उत्तरार्द्ध (78) में कर्पूरी ठाकुर सिर्फ़ सिंचाई विभाग में 17000 रिक्तियों (वैकेन्सी) के लिए आवेदन आमंत्रित करते हैं। और, एक सप्ताह भी नहीं बीतता है कि रामसुंदर दास को आगे करके ज्ञानी-ध्यानी लोग उनकी सरकार गिरवा देते हैं। ऐसा अकारण नहीं होता है। पहले होता ये था कि बैक डोर से अस्थायी बहाली कर दी जाती थी, बाद में उसी को नियमित कर दिया जाता था। एक साथ इतने लोग फेयर तरीके से ओपन रिक्रूटमेंट के ज़रिये बहाल हों; इस पूरी व्यवस्था पर कुंडली मारकर बैठे कुछ लोग भला क्योंकर पचाने लगे, सो सरकार गिराना व कर्पूरी की माँ-बहन करना ही उन्हें सहल जान पड़ा। आज भी विश्वविद्यालय के किरानी, चपरासी, मेसकर्मी से लेकर समाहरणालय-सचिवालय तक के क्लर्क आपको कुछ ख़ास जातियों से ताल्लुक़ात रखने वाले आसानी से मिल जायेंगे।
जब मैं टीएनबी कॉलिज, भागलपुर में अंग्रेज़ी साहित्य में ऑनर्स कर रहा था, तो वहाँ के हॉस्टलों में दरबान से लेकर मेसप्रबंधक तक मधुबनी तरफ के पंडीजी मिल जाते थे। एक दिन मैंने वेस्ट ब्लॉक हॉस्टल के एक बुज़ुर्ग सज्जन, जिनकी मैं बड़ी इज़्ज़त करता था; से कहा, “बाबा, आपलोग इतनी बड़ी तादाद में एक ही इलाके से सिस्टम में घुसे कैसे”? वे मुस्कराते हुए बोले, “सब जगन्नाथ मिश्रा जी की कृपा है। जो जिस लायक़ था, उस पर वैसी कृपा बरसी। चपरासी से लेकर ‘भायस चांसलॉर’ तक वे चुटकी में बनाते थे। बस साहेब की कृपा बरसनी चाहिए”।
बहरहाल, लालू प्रसाद ने पिछले साल कहा कि वे मंडल कमीशन लागू होने की अंदरूनी कहानी एक दिन सबके सामने रखेंगे। मंडल कमीशन लागू कराने की मुहिम पर लालू जी की किताब का लोगों को बेसब्री से इंतज़ार है। एक बार उन्होंने कर्पूरी जी की किताब कितना सच, कितना झूठ मांगी थी। जनता दल के तत्कालीन ज़िला उपाध्यक्ष हलधर प्रसाद बताते हैं कि उन्होंने घर में बची आख़िरी प्रति 1997 में मुख्यमंत्री आवास जाकर उन्हें भेंट कर दी। इस किताब में कर्पूरी जी ने रामविलास पासवान और रामजीवन सिंह को जमके कोसा है।
आपातकाल के दौरान नेपाल में कर्पूरी जी के साथ रामविलास जी और रामजीवन सिंह भूमिगत थे। वहाँ जिस अध्यापिका के यहाँ ये लोग ठहरे थे, उन्होंने कथित रूप से कर्पूरी जी के चरित्र पर प्रश्नचिन्ह लगाया था, मुक़दमा भी किया था। पासवान जी और रामजीवन सिंह ने उस अफ़वाह को काफी तूल दिया। वो अध्यापिका बिहार भी आती रहीं। कर्पूरी जी इन दोनों आदमी के आचरण से इतने दु:खी थे कि एयरपोर्ट पर उतरते ही दोनों को लोकदल से निष्कासित कर दिया। ये वही पासवान थे जिन्हें भागलपुर में हुए पार्टी सम्मेलन में कर्पूरी जी ने “भारतीय राजनीति का उदीयमान नक्षत्र” कहकर संबोधित किया था।
मतलब, पासवान जी को आप कितना ही स्नेह व सम्मान दे दीजिए, शुरू से ही ये अपनी सुविधानुसार किसी भी पाले में, किसी भी हद तक जा सकते हैं, और अब तो खेमापरिवर्तन पर इनसे कोई सवाल ही बेमानी है। जस्टिफिकेशन ढूंढने में इनका कोई सानी नहीं। कोई अचरज नहीं गर 19 से पहले ये पाला बदल लें, लालू जी बस द्वार खुला रखें। हां, फिर 24 में भी ये चंचलचित्त पाला न बदल कर लालूजी के साथ ही रहें, इसकी गारंटी कोई बेवकूफ़ ही लेगा।
कर्पूरी ठाकुर और कपटी ठाकुर : कितना सच, कितना झूठ
लंबे समय तक यह झूठ फैलाया जाता रहा कि लालू प्रसाद ने कर्पूरी ठाकुर को कपटी ठाकुर कहा क्योंकि उन्होंने ग़रीब सवर्णों के लिए भी उस 26% आरक्षण में से 3% देने की व्यवस्था की। जबकि सच का इन बातों से दूर-दूर तक कोई लेनादेना नहीं है। हुआ यूं कि शिवनंदन पासवान को कर्पूरी जी विधानसभा उपाध्यक्ष बनाना चाह रहे थे। और, दूसरी तरफ गजेन्द्र हिमांशु भी अपनी दावेदारी पेश कर रहे थे। तो तय हुआ कि दोनों के नाम से लॉटरी निकाली जाए। लॉटरी के सहारे शिवनंदन पासवान बन गए विधानसभा उपाध्यक्ष। पर, जब पता चला कि लॉटरी में दोनों पर्ची शिवनंदन पासवान के नाम की ही कर्पूरी जी ने लिख के डलवा दी। बस, तभी से हिमांशु जी उन्हें कपटी ठाकुर बुलाने लगे। लालू का इस प्रसंग से कोई वास्ता ही नहीं। कर्पूरी जी ने अंतिम सांस लालू प्रसाद की गोद में ली। उनके गुज़रने के बाद ही वे अपने दल के नेता चुने गए, नेता, प्रतिपक्ष, बिहार विधानसभा बने। दोनों में कभी कोई तक़रार ही नहीं था। हां, कर्पूरी जी पासवान और रामजीवन सिंह को फूटी आंख नहीं देखना चाहते थे।
कर्पूरी जी सही मायने में महान सोशलिस्ट नेता थे, निजी और सार्वजनिक जीवन, दोनों में उन्होंने उच्च मानदंड स्थापित किए थे। पर, उनका नाम बेचकर लालू को कोसने वाले लोग अलबेले ही हैं। ऐसे लोगों के लिए कृष्ण बिहारी ‘नूर’ ठीक ही फरमाते हैं:
अपने दिल की ही किसी हसरत का पता देते हैं
मेरे बारे में जो अफ़वाह उड़ा देते हैं।
वह पीढ़ी वाकई ख़ुशक़िस्मत है जो सच्चे समाजवादियों से रुबरू हुई है। जब पहली बार 52 में कर्पूरी जी विधायक बने, तो आस्ट्रिया जाने वाले प्रतिनिधि मंडल में उनका चयन हुआ था। उनके पास कोट नहीं था, किसी दोस्त से मांग कर गए थे। वहां मार्शल टीटो ने देखा कि कर्पूरी जी का कोट फटा हुआ है, तो उन्हें नया कोट गिफ़्ट किया गया। आज तो लोग दिन में दस बार पोशाक ही बदलते हैं। चाहे शिवराज पाटिल हों कि भाई नरेंद्र जी।
पिछले दिनों कर्पूरी जी के छोटे बेटे को सुन रहा था। वो बता रहे थे कि 74 में उनका मेडिकल की पढ़ाईके लिए चयन हुआ, पर वो बीमार पड़ गए। राममनोहर लोहिया हास्पिटल में भर्ती थे। हार्ट की सर्जरी होनी थी। इंदिरा जी को जैसे ही मालूम चला, एक राज्यसभा सांसद (जो पहले सोशलिस्ट पार्टी में ही थे, बाद में कांग्रेस ज्वाइन कर लिया) को भेजा और वहां से एम्स में भर्ती कराया। ख़ुद दो बार मिलने गईं। और कहा, “इतनी कम उम्र में तुम कैसे इतना बीमार पड़ गए? तुम्हें अमेरिका भेज देती हूँ, वहां अच्छे से इलाज़ हो जाएगा। सब सरकार वहन करेगी। फिर आकर पढ़ाई करना।” पर, जैसे ही ठाकुर जी को मालूम चला तो उन्होंने कहा कि हम मर जाएंगे पर बेटे का इलाज़ सरकारी खर्च पर नहीं कराएंगे। बाद में जेपी ने कुछ व्यवस्था कर न्यूज़ीलैंड भेजकर उनका इलाज़ कराया। अगले साल उन्होंने मेडिकल कालेज में दाखिला लिया। आज उनके बेटे-बेटी दोनों डाक्टर हैं, दामाद फोरेस्ट सर्विस में हैं, बाह्य आडंबर से कोसों दूर।
सचमुच, कर्पूरी जी ने अपने बच्चों को भी सदाचरण का पाठ पढ़ाया। कर्पूरा जी के अंदर कभी संचय-संग्रह की प्रवृत्ति नहीं रही। इसलिए, लोग आज भी उन्हें जननायक के नाम से जानती है।
पिछली पीढ़ी इसलिए भी ख़ुशनसीब है कि उसने कई उसूल वाले नेताओं को देखा है। और, हमारी नस्ल लेसर एविल को चुनने को मजबूर।
कर्पूरी जी जब मुख्यमंत्री थे तो उनके प्रधान सचिव थे यशवंत सिन्हा, जो आगे चलकर श्री चंद्रशेखर की सरकार में वित्त मंत्री एवं वाजपेयी जी की कैबिनेट में वित्त और विदेश मंत्री बने। एक दिन दोनों अकेले में बैठे थे, तो कर्पूरी जी ने सिन्हा साहब से कहा, “आर्थिक दृष्टिकोण से आगे बढ़ जाना, सरकारी नौकरी मिल जाना, इससे क्या यशवंत बाबू आप समझते हैं कि समाज में सम्मान मिल जाता है? जो वंचित वर्ग के लोग हैं, उसको इसी से सम्मान प्राप्त हो जाता है क्या? नहीं होता है”।
उन्होंने अपना उदाहरण दिया कि मैट्रिक में फर्स्ट डिविज़न से पास हुए। गांव के समृद्ध वर्ग के एक व्यक्ति के पास नाई का काम कर रहे उनके बाबूजी उन्हें लेकर गए और कहा कि सरकार, ये मेरा बेटा है, 1st डिविज़न से पास किया है। उस आदमी ने अपनी टांगें टेबल के ऊपर रखते हुए कहा, “अच्छा, फर्स्ट डिविज़न से पास किए हो? मेरा पैर दबाओ, तुम इसी क़ाबिल हो। तुम 1st डिविज़न से पास हो या कुछ भी बन जाओ, हमारे पांव के नीचे ही रहोगे।” यशवन्त सिन्हा पिछले दिनों एक कार्यक्रम में बोलते हुए कर्पूरी जी के साथ अपने पुराने अनुभव ताज़ा कर रहे थे, “ये है हमारा समाज। उस समय भी था, आज भी है। यही है समाज। हमारे समाज के मन में कूड़ा भरा हुआ है और इसीलिए यह सिर्फ़ आर्थिक प्रश्न नहीं है। हमको सरकारी नौकरी मिल जाए, हम पढ़-लिख जाएं, कुछ संपन्न हो जाएं, उससे सम्मान नहीं मिलेगा। सम्मान तभी मिलेगा जब हमारी मानसिकता में परिवर्तन होगा। जब हम वंचित वर्गों को वो इज़्ज़त देंगे जो उनका संवैधानिक-सामाजिक अधिकार है। और, इसके लिए मानसिकता में चेंज लाना बहुत ज़रूरी है”।
आगे यशवंत सिन्हा कहते हैं कि जब बात आई आरक्षण की, तो बहुत लोग विरोध में खड़े हुए। बहुत आसान है विरोध कर देना, लेकिन विरोध वैसे ही लोग कर रहे हैं जो चाहते हैं कि पुरानी जो सामाजिक व्यवस्था है, रूढ़िवादी व्यवस्था है, उसे आगे भी चलाया जाए। वो परिवर्तन के पक्ष में नहीं हैं।
कर्पूरी जी अक़्सर कहते थे, “यदि जनता के अधिकार कुचले जायेंगे तो आज-न-कल जनता संसद के विशेषाधिकारों को चुनौती देगी”। बतौर सदस्य, बिहार स्ट्युडेंट्स फेडरेशन, हाइस्कूल डेज़ में कृष्णा टाकीज़ हाल, समस्तीपुर में कर्परी जी ने छात्रों की एक सभा में कहा था, “हमारे देश की आबादी इतनी अधिक है कि केवल थूक फेंक देने भर से अंग्रेज़ी राज बह जाएगा”।
67 में जब पहली बार 9 राज्यों में गैरकांग्रेसी सरकारों का गठन हुआ तो महामाया प्रसाद के मंत्रिमंडल में कर्पूरी जी शिक्षा मंत्री और उपमुख्यमंत्री बने। उन्होंने मैट्रिक में अंग्रेज़ी की अनिवार्यता समाप्त कर दी और यह बाधा दूर होते ही कबीलाई-क़स्बाई-देहाती लड़के भी उच्चतर शिक्षा की ओर अग्रसर हुए, नहीं तो पहले वे मैट्रिक में ही घोलट जाते थे।
1970 में 163 दिनों के कार्यकाल वाली कर्पूरी जी की पहली सरकार ने कई ऐतिहासिक फ़ैसले लिए। 8वीं तक की शिक्षा उन्होंने मुफ़्त कर दी। उर्दू को दूसरी राजकीय भाषा का दर्ज़ा दिया। 5 एकड़ तक की ज़मीन पर मालगुज़ारी खत्म किया।
फिर जब 77 में दोबारा मुख्यमंत्री बने तो एस-एसटी के अतिरिक्त ओबीसी के लिए आरक्षण लागू करने वाला बिहार देश का पहला सूबा था। 11 नवंबर 1978 को महिलाओं के लिए 3 % (इसमें सभी जातियों की महिलाएं शामिल थीं), ग़रीब सवर्णों के लिए 3 % और पिछडों के लिए 20 % यानी कुल 26 % आरक्षण की घोषणा की। कर्पूरी जी को बिहार के शोषित लोगों ने इस कदर सर बिठाया कि वे कभी चुनाव नहीं हारे। अंतिम सांस लालू जी की गोद में ली। इतने सादगीपसंद कि जब प्रधानमंत्री चरण सिंह उनके घर गए तो दरवाज़ा इतना छोटा था कि चौधरी जी को सर में चोट लग गई। चरण सिंह ने कहा, “कर्पूरी, इसको ज़रा ऊंचा करवाओ।”
ठाकुर जी बोलते थे कि जब तक बिहार के ग़रीबों का घर नहीं बन जाता, मेरा घर बन जाने से क्या होगा? राष्ट्रीय राजनीति में भी इतनी पैठ कि संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (संसोपा) के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी रहे।
कर्पूरी जी ने कभी भी संसद या विधानसभा को फॉर ग्रांटिड नहीं लिया। वे जब भी सदन में अपनी बात रखते थे, पूरी तैयारी के साथ, उनकी गरिमापूर्ण अभिव्यक्ति से समूचा सदन लाभान्वित होता था। उन्होंने कभी किसी से सियासी कटुता नहीं रखी। मेरा आरंभ से मानना रहा है कि बिहार में जननेता अगर कोई हुए, तो सिर्फ़ दो शख़्सियत – एक कर्पूरी जी, और दूसरे लालू जी। दोनों के पीछे जनता गोलबंद होती थी। कर्पूरी जी सादगी के पर्याय थे, कहीं कोई आडंबर नहीं, कोई ऐश्वर्य-प्रदर्शन नहीं। वे लोकराज की स्थापना के हिमायती थे और सारा जीवन उसी में लगा दिया। 17 फरवरी 1988 को अचानक तबीयत बिगड़ने से उनका देहांत हो गया। आज उन्हें एक जातिविशेष के दायरे में महदूद कर देखा जाता है। जबकि उन्होंने रुग्ण समाज की तीमारदारी को अपने जीवन का मिशन बनाया। उन्हें न केवल राजनैतिक, बल्कि सामाजिक, शैक्षणिक व सांस्कृतिक चेतना के प्रसार की भी बड़ी चिंता थी। वे समस्त मानवता की हितचिंता करने वाले भारतीय समाज के अनमोल प्रहरी थे। ऐसे कोहिनूर कभी मरा नहीं करते! कृष्ण बिहारी ने ठीक ही कहा:
अपनी रचनाओं में वो ज़िंदा है
नूर संसार से गया ही नहीं।
जयन्त जिज्ञासु
शोधार्थी, सेंचर फॉर मीडिया स्टडीज़, स्कूल ऑफ सोशल साइंसेज़, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली
अब लगता है कि डार्विन को लेकर गंभीर माहौल बनेगा। पहले महसूस हुआ था कि मानव संसाधन राज्यमंत्री सत्यपाल सिंह ने विकासवाद के विरुद्ध जोश में कहा है। वेदों के प्रति रूढ़िवादियों के स्वाभाविक आग्रह की तरह उनके बयान को देखा। पर आईआईटी गुवाहाटी में कल उन्होंने फिर दोहराया कि वानर से नर का विकास नहीं हुआ क्योंकि हमारे पूर्वजों ने ऐसा होते नहीं देखा। वे इस विषय पर वैज्ञानिकों का अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन करने वाले हैं जहाँ विकासवाद और सनातनवाद के बीच अंतिम फ़ैसला होगा। इसलिए अब यह विषय हल्का या सरल नहीं रह गया है।
यदि विकास नहीं होता, सब कुछ सनातन है तो मानना चाहिए कि सूरज से पृथ्वी नहीं बनी; न कोई ग्रह या नक्षत्र उतपन्न होता है, न नष्ट; मनुष्य को ईश्वर ने बनाकर एक ही बार में उपस्थित कर दिया; न कोई नयी प्राणी-प्रजाति जन्म लेती है, न विलुप्त होती है।
यदि ऐसा है तो गीता का ज्ञान निरर्थक है क्योंकि कृष्ण वहाँ सृष्टि के उद्भव, विकास और विलीन होने का विस्तृत वर्णन करते हैं। पुराणों में भी चार युगों की कल्पना है और ये चारों युग बार-बार आते हैं। यानी, हर बार नये सिरे से सृष्टि का जन्म, विकास और विनाश होता है।
अब, यह भी किसी ने नहीं देखा कि पहली सृष्टि कैसी थी, अब की सृष्टि उससे कितनी भिन्न या समान है? सृष्टि का रचयिता स्वयं कैसा है? पिछली सृष्टि के मनुष्यों ने उसका कौन सा स्वरूप माना था? सब कुछ नष्ट होने के बाद नये सिरे से शुरू हुआ है!
हिंदू पुराणकथाओं में ब्रह्मा ने सृष्टि बनायी लेकिन उनसे पहले बाज और हाथी जैसे अनेक प्राणी थे। ब्रह्मा ने शिव को नहीं बनाया, वे आदिदेव हैं और अपनी पुत्री उषा से पहले-पहल व्यभिचार करने पर वे ब्रह्मा को अपने धनुष से एक तीर मारते हैं जिससे उनकी जाँघ पर घाव हो जाता है। अर्थात् सृष्टि के अनेक प्राणी और समाज के अनेक नियम पहले से मौजूद थे। तब ब्रह्मा ने कौन सी सृष्टि बनायी?
मनुष्य रूपी ईश्वर ने ईसाइयों की सृष्टि भी बनायी। आदम-हौवा की कहानी बताने की ज़रूरत नहीं है। जैसे आदिसृजनकर्ता ब्रह्मा का कार्य अनैतिक था, उसी तरह आदम-हौवा का ज्ञान-फल चखना भी अमान्य था। पर दैवी संसार से मानवीय संसार तब अलग हुआ जब ज्ञान का फल चखा गया! (हम वापस अज्ञान की तरफ़ जाने को क्यों व्याकुल हैं?)
सभी धार्मिक कथाएँ विकास का एक स्वरूप प्रस्तुत करती हैं। पर हमारे वेद—ऋग्वेद— में क्रमिक विकास का भरा-पूरा वर्णन है। यह एक बार भी नहीं कहा गया कि हम ज्ञान की पराकाष्ठा पर पहुँच गये हैं, हमारे बाद कोई नया विकास नहीं होगा!! लेकिन हमारे कूढ़मगज़ राजनीतिज्ञ केवल वेदों और पुरखों की माला जपते हैं, समाज को पीछे ढकेलने के लिए क्योंकि वे जनता की वर्तमान समस्याएँ सुलझा नहीं सकते। देश में आय की असमानता इतनी बढ़ गयी है कि पिछले एक साल में कुल राष्ट्रीय आय में से 73% आय केवल 1% लोगों के पास गयी है और 80% लोगों के हाथ केवल 1% आय आयी है। केवल धनिकों की सेवा करने वाले राजनीतिज्ञ ऐसे भड़कावे वाले और अज्ञानमूलक विषय उठाकर लोगों को भरमाते, भटकाते और लड़ाते हैं ताकि विषमता पर लोगों का ध्यान न जाय। हम सब लेखकों और बुद्धिजीवियों का कर्तव्य है कि इस नीति और तिकड़म को समझें और लोगों को इसे समझने में सहायता करें।